Monday, October 14, 2019

पुलिनबाबूःएक जनप्रतिबद्ध यायावर की आधी अधूरी कथा

पुलिनबाबूःएक जनप्रतिबद्ध यायावर की आधी अधूरी कथा
पलाश विश्वास
पुलिनबाबू मेरे पिता का नाम है।उनके जीते जी मैं उन्हें कभी नहीं समझ सका। उनके देहांत के बाद जिनके लिए वे तजिंदगी जीते रहे, खुद उनके हकहकूक के लिए देशभर के शरणार्थी आंदोलनों से उलझ जाने की वजह से उनके कामकाज के तौर तरीके की व्यवाहारिकता अब थोड़ा समझने लगा हूं।
पुलिनबाबू चरित्र से यायावर थे लेकिन किसान थे और किसानों के नेता थे। वे हवा हवाी नहीं थे और उनके पांव मजबूती से तराई की जमीन से लेकर उत्तराखंड के पहाड़ों पर जमे हुए थे।वे जड़ों से जुड़े हुए इंसान थे और जड़ों से कटे हुए मुझ जैसे इंसान के लिए उन्हें समझना बहुतआसान नहीं रहा है।मेहनतकशों के हकहकूक के लिए वे जाति ,धर्म और भाषा की कोई दीवार नहीं मानते थे।
फिरभी वे शरणार्थियों के देशभर में निर्विवाद नेता थे।विभाजन पीड़ित ऐसे एकमात्र शरणार्थी नेता जिन्होंने मुसलमानों को भारत विभाजन के लिए कभी जिम्मेदार नहीं माना और उत्तर प्रदेश और अन्यत्र भी वे बेझिझक दंगापीड़ित मुसलमानों के बीच जाते रहे जैसे वे देश भर में शरणार्थियों के किसी भी संकट के वक्त आंधी तूफान कैंसर वगैरह वगैरह की परवाह किये बिना भागते रहे आखिरी सांस तक।वे जोगेन मंडल के अनुयायी बने रहे आजीवन,जबकि बंगाल में जोगेन मंडल को विभाजन का जिम्मेदार माना जाता है।
उन्होंने भारत विभाजन कभी नहीं माना और जब चाहा तब बिना पासपोर्ट और बिना वीसा सीमा पार करते रहे तो किसीने उन्हें रोका भी नहीं।मेरे लिए बिना पासपोर्ट और बिना वीसा सीमापार जाना संभव नहीं है और पिता के उस अखंड भारत की राजनीतिक सीमाओं को भी मानना संभव नहीं है।उन्होंने मरत दम तक इस महादेश को अखंड माना तो हमारे लिए खंड खंड देश स्वीकार करना भी मुश्किल है।
भारत विभाजन उन्होंने नहीं माना लेकिन पूर्वी बंगाल से खदेड़े गये तमाम शरणार्थियों को उन्होंने जाति धर्म भाषा लिंग निर्विशेष जैसे अपना परिजन माना वैसे ही उन्होंने पश्चिम पाकिस्तान से आये सिख पंजाबी शरणार्थियों को भी अपने परिवार में शामिल माना।उन्हींकी वजह से तराई और पहाड़ के गांव गांव में हमें इतना प्यार मिलता रहा है।पहाड़ के लोगों को उन्होंने हमेशा शरणार्थियों से जोड़े रखने की कोशिश की है और कुल मिलाकर यही उनकी राजनीति रही है।पहाड़ से हमारे रिश्ते की बुनियाद भी यही है।जो कभी टस से मस नहीं हुई है।
पुलिनबाबू अखंड भारत के हर हिस्से को अपनी मातृभूमि मानते थे और मनुष्यता की हर भाषा को अपनी मातृभाषा मानते थे।वे आपातकाल में भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दफ्तर में बेहिचक घुस जाते थे और जब तक जीवित रहे हर राष्ट्रपति, हर प्रधानमंत्री ,हर मुख्य.मंत्री,विपक्ष के हर नेता के साथ उनका संवाद जारी था।
सर्वोच्च स्तरों पर संपर्कों के  बावजूद अपने और अपने परिवार के हित में उन संबंधों को उन्होंने कभी भुनाया नहीं।वे हमारे लिए टूटे फूटे छप्परोंवाले घर छोड़ गये और आधी जमीन आंदोलनों में खपा गये।हम भी उनकी कोई मदद नहीं कर सके। इसलिए उनसे कोई शिकायत हमारी हो नहीं सकती।हम सही मायने में उनके जीते जी न उनका जुनून समझ सकें और न उनका साथ दे सकें। फिरभी हम ऐसा कुछ भी कर नहीं सकते,जिससे उनके अधूरे मिशन को कोई नुकसान हो।कमसकम इतना तो हम कर ही सकते हैं और वही कोशिश हम कर रहे हैं।
उनका कहना था कि हर हाल में सर्वोच्च स्तर पर हमारी सुनवाई सुनिश्चित होनी चाहिए ।उनका कहना था कि इन दबे कुचले लोगों का काम हमें खुद ही करना है।हमारी योग्याता न हो तो हमें अपेक्षित योग्यताएं हासिल करनी चाहिए। संसाधनों के बारे में उनका कहना था कि जनता के लिए जनता के बीच काम करोगे तो संसाधनों की कोई कमी होगी नहीं।जुनून की हद तक आम जनता की हर समस्या से टकराना उनकी आदत थी।उन्होंने सिर्फ शरणार्थियों के बारे में कभी सोचा नहीं है।उनका मानना था कि स्थानीय तमाम जन समुदायों के साथ मिलकर ही शरणार्थी अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं।शरणार्थियों को बाकी समुदायों से जोड़ते रहना उनका काम था।
पुलिनबाबू अलग उत्तराखंड राज्य के तब पक्षधर थे जब उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ता की हैसियत से हम अलग राज्य की मांग बेमतलब मानते थे।वे पहाड़ और तराई के हकहकूक के लिए अलग राज्य अनिवार्य मानते थे।वे मानते थे कि उत्तराखंड में अगर तराई नहीं रही तो यूपी में बिना पहाड़ के समर्थन के तराई में बंगाली शरणार्थियों को बेदखली से बचाना असंभव है।तराई और पहाड़ को भूमाफिया के शिकंजे से बचाने के लिए वे हिमालय के साथ तराई को जोड़े रखने का लक्ष्य लेकर हमेशा सक्रिय रहे।यह मोर्चाबंदी उन्हें हमेशा सबसे जरुरी लगती रही है।
वे हिमालय को उत्तराखंड और यूपी में बसे बंगाली शरणार्थियों का रक्षाकवच और संजीवनी दोनों मानते थे।उनका यह नजरिया महतोष मोड़ आंदोलन के वक्त तराई के साथ पूरे पहाड़ के आंदोलित होने से जैसे साबित हुआ वैसे ही अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पुलिन बाबू के देहांत के तुरंत बाद सत्ता में आयी पहली केसरिया सरकार के तराई के बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता छीनने के खिलाफ पहाड़ और तराई की आम जनता के शरणार्थियों के पक्ष में खड़े हो जाने के साथ हुएकामयाब आंदोलन के बाद से लेकर अब तक वह निरंतरता जारी है।
मैंने आजीविका और नौकरी की वजह से 1979 में नैनीताल और पहाड़ छोड़ा, लेकिन पुलिनबाबू का उत्तराखंड के राजनेताओं के अलावा जनपक्षधर कार्यकर्ताओं जैसे शेखर पाठक,राजीव लोचन साह और गिरदा से संबंध 2001 में उनकी मौत तक अटूट रहे।कभी भी किसी भी मौके पर वे नैनीताल समाचार के दफ्तर जाने से हिचके नहीं।न हमारे पुराने तमाम साथियों से उनके संवाद का सिलसिला कभी टूटा।
पुलिनबाबू हर हाल में पहाड़ और तराई के नाभि नाल का संबंध अपने बंगाली और सिख शरणार्थियों,आम किसानों,बुक्सा थारु आदिवासियों के हक हकूक की लड़ाई और पहाड़ के आम लोगों के हितों के लिए बनाये रखने के पक्ष में थे।उन्हीं की वजह से पहाड़ से हमारा रिश्ता न कभी टूटा है और न टूटने वाला है।
तराई के भूमि आंदोलन में पुलिनबाबू किंवदंती हैं और हमेशा तराई में भूमिहीनों, किसानों और शरणार्थियों की जमीन,जान माल की हिफाजत के लिए वे पहाड़ और तराई की मोर्चाबंदी अनिवार्य मानते थे।इसके लिए उन्होंने गोविंद बल्लभ पंत और श्याम लाल वर्मा से लेकर डूंगर सिंह बिष्ट,प्रताप भैय्या,रामदत्त जोशी और नंदन सिंह बिष्ट तक हर पहाड़ी नेता के साथ काम करते रहे और आजीवन उनकी खास दोस्ती नारायणदत्त तिवारी और केसी पंत से बनी रही।
सत्ता की राजनीति से उनके इस तालमेल का मैं विरोधी रहा हूं हमेशा जबकि उनका कहना था कि विचारधारा से क्या होना है, जब हम अपने लोगों को बचा नहीं सकते।अपने लोगों को बचाने के लिए बिना किसी राजनीति या संगठन वे अकेले दम समीकरण साधते और बिगाड़ते रहे हैं।जिन लोगों के साथ वे खड़े थे,उनके हित उनके लिए हमेशा सर्वोच्च प्राथमिकता पर होते थे।
हम इसे मौकापरस्ती मानते रहे हैं और वोटबैंक राजनीति के आगे आत्मसमर्पण भी मानते रहे हैं।वैचारिक भटकाव और विचलन भी मानते रहे हैं।इस वजह से उनके आंदोलनों में हमारी खास दिलचस्पी कभी नहीं रही है।इसके विपरीत,उनके समीकरण के मुताबिक तराई के हकहकूक के लिए पहाड़ के हकूकूक की साझा लड़ाई और भू माफिया के खिलाफ राजनीतिक गोलबंदी जरुरी थी।वे तराई के बड़े फार्मरों के खिलाफ हैरतअंगेज ढंग से तराई के सिखों,पंजाबियों,बुक्सों और थारुओं, देशियों और मुसलमानों को गोलबंद करने में कामयाब रहे थे।
ढिमरी ब्लाक की लड़ाई पुलिनबाबू  बेशक हार गये थे और उनके तमाम साथी टूट और बिखर गये थे लेकिन उन्होंने हार कभी नहीं मानी और आखिरी दम तक वे ढिमरी ब्लाक की लड़ाई लड़ रहे थे।
अब जबकि तराई के अलावा उत्तराखंड का चप्पा चप्पा भूमाफिया के शिकंजे में कैद है और उसका कोई प्रतिरोध शायद इसलिए नहीं हो पा रहा है कि पहाड़ और तराई की वह मोर्चाबंदी नहीं है,जिसे वे हर कीमत पर बनाये रखना चाहते थे ,ऐसे में उनकी पहाड़ के साथ तराई की मोर्चाबंदी की राजनीति समझ में आने लगी है,जिसके लिए उन्होंने तराई में,खास तौर पर बंगाली शरणार्थियों के विरोध की परवाह भी नहीं की।
उनकी इस रणनीति की प्रासंगिकता अब समझ में आती है कि कैसे बिना राजनीतिक प्रतिनिधित्व के वे न सिर्फ अपने लोगों की हिफाजत कर रहे थे बल्कि शरणार्थी इलाकों के विकास की निरंतरता बनाये रखने में भी कामयाब थे।उनके हिसाब से यह उनकी व्यवहारिक राजनीति थी,जो हमारी समझ से बाहर की चीज रही है।वे हमेशा कहते थे जमीन पर जनता के बीच रहे बिना और उनके रोजमर्रे के मुद्दों से टकराये बिना विचारधारा का किताबी ज्ञान कोई काम नहीं आता।हम उनसे वैचारिक बहस करने की स्थिति ही नहीं बना पाते थेक्योंकि वे विचारों पर नहीं,मुद्दों पर बात करते थे।हम अपनी विश्वविद्यालयी शिक्षा के अहंकार में समझते थे कि विचारधारा पर बहस करने के लिए जरुरी शिक्षा उनकी नहीं है।
पुलिनबाबू अंबेडकर और कार्ल मार्क्स की बात एक साथ करते थे और यह भी कहते थे कि नागरिकता छिनने की स्थिति में किसी शरणार्थी की न कोई जाति होती है और न उसका कोई धर्म होता है जैसे उसकी कोई मातृभाषा भी नहीं होती है।वे अस्मिता राजनीति के विरुद्ध थे और एक मुश्त कम्युनिस्ट और वामपंथी दोनों थे लेकिन मैनें उन्हें कभी किसी से कामरेड या जयभीम कहते कभी नहीं सुना।
हमारे तमाम पुरखों की तरह उनके बारे में कोई आधिकारिक संदर्भ और प्रसंग उपलब्ध नहीं हैं।पुलिनबाबू नियमित डायरी लिखा करते थे।रोजाना सैकड़ों पत्र और ज्ञापन राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को देशभर के शरणार्थियों,किसानों और मेहनतकशों की तमाम समस्याओं को लेकर दुनियाभर के समकालीन मुद्दों पर लिखा करते थे।
वे पारिवारिक कारणों से स्कूल में कक्षा दो तक ही पढ़ सके थे और पूर्वी बंगाल में तेज हो रहे तेभागा आंदोलन के मध्य भारत विभाजन से पहले रोजगार की तलाश में बंगाल आ गये थे।फिरभी आजीवन वे तमाम भाषाओं को सीखने की कोशिश में लगे रहे। तमाम पत्र और ज्ञापन वे हिंदी में ही लिखा करते थे और मेरे कक्षा दो पास करते न करते उन पत्रों और ज्ञापनों का मसविदा मुझे ही तैयार करना होता था।इससे मेरे छात्र जीवन तक देश भर में उनकी गतिविधियों में मेरा साझा रहा है।लेकिन भारत विभाजन से पहले और उसके बाद करीब सन 1960 तक की अवधि के दौरान जो घटनाएं हुई, वे जाहिर है कि मेरी स्मृतियों में दर्ज नहीं हैं।
उनके बारे में उनके साथियों से ही ज्यादा जानना समझना हुआ है और वह जानकारी भी बहुत आधी अधूरी है।
मसलन हम अब तक यही जानते रहे हैं कि 1956 में  बंगाली विस्थापितों के पुनर्वास के लिए रुद्रपुर में हुए आंदोलन के सिलसिले में दिनेशपुर की आम सभा में उन्होंने कमीज उतारकर कसम खाई ती कि जब तक एक भी शरणार्थी का पुनर्वास बाकी रहेगा,वे फिर कमीज नहीं पहनेंगे।उन्होंने मृत्युपर्यंत कमीज नहीं पहनी।पिछले दिनों कोलकाता के दमदम में निखिल भारत उद्वास्तु समन्वय समिति के 22 राज्यों के  प्रतिनिधियों के कैडर कैंप में बांग्ला के साहित्यकार कपिल कृष्ण ठाकुर ने कहा कि बंगाल और उड़ीशा में शरणार्थी आंदोलन के नेतृत्व की वजह से वे सत्ता की आंखों में किरकिरी बन गये थे और उन्हें और उनके साथियों को खदेड़कर नैनीताल की तराई में भेज दिया गया था।तराई जाने से पहले बंगाल छोड़ते हुए हावड़ा स्टेशन के प्लेटफार्म पर शरणार्थियों के हुजूम के सामने उन्होंने कमीज उतारकर उन्होंने यह शपथ ली थी।
इसी तरह ढिमरी ब्लाक में चालीस गांव बसाने और हर भूमिहीन किसान परिवार को दस दस एकड़ बांटने के आंदोलन और उसके सैन्य दमन के बारे में उस आंदोलन में उनके साथियों के कहे के अलावा हमें आज तक कोई दस्तावेज वगैरह बहुत खोजने के बाद भी नहीं मिले हैं।
पूर्वी बंगाल में वे तेभागा आंदोलन से जुड़े थे तो भारत विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल में भाषा आंदोलन के दौरान ढाका में आंदोलन में शामिल होने के लिए वे जेल गये और फिर बांग्लादेश बनने के बाद दोनों बंगाल के एकीकरण की मांग लेकर भी वे ढाका में आंदोलन करने के कारण जेल गये।दोनों मौकों पर बंगाल के मशहूर पत्रकार और अमृत बाजार पत्रिका के संपादक तुषार कांति घोष उन्हें आजाद कराकर भारत ले आये।तुषार बाबू की मृत्यु से पहले भी पुलिनबाबू ने बारासात में उनके घर जाकर उनसे मुलाकात की थी और देवघर के सत्संग वार्षिकोत्सव में मैंने 1973 में तुषार बाबू और पुलिनबाबू को एक ही मंच को साझा करते देखा था लेकिन तुषारबाबू से हमारी कोई मुलाकात नहीं हुई।
इसी तरह बलिया के स्वतंत्रता सेनानी दिवंगत रामजी त्रिपाठी ने पुलिनबाबू की  चंद्रशेखर से मित्रता की वजह सुचेता कृपलानी के मुख्यमंत्रित्व काल में पूर्वी पाकिस्तान से दंगों की वजह से भारत आये शरणार्थियों के पुनर्वास की मांग लेकर पुलिनबाबू ने जो लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर तीन दिनों तक ट्रेनें रोक दी थी,उस आंदोलन को बताते रहे हैं।इसका कोई ब्यौरा नहीं मिल सका।चंद्रशेखर से उनका परिचय तभी हुआ।
1960 में असम में दंगों के मध्य जब शरणार्थी खदेड़े जाने लगे तो पुलिनबाबू ने दंगाग्रस्त कामरुप,ग्वालपाड़ा, नौगांव, करीमगंज से लेकर कछाड़ जिले में सभी शरणार्थी इलाकों में डेरा डालकर महीनों काम किया और असम सरकार और प्रशासन की मदद से शरणार्थियों का बचाव तो किया ही, शरणार्थियों से  पुलिनबाबू ने यह भी कहा कि भारत विभाजन के बाद शरणार्थी जहां भी बसे हैं,वही उनकी मातृभूमि हैं और उन्हें स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर वहीं रहना है।किसी कीमत पर यह नई मातृभूमि नहीं छोड़नी है।
हमने सत्तर के दशक में मरीचझांपी आंदोलन के दौरान मध्य भारत के दंडकारण्य, महाराष्ट्र और आंध्र तक में शरणार्थियों को बंगाल लौटने के इस आत्मघाती आंदोलन के खिलाफ उनकी यही दलील सुनी है,जिसके तहत असम,उत्तर प्रदेश या उत्तराखंड के शरणार्थियों ने उस आंदोलन का समर्थन नहीं किया और वे मरीचझांपी नरसंहार से बच गये।लेकिन वे मध्यभारत के शरणार्थियों को मरीचझांपी जाने से रोक नहीं पाये।बल्कि उस आंदोलन के वक्त इस आंदोलन की वजह से रायपुर के माना कैंप में उनपर कातिलाना हमला भी हुआ,जिससे वे बेपरवाह थे।
त्रिपुरा के दिवंगत शिक्षा मंत्री और कवि अनिल सरकार के साथ गुवाहाटी से मालेगांव अभयारण्य के रास्ते शरणार्थी इलाकों में रुककर हर गांव में 2003 में पुलिनबाबू की मृत्यु के दो साल बाद उन गांवों की नई पीढ़ियों की स्मृति में उनका वही बयान हमने सुना है।तब लगा कि जनता की स्मृति इतिहास और दस्तावेजों से कही ज्यादा स्थाई चीज है। तराई में भले ही लोग उन्हें भूल गये हों,असम में लोग उन्हें अब भी याद करते हैं।उनकी वजह से देश भर के शरणार्थी मुझे जानते हैं।
विडंबना यह है कि हमारे पुराने घर में उनका लिखा सबकुछ,उनकी डायरियां तक ऩष्ट हो गया है रखरखाव के अभाव में।इसके लिए काफी हद तक मेरी भी जिम्मेदारी है।उनके पुराने साथी कामरेड पीसी जोशी,कामरेड हरीश ढौंढियाल,कामरेड चौधरी नेपाल सिंह वगैरह का भी ढिमरी ब्लाक पर लिखा कुछ उपलब्ध नहीं है।जेल में सड़कर मर गये बाबा गणेशा सिंह के परिवार के पास भी कुछ नहीं है।
तराई और पहाड़ में पहले भूमि आंदोलन ढिमरी ब्लाक नाकाम जरुर रहा लेकिन इसके बाद बिंदु खत्ता में उसी ढांचे पर भूमिहीनों को जमीन मिल सकी है।ढिमरी ब्लाक की निरंतरता में बिंदु खत्ता और उसके आगे जारी है।जबकि पहाड़ और तराई में अब भी किसानों को सर्वत्र भूमिधारी हक मिला नहीं है और जल जंगल जमीन से बेदखली अभियान जारी है।जो पहले तराई में हो रहा था,वह अब व्यापक पैमाने में पहाड़ में संक्रामक है।आजीविका,पर्यावरण और जलवायु से भी पहाड़ बेदखल है।
पुलिन बाबू को जिंदगी में कुछ हासिल हुआ नहीं है और न हम कुछ खास कर सके हैं।पुलिनबाबू के दिवंगत होने के बाद पंद्रह साल बीत गये हैं और तराई और पाहड़ के लोगों को अब इसका कोई अहसास ही नहीं होगा कि पहाड़ और मैदान के बीच सेतुबंधन का कितना महत्वपूर्ण काम वे कर रहे थे।यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पृथक उत्तराखंड होने के बाद पहाड़ से तराई का अलगाव हो गया है और यह उत्तराखंड के वर्तमान और भविष्य लिए बेहद खतरनाक है।
पुलिनबाबू के संघर्ष के मूल में तराई के विभिन्न समुदायों के साथ पहाड़ के साझा आंदोलन मेहनतकशों के हकहकूक के लिए सबसे खास है और फिलहाल हम उस विरासत से बेदखल हैं।
पुलिनबाबू की स्मृतियों की साझेदारी,अपनी यादों और देशभर में उनके आंदोलन के साथियों और मित्रों के कहे मुताबिक पुलिनबाबू के जीवन के बारे में जो जानकारियां हमें अबतक मिली हैं,हम उसे साझा कर रहे हैं।इसे लेकर हमारा कोई दावा नहीं है।इस जानकारी को संशोधित करने की गुंजाइश बनी रहेगी।जो उनके बारे में बेहतर जानते हैं,बहुत संभव है कि हमारा संपर्क उनसे अभी हुआ नहीं है।बहरहाल हमारे पास जो भी जानकारी उपलब्ध है,हम बिंदुवार वही साझा कर रहे हैं।
हमारे पुरखे बुद्धमय बंगाल के उत्तराधिकारी थे जो बाद में नील विद्रोह के मार्फत मतुआ आंदोलन के सिपाही बने,जिसकी निरंतरता तेभागा आंदोलन तक जारी थी।भारत विभाजन के दौरान मेरे ताउ दिवंगत अनिल विश्वास और चाचा डा.सुधीर विश्वास बंगाल पुलिस में थे और कोलकाता में डाइरेक्ट एक्शन के वक्त दोनों ड्यूटी पर थे।लेकिन पुलिनबाबू विभाजन से पहले पूर्वी बंगाल में तेभागा में शामिल थे और उसी सिलसिले में वे विभाजन से पहले भारत आ गये और बारासात के नजदीक दत्तोपुकुर में एक सिनामा हाल में वे गेटकीपर बतौर काम कर रहे थे।
हमारा पुश्तैनी घर पूर्वी बंगाल के जैशोर जिले के नड़ाइल सबडिवीजन के लोहागढ़ थाना के कुमोरडांगा गांव रहा है जो मधुमती नदी के किनारे पर बसा है और जिसके उसपार फरीदपुर जिले का गोपालगंज इलाका और मतुआकेंद्र ओड़ाकांदि है।पुलिनबाबू के पिता का नाम उमेश विश्वास है।दादा पड़दादा का नाम उदय और आदित्य है।जो आदित्य और उदय भी हो सकते हैं।उमेश विश्वास के तीन और भाई थे।उनके बड़े भाई कैलास विश्वास जो मशहूर लड़ाके थे।भूमि आंदोलन के लड़ाके।
उमेश विश्वास के मंझले भाई का नाम याद नहीं है जबकि उन्हींका पुलिनबाबू पर सबसे ज्यादा असर रहा है।पुलिनबाबू मेरे बचपन में उन्हींके किस्सा सुनाते रहे हैं,जो पूरे इलाके में हिंदू मुसलमान किसानों के नेता थे।कालीपूजा की रात वे काफिला के साथ नाव से किसी पड़ोस के गांव जा रहे थे कि घर से निकलते ही उन्हें जहरीले सांप ने काट लिया।उन्हें बचाया नहीं जा सका और उनके शोक में तीन महीने के भीतर हमारे दादा उमेश विश्वास का भी देहांत हो गया।
उस वक्त पुलिनबाबू कक्षा दो में पढ़ रहे थे तो ताउजी कक्षा छह में।जल्दी ही कैलाश विश्वास का भी निधन हो गया और बाकी परिवार वालों ने उन्हें संपत्ति से बेदखल कर दिया,जिससे आगे उनकी पढ़ाई हो नही सकी।पुलिनबाबू के चाचा इंद्र विश्वास विभाजन के वक्त जीवित थे ।उन्होंने और बाकी परिवार वालों ने संपत्ति के बदले मालदह,नदिया और उत्तर 24 परगना में जमीन लेकर नई जिंदगी शुरु की।
हमारी दादी अकेली इस पार चली आयी हमारे फुफेरे भाई निताई सरकार के साथ जो बाद में नैहाटी के बस गये।पुलिनबाबू मां के साथ रानाघाट कूपर्स कैंप में चले गये,जहां उनके साथ ताउ ताई और चाचा जी भी रहे।
रानाघाट में ही वे शरणार्थी आंदोलन में शामिल हो गये।1950 के आसपास शरणार्थियों को कूली कार्ड देकर  दार्जिलिंग के चायबागानों में खपाने के लिए जब ले जाया गया ,तब सिलिगुड़ी में पुलिनबाबू ने इसके खिलाफ आंदोलन किया तो उन सबको फिर लौटाकर रानाघाट लाया गया।तब कम्युनिस्ट शरणार्थियों को बंगाल से बाहर भेजने के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे।पुलिनबाबू भी कम्युनिस्ट थे और उस वक्त कामरेड ज्योति बसु से लेकर तमाम छोटे बड़े कम्युनिस्ट नेता शरणार्थी आंदोलन में थे।शरणार्थी आंदोलनतब क्मुनिस्ट आंदोलन ही था।
पुलिन बाबू ने नई मांग उठा दी कि बेशक शरणार्थियों को बंगाल के बाहर पुनर्वास दिया जाये लेकिन उन सभीको एक ही जगह मसलन अंडमान या दंडकारण्य में बसाया जाये ताकि वे नये सिरे से अपना होमलैंड बसा सकें।
कामरेड ज्योति बसु और बाकी नेता शरणार्थियों को बंगाल के  बाहर भेजने के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे।जब पुलिनबाबू ने कोलकाता के केवड़ातला महाश्मसान में शरणार्थियों के बंगाल के बाहर होमलैंड बनाने की मांग पर आमरण अनशन पर बैठ गये तो कामरेडों के साथ उनका सीधा टकराव हो गया और वे और उनके तमाम साथी ओड़ीशा में कटक के पास खन्नासी रिफ्युजी कैंप में भेज दिये गये।
1951 में खन्नासी रिफ्युजी कैंप में ताउजी और चाचाजी उनके साथ थे। खन्नासी कैंप में रहते हुए पुलिनबाबू का विवाह ओड़ीशा के ही बालेश्वर जिले के बारीपदा में व्यवसायिक पुनर्वास के तहत बसे बरिशाल जिले से आये वसंत कुमार कीर्तनिया की बेटी बसंतीदेवी के साथ हो गया।
इसी बीच ताउजी का पुनर्वास संबलपुर में हो गया।तभी पुलिनबाबू और उनके साथियों को 1953 के आसपास नैनीताल जिले की तराई में दिनेशपुर इलाके में भेज दिया गया।बाद में पुलिनबाबू ने संबलपुर से ताउजी को भी दिनेशुपर बुला लिया।
जो लोग रानाघाट से होकर खन्नासी तक पुलिनबाबू के साथ थे,वे तमाम लोग उनके साथ दिनेशपुर चले आये ,जहां पहले ही तैतीस कालोनियों में शरणार्थी बस चुके थे।पुलिनबाबू और उनके साथी विजयनगर कालोनी में तंबुओं में ठहरा दिये गये।
इसी बीच 1952 के आम चुनाव में लखनऊ से वकालत पास करके श्याम लाल वर्मा को हराकर नारायणदत्त तिवारी एमएलए बन गये।वे 1954 में ही दिनेशपुर पहुंच गये और लक्ष्मीपुर बंगाली कालोनी पहुंचकर वे सीधे शरणार्थी आंदोलन में शामिल हो गये।तभी से पुलिनबाबू का उनसे आजीवन मित्रता का रिश्ता रहा है।
1954 में ही तराई उद्वास्तु समिति बनी।जिसके अध्यक्ष थे राधाकांत राय और महासचिव पुलिनबाबू।उद्वास्तु समिति की ओर से दिनेशपुर से लंबा जुलूस निकालकर शरणार्थी स्त्री पुरुष बच्चे बूढ़े रुद्रपुर पहुंचे।
पुलिस की घेराबंदी में उनका आंदोलन जारी रहा।इसी आंदोलन के दौराम स्वतंत्र भारत,पायोनियर और पीटीआी के बरेली संवाददाता एन एम मुखर्जी के मार्फत प्रेस से पुलिनबाबू के ठोस संबंध बन गये और प्रेस से अपने इसी संबंध के आधार पर आजीवन सर्वोच्च सत्ता प्रतिष्ठान से संवाद जारी रखा।रुद्रपुर से शरणार्थियों को जबरन उठाकर ट्रकों में भर कर किलाखेड़ा के घने जंगल में फेंक दिया गया,जहां से वे पैदल दिनेशपुर लौटे।लेकिन इस आंदोलन की सारी मांगे मान ली गयीं। स्कूल, आईटीआई,अस्पताल ,सड़क. इत्यादि के साथ शरणार्थियों के तीन गांव और बसे।
रानाघाट से ओड़ीशा होकर जो लोग पुलिनबाबू के साथ दिनेशपुर चले आये,उन लोगों ने हमारी मां बसंतीदेवी के नाम पर बसंतीपुर गांव बसाया।बसंतीपुर के साथ साथ पंचाननपुर और उदयनगर गांव भी बसे।
1958 में लालकुंआ और गूलरभोज रेलवे स्टेशनों के बीच ढिमरी ब्ल्का के जंगल में किसानसभा की अगुवाई में चालीस गांव बसाये गये।हर परिवार को दस दस एकड़ जमीन दी गयी।इस आंदोलने के नेता पुलिनबाबू के साथ साथ चौधरी नेपाल सिंह, कामरेड हरीश ढौंढियाल और बाबा गणेशा सिंह थे।तब चौधरी चरण सिंह यूपी के गृहमंत्री थे।पुलिस और सेना ने भारी पैमाने पर आगजनी,लाठीचार्ज करके भूमिहीनों को ढिमरी ब्लाक से हटा दिया।हजारों लोग गिरफ्तार किये गये।पुलिनबाबू का पुलिस हिरासत में पीट पीटकर हाथ तोड़ दिया गया।उनपर और उनके साथियों के खिलाफ करीब दस साल तक मुकदमा चलता रहा।मुकदमा के दौरान ही जेल में बाबा गणेशा सिंह की मृत्यु हो गयी।
1960 के आसपास नैनीताल की तराई में ही शक्तिफार्म में फिर शरणार्थियों को बसाया गया तो तबतक रामपुर,बरेली,बिजनौर,लखीमपुर खीरी,बहराइच और पीलीभीत जिलों में भी शरणार्थियों का पुनर्वास हुआ।इसी दौरान रुद्रपुर में ट्रेंजिट कैंप बना।इन तमाम शरणार्थियों की रोजमर्रे की जिंदगी से पुलिनबाबू जुड़े हुए थे और इस वजह से उन्हें गर परिवार की कोई खास परवाह नहीं थी।बाद में मेरठ,बदांयू और कानपुर जिलों में भी शरणार्थी बसाये गये।
1967 में यूपी में संविद सरकार बनने के बाद दिनेशपुर में बसे शरणार्थियों को भूमिधारी हक मिला तो ढिमरी ब्लाक केस भी वापस हो गया।अब वह ढिमरी ब्लाक आबाद है,जिससे बहुत दूर भी नहीं है बिंदुखत्ता।
1958 के ढिमरी ब्लाक आंदोलन के सिलसिले में जमानत पर रिहा पुलिनबाबू बंगाल चले आये और उन्होंने नदिया के हरीशचंद्रपुर में जोगेन मंडल के साथ एक सभा में शिरकत की।जोगेन मंडल पाकिस्तान के कानून मंत्री बनने के बाद पूर्वी बंगाल में हो रहे दंगों और दलितों की बेदखली रोक नहीं सके तो वे गुपचुप भारत चले आये।मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन की राजनीति की बहुत कड़ी आलोचना के मध्य जोगेन मंडल लगभग खलनायक बन गये थे,जिनके साथ पुलिनबाबू का गहरा नाता था।लेकिन हरीशचंद्रपुर की उस सभा में जोगेन मंडल और उनमें तीखी झड़प हो गयी।
नाराज पुलिनबाबू सीधे ढाका निकल गये और वहां भाषा आंदोलन के साथियों के साथ सड़क पर उतर गये।शुरु से ही वे भाषा आंदोलन के सिलसिले में ढाका आते जाते रहे हैं।लेकिन इसबार वे ढाका में गिरफ्तार लिये गये।
तुषारबाबू की मदद से वे पूर्वी बंगाल की जेल से छूटे तो 1960 में दिनेशपुर में अखिल भारतीय शरणार्थी सम्मेलन का आयोजन किया।इसी बीच असम में दंगे शुरु हो गये तो वे असम चले गये।वहां से लौटे तो चाचा डा.सुधीर विश्वास को वहां भेज दिया ताकि शरणार्थियों के इलाज का इंतजाम हो सके।चाचाजी भी लंबे समय तक असम के शरणार्थी इलाकों में रहे।
इस बीच कम्युनिस्टों से उनका पूरा मोहभंग हो गया क्योंकि ढिमरी ब्लाक के आंदोलन से पार्टी ने अपना पल्ला झाड़ लिया और तेलंगाना आंदोलन इससे पहले वापस हो चुका था।बंगाल के कामरेडों से लगातार उनका टकराव होता रहा है।
1964 में पूर्वी बंगाल के दंगों की वजह से जो शरणार्थी सैलाब आया,उसे लेकर पुलिनबाबू ने फिर नये सिरे सेा आंदोलन की शुरुआत कर दी जिसके तहत लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर लगातार तीन दिनों तक ट्रेनें रोकी गयीं।
साठ के दशक में ही पुलिनबाबू तराई के सभी समुदायों के नेता के तौर पर स्थापित हो गये थे।वे तराई विकास सहकारिता समिति के उपाध्यक्ष बने सरदार भगत सिंह को हराकर।तो अगली दफा वे निर्विरोध उपाध्यक्ष बने।इस समिति के अध्यक्ष पदेन एसडीएम होते थे।इसी के साथ पूरी तराई के सभी समुदायों को साथ लेकर चलने की इनकी रणनीति मजबूत होती रही।
1971 में मुजीब इंदिरा समझौते के तहत पूर्वीबंगाल से आनेवाले शरणार्थियों का पंजीकरण रुक गया।शरणार्थी पुनर्वास का काम अधूरा था और पुनर्वास मंत्रालय खत्म हो गया।तजिंदगी वे इसके खिलाफ लड़ते रहे।
1971 के बांग्लादेश स्वतंत्रता युद्ध के बाद वे फिर ढाका में थे और शरणार्थी समस्या के समाधान के लिए दोनों बंगाल के एकीकरणकी मांग कर रहे थे।वे फिर गिरफ्तार कर लिये गये और वहां से रिहा होकर लौटे तो 1971 के मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी के समर्थन में बंगालियों को एकजुट करने के लिए सभी दलों के झंडे छोड़ दिये।इसी चुनाव में नैनीताल से केसी पंत भारी मतों से जीते और तबसे लेकर केसी पंत से उनके बहुत गहरे संबंध रहे।
1974 में इंदिरा जी की पहल पर उन्होंने भारत भर में शरणार्थी इलाकों का दौरा किया और उनके बारे में विस्तृत रपट इंदिरा जी को सौंपी।वे शरणार्थियों को सर्वत्र मातृभाषा और संवैधानिक आरक्षण देने की मांग कर रहे थे और भारत भर में बसे शरणार्थियों का पंजीकरण भारतीय नागरिक की हैसियत से करने की मांग कर रहे थे।आपातकाल में भी शरणार्थी समस्याओं को सुलझाने की गरज से वे इंदिरा गांधी के साथ थे।जबकि हम इंदिरा की तानाशाही के खिलाफ जारी लड़ाई से सीधे जुड़े हुए थे।इसी के तहत 1977 के चुनाव में जब वे कांग्रेस के साथ थे ,तब हम कांग्रेस के खिलाफ छात्रों और युवाओं का नेतृत्व कर रहे थे।तभी उनके और हमारे रास्ते अलग हो गये थे।
उस चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद इंदिरा जी के साथ पुलिनबाबू के सीधे संवाद का सिलसिला बना और इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में वापसी से पहले दिनेशपुर भी आयीं।लेकिन पुलिनबाबू की मांगें मानने के सिलिसिले में उन्होंने क्या किया, हमें मालूम नहीं है।जबकि 1974 से लगातार शरणार्थियों की नागरिकता,उनकी मातृभाषा के अधिकार और संवैधानिक आरक्षण की मांग लेकर वे बार बार भारतभर के शरणार्थी इलाकों में भटकते रहे थे।इंदिराजी के संपर्क में होने के बावजूद कांग्रेस ने तबसे लेकर आज तक शरणार्थियों की बुनियादी समस्याओं को सुलझाने में कोई पहल नहीं की।फिर भी वे तिवारी और पंत के भरोसे थे,यह हमारे लिए अबूझ पहेली रही है।
31 अक्तूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्हें देखने पुलिनबाबू अस्पताल भी पहुंचे थे।वे दिल्ली में ही ते उस वक्त।तब तक दिल्ली में दंगा शुरु हो चुका था।नारायण दत्त तिवारी उन्हें अस्पताल से सुरक्षित अपने निवास तक ले गये थे।
इस मित्रता को जटका तब लगा ,जब 1984 में केसी पंत को टिकट नहीं मिला तो पुलिनबाबू तिवारी की ओर से पंत के खिलाफ खड़े  सत्येंद्र गुड़िया के खिलाफ लोकसभा चुनाव में खड़े हो गये तो उन्हें महज दो हजार वोट ही मिले। लेकिन पुलिनबाबू को आखिरी वक्त देखने वाले वे ही तिवारी थे।
अस्सी के दशक में शरणार्थियों के खिलाफ असम और त्रिपुरा में हुए खूनखराबा के विदेशी हटाओ आंदोलन से पुलिनबाबू शरणार्थियों की नागरिकता को लेकर बेहद परेशान हो गये और वे देस भर में शरणार्थियों को एकजुट करने में लगे रहे।उन्हे यूपी में दूसरे लोगों का समर्थन मिल गया लेकिन असम की समस्या से बाकी देस के शरणार्थी बेपरवाह रहे 2003 के नागरिकता संशोधन कानून के तहत उनकी नागरिकता छीन जाने तक।आखिरी दिनों में पुलिनबाबू एकदम अकेले हो गये थे।दूसरों की क्या कहें,हम भी उनके साथ नहीं थे।हमने भी 2003 से पहले शरणार्थियों की नागरिकता को कोई समस्या नहीं माना।हम सभी पुलिनबाबू की चिंता बेवजह मान रहे थे।
बहरहाल साठ के दशक में अखिल भारतीय उद्वास्तु समिति बनी,जिसके पुलिनबाबू अध्यक्ष थे।लेकिन वे राष्ट्रव्यापी संगठन बना नहीं सकें।
इसी के मध्य साठ के दशक में वे चौधरी चरण सिंह के किसान समाज की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति में थे तो 1969 में अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर वे भारतीय जनसंघ में शामिल हो गये लेकिन जनसंघ के राष्ट्रीय मंच पर उन्हें अटल जी के वायदे के मुताबिक शरणार्थी समस्या पर कुछ कहने की इजाजत नहीं दी गयी तो सालभर में उन्होंने जनसंघ छोड़ दिया।
1971 में दस गावों के विजयनगर ग्रामशभा के सभापति वे निर्विरोध चुने गये।लेकिन फिर उसे भी तोबा कर लिया।
1973 में मेरे नैनीताल जीआईसी मार्फत डीेएसबी कालेज परिसर  में दाखिले के बाद मैं उनके किसी आंदोलन में शामिल नहीं हो पाया,पर चिपको आंदोलन और उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के हर आंदोलन में वे हमारे साथ थे।हमारे विरोध के बावजूद वे पृथक उत्तराखंड का समर्थन करने लगे थे।
नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्री बनने के बाद बंगाली शरणार्थियों की जमीन से बेदखली के मामलों की जांच के लिए एक तीन सदस्यीय आयोग बना,जिसके सदस्य थे,पुलिनबाबू,सरदार भगत सिंह और हरिपद विश्वास।
असम आंदोलन के मद्देनजर देशभर में बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता छिनने की आशंका से पुलिनबाबू ने 1983 में दिनेशपुर में अखिल भारतीय शरणार्थी सम्मेलन का आयोजन किया तो सत्तर के दशक से मृत्युपर्यंत भारत के कोने कोने में शरणार्था आंदोलनों में निरंतर सक्रिय रहे।
1993 में वे फिर किसी को कुछ बताये बिना बांग्लादेश गये।वे चाहते थे कि किसी तरह से बांग्लादेश से आनेवाला शरणार्थी सैलाब बंद हो।लेकिन शरणार्थियों का राष्ट्रीय संगठन बनाने के अपने प्रयासों में उन्हें कभी कामयाबी नहीं मिली।जिसकी वजह से शरणार्थी जहां के तहां रह गये।बांग्लादेश तक उनका संदेश कभी नहीं पहुंचा।

2001 में पता चला कि उन्हें कैंसर है और 12 जून 2001 को कैंसर की वजह से उनकी मृत्यु हो गयी।

Sunday, May 20, 2018

স্মৃতিটুকু থাক্,ফিরে যাচ্ছি উদ্বাস্তু উপনিবেশে স্বজনদের কাছে হিমালয়ের কোলে! পলাশ বিশ্বাস

স্মৃতিটুকু থাক্,ফিরে যাচ্ছি উদ্বাস্তু উপনিবেশে স্বজনদের কাছে হিমালয়ের কোলে!
পলাশ বিশ্বাস

ভারত ভাগের ফলে পূর্ব বাংলা থেকে আসা কোটি কোটি উদ্বাস্তুদের বাংলায় জায়গা হয়নি  তবু যারা এখানে কোনো ক্রমে মাথা গুঁজে আছেন রেল লাইনের ধারে,খালে,বিলে,জলে ,জঙ্গলে তাঁরাও ব্রাত্য।সেই কোটি কোটি বাঙালি উদ্বাস্তুদের নাড়ি এখনো মাটির টানে,মাতৃভাষার শিকড়ে,সংস্কৃতির বন্ধনে বাংলার সঙ্গেই বাঁধা  তবু তাঁরা বাংলার ইতিহাস ভূগোলের বাইরে

দন্ডকারণ্য থেকে তাঁরা একবার ফিরে মরিচঝাঁপিতে বসত গড়ে ফেলেছিল,সেই বসত শাসক শ্রেণী উপড়ে ফেলেছিল ।সেই গণহত্যার বিচার 30 বছর পরও শুরু হল না ।

আমিও সেই উদ্বাস্তুদের ছেলে ।

উত্তর প্রদেশের বেরেলি শহরের চাকরি ছেড়ে কলকাতায় ইন্ডিয়ান এক্সপ্রেসের চাকরি নিয়ে এসেছিলাম শিকড়ের টানেই ।আজ টানা 27 বছর বাংলায় থাকার পর আমিও 47,64 কিংবা 71 এর উদ্বাস্তুদের মতই বাংলা ছেড়ে ফিরে যাচ্ছি ।

যথাসাধ্য বাংলায় টিকে থাকার চেস্টা অবশ্য করেছি কিন্তু বাংলার বাঙালিরা উদ্বাস্তুদের কোনো দিন স্বীকৃতি দেয়নি,এই শাশ্বত সত্যের মুখোমুখি হয়ে আবার উদ্বাস্তুদের উপনিবেশ উত্তরাখন্ডের দীনেশপুরে নিজের গ্রামে ফিরে যাচ্ছি ।

সারা বাংলায় মানুষের একটি বড় অংশের সঙ্গে যোগাযোগ হলেও বেনাগরিক উদ্বাস্তুদের জীবন যন্ত্রণা থেকে মুক্তির কোনো রাস্তা দেখতে পেলাম না । এখন আর লড়াই করার ক্ষমতা নেই,তাই স্বজনদের মধ্যেই ফিরে যাচ্ছি ।

কোটি কোটি বাঙালিদের বাংলা ছেড়ে যাওয়ায় বাংলা মায়ের চোখের জল পড়েনি কোনো দিন,আমার একার জন্যে সেই অশ্রুপাতের কোনো সম্ভাবনা নেই । কিন্তু সাতাশ বছরের স্মৃতি ত থেকেই যাচ্ছে ।

নীতীশ বিস্বাস,কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর,শরদিন্দু বিশ্বাস,প্রদীপ রায়, ডঃগুণধর বর্মণ, মহাশ্বেতা দেবী, কমরেড সুভাষ চক্রবর্তী, কমরেড কান্তি গাঙ্গুলি, নাবারুণ ভট্টাচার্য, কমরেড অশোক মিত্র, ডঃগুণ, প্রবীর গঙ্গোপাধ্যায়,কর্নেল লাহিড়ী, রুদ্রপ্রসাদ সেনগুপ্ত,গৌতম হালদার ও আরও অনেক গুণী মানুষের সান্নিধ্য পেয়েছি,যাদের মধ্যে অনেকেই এখন বেঁচে নেই ।আমার সৌভাগ্য ।

2001 সালে উত্তরাখন্ডের বাঙালিদের বিদেশী ঘোষিত করে তাড়ানোর চেষ্টা শুরু করে সেই রাজ্যের প্রথম বিজেপি সরকার ।প্রতিবাদে গর্জে উঠেছিল বাংলা ।সেদিন কোলকাতার তাবত লেখক,শিল্পী,কবি,সাংবাদিক আমাদের পাশে দাঁড়িয়েছিলেন ।আজ ফেরার বেলায় তাঁদের কৃতজ্ঞতা জানাই ।

তারপর ক্রমাগত বাংলার বাইরের বাঙালিদের পর আক্রমণ চলছে,কিন্তু 2001 এর পর আর কোনো প্রতিবাদ হয়নি ।

সারা দেশে এই উদ্বাস্তুদের জন্য আজীবন কাজ করে গিয়েছেন দীনেশপুরের পুলিনবাবু,আমার বাবা ।

আমাকে ত তাঁদের পাশেই থাকতে হবে ।

চলে যাওয়ার বেলায় মন ভালো নেই । তাই কোথাও যাওয়া হল না ।কারুর সঙ্গে শেষ দেখাও হচ্ছে না ।

বাংলায় আর ফেরা হবে না ।

আপনাদের ভালোবাসা,সহযোগিতার জন্য ধন্যবাদ ।

भारत के कुलीन वाम नेतत्व को उखाड़ फेंकना सबसे जरूरी पलाश विश्वास

भारत के कुलीन वाम नेतत्व को उखाड़ फेंकना सबसे जरूरी
पलाश विश्वास

उत्तर आधुनिकता और मुक्तबाजार के समर्थक दुनियाभर के कुलीन विद्वतजनों ने इतिहास,विचारधारा और विधाओं की मृत्यु की घोषणा करते हुए पूंजीवादी साम्राज्यवाद और समंती ताकतों की एकतरफा जीत का जश्न मनाना शुरु कर दिया था।लेकिन पूंजीवाद के गहराते संकट के दौरान वे ही लोग इतिहास,विचारधारा और विधाओं की प्रासंगिकता की चर्चा करते अघा नहीं रहे हैं।
दुनियाभर में प्रतिरोध,जनांदोलन और परिवर्तन के लिए वामपंथी नेतृ्तव कर रहे हैं।यहां तक कि जिस इराक के ध्वंस की नींव पर अमेरिका इजराइल के नेतृत्व में मुक्तबाजार की नरसंहारी यह व्यवस्था बनी,उसी इराक में वामपंथियों की सरकार बनी।
इसके विपरीत भारत में कुलीन सत्तावर्ग ने शुरु से वामपंथी आंदोलन पर कब्जा करके जमींदारों,रजवाडो़ं के कुलीन वंशजों का वर्गीय जाति एकाधिकार बहाल रखते हुए सर्वहारा और वंचित तबकों से विश्वास घात किया और दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के हितों के विपरीत सत्ता समीकरण साधते हुए भारत में वामपंथी आंदोलन के साथ ही प्रतिरोध और बदलाव की सारी संभावनाएं खत्म कर दी।
सिर्फ वंचितों को ही नहीं,बल्कि समूची हिंदी पट्टी को नजरअंदाज करते हुए वामपंथियों ने भारत में मनुस्मृति राज बहला करने में सबसे कारगर भूमिका निभाई।
वामपंथी मठों और मठाधीशों को हाल हाल तक ऐसे मौकापरस्त सत्ता समीकरण का सबसे ज्यादा लाभ मिला है।तमाम प्रतिष्ठानों और संस्थाओं में वे बैठे हुए थे और उन्होंने आपातकाल का भी समर्थन किया।बंगाल के ऐसे ही वाम बुद्धिजीवी और मनीषी वृंद वाम शासन के अवसान के साथ दीदी की निरंकुश सत्ता के सिपाहसालार हो गये।
सामाजिक शक्तियों के जनसंगठनों और मजदूर यूनियनों को भी वामपंथी नेतृत्व ने प्रतिरोध से दूर रखा।
भारत में अगर समता और न्याय पर आधारित समाज का निर्माण करना है तो ऐसे जनविरोधी वाम नेतृ्त्व को,सत्ता समर्थक मौकापरस्त मठों और मठाधीशों को उखाड़ फेंकने की जरुरत है।वंचितों और सर्वहारा तबकों के लिए वाम नेतृ्तव अपने हाथों में छीनकर लेने का वक्त आ गया है।
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के स्वतंत्रता संग्राम के कारण आजादी मिली है लेकिन जातिव्यवस्था का रंगभेद अभी कायम है जबकि ब्रिटेन की राजकुमार का विवाह भी अश्वेत कन्या से होने लगा है और इस विवाह समारोह में पुरोहित से लेकर संगीतकार,गायक तक अश्वेत थे।इसके विपरीत भारत में जो मनुस्मृति अनुशासन कायम हुआ है,उसके लिए वामपंथ के जनिविरोधी कुलीन वर्गीय जाति नेतृ्तव,मठों और मठाधीशों की जिम्मेदारी तय किये बिना,समाप्त किये बिना भारतीय जनता की मुक्ति तो क्या लोकतंत्र,स्वतंत्रता,नागरिक और मानवाधिकार,विविधता,बहुलता की विरासत बचाना भी मुश्किल है।

Saturday, May 19, 2018

मेरा जन्मदिन कुलीन वर्ग के लिए एक दुर्घटना ही है। पलाश विश्वास

मेरा जन्मदिन  कुलीन वर्ग के लिए एक दुर्घटना ही है। 
पलाश विश्वास   

मेरे दिवंगत पिता पुलिनबाबू
अब इस महाभारत में मेरी हालत कवच कुंडल खोने के बाद कर्ण जैसी है।कुरुक्षेत्र में मारे जाने के लिए नियतिबद्ध क्योंकि नियति नियंता कृष्ण मेरे विरुद्ध हैं। 
उत्तराखंड और झारखंड में लोग मुझे पलाश नाम से ही जानते रहे हैं,किसी विश्वास को वे नहीं जानते। 
हमें दलित होने के सामाजिक यथार्थ को बंगाल आने से पहले कोई अहसास नहीं था। 
तेभागा और ढिमरी ब्लाक की विरासत के मध्य जनमने की वजह से हम जन्म जात कम्युनिस्ट थे जन्मांध की तरह।इसीलिए जातिव्यवस्था के सच को हमने भी भारतीय कम्युनिस्टों की तरह दशकों तक नजरअंदाज किया। 
  
एक बड़े सच का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि मार्टिन जान को मेरी याद तो है लेकिन पलाश विश्वास को वे पहचान नहीं पा रहे।दरअसल उत्तराखंड और झारखंड में लोग मुझे पलाश नाम से ही जानते रहे हैं,किसी विश्वास को वे नहीं जानते।क्योंकि राजकिशोर संपादित परिवर्तन में नियमित लिखने से पहले तक मैं पलाश नाम से ही लिख रहा था।

उत्तराखंड में किसान शरणार्थी  आंदोलनों में लगातार पिताजी की सक्रियता,चिपको आंदोलन और नैनीताल समाचार,उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी की वजह से तराई और पहाड़ में लोग मुझे पलाश नाम से ही जानते रहे हैं।

मेरी कहानियां,कविताएं 85-86 तक इसी नाम से छपती रही हैं।पलाश विश्वास के यथार्थ से मेरा सामना देरी से ही हुआ।

बाबासाहेब भीमराव  अंबेडकर को पढ़ने से पहले,बंगाल में जाति वर्चस्व के सामने अकेला,असहाय,बहिस्कृत हो जाने से पहले भारतीय सामाजिक यथार्थ की मेरी कोई धारणा नहीं थी।

भारत विभाजन की त्रासदी के नतीजतन विभाजनपीड़ित जो बंगाली शरणार्थी बंगाल के इतिहास भूगोल से हमेशा के लिए बाहर कर दिये गये,वे बंगाल की समाजव्यवस्था से भी बाहर हो गये।उन्हें जाति व्यवस्था के दंश से मुक्ति मिल गयी।

वैसे भी मतुआ आंदोलन की वजह से बंगाल में अस्पृश्यता नहीं थी।लेकिन सिर्फ अनुसूचितों के बंगाल से बाहर कर दिये जाने के कारण उन्हें मनुस्मृति अनुशासन से मुक्ति मिल गयी।

जिसके नतीजतन मौजूद अभूतरपूर्व रोजगार संकट मुक्तबाजार की वजह से उत्पन्न होने की वजह से आरक्षण के जरिये नौकरी निर्णायक होने और अचानक 2003 में नागरिकता संशोधन विधेयक के तहत देशभर में बसे विभाजनपीड़ितों के देश निकाले का फतवा संघ परिवार के मनुस्मृति अश्वमेध एजंडा के तहत जारी करने से पहले तक देश भर में बंगाली शरणार्थियो को रोजगार और सामाजिक हैसियत के लिए आरक्षण की कोई जरुरत नहीं पड़ी।

वे भी उत्तराखंड की आम जनता की तरह अब भी सवर्ण होने की खुशफहमी में संघ परिवार की पैदल सेना हैं।वे पुलिनबाबू और उनके किसी साथी को याद नहीं करते।इन्ही के बीच हूं।


अपने पिता पुलिनबाबू से मेरे वैचारिक मतभेद की वजह यही थी कि वे बंगाल के यथार्थ की त्रासदी झेल चुके थे।

कम्युनिस्ट पार्टी के ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह में विश्वासघात से पहले अनुसूचित होने के अपराध में वे करोडो़ं बंगाली शरणार्थियों की तरह बंगाल से खदेड़ दिये गये थे और अनुसूचित बंगाली शरणार्थियों का होमलैंड अंडमान में बनाने की अपनी मांग की वजह से ज्योति बसु के साथ उनका बंगाल में टकराव हो गया था क्योंकि शरणार्थी आंदोलन में तब कम्युनिस्टों का कब्जा था।

इसके अलावा पुलिनबाबू  गुरुचांद ठाकुर के अनुयायी थे और बाबासाहब की विचारधारा को अपने मार्क्सवाद से जोड़कर चलते थे।वे जोगेंद्र नाथ मंडल का आजीवन समर्थन करते थे।

पुलिनबाबू ने शुरु से ही देशभर में बंगाली शरणार्थियों के लिए मातृभाषा का अधिकार और आरक्षण की मांग उठायी जिसके लिए पचास के दशक से एकमात्र पीलीभीत के युवा वकील नित्यानंद मल्लिक उनके साथ थे और बाकी बंगाली शरणार्थी जाति व्यवस्था से मुक्ति के बाद फिर दलित बनने को तैयार नहीं थे।उन्हें बांग्ला भाषा में पढ़ने लिखने से कोई मतलब नहीं है।

इसके विपरीत हमें दलित होने के सामाजिक यथार्थ को बंगाल आने से पहले कोई अहसास नहीं था।

स्कूल कालेज में हमारे सारे गुरु ब्राह्मण थे और उनमें से ज्यादातर कम्युनिस्ट थे और उन्ही की वजह से मैं आजतक लिखता पढ़ता रहा हूं।उन्होंने मार्क्सवाद का पाठ पढ़ाया लेकिन भारतीय सामाजिक यथार्थ से वे भी अनजान बने हुए थे।

तेभागा और ढिमरी ब्लाक की विरासत के मध्य जनमने की वजह से हम जन्म जात कम्युनिस्ट थे जन्मांध की तरह।

इसीलिए जातिव्यवस्था के सच को हमने भी भारतीय कम्युनिस्टों की तरह दशकों तक नजरअंदाज किया।

2003 तक बंगाल और त्रिपुरा के कम्युनिस्ट नेताओं और मंत्रियों से मेरे अंतरंग संबंध थे।इसके अलावा देशभर में वामपंथी तमाम लोग मेरे मित्र थे।

इसी बीच 2001 में उत्तराखंड की तराई में 1950 से बसे बंगाली शरणार्थियों को उत्तराखंड की पहली केसरिया सरकार ने बांग्लादेशी करार दिया और इसके खिलाफ उत्तराखंड की जनता के भारी समर्थन के साथ बंगाली शरणार्थियों ने व्यापक आंदोलन किया। इस आंदोलन के समर्थन में और देश भर में बसे बंगालियों के पक्ष में  संघ परिवार के हमलों के खिलाफ हमने कोलकाता में वाम नेताओं और मंत्रियों,कोलकाता के लेखकों,कवियों,कलाकारों और रंगकर्मियों के सहयोग से सहमर्मी नामक संगठन बनाया। 

 बड़े लेखकों,संस्कृतिकर्मियों के साथ खड़े होने के कारण मरीच झांपी नरसंहार की अपराधी बंगाल की वाम सरकार के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सीध केंद्र सरकार से बातचीत की और तब जाकर बंगाली खदेड़ो अभियान तात्कालिक तौर पर स्थगित हो गया।इस कामयाबी के पीछे नीतीश विश्वास और कपिलकृष्ण ठाकुर का बड़ा योगदान रहा है।

2003 में नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ हम देशभर में आंदोलन कर रहे थे।2001 में पिताजी का कैंसर से निधन हो गया था बंगाली शरणार्थियों को बांग्लादेशी करार दिये जाने के बाद।

1960 में पुलिनबाबू संघ प्रायोजित असम में बंगालियों के खिलाफ दंगों के दौरान वहां दंगापीड़ितों के बीच हर जिले में उन्हें वहां बनाये रखने के लिए सक्रिय थे।

पिता की मृत्यु के बाद ब्रह्मपुत्र बीच फेस्टिवल में बाहैसियत असम सरकार के अतिथि,मुख्यअतिथि त्रिपुरा के शिक्षामंत्री और कवि अनिल सरकार के साथ मालीगांव अभयारण्य के उद्घाटन  के लिए जाते हुए पुलिस पायलट के रास्ता भटकने के कारण दंगा पीड़ित असम के नौगांव मालीगांव जिलों के उन्हीं इलाकों में हम गये जहां मेरे पिता पुलिनबाबू और मेरे चाचा डा. सुधीर विश्वास के बाद तब तक बाहर का कोई बंगाली और शरणार्थी नेता नहीं गया था।कई पीढ़ियों के बाद वे पुलिनबाबू को भूले नहीं हैं।

असम से वापसी के बाद से पिताजी बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता और उनके नागिरक और मानवाधिकार की सुरक्षा के लिए मुखर हो गये।

असम आंदोलन के दौरान मैं धनबाद से होकर मेरठ में था और आसू और असम गण परिषद के समर्थन में खड़ा था।प्रफुल्ल महंत और दिनेश गोस्वामी से हमारी मित्रता थी।लेकिन पिताजी इस आंदोलन को अल्फा और संघ परिवार का बंगालियों के खिलाफ असम और पूर्वोत्तर में नये सिरे से दंगा अभियान मान रहे थे।

उसी समय पुलिनबाबू बाकी देश में भी संघ परिवार के बंगाली खदेड़ो अभियान शुरु करने की चेतावनी दे रहे थे।

वामपंथी होने की वजह से तब भी हम लगातार भारत में मनुस्मृति राज और हिंदुत्व के पुनरूत्थान की उनकी चेतावनी को सिरे से खारिज कर रहे थे।

उन्होंने मरीचझांपी अभियान के खिलाफ जिस तरह शरणार्थियों को चेताया,उसीतरह अस्सी के दशक से अनुसूचितों के खिलाफ संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडा के खिलापफ मरण पर्यंत आंदोलन चलाते रहे।

मैं उनसे असहमत था और देश भर के शरणार्थी मरीचझांपी के समय उत्तर भारत में सर्वत्र उनके साथ होने के बावजूद नागरिकता और आरक्षण के सावल पर उनके साथ नहीं थे।

चूंकि कक्ष दो में पढ़ते हुए पिताजी के तमाम आंदोलनों और देशभरके किसानों,शरणार्थियों के हक में उलके तमाम पत्र व्यवहार का मसौदा  सिलसिलेवार मतभेद के बावजूद मैं ही तैयार करता रहा हूं तो देशभर में शरणार्थी मुझे जानते रहे हैं।

2003 में नागरिकता संशोधन विधेयक भाजपाई गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी के द्वारा पेश होन के बाद मैं झारखंड में जिसतरह चौबीसों घंटे आदिवासियों और कामगारों के दरवाजे पर दस्तक देते रहने से बेचैन हो रहा था,वही हाल हो गया।

पिताजी की अनुपस्थिति में देश भर के शरणार्थियों के फोन आने लगे।मैं भी इस जिम्मेदारी से बेचैन हो गया।

 तब वामपंथी मित्रों,नेताओं और मंत्रियों से मेरी लगातार बात होती रही।हमने इस सिलसिले में राइटर्स बिल्डिंग में बंगाल सरकार के शक्तिशाली मंत्री कामरेड सुभाष चक्रवर्ती के साथ प्रेस कांफ्रेंस किया तो त्रिपुरा के आगरतला में माणिक सरकार  के सबसे वरिष्ठ मंत्री अनिल सरकार के साथ प्रेस कांप्रेस किया। 

बंगाल में कामरेड विमान बोस,कामरेड सुभाष चक्रवर्ती,कामरेड कांति विश्वास, कामरेड कांति गांगुली, कामरेड उपने किस्कू और त्रिपुरा में कामरेड अऩिल सरकार और माणिक सरकार के तमाम मंत्रियों और बंगाल के तमाम सांसदों से रोजाना संपर्क के मध्य संसद में वामपंथियों ने आडवाणी के नागरिकता संशोधन विधेयक का समर्थन कर दिया।

मैंने तुरंत फोन लगाया सबको जनसत्ता के दफ्तर में बैठे हुए और सभीने कहा कि वामपंथियों ने बिल का विरोध किया है।

मैंने उन सबको मेरी मेज पर संसद की कार्यवाही का ब्यौरा पढ़कर सुनाया और उसी वक्त मैंने उनके साथ संबंध विच्छेद कर लिया।

वामपंथियों के समर्थन के साथ नागरिकता संशोधन कानून पास होने के बाद मैं कभी बांग्ला अकादमी रवींद्र सदन परिसर से लेकर कोलकाता पुस्तक मेले में कभी नहीं गया।

इसी कानून की वजह से ही बंगाल में शरणार्थी दलित वोट बैंक वामपंथ से हमेशा के लिए अलग हो गया,जिसका कोई अफसोस वामपंथी कुलीन नेतृत्व को नहीं है क्योंकि शुरु से ही यह वर्ग इन बंगाली दलित शरणार्थियों के बंगाल में बने रहने के खिलाफ रहा है और उनके देश निकाले के संघ परिवार के नरसंहारी अभियान में वे साथ साथ हैं अपने वर्गीय जाति वर्चस्व के लिए।

पंचायत चुनाव में आदिवासियों के साथ छोड़ने के बाद बंगाल में वामपंथ की वापसी अब असंभव है।

दीदी को सत्ता जिस जमीन आंदोलन की वजह से मिली,उसके तमाम योद्धा आदिवासी ही थे।जिनमे से ज्यादा तर माओवादी ब्रांडेड होकर या तो मुठभेड़ में मार दिये गये या फिर जेल में सड़ रहे हैं।

वामपंथ और दीदी के इस विश्वासघात का बदला लेने के लिए सारे दलित शरणार्थी और आदिवासी अब संघ परिवार की शरण में हैं,जानबूझकर वे हिटलर के गैस चैंबर में दाखिल हो चुके हैं।

मेरी लालगढ़ डायरी अकार में छपी थी।उस युद्ध की यह त्रासदी है और घनघोर अंधायुग का यथार्थ भी यही है।

उसी समय अपने मित्र कृपा शंकर चौबे और अरविंद चतुर्वेद के साथ मैं महाश्वेता देवी संपादित बांग्ला पत्रिका भाषा बंधन के संपादकीय में था और इसके संपादकीय में हमने वीरेन डंगवाल,पंकज बिष्ट और मंगलेश डबराल को भी शामल कर रखा था।

 नवारुण भट्टाचार्य संपादकीय विभाग के मुखिया थे। 

महाश्वेता देवी और नवारुण दा के गोल्फग्रीन के घर में बंगाल के तमाम साहित्यकारों ,सामाजिक कार्यकर्ताओं और संस्कृति कर्मियों का जमघट लगा रहता था।

महाश्वेता देवी से मैंने इस नागरिकता बिल के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व करने का निवेदन किया तो उन्होंने कहा कि यह आंदोलन तुम करो और बाकी लोग भी कन्नी काट गये।

मैं सिरे से अकेले पड़ गया।

महाश्वेता देवी और भाषा बंधन का साथ भी छूट गया।

शरणार्थियों के हकहकूक के सवाल पर दशकों पुराना संबंध टूट गया।हमारे  अलग होने के बाद आनंदबाजार समूह की देश पत्रिका की तरह भाषा बंधन भी बंगाल की भद्रलोक संस्कृति की पत्रिका बन गयी है।

वंचित सर्वहारा के लिए लिखने वाले नवारुण दा भी कैंसर का शिकार हो गये,जिन्हें देखने के लिए भी कुछ सौ मीटर की दूरी पर दीदी के राज में जन आंदोलनों की राजमाता बनी महाश्वेता देवी नहीं गयी।

यह माता गांधारी का हश्र है।

मेरे पिता पुलिनबाबू आजीवन जिनके लिए लड़ते रहे,उनके हक में देश भर में मेरे वैचारिक मित्र मेरे साथ नहीं थे।

कोई राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन हमारे साथ नहीं था।

एसे निर्णायक संकट के दौरान भी बामसेफ ने 2003 में नागपुर में इस नागरिकता बिल के विरोध में एक सम्मेलन आयोजित किया,जहां हम बंगाल के तमाम वामपंथी शरणार्थी नेताओं और बुद्धिजीवियों के साथ पहुंचे।

हमें बामसेफ और महाराष्ट्र,मराठी प्रेस का समर्थन संघ परिवार के नागरिकता संशोधन विधेयक और अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ संघ परिवार के नरसंहारी अश्वमेध अभियान के खिलाफ तब से लगातार मिलता रहा है।

तभी हमने अंबेेडकरको सिलसिलेवार पढ़ने की शुरुआत की और भारतीय यथार्थ के आमने सामने खड़ा हो गया।

हालांकि बामसेफ के सर्वेसर्वा वामन मेश्राम से वैचारिक मतभेद की वजह से हम अब बामसेफ से देश भर के  अपने साथियों के साथ अलग थलग हो गये,लेकिन यह भी सच है कि एकमात्र वामन मेश्राम ने ही बामसेफ के जरिये संघ परिवार के अनुसूचितों, शरणार्थियों,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ संघ परिवार और मुक्त बाजार के नरसंहारी एजंडा के खिलाफ मेरे युद्ध में मेरा साथ दिया,मेरे वामपंथी साथियों ने नहीं।

बामसेफ के मंच से ही मैंने लगातार एक दशक तक देश भर में मुक्तबाजार और संघ परिवार के एजंडे के खिलाफ आम जनता को सीधे संबोधित किया।

अब बामसेफ का राष्ट्रव्यापी संगठन और मंच  मेरे पास नहीं है और मैं फिर से अरेले हूं।

इंडियन एक्सप्रेस का सुरक्षा कवच भी मेरे पास नहीं है।

अब इस महाभारत में मेरी हालत कवच कुंडल खोने के बाद कर्ण जैसी है।कुरुक्षेत्र में मारे जाने के लिए नियतिबद्ध क्योंकि नियति नियंता कृष्ण मेरे विरुद्ध हैं।

सारे मठ,मठाधीश और उनकी सेनाएं मेरे खिलाफ है और फिरभी मेरा युद्ध जारी है।

इस युद्ध में ही मुझे तराई और पहाड़ के नये पुराने मित्रों के साथ की उम्मीद है और इसीलिए कोलकाता का मोर्चा छोड़कर यह महाभारत अपने घर से लड़ने का फैसला मेरा है,चाहे परिणाम कुरुक्षेत्र का ही क्यों न हो।

बामसेफ और अंबेडकरी  आंदोलन में सक्रियता की वजह से 2003 से पत्रकारिता और साहित्य में मैं बहिस्कृत अछूत हूं तो अपने जयभीम कामरेड अभियान और जाति विनाश के बाबासाहेब के मिशन के तहत वर्गीय ध्रूवीकरण की अपनी सामाजिक सांस्कृतिक रचनात्मकता और पर्यावरण चेतना के तहत हिमालय और उत्तराखंड से नाभिनाल के अटूट संबंध की वजह से अंबेडकरी आंदोलन के लिए भी मैं शत्रूपक्ष हूं।

मेरा जन्मदिन  कुलीन वर्ग के लिए एक दुर्घटना ही है।

Tuesday, October 3, 2017

शंबूक हत्या,सीता की अग्निपरीक्षा और उनका वनवास,उत्तर कांड हटाकर रामजी का शुद्धिकरण जनविमर्श का जन आंदोलनः साहित्य,कला,माध्यम,विधाओं को सत्ता के शिकंजे से रिहा कराना सत्ता परिवर्तन से बड़ी चुनौती है जो सभ्यता और मनुष्यता के लिए अनिवार्य है। पलाश विश्वास

शंबूक हत्या,सीता की अग्निपरीक्षा और उनका वनवास,उत्तर कांड हटाकर रामजी का शुद्धिकरण 
जनविमर्श का जन आंदोलनः साहित्य,कला,माध्यम,विधाओं को सत्ता के शिकंजे से रिहा कराना सत्ता परिवर्तन से बड़ी चुनौती है जो सभ्यता और मनुष्यता के लिए अनिवार्य है।
पलाश विश्वास

मिथकों को इतिहास में बदलने का अभियान तेज हो गया है।साहित्य और संस्कृति कीसमूची विरासत को खत्म करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म है और सारे के सारे मंच,माध्यम और विधाएं बेदखल है।
मर्यादा पुरुषोत्तम को राष्ट्रीयता का प्रतीक बनाने वाली राजनीति अब मर्यादा पुरुषोतत्म के राम का भी नये सिरे से कायाकल्प करने जा रही है।शंबूक हत्या,सीता की अग्निपरीक्षा और उनका वनवास,उत्तर कांड हटाकर रामजी का शुद्धिकरण किया जा रहा है।
बंगाल या बांग्लादेश में रवींद्र के खिलाफ घृणा अभियान का जबर्दस्त विरोध है।स्त्री स्वतंत्रता में पितृसत्ता के विरुद्ध रवींद्र संगीत और रवींदार साहित्य बंगाल में स्त्रियों और उनके बच्चों के वजूद में पीढ़ी दर पीढ़ी शामिल हैं।
लेकिन विद्यासागर,राममोहन राय और माइकेल मधुसूदन दत्त के खिलाफ जिहाद का असर घना है।राम लक्ष्मण को खलनायक और मेघनाद को नायक बनाकर माइकेल मधुसूदन दत्त का  मुक्तक (अमृताक्षर) छंद में लिखा उन्नीसवीं सदी का मेघनाथ बध काव्य विद्यासागर और नवजागरण से जुड़ा है और आधुनिक भारतीय कविता की धरोहर है।
जब रामायण संशोधित किया जा सकता है तो समझ जा सकता है कि मेघनाथ वध जैसे काव्य और मिथकों के विरुद्ध लिखे गये बारतीय साहित्य का क्या हश्र होना है।इस सिलसिले में उर्मिला और राम की शक्ति पूजा को भी संशोदित किया जा सकता है।
इतिहास संशोधन के तहत रवींद्र प्रेमचंद्र गालिब पाश मुगल पठान और विविधता बहुलता सहिष्णुता के सारे प्रतीक खत्म करने के अभियान के तहत रामजी का भी नया मेकओवर किया जा रहा है।
ह्लदी घाटी की लड़ाई,सिंधु सभ्यता,अनार्य द्रविड़ विरासत,रामजन्मभूमि,आगरा के ताजमहल,दिल्ली के लालकिले के साथ साथ रामायण महाभारत जैसे विश्वविख्यात महाकाव्यों की कथा भी बदली जा रही है।जिनकी तुलना सिर्फ होमर के इलियड से की जाती रही है।
रामायण सिर्फ इस माहदेश की महाकाव्यीय कथा नहीं है बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया में व्यापक जनसमुदायों के जीवशैली में शामिल है रामायण।इंडोनेशिया इसका प्रमाण है।
राम हिंदुओं के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम है तो बौद्ध परंपरा में वे बोधिसत्व भी हैं।
भारत में रामकथा के विभिन्न रुप हैं और रामायण भी अनेक हैं।भिन्न कथाओं के विरोधाभास को लेकर अब तक विवाद का कोई इतिहास नहीं है।
बाल्मीकी रामायण तुलसीदास का रामचरित मानस या कृत्तिवास का रामायण या कंबन का रामायण नहीं हैय़जबकि आदिवासियों के रामायण में राम और सीता भाई बहन है।अब तक इन कथाओं में राजनीतिक हस्तक्षेप कभी नहीं हुआ है।
अब सत्ता की राजनीति के तहत रामकथा भी इतिहास संशोधन कार्यक्रम में शामिल है।
सीता का वनवास,सीता की अग्निपरीक्षा और शंबूक हत्या जैसे सारे प्रकरण समेत समूचा उत्तर रामायण सिरे से खारिज करके राम को विशुद्ध मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनाने के लिए इतिहास संशोधन ताजा कार्यक्रम है।
मनुस्मृति विधान के महिमामंडन के मकसद से यह कर्मकांड उसे लागू करने का कार्यक्रम है।
साहित्य और कला की स्वतंत्रता तो प्रतिबंधित है ही।अब साहित्य और संस्कृति की समूची विरासत इतिहास संशोधन कार्यक्रम के निशाने पर है।
सारे साहित्य का शुद्धिकरण इस तरह कर दिया जाये तो विविधता,बहुलता और सहिष्णुता का नामोनिशान नहीं बचेगा।
मीडिया में रेडीमेड प्रायोजित सूचना और विमर्श की तरह साहित्य,रंगकर्म,सिनेमा, कला और सारी विधाओं की समूची विरासत को संशोधित कर देने की मुहिम छिड़ने ही वाली है।
जो लोग अभी महान रचनाक्रम में लगे हैं,उनका किया धरा भी साबूत नहीं बचने वाला है।तमाम पुरस्कृत साहित्य को संशोधित पाठ्यक्रम के तहत संशोधित पाठ बतौर प्रस्तुत किया जा सकता है।शायद इससे बी प्रतिष्ठित विद्वतजनों को आपत्ति नहीं होगी।
रामायण संशोधन के बाद साहित्य और कला का शुद्धिकरण अभियान बी चलाने की जरुरत है।गालिब,रवींद्र और प्रेमचंद,मुक्तिबोध और भारतेंदु के साहित्य को प्रतिबंधित किया जाये,तो यह उतना बड़ा संकट नहीं है।लेकिन उनके लिखे साहित्यऔर उनके विचारों को राजनीतिक मकसद से बदलकर रख दिया जाये,तो इसका क्या नतीजे होने वाले हैं,इस पर सोचने की जरुरत है।
आज बांग्ला दैनिक एई समय में गोरखपुर में रामायण संशोधन के लिए इतिहास संशोधन के कार्यकर्ताओ की बैठक के संदर्भ में समाचार छपा है।हिंदी में यह समाचार पढ़ने को नहीं मिल रहा है।किसी के पास ब्यौरा हो तो शेयर जरुर करें।
साहित्य,कला,माध्यम,विधाओं को सत्ता के शिकंजे से रिहा कराना सत्ता परिवर्तन से बड़ी चुनौती है जो सभ्यता और मनुष्यता के लिए अनिवार्य है।
इसीलिए हम जन विमर्श के जनआंदोलन की बात कर रहे हैं।

Saturday, September 23, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-33 वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है। जहां काबूलीवाला जैसा पिता कोई नहीं है। काबूलीवाला,मुसलमानीर गल्पो और आजाद भारत में मुसलमान रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ,भाववाद या आध्यात्म नहीं! आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं। पलाश विश्वास

रवींद्र का दलित विमर्श-33
वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है।
जहां काबूलीवाला जैसा पिता कोई नहीं है।

काबूलीवाला,मुसलमानीर गल्पो और आजाद भारत में मुसलमान
रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ,भाववाद या आध्यात्म नहीं!
आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं।
पलाश विश्वास
kabuliwala এর ছবি ফলাফল

रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती सार्वभौम मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ है।विषमता की पितृसत्ता का प्रतिरोध है।अन्य विधाओं में लगभग अनुपस्थित वस्तुवादी दृष्टिकोण है।मनुस्मृति के खिलाफ,सामाजिक विषमता के खिलाफ,नस्ली वर्चस्व के खिलाफ अंत्यज,बहिस्कृतों की जीवनयंत्रणा का चीत्कार है।कुचली हुई स्त्री अस्मिता का खुल्ला विद्रोह है।न्याय और समानता के लिए संघर्ष की साझा विरासत है।
रवींद्रनाथ की गीताजंलि,उनकी कविताओं,उनकी नृत्य नाटिकाओं,नाटकों और उपन्यासों में भक्ति आंदोलन,सूफी संत वैष्णव बाउल फकीर गुरु परंपरा के असर और इन रचनाओं पर वैदिकी,अनार्य,द्रविड़,बौद्ध साहित्य और इतिहास,रवींद्र के आध्यात्म और उनके भाववाद के साथ उनकी वैज्ञानिक दृष्टि की हम सिलसिलेवार चर्चा करते रहे हैं।इन विधाओं के विपरीत अपनी कहानियों में रवींद्रनाथ का सामाजिक यथार्थ भाववाद और आध्यात्म के बजाय वस्तुवादी दृष्टिकोण से अभिव्यक्त है।इसलिए उनकी कहानियां ज्यादा असरदार हैं।
आज हम रोहिंगा मुसलमानों को भारत से खदेड़ने के प्रयास के संदर्भ में आजाद भारत में मुसलमानों की स्थिति समझने के लिए उनकी दो कहानियों काबूलीवाल और मुसलमानीर गल्पो की चर्चा करेंगे।इन दोनों कहानियों में मनुष्यता के धर्म की साझा विरासत के आइने में रवींद्र के विश्वमानव की छवि बेहद साफ हैं।
गुलाम औपनिवेशिक भारत में सामाजिक संबंधों का जो तानाबाना इस साझा विरासत की वजह से बना हुआ था,राजनीतिक सामाजिक संकटों के मध्य वह अब मुक्तबाजारी डिजिटल इंडिया में तहस नहस है।
उत्पादन प्रणाली सिरे से खत्म है।
खात्मा हो गया है कृषि अर्थव्यवस्था,किसानों और खेती प्रकृति पर निर्भर सारे समुदायों के नरसंहार उत्सव के अच्छे दिन हैं इन दिनों,जहां अपनी अपनी धार्मिक पहचान के कारण मारे जा रहे हैं हिंदू और मुसलमान किसान,आदिवासी,शूद्र,दलित,स्त्री और बच्चे।
आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं।
आज धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी में धार्मिक जाति नस्ली पहचान की वजह से मनुष्यों की असुरक्षा के मुकाबले विकट परिस्थितियों में भी सामाजिक सुरक्षा का पर्यावरण है।भारतविभाजन के संक्रमणकाल में भी घृणा,हिंसा,अविश्वास,शत्रुता का ऐसा स्रवव्यापी माहौल नहीं है जहां हिंदू या मुसलमान बहुसंख्य के आतंक का शिकार हो जाये।रवींद्रनाथ की कहानियों में उस विचित्र भारत के बहुआयामी चित्र परत दर परत है,जिसे खत्म करने पर आमादा है श्वेत आतंकवाद का यह नस्ली धर्मयुद्ध।
उनकी कहानियों में औपनिवेशिक भारत की उत्पादन प्रणाली का सामाजिक तानाबाना है जहां गांवों की पेशागत जड़ता औद्योगिक उत्पादन प्रणाली में टूटती हुई नजर आती है तो नगरों और महानगरों की जड़ें भी गांवों की कृषि व्यवस्था में है।
कृषि निर्भर जनपदों को बहुत नजदीक से रवींद्रनाथ ने पूर्वी बंगाल में देखा है और इसी कृषि व्यवस्था को सामूहिक सामुदायिका उत्पादन पद्धति के तहत आधुनिक ज्ञान विज्ञान के सहयोग से समृद्ध संपन्न भारत जनपदों की जमीन से बनाने का सपना था उनका।जो उनके उपन्यासों का भी कथानक है।
इस भारत का कोलकाता एक बड़ा सा गांव है जिसका कोना कोना अब बाजार है।
इस भारत में शिव अनार्य किसान है तो काली आदिवासी औरत।धर्म की सारी प्रतिमाएं कृषि समाज की अपनी प्रतिमाएं हैं।
जहां सारे धर्मस्थल धर्मनिरपेक्ष आस्था के केंद्र है,जिनमें पीरों का मजार भी शामिल है। जहां हिंदू मुसलमान अपने अपने पर्व और त्योहार साथ साथ मनाते हैं।पर्व और त्योहारों को लेकर जहां कोई विवाद था ही नहीं।
रवींद्रनाथ प्रेमचंद से पहले शायद पहले भारतीय कहानीकार है,जिनकी कहानियों में बहिस्कृत अंत्यज मनुष्यता की कथा है।
जिसमें कुचली हुई स्त्री अस्मिता का ज्वलंत प्रतिरोध है और भद्रलोक पाखंड के मनुस्मृति शासन के विरुद्ध तीव्र आक्रोश है।
आम किसानों की जीवन यंत्रणा है और अपनी जमीन से बेदखली के खिलाफ गूंजती हुई चीखें हैं तो गांव और शहर के बीच सेतुबंधन का डाकघर भी है।
दासी नियति के खिलाफ पति के पतित्व को नामंजूर करने वाला स्त्री का पत्र भी है।
रवींद्रनाथ की पहली कहानी भिखारिनी 1874 में प्रकाशित हुई।सत्तावर्ग से बाहर वंचितों की कथायात्रा की यह शुरुआत है।
1890 से बंगाल के किसानों के जीवन से सीधे अपनी जमींदारी की देखरेख के सिलसिले में ग्राम बांग्ला में बार बार प्रवास के दौरान जुड़ते चले गये और 1991 से लगातार उनकी कहानियों में इसी कृषि समाज की कथा व्यथा है।
उन्होंने कुल 119 कहानियां लिखी हैं।उऩके दो हजार गीतों में जो लोकसंस्कृति की गूंज परत दर परत है,उसका वस्तुगत सामाजिक यथार्थ इन्हीं कहानियों में हैं।
कविताओं की साधु भाषा के बदले कथ्यभाषा का चमत्कार इन कहानियों में है,जो क्रमशः उनकी कविताओं में भी संक्रमित होती रही है।
अपनी कहानियों के बारे में खुद रवींद्रनाथ का कहना हैः
..'এগুলি নেহাত বাস্তব জিনিস। যা দেখেছি, তাই বলেছি। ভেবে বা কল্পনা করে আর কিছু বলা যেত, কিন্তু তাতো করিনি আমি।' (২২ মে ১৯৪১)
রবীন্দ্রনাথের উক্তি। আলাপচারি
इसी सिलसिले में बांग्लादेशी लेखक इमरान हुसैन की टिप्पणी गौरतलब हैः
তার গল্পে অবলীলায় উঠে এসেছে বাংলাদেশের মানুষ আর প্রকৃতি। তার জীবনে গ্রামবাংলার সাধারণ মানুষের জীবনাচার বিশ্ময়ের সৃষ্টি করে। তার গল্পের চরিত্রগুলোও বিচিত্র_ অধ্যাপক, উকিল, এজেন্ট, কবিরাজ, কাবুলিওয়ালা, কায়স্থ, কুলীন, খানসামা, খালাসি, কৈবর্ত, গণক, গোমস্তা, গোয়ালা, খাসিয়াড়া, চাষী, জেলে, তাঁতি, নাপিত, ডেপুটি ম্যাজিস্ট্রেট, দারোগা, দালাল প-িতমশাই, পুরাতন বোতল সংগ্রহকারী, নায়েব, ডাক্তার, মেথর, মেছুনি, মুটে, মুদি, মুন্সেফ, যোগী, রায়বাহাদুর, সিপাহী, বাউল, বেদে প্রমুখ। তার গল্পের পুরুষ চরিত্র ছাড়া নারী চরিত্র অধিকতর উজ্জ্বল। বিভিন্ন গল্পের চরিত্রের প্রসঙ্গে রবীন্দ্রনাথ একসময় তারা শঙ্কর বন্দ্যোপাধ্যায়কে লিখেছিলেন 'পোস্ট মাস্টারটি আমার বজরায় এসে বসে থাকতো। ফটিককে দেখেছি পদ্মার ঘাটে। ছিদামদের দেখেছি আমাদের কাছারিতে।'
अनुवादः उनकी कहानियों में बांग्लादेश के आम लोग और प्रकृति है।उनके जीवन में बांग्लादेश के आम लोगों के रोजमर्रे के  जीवनयापन ने विस्मय की सृष्टि की है।उनकी कहानियों के पात्र भी चित्र विचित्र हैं-अध्यापक, वकील, एजेंट, वैद्य कविराज, काबूलीवाला, कायस्थ, कुलीन, कैवर्त किसान मछुआरा, ज्योतिषी, जमींदार का गोमस्ता, ग्वाला, खासिवाड़ा, हलवाहा, मछुआरा, जुलाहा, नाई, डिप्टी मजिस्ट्रेट, दरोगा, दलाल, पंडित मशाय, पुरानी बोतल बटोरनेवाला, नायब, डाक्टर, सफाईकर्मी, मछुआरिन, बोझ ढोने वाला मजदूर, योगी, रायबहादुर, सिपाही, बाउल, बंजारा, आदि। उनकी कहानियों के पुरुषों के मुकाबले स्त्री पात्र कहीूं ज्यादा सशक्त हैं।अपनी विभिन्न कहानियों के पात्रों के बारे में रवींद्रनाथ ने कभी ताराशंकर बंद्योपाध्याय को लिखा था-पोस्टमास्टर मेरे साथ बजरे (बड़ी नौका) में अक्सर बैठा रहता था।फटिक को पद्मा नदी के घाट पर देखा।छिदाम जैसे लोगों को मैंने अपनी कचहरी में देखा।
अनुवादः यह खालिस वास्तव है।जो अपनी आंखों से देखा है,वही लिख दिया।सोचकर,काल्पनिक कुछ लिखा जा सकता था,लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया है।(22 मई,1941।
रवींद्रनाथ का कथन।आलापचारिता (संवा्द)।
(संदर्भः রবীন্দ্রনাথের ছোটগল্প, http://www.jaijaidinbd.com/?view=details&archiev=yes&arch_date=20-06-2012&feature=yes&type=single&pub_no=163&cat_id=3&menu_id=75&news_type_id=1&index=0)
काबूलीवाला की कथाभूमि अफगानिस्तान से लेकर कोलकाता के व्यापक फलक से जुड़ी है,जहां इंसानियत की कोई सरहद नहीं है।काबूली वाला पिता और बंगाली पिता,काबूली वाला की बेटी राबेया और बंगाल की बालिका मिनी में कोई प्रति उनकी जाति,उनके धर्म,उनकी पहचान,उनकी भाषा और उनकी राष्ट्रीयता की वजह से नहीं है।
काबूलीवाला के कोलकाता और आज के कोलकाता में आजादी के बाद क्या फर्क आया है और वैष्णव बाउल फकीर सूफी संत परंपरा की साझा विरासत किस हद तक बदल गयी है वह हाल के दुर्गापूजा मुहर्रम विवाद से साफ जाहिर है।
रोहिंग्या मुसलमान तो फिरभी विदेशी हैं और भारत और बांग्लादेश की दोनों सरकारें रोहिंग्या अलग राष्ट्र आंदोलन की वजह से इस्लामी राष्ट्रवादी संगठनों के साथ इन शरणार्थियों को जोड़कर सुरक्षा का सवाल उठा रहीं हैं।
भारतीय नागरिक जो मुसलमान रोज गोरक्षा के नाम मारे जा रहे हैं,फर्जी मुठभेड़ों में मारे जा रहे हैं,कश्मीर में बेगुनाह मारे जा रहे हैं,दंगो में मारे जा रहे हैं, नरसंहार के शिकार हो रहे हैं और नागरिक मानवाधिकारों से वंचित हो रहे हैं और हरकहीं शक के दायरे में हैं ,शक के दायरे में मारे जा रहे हैं, उनकी आज की कथा और काबूलीवाला के कोलकाता में कितना फर्क है,यह समझना बेहद जरुरी है।
बांग्ला और हिंदी में बेहद लोकप्रिय फिल्में काबूली वाला पर बनी हैं।दक्षिण भारत में भी काबूलीवाला पर फिल्म बनी है।भारतीय भाषाओं के पाठकों के लिए यह कहानी अपरिचित नहीं है।
काबूलीवाला की ख्याति निर्मम सूदखोर की तरह है।वैसे ही जैसे कि  यूरोेप में मध्यकाल में यहूदी सूदखोरों की ख्याति है।
मर्चेंट आफ वेनिस में शेक्सपीअर ने सूदखोर शाइलाक का निर्मम चरित्र पेश किया है।इसके विपरीत रवींद्रनाथ का काबूलीवाला एक मनुष्य है,एक पिता है।
रवींद्रनाथ का काबूलीवाला कोई सूदखोर महाजन नहीं है।
वह  काबूलीवाला अफगानिस्तान में कर्ज में फंसने के कारण अपनी प्यारी बेटी को छोड़कर हिंदकुश पर्वत के दर्रे से भारत आया है तिजारत के जरिये रोजगार के लिए।
काबूलीवाला सार्वभौम पिता है,विश्वमानव विश्व नागरिक है और अपने देश में पीछे छूट गयी अपनी बेटी के प्रति उसका प्रेम मिनी के प्रति प्रेम में बदलकर सार्वभौम प्रेम बन गया है।वह न विभाजनपीड़ित शरणार्थी है,न तिब्बत या श्रीलंका का युद्धपीड़ित, न वह रोहिंग्या मुसलमान है और न मध्य एशिया के धर्मयुद्ध का शिकार।
आज के भारतवर्ष में,आज के कोलकाता में रोहिंग्या मुसलमानों कीतरह काबूलीवाला की कोई जगह नहीं है और आजाद हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों, बौद्धों, सिखों, ईसाइयों समेत तमाम गैरहिंदुओं,अनार्य द्रविड़ नस्लों,असुरों के वंशजों, आदिवासियों, किसानों,शूद्रों,दलितों और स्त्रियों के लिए कोई जगह नहींं।
वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है।
जहां काबूलीवाला जैसे पिता के लिए कोई जगह नहीं है।
देखेंः
वह पास आकर बोला, ''ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।''

मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा, ''आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।'' तनिक रुककर फिर बोला- ''बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।''

कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तहें खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे-से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं, हाथ में-थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई…..

इस कहानी बनी बाग्ला फिल्म में हिंदकुश दर्रे के लंबे दृश्य बेहद प्रासंगिक है क्योंकि इसी दर्रे की वजह से भारत में बार बार विदेशी हमलावर आते रहे हैं।आर्य,शक हुण कुषाण,पठान मुगल सभी उसी रास्ते से आये और भारतीय समाज और संस्कृति के अभिन्न हिस्सा बन गये।सिर्फ यूरोप के साम्राज्यवादी पुर्तगीज,फ्रेंच,डच,अंग्रेज वगैरह उस रास्ते से नहीं आये।वे समुंदर के रास्ते से आये और भारतीय समाज और संस्कृति के हिस्सा नहीं बने। बेहतर हो कि काबुली वाला पर बनी बांग्ला या हिंदी फिल्म दोबारा देख लें।
मुसलमानीर गल्पो की काबुलीवाला की तरह लोकप्रियता नहीं है लेकिन यह कहानी भारतीय साझा विरासत की कथा धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के विरुद्ध है।
14 अप्रैल,1941 को रवींद्रनाथ के 80 वें जन्मदिन के अवसर पर शांतिनिकेतन में उनका बहुचर्चित निबंध सभ्यता का संकट पुस्तकाकार में प्रकाशित और वितरित हुआ।7 अगस्त,1941 में कोलकाता में उनका निधन हो गया।
मृत्यु से महज छह सप्ताह पहले 2425 अप्रैल को उन्होंने अपनी आखिरी कहानी मुसलमानीर गल्पो लिखी,जिसमें वर्ण व्यवस्था और सवर्ण हिंदुओं की विशुद्धतावादी कट्टरता की कड़ी आलोचना करते हुए मुसलमानों की उदारता के बारे में उन्होंने लिखा।हिंदू समाज के अत्याचार और बहिस्कार के खिलाफ धर्मांतरण की कथा भी यह है।आखिरी कहानी होने के बावजूद मुसलमानीर गल्पो की चर्चा बहुत कम हुई है और गैरबंगाली पाठकों में से बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी होगी।
गौरतलब है कि अपने सभ्यता के संकट में रवींद्रनाथ नें नस्ली राष्ट्रीयता के यूरोपीय धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का विरोध भारत के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण के संदर्भ में करते हुए ब्रिटिश हुकूमत के अंत के बाद खंडित राष्ट्रीयताओं के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण को चिन्हित करते हुए भारत के भविष्य के बारे में चिंता व्यक्त की थी।
दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत जब सांप्रदायिक ध्रूवीकरण चरम पर था,उसी दौरान मृत्यु से पहले धर्मांतरण के लिए वर्ण व्यवस्था की विशुद्धता को जिम्मेदार बताते हुए मुसलमानों की उदारता के कथानक पर आधारित रवींद्रनाथ की इस अंतिम कहानी की प्रासंगिकता पर अभी संवाद शुरु ही नहीं हुआ है।
इस कहानी में डकैतों के एक ब्राह्मण परिवार की सुंदरी कन्या को विवाह के बाद ससुराल यात्रा के दौरान उठा लेने पर हबीर खान नामक एक मुसलमान उसे बचा लेता है और अपने घर ले जाकर उसे अपने धर्म के अनुसार जीवन यापन करने का अवसर देता है। हबीर खान किसी नबाव साहेब की राजपूत बेगम का बेटा है ,जिसे अलग महल में बिना धर्मांतरित किये हिंदू धर्म के अनुसार जीवन यापन के लिए रखा गया था और वही महल हबीर खान का घर है।जहां एक शिव मंदिर और उसके लिए ब्राह्मण पुजारी भी है।कमला अपने घर वापस जाना चाहती हैतो हबीर उसे वहां  ले जाता है।
यह कन्या अनाथ हैं और अपने चाचा के घर में पली बढ़ी,जो उसकी सुंदरता की वजह से उसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए एक विवाहित बाहुबलि के साथ विदा करके अपनी जिम्मेदारी निभा चुका था।अब मुसलमान के घर होकर आयी, डकैतों से बचकर निकली अपनी भतीजी को दोबारा घर में रखने केलिे चाचा चाची तैयार नहीं हुए तो कमला फिर हबीर के साथ उसके घर लौट जाती है।
अपने चाचा के घर में प्रेम स्नेह से वंचित और बिना दोष बहिस्कृत कमला को हबीर के घर स्नेह मिलता है तो हबीर के बेटे से उसे प्रेम हो जाता है। वह इस्लाम कबूल कर लेती है।फिर उसके चाचा की बेटी का डकैत उसीकी तरह अपहरण कर लेते हैं तो मुसलमानी बनी कमला अपनी बहन को बचा लेती है और उसे उसके घर सुरक्षित सौप आती है।
इस कहानी में हबीर को हिंदुओं और मुसलमानों के लिए बराबर सम्मानीय बताया गया है जिसके सामने हिंदू  डकैत भी हथियार डाले देते हैं तो नबाव की राजपूत बेगम की कथा में जोधा अकबर कहानी की गूंज है।हबीर में कबीर की छाया है।दोनों ही प्रसंग भारतवर्ष की साझा विरासत के हैं।
इस कहानी में कमला का धर्मांतरण प्रसंग भी रवींद्रनाथ के पूर्वजों के गोमांस सूंघने के कारण विशुद्धतावाद की वजह से मुसलमान बना दिये जाने और टैगोर परिवार को अछूत बहिस्कृत पीराली ब्राह्मण बना दिये जाने के संदर्भ से जुड़ता है।
सांप्रदायिक ध्रूवीकरण और हिंदू मुस्लिम राष्ट्रवाद के विरुद्ध सभ्यता का संकट लिखने के बाद रवींद्रनाथ की इस कहानी में साझा विरासत की कथा आज के धर्मोन्मादी गोरक्षा तांडव के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है।
इस कथा के आरंभ में सामाजिक अराजकता,देवता अपदेवता पर निर्भरता, कानून और व्यवस्था की अनुपस्थिति और स्त्री की सुरक्षा के नाम पर उसके उत्पीड़न के सिलसिलेवार ब्यौरे के साथ स्त्री को वस्तु बना देने की पितृसत्ता पर कड़ा प्रहार है  तो सवर्णों में पारिवारिक संबंध,स्नेह प्रेम की तुलना में विशुद्धता के सम्मान की चिंता भी अभिव्यक्त है।पितृसत्ता की विशुद्धता के सिद्धांत के तहत सुरक्षा के नाम स्त्री उत्पीड़न की यह कथा आज घर बाहर असुरक्षित स्त्री,खाप पंचायत और आनर किलिंग का सच है।
তখন অরাজকতার চরগুলো কণ্টকিত করে রেখেছিল রাষ্ট্রশাসন, অপ্রত্যাশিত অত্যাচারের অভিঘাতে দোলায়িত হত দিন রাত্রি।দুঃস্বপ্নের জাল জড়িয়েছিল জীবনযাত্রার সমস্ত ক্রিয়াকর্মে, গৃহস্থ কেবলই দেবতার মুখ তাকিয়ে থাকত, অপদেবতার কাল্পনিক আশঙ্কায় মানুষের মন থাকত আতঙ্কিত। মানুষ হোক আর দেবতাই হোক কাউকে বিশ্বাস করা কঠিনছিল, কেবলই চোখের জলের দোহাই পাড়তে হত। শুভ কর্ম এবং অশুভ কর্মের পরিণামের সীমারেখা ছিল ক্ষীণ। চলতে চলতে পদে পদে মানুষ হোঁচট খেয়ে খেয়ে পড়ত দুর্গতির মধ্যে।
এমন অবস্থায় বাড়িতে রূপসী কন্যার অভ্যাগম ছিল যেন ভাগ্যবিধাতার অভিসম্পাত। এমন মেয়ে ঘরে এলে পরিজনরা সবাই বলত ‘পোড়ারমুখী বিদায় হলেই বাঁচি’। সেই রকমেরই একটা আপদ এসে জুটেছিল তিন-মহলার তালুকদার বংশীবদনের ঘরে।
কমলা ছিল সুন্দরী, তার বাপ মা গিয়েছিল মারা, সেই সঙ্গে সেও বিদায় নিলেই পরিবার নিশ্চিন্ত হত। কিন্তু তা হল না, তার কাকা বংশী অভ্যস্ত স্নেহে অত্যন্ত সতর্কভাবে এতকাল তাকে পালন করে এসেছে।
তার কাকি কিন্তু প্রতিবেশিনীদেরকাছে প্রায়ই বলত, “দেখ্‌ তো ভাই, মা বাপ ওকে রেখে গেল কেবল আমাদের মাথায় সর্বনাশ চাপিয়ে। কোন্‌ সময় কী হয় বলা যায় না। আমার এই ছেলেপিলের ঘর, তারই মাঝখানে ও যেন সর্বনাশের মশাল জ্বালিয়ে রেখেছে, চারি দিক থেকে কেবল দুষ্টলোকের দৃষ্টি এসে পড়ে। ঐ একলা ওকে নিয়ে আমার ভরাডুবি হবে কোন্‌দিন, সেই ভয়ে আমার ঘুম হয় না।”
এতদিন চলে যাচ্ছিল এক রকম করে, এখনআবার বিয়ের সম্বন্ধ এল।সেই ধূমধামের মধ্যে আর তো ওকে লুকিয়ে রাখা চলবে না। ওর কাকা বলত, “সেইজন্যই আমি এমন ঘরে পাত্র সন্ধান করছি যারামেয়েকে রক্ষা করতে পারবে।”