Thursday, June 30, 2016

याद दिलाया कि बाबा का जन्‍मदिन है

मुझे याद नहीं था। परसों सौरभ ने - और आज आशुतोष ने याद दिलाया कि बाबा का जन्‍मदिन है - कुछ लिखिए। आशुतोष ने जो तस्‍वीर इनबॉक्‍स में भेजी, उसमें बाबा चूड़ा (पोहा) और आम खा रहे हैं। बाबा के साथ की बहुत सारी यादें अब ज़ेहन से मिट रही हैं। बाबा जहां भी जाते, लोग अपनी लिखी किताबें उन्‍हें भेंट किया करते थे। उनमें से कुछ मैं अपने लिए चुन लेता था। पटना में एक बार जब बाबा खगेंद्र ठाकुर के यहां रुके थे - राणा प्रताप जी ने उन्‍हें अपना एक नॉवेल दिया। राणा प्रताप जी बहुत मृदुभाषी थे। नक्‍सलबाड़ी आंदोलन के समय वे काफी सक्रिय रहे। मुझे हैरानी होती थी कि कठोर राजनीतिक जीवन बिताने के बाद भी कोई इतना मुलायम कैसे रह सकता है। बाद में विनोद मिश्रा, केडी यादव, स्‍वदेश जी, प्रभात कुमार चौधरी, प्रसन्‍न कुमार चौधरी और दीपांकर भट्टाचार्य से मिलने के बाद मैं मुतमइन हुआ कि ईमानदार राजनीति आपको स्‍थायी तौर पर कोमल हृदय का बना ही देती है। तो राणा प्रताप जी का नॉवेल मैंने रख लिया। नाम था शायद भूमिपुत्र। मैंने उसी यात्रा में उसे पूरा पढ़ लिया। बहुत अच्‍छी किताब थी। लेकिन उस किताब पर आज तक किसी का लिखा हुआ मैंने नहीं पढ़ा। मैंने भी कभी उस पर नहीं लिखा। भारतीय भाषाओं के असंख्‍य लेखकों की नियति चर्चा से बाहर रहने की है। बाबा के मित्र थे मणिपद्म जी। मैथिली के लेखक थे। कहते थे - काम की चीज़ लिखोगे, तो मरने के बाद भी आलमारी तोड़ कर लोग रचनाएं ले जाएंगे। मैथिली-हिंदी के एक बड़े लेखक राजकमल चौधरी मृत्‍यु के बाद लंबे समय तक साहित्यिक निर्वासन के शिकार रहे। बाद में तारानंद वियोगी जैसे लोगों ने उनकी पुनर्खोज की। आज उनकी मृत्‍यु के लगभग पचास साल होने होने पर उनकी रचनावली राजकमल प्रकाशन ने छापी है। बाबा की चर्चा लेकिन हमेशा होती रही। वह अपने जीवन काल में ही युगपुरुष जैसा सम्‍मान पा गये थे। समय फिर भी दुखदायी था। पैसे उतने नहीं थे - जितना समाज ने उनसे लिया था। हमें हमारे लेखकों का भार उठाने लायक संस्‍थान चाहिए। साहित्‍य अकादमी या ज्ञानपीठ झुनझुना है। मृगमरीचिका से बाहर निकल कर हमें अपने लेखकों को आरामकुर्सी देनी चाहिए। लेकिन हम कृतघ्‍न हैं, कायर हैं। धन्‍यवाद।

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