बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है !
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल उत्तराखंड में...
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल उत्तराखंड में...
Laxman Singh Bisht Batrohi
सपनों की इस श्रृंखला में कल रात मेरे प्रिय आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल पूरी रात मेरे सिरहाने बैठकर मुझे डाँटते रहे. बोले, "बटरोही, ये क्या हो गया है तुमको और तुम्हारे उत्तराखंड को! पिछले चालीस साल तुमने जैसी भी उल्टी-सीधी की, विद्यार्थियों के सामने मेरी व्याख्या की, अपने कितने ही शिष्यों को ठिकाने लगाया... चलो, इस मुहावरे का प्रयोग नहीं करता, उन्हें अपनी यथासंभव बौद्धिकता से पढ़ाया... ऐसा भी नहीं है कि वे लोग तुम्हारे योगदान को नकार रहे हैं, जैसी तुम्हारी यथासाध्य विद्वत्ता, वैसी ही उनकी यथा-सामर्थ्य ग्रहण शक्ति... चलो जैसे-तैसे निभ गया सब कुछ. अतीत तो गुजरने के लिए ही होता है प्रियवर, अब तुम रिटायर हो गए हो, तुम्हारी आँखों के सामने ही (पहले मैंने अपने विद्यार्थियों के नाम लिखे थे, फिर उन्हें कुछ सोचकर डिलीट कर दिया) और वह प्यारे-प्यारे विद्यार्थी, जो कल तक मासूम-सी जिज्ञासाएं किया करते थे आज समाज को दिशा दे रहे हैं... इसमें खुश होने की बात है या परेशान होने की ?... ये क्या हो गया है तुमको... क्यों आजकल बहकी-बहकी सी बातें करते हो शिष्य! तुम तो बड़े तेज-तर्रार बहसें करते हुए नैनीताल की मालरोड में मित्रों के साथ घूमा करते थे, अपने इस खोल से बाहर निकलो और अपने नाराज मित्रों-शिष्यों से नए सिरे से संवाद स्थापित करो !"
उसके बाद शुक्ल जी ने मेरे कान में कहा, 'बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा होता है' और गायब हो गए.
मैं आचार्य जी से कहना ही चाह रहा था कि गुरूजी, क्रोध तो उत्तराखंड के इतिहास में यहाँ की जनता का बारी-बारी से सभी शासकों पर फूटा था, शायद हरीश रावत से भी बड़ी गलतियाँ करने वाले शासक यहाँ आए... लेकिन किसी के प्रति का क्रोध बैर में नहीं बदला... मगर शुक्ल जी यह सुनने के लिए वहाँ मौजूद नहीं थे. असल में मैं पूछना चाहता था कि क्या रावत भी बाकी सभी चट्टे-बट्टों में से ही एक था... मगर शायद मेरा सवाल ही उनकी समझ में नहीं आया था, इसलिए उन्होंने कोई जवाब देना ठीक नहीं समझा.
मेरी उम्मीद के विपरीत आचार्य जी एकाएक फिर से मेरे सिरहाने आकर बैठे दिखाई दिए. "मेरी बातें ध्यान से सुनो कहानीकार..", उन्होंने किंचित खीझ भरे स्वर में कहा, "वैसे तो मैंने अपने 'इतिहास' में कहानी को केन्द्रीय विधा स्वीकार नहीं किया है, मगर पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों में हिंदी कहानी ने अपना जो शानदार व्यक्तित्व खड़ा किया है, उसे देखते हुए मुझे अपनी राय बदलनी पड़ी है. जब मुझे तक अपनी राय में संशोधन करने के लिए स्वर्ग से लौटना पड़ा है, तुमको अपनी राय बदलने में क्या परेशानी है शिष्य? भारत में इन दिनों जनतंत्र है मेरे कहानीकार-प्राध्यापक... हमारे ज़माने की बात और थी... आज तो सारी जनता तुम्हारे मुखिया समेत कह रही है कि हरीश रावत भ्रष्ट है, डेमोक्रेसी के नाम पर वह कलंक है, तुम भी उनकी बातों का समर्थन क्यों नहीं कह देते ? तुम्हारा यह हठ एक तरह से जनतांत्रिक मूल्यों का घोर अनादर है... ठीक है कि उसने करोड़ रूपया नहीं लिया, लेकिन बातचीत के दौरान साफ दिखाई देता है कि उसका इरादा साफ नहीं था... कौड़ियों के भाव बाहर से आये धन्ना-सेठों को जमीन बेच रहा है वह... शराब-बजरी माफिया को अपने घर में बैठा रखा है... न जाने किन-किन को बुलाकर अंतर-राष्ट्रीय स्कूलों के नाम पर राजनीति कर रहा है... खेती-बाड़ी के नाम पर उन फसलों को सब्सिडी दे रहा है जिनको किसी ज़माने में यहाँ के गरीब-गुरबे असभ्य लोग खाया करते थे... दुनिया कहाँ-की-कहाँ चली गयी है, और ये अपने लोक-देवताओं को पूजने की पैरवी कर रहा है. चितई के गोल्ल देवता के दरबार में अर्जी डाल रहा है... कितने दिन तक उसका यह पाखंड चल पायेगा... कब तक वह न्यायालयों की शरण में भटकता फिरेगा... आखिर एक दिन ऊपर वाले के न्याय की ही विजय होती है... अंततः अन्याय पराजित होगा और इस देवभूमि में न्याय का साम्राज्य स्थापित होगा... यों भी जब राष्ट्र का सर्वशक्तिमान शासक तक इतिहास की दिशा मोड़ने की कोशिश कर रहा है, तुम उत्तराखंड की जड़ों को लौटाकर नया उत्तराखंड बनाने के सपने देख रहे हो ! वाह कहानीकार... आज मुझे लग रहा है कि मैंने कहानी को केन्द्रीय विधा न स्वीकार करके ठीक ही किया. कहानी से संसार नहीं चलता भाई, यथार्थ के धरातल पर आओ !...
शुक्ल जी अपनी स्थापनाओं में अडिग थे. उन्होंने फिर से दुहराया कि क्रोध अचार या मुरब्बा तभी बनता है जब लम्बे समय तक सब लोग बिना किसी प्रतिवाद और सवाल किये क्रोध को ही एक मूल्य की मान्यता दे देते हैं. जाते-जाते मुझे उनके एक और निबंध 'काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था' की कुछ पंक्तियाँ भी सुनाई दीं जिसमें वह दुहरा रहे थे कि लोक कभी गलत नहीं होता. सामाजिक मूल्य सिद्धावस्था से नहीं साधनावस्था से निर्मित होते हैं और अगर सभी लोग सीडी को सच मान रहे हैं तो एक दिन अवश्य आएगा जब हरीश रावत जेल की सीखचों में होगा. उसे वहाँ होना ही चाहिए.
उसके बाद शुक्ल जी ने मेरे कान में कहा, 'बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा होता है' और गायब हो गए.
मैं आचार्य जी से कहना ही चाह रहा था कि गुरूजी, क्रोध तो उत्तराखंड के इतिहास में यहाँ की जनता का बारी-बारी से सभी शासकों पर फूटा था, शायद हरीश रावत से भी बड़ी गलतियाँ करने वाले शासक यहाँ आए... लेकिन किसी के प्रति का क्रोध बैर में नहीं बदला... मगर शुक्ल जी यह सुनने के लिए वहाँ मौजूद नहीं थे. असल में मैं पूछना चाहता था कि क्या रावत भी बाकी सभी चट्टे-बट्टों में से ही एक था... मगर शायद मेरा सवाल ही उनकी समझ में नहीं आया था, इसलिए उन्होंने कोई जवाब देना ठीक नहीं समझा.
मेरी उम्मीद के विपरीत आचार्य जी एकाएक फिर से मेरे सिरहाने आकर बैठे दिखाई दिए. "मेरी बातें ध्यान से सुनो कहानीकार..", उन्होंने किंचित खीझ भरे स्वर में कहा, "वैसे तो मैंने अपने 'इतिहास' में कहानी को केन्द्रीय विधा स्वीकार नहीं किया है, मगर पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों में हिंदी कहानी ने अपना जो शानदार व्यक्तित्व खड़ा किया है, उसे देखते हुए मुझे अपनी राय बदलनी पड़ी है. जब मुझे तक अपनी राय में संशोधन करने के लिए स्वर्ग से लौटना पड़ा है, तुमको अपनी राय बदलने में क्या परेशानी है शिष्य? भारत में इन दिनों जनतंत्र है मेरे कहानीकार-प्राध्यापक... हमारे ज़माने की बात और थी... आज तो सारी जनता तुम्हारे मुखिया समेत कह रही है कि हरीश रावत भ्रष्ट है, डेमोक्रेसी के नाम पर वह कलंक है, तुम भी उनकी बातों का समर्थन क्यों नहीं कह देते ? तुम्हारा यह हठ एक तरह से जनतांत्रिक मूल्यों का घोर अनादर है... ठीक है कि उसने करोड़ रूपया नहीं लिया, लेकिन बातचीत के दौरान साफ दिखाई देता है कि उसका इरादा साफ नहीं था... कौड़ियों के भाव बाहर से आये धन्ना-सेठों को जमीन बेच रहा है वह... शराब-बजरी माफिया को अपने घर में बैठा रखा है... न जाने किन-किन को बुलाकर अंतर-राष्ट्रीय स्कूलों के नाम पर राजनीति कर रहा है... खेती-बाड़ी के नाम पर उन फसलों को सब्सिडी दे रहा है जिनको किसी ज़माने में यहाँ के गरीब-गुरबे असभ्य लोग खाया करते थे... दुनिया कहाँ-की-कहाँ चली गयी है, और ये अपने लोक-देवताओं को पूजने की पैरवी कर रहा है. चितई के गोल्ल देवता के दरबार में अर्जी डाल रहा है... कितने दिन तक उसका यह पाखंड चल पायेगा... कब तक वह न्यायालयों की शरण में भटकता फिरेगा... आखिर एक दिन ऊपर वाले के न्याय की ही विजय होती है... अंततः अन्याय पराजित होगा और इस देवभूमि में न्याय का साम्राज्य स्थापित होगा... यों भी जब राष्ट्र का सर्वशक्तिमान शासक तक इतिहास की दिशा मोड़ने की कोशिश कर रहा है, तुम उत्तराखंड की जड़ों को लौटाकर नया उत्तराखंड बनाने के सपने देख रहे हो ! वाह कहानीकार... आज मुझे लग रहा है कि मैंने कहानी को केन्द्रीय विधा न स्वीकार करके ठीक ही किया. कहानी से संसार नहीं चलता भाई, यथार्थ के धरातल पर आओ !...
शुक्ल जी अपनी स्थापनाओं में अडिग थे. उन्होंने फिर से दुहराया कि क्रोध अचार या मुरब्बा तभी बनता है जब लम्बे समय तक सब लोग बिना किसी प्रतिवाद और सवाल किये क्रोध को ही एक मूल्य की मान्यता दे देते हैं. जाते-जाते मुझे उनके एक और निबंध 'काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था' की कुछ पंक्तियाँ भी सुनाई दीं जिसमें वह दुहरा रहे थे कि लोक कभी गलत नहीं होता. सामाजिक मूल्य सिद्धावस्था से नहीं साधनावस्था से निर्मित होते हैं और अगर सभी लोग सीडी को सच मान रहे हैं तो एक दिन अवश्य आएगा जब हरीश रावत जेल की सीखचों में होगा. उसे वहाँ होना ही चाहिए.
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