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Tuesday, June 28, 2016
मोदी जी,बनारस अपने 35 हजार मुसलमान बेटों को याद करके रोता है - migration of muslims from varanasi
“आप कैराना की बात करते हो? मेरी आँखों में देखो,बनारस हमारे बच्चों का बचपन खा गया! उनकी माँ सपनो में चीख चीख उन्हें बुलाती है, वो आते भी हैं लेकिन फिर लौट जाते हैं”! 65 साल का नुरुल जब यह बात कहता है तो वो काँप रहा होता है और उसकी आँखें लगता है बाहर आ जायेंगी, मगर आँखें नहीं एक समुन्दर बाहर आता है। बनारस के मदनपुरा में सड़कें और बाजार इन दिनों रोजेदारों से पटी पड़ी है। वैसे तो आम दिनों में भी यहाँ की गलियों,सड़कों और दुकानों पर टोपी और लुंगी पहने हर उम्र के लोग गपशप करते नजर आते हैं,लेकिन रमजान के मौके पर भीड़ बढ़ जाती है। मदनपुरा से लगभग 6 किलोमीटर दूर जैतपुरा में भी यही माहौल है। अंतर बस इतना है कि मदनपुरा की तरह जैतपुरा में आलिशान बिल्डिंग चौड़ी सड़के नजर नहीं आती है। आम बनारसी मदनपुरा को अमीर मुसलमानों का और जैतपुरा को गरीब मुसलमानों का मोहल्ला बताता है,हांलाकि दोनों ही मोहल्लों में बनारसी सिल्क के ताने बाने के बीच बुनकरों के सपने पलते बढ़ते रहे हैं। लेकिन अब यह ताना बाना और यह सपने बुरी तरह से टूट चुके है। दूरियों के बीच घने होते मोहल्ले रामजन्म भूमि आन्दोलन के बाद से लगभग 4 लाख की आबादी वाले इन दोनों मुहल्लों में बहुत कुछ बदला है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस काल के बाद से बनारस के इन दो मोहल्लों से लगभग 35 हजार मुसलमान देश के अलग अलग राज्यों में पलायन कर चुके हैं,दुखद यह है कि पलायन करने वाला यह मुसलमान वो है जो मजदूरी करके अपना पेट भरा करता था| यह बात अजीबोगरीब मगर सच है कि आज के बनारस में पैसे वाले मुसलमान मुंहमांगी कीमत देकर मुस्लिम आबादी में अपना घर ढूंढ रहे हैं तो वहीँ मुस्लिम आबादी में रहने वाले हिन्दू भी कौड़ियों के दाम पर अपने घर मकान जमीन बेचकर हिन्दू बहुल आबादी की ओर रुख कर रहे हैं| गुजरात में भटक रही बनारसीयत गुजरात के सूरत,बंगलुरु और मुंबई की ओर हुए इस पलायन की भयावहता का अंदाजा निर्वाचन आयोग की मतदाता सूची से लगाया जा सकता है|आंकड़े बताते हैं कि 1990-91 में वाराणसी और चंदौली के 75,324 हथकरघा कारखानों में करीब 1.24 लाख बुनकर काम करते थे जबकि 1700 पावरलूम में 7 हजार बुनकरों का काम मिला था। लेकिन 2009-2010 में वाराणसी में हथकरघा बुनकरों की संख्या घटकर 95,372 रह गई रही तो हथकरघा कारखाने 52 हजार रह गए । मदनपुरा के रफीक अंसारी कहते हैं कि हमारे यहाँ शायद ही कोई परिवार ऐसा होगा जिसके यहाँ से कोई न कोई बाहर न चला गया हो|रफीक कहते हैं बाहर जाने वाले ज्यादातर लड़के हैं इसलिए हमारे मोहल्ले अब बुजुर्गों के मोहल्ले बन गए हैं। बनारस से इतने बड़े पैमाने पर हुए पलायन को समझने के लिए आमतौर पर हथकरघा उद्योग की बदहाल स्थिति को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है निस्संदेह हिन्दुस्तानी बाजार में चीन के प्रवेश और बनारसी साड़ियों की नक़ल पर पर आधारित सूरत का साड़ी उद्योग इस पलायन की एक वजह रहा है|लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलु भी है जो बेहद भयावह है लेकिन जिन पर न तो भाजपा बात करती है न ही कांग्रेस| दंगों ने तोड़ डाले मोहब्बत के धागे बनारस से हुए इस बड़े पलायन के पीछे दंगों का एक पूरा इतिहास जिम्मेदार रहा है| 1989 से 1992 के दौरान बनारस शहर में सात बार दंगे और सात बार कर्फ्यू लगे। उस वक्त को याद करते हुए लेखक साहित्यकार रामाज्ञा शशिधर कहते हैं कि बाबरी मस्जिद ध्वंस से पहले पूरा बनारस मिथकीय, प्रतीकात्मक और मनोवैज्ञानिक गतिविधियों का ’थियेटर’ बन गया।दुर्गा पूजा और मोहर्रम ने काशी में दंगों का दंगल इस कदर शुरू किया कि शांति, साधना, शास्त्रार्थ, करघे और शहनाई के मुहल्ले छोटी-छोटी अयोध्याएं और छोटे-छोटे पाकिस्तान में तब्दील किए जाने लगे। गली-मुहल्ले में राम मंदिर के लिए ईंट के नाम पर बड़े पैमाने पर जुलूस, नारे, भगवा ध्वजारोेहण, गायों -बैलों की यात्रा होती थी। इस दौरान चंदा उगाही अनेक स्तरों पर होती थी। शाम होते ही घरों से निर्मित बनारस की छतों पर घंटा घड़ियाल चीखने लगते थे ।इन सबका नतीजा यह हुआ कि बुनकर जुलाहों में डर और आतंक का गहरा अंधेरा छाने लगता था। इस दौरान लोहता और मदनपुरा क्षेत्र में दंगों के दौरान कई जानें गईं। इस माहौल ने जुलाहे बुनकर और हिन्दू साड़ी गद्दीदार के बीच तनाव बढ़ा दिया गया।नतीजा पलायन के रूप में सामने आया। इन सबका परिणाम हुआ कि बनारस के नगर निगम, विधानसभा क्षेत्रों और लोकसभा पर बीजेपी का कब्जा हो गया जो आज तक एकछत्र शासनारूढ़ है। क्या बनारस का मुसलमान भयभीत है ? हम काशी के मुस्लिम बहुल इलाकों में घूमते हुए यह सवाल कई लोगों से पूछते हैं कि क्या बनारस का मुसलमान भयभीत है ? जवाब दो ही मिलते हैं।या तो नहीं या फिर खामोशी। नई सड़क के गुलाम रसूल बताते हैं कि मैं रामापुरा में रहता हूँ चारों ओर हिन्दू एक घर मेरा।रसूल बताते हैं जब बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद दंगे भड़के तो मेरे घर वाले मुझे रामापुरा से नईसड़क यह कहकर ले आये कि तुम्हारे साथ कुछ बुरा न हो जाए, लेकिन हुआ उल्टा, जब मैं नई सड़क गया तो वहां से पुलिस वालों ने पकड़ लिया खैर अच्छी बात यह थी कि मुझे हिन्दुओं ने छुडाया ,लेकिन सारे मुसलमान इतने खुशनसीब नही रहे,मदनपुरा और जैतपुरा के मेरे कई साथी उस अंधी आंधी के शिकार हो गए ,जो नहीं हुए, उन्होंने भय से पलायन करना ही ठीक समझा |गुलाम रसूल कहते हैं कि वह भय अब नहीं है, जिन्हें जाना था वह बनारस छोड़ कर जा चुके हैं,अब जो हैं वो जानते हैं कि बनारस उनका नसीब है उन्हें बनारस की ही मिटटी में मिल जाना है। - आवेश तिवारी Awesh Tiwari
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