रवींद्र का दलित विमर्श-32
देवी नहीं है,कहीं कोई देवी नहीं है।
विसर्जनःदेवता के नाम मनुष्यता खोता मनुष्य
দেবতার নামে
মনুষ্যত্ব হারায় মানুষ
पलाश विश्वास
वैसे भी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी के मध्य मनुस्मृति विरोधी रवींद्र के दलित विमर्श को जारी रखने में भारी कठिनाई हो रही।रवींद्र के दलित विमर्श और उससे संदर्भ सामग्री शेयर करने पर बार बार रोक लग रही है।
दैवी सत्ता और राजसत्ता के देवी पक्ष में देवी के अस्तित्व से इंकार के नाटक विसर्जन की चर्चा इस अंध धर्मोन्माद के महिषासुर वध उत्सव के मध्य बेहद मुश्किल है लेकिन जरुरी भी है सत्ता ने वर्ग वर्ण नस्ली तिलिस्म को तोड़ने के लिए।
रवींद्र नाथ ने राष्ट्रवाद के विरुद्ध त्रिपुरा राजपरिवार को लेकर राजर्षि उपन्यास लिखा,जिसका प्रकाशन 1889 में हुआ।फिर उन्होंने इसी उपन्यास के पहले अंश को लेकर विसर्जन नाटक लिखा,जो 1890 में प्रकाशित हुआ।
राष्ट्रवाद के नाम अंध धर्मोन्माद के खिलाफ यह नाटक है जिसमें बलि प्रथा का विरोध है और देवी के अस्तित्व से सिरे से इंकार है।जयसिंह के आत्म बलिदान की कथा भी यह है.जो सत्य,अहिंसा और प्रेम की मनुष्यता का उत्कर्ष है।
धर्म और आस्था से बड़ी है मनुष्यता और वही विश्वमानव जयसिंह है।
रवींद्रनाथ ने सीधे कह दिया हैःदेवी नहीं है,कही कोई देवी नहीं है।
सिर्फ विसर्जन नाटक ही नहीं,रवींद्रनाथ ने विसर्जन शीर्षक से गंगासागर तीर्त यात्रा के दौरान पुरोहित के उकसावे पर देवता के रोष से बचने के लिए तीर्थ यात्रियों के अंध विश्वास के कारण एक विधवा के इकलौते बेटे को गंगा में विसर्जन की कथा अपनी कविता देवतार ग्रास में लिखी है।
इस नाटक में दैवी सत्ता राजसत्ता के साधन बतौर प्रस्तुत है। अंध धर्मोन्माद की सत्ता की राजनीति बेनकाब है इसमें,जो आज का सच है।
आम जनता में देव देवी के नाम धर्मसत्ता के आवाहन के तहत राष्ट्रव्यवस्था पर कब्जा करके निजी हित साधने के तंत्र मंत्र का पर्दाफाश करते हुए रवींद्र कहते हैं कि जिस दिवी के नाम यह धर्मोन्माद है,वह कहीं है ही नहीं।
यह सियासती मजहब इंसानियत के खिलाफ है।
मनुष्यता के खिलाफ पशुता को महोत्सव है यह धर्मोन्माद।
आज से करीब सवासौ साल पहले रवींद्र नाथ इस मजहबी सियासत के खिलाफ मुखर थे और हम आज उसी मजहबी सियासते के पक्षधर बनकर महिषासुर वध की तरह रवींद्रनाथ के वध के उत्सव में शामिल हैं और इस पर संवाद प्रतिबंधित है।
सवासौ साल पहले यूरोप के धर्मयुद्ध के राष्ट्रवाद के विरुद्ध भारतीय मनुष्यता के धरम की बात कर रहे थे रवींद्रनाथ और देव,देवी,ईश्वर के नाम अंध विश्वास की पूंजी के दम पर धर्म सत्ता के आवाहन से सत्ता के अपहरण के राष्ट्रवाद पर हिंसा,घृणा और नरसंहार की संस्कृति के विरुद्ध सत्य,प्रेम और अहिंसा के मनुष्यताबोध का आवाहन कर रहे थे रवींद्रनाथ।
इस नाटक की पृष्ठभूमि त्रिपुरा में गोमती नदी के पास विख्यात कालीमंदिर है तो कथा का स्रोत बौद्धसाहित्य है।हिंसा और घृणा की नरसंहारी वैदिकी संस्कृति के विरुद्ध महात्मा तथागत गौतम बुद्ध के सत्य,प्रेम और अहिंसा की वाणी है।
धर्म का अर्थ मनुष्यता का धारण है।
धर्म का अर्थ मनुष्य और प्रकृति का आध्यात्मिक तादात्म्य है।
भारतीय दर्शन परंपरा की साझा विरासत की जमीन पर खड़े रवींद्रनाथ ने इस नाटक के जरिये वैदिकी कर्मकांड, बलिप्रथा, रक्तपात, हिंसा के माध्यम से दैवी सत्ता के आवाहन के राजकीय आयोजन को धर्म या आस्था मानने से सिरे इंकार करते हुए कहा है,देवी नही है।
देवी कहीं नही है।
जो है वह मनुष्यता है।
जो है वह सत्य और सुंदर है।
जो है वह मनुष्य और मनुष्यता है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच अहिंसा और प्रेम का मानवबंधन है।
घृणा और हिंसा के धर्मस्थल की पाषाणप्रतिमा में देवी नहीं है।
देवी कहीं नहीं है।
महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म के अनुसार जीवों से प्रेम और स्वामी विवेकानंद के नरनारायण का अद्भुत समन्वय है इस नाटक का कथानक और कथ्य दोनों।
अंध विश्वास की पूंजी परआधारित धार्मिक कट्टरपंथ के हिंसा और घृणा पर आधारित नरसंहारी राष्ट्रवाद के विरुद्ध मनुष्यता और सभ्यता का आधार सत्य,प्रेम और अहिसा है,जो सत्य है,सुंदर है और शाश्वत भी है।
भारतीय दर्शन परंपरा में यही धर्म है।
संत सूफी भक्ति आंदोलन,बाउल फकीर आंदोलन के विमर्श में मनुष्यता के धर्म भी वैदिकी संस्कृति के मनुस्मृति धर्म की हिंसा,घृणा,बलि और वध के खिलाफ है।
धर्म का समूचा भारतीय दर्शन नरसंहार संस्कृति के खिलाफ है जो आज पासिस्ट कारपोरेट नस्ली वर्चस्व का राष्ट्रवाद है।
परंपरा और लोकाचार नहीं,धर्म का आशय मनुष्य की मुक्ति और मानव कल्याण है और मनुष्यों की सामाजिक एकता है।जहां भेदभाव विषमता अन्या और असमानता के लिए कोई स्थान नहीं है,जो पश्चिम के फासिस्ट दैवीसत्ता के नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के अनिवार्य तत्व हैं।
राजर्षि उपन्यास और विसर्जन नाटक का कुल सार यही है।
रवींद्रनाथ ने लिखा भी हैः ‘ধর্ম যখন তার প্রকৃত উদ্দেশ্য ও স্বরূপ হারিয়ে নিমজ্জিত হয় গোড়ামি ও আচার সর্বস্বতায়, তখন তা হয়ে ওঠে মানবতাবিরোধী।’
अनुवादः धर्म जब अपने सही ल्क्ष्य से भटककर,अपना स्वरुप खोकर कट्टरपंथ और कर्मकांड सर्वस्वता में निष्णात हो जाता है,तब वह मनुष्यताविरोधी धर्म बन जाता है।
आज मनुष्यता विरोधी प्रकृति विरोधी धर्म और धर्मोन्मादी नरसंहारी राष्ट्रवाद के शिकंजे में मनुष्यता मर रही है और प्रकृति से मनुष्यता और सभ्यता का मानवबंधन टूट रहा है।गोरक्षा तांडव महिषासुर वध उत्सव की बलि बेदी पर मनुष्यता के वध का उत्सव है यह मुक्तबाजारी कारपोरेट धर्मोन्मादी महोत्सव का नंगा कार्निवाल।
नाटक की शुरुआत में त्रिपुरा की रानी गुणवती पुत्र की कामना लेकर धर्म गुरु रघुपति के समक्ष पशुबलि की मनौती करती हैं।लेकिन राजा गोविंदमाणिक्य ने त्रिपुरा में पशुबलि निषिद्ध कर दी है और वे जीवों से प्रेम के खिलाफ हिंसा को धर्म के विरुद्ध मानते हैं।लेकिनरानी की पुत्रकामना को पूंजी बनाकर पशुबलि संपन्न करने के लक्ष्य में अडिग थे राजपुरोहित धर्मगुरु।
हम आज ऐसे धर्मगुरुओं,राजपरुोहितों,राजकीय संतों साध्वियों का तांडव और कटकटेला अंधकार का उनका कारोबारी राजकाज देख रहे हैं।
मनुष्यता के धर्म के महानायक रुप में राजा गोविंदमाणिक्य का चरित्र है।
दैवीसत्ता के राजसत्ता पर वर्चस्व के लिए त्रिपुरा राजपरिवार में गृहयुद्ध का पर्यावरण इस नाटक का कथानक है जो आज के गोरक्षा तंडव का सच भी है।
पुरोहित दैवीसत्ता के पक्ष में राजसत्ता पर दैवीसत्ता के वर्चस्व के लिए राजमाता और त्रिपुरा के जणगण की आस्था और उनके अंध विश्वास के आधार पर धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण में कामयाब हो जाते हैं जो आज का सबसे बड़ा राजनीतिक सच है जिसके सामने प्रतिरोध सिरे से असंभव हो गया है और पशुबलि की जगह नरबलि का महोत्सव जारी है।
धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण में बहुसंख्य आम जनता की आस्था और अंध विश्वास के राजनीतिक इस्तेमाल के राष्ट्रवाद की सुनामी की वजह से नरबलि का महोत्सव धर्म कर्म और राजकाज साथ साथ हैं।
क्षत्रपों को सत्ता समीकरण में सत्ता साझा करने की सोशल इंजीनियरिंग की तरह राजपुरोहित धर्म और देवी की स्वप्न आज्ञा का हवाला देकर सेनापति को राजा के खिलाफ विद्रोह के लिए उकसाते है और राजा केभाई नक्षत्र राय को नया राजा बनाने काप्रलोभन देकर तख्ता पलट की साजिश रचते हैं।
भाई से भाई की हत्या कराने के लिए इस धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण की साजिशाना मजहबी सियासत के खिलाफ जयसिंह प्रतिरोध करते हैं।
वे सीधे सवाल खड़ा करते हैं ः
‘একী শুনিলাম ! দয়াময়ী মাতঃ;
...ভাই দিয়ে ভ্রাতৃহত্যা?
...হেন আজ্ঞা
মাতৃআজ্ঞা বলে করিলে প্রচার।’
अनुवादः
यह क्या सुन रहा हूं! दयामयी माता
---भाई के हाथों भाई की हत्या?
…. ऐसे आदेश को
माता का आदेश बताकर हो रहा है प्रचार।
तकनीकी क्रांति के माध्यमों और विधाओं पर वर्चस्व हो जाने से धर्मोन्मादी प्रचार तंत्र का यह बीज है जो अब विषवृक्षों का महारण्य है।सारे वनस्पति मरणासण्ण हैं।फिजां जहरीली है और हर सांस के साथ हिंसा और घृणा का संक्रमण है।
फिर इस साजिश का पता चलने पर राजा गोविंदमाणिक्य कहते हैंः
‘...জানিয়াছি, দেবতার নামে
মনুষ্যত্ব হারায় মানুষ।’
अनुवादः
जान गया मैं,देवता के नाम
मनुष्यता खोता मनुष्य
नाटक के अंत में जयसिंह के आत्म बलिदान से राजपुरोहित का मन बदलता है।पुत्रसमान जयसिंह को खोने के बाद वैदिकी हिंसा में उनकी आस्था डगमगा जाती है।
जयसिंह को खोने के बाद भिखारिणी अपर्णा के समक्ष राजपुरोहित रघुपति सच का सामना करते हैंः
‘পাষাণ ভাঙ্গিয়া গেল জননী আমার
এবার দিয়েছ দেখা প্রত্যক্ষ প্রতিমা
জননী অমৃতময়ী।’
पाषाण टूट गया है जननी मेरी
अब प्रत्यक्ष प्रतिमा का दर्शन मिला है
जननी अमृतमयी
नाटक के अंतिम दृश्य में हिंसा की धर्मोन्मादी आस्था की देवी मूर्ति टूट जाती है और धर्मोन्मादी राजपुरोहित खुद देवी के अस्तित्व से ही इंकार कर देते हैं।
देखेंः
গুণবতী। জয় জয় মহাদেবী।
দেবী কই?
রঘুপতি। দেবী নাই।
গুণবতী। ফিরাও দেবীরে
গুরুদেব, এনে দাও তাঁরে, রোষ শান্তি
করিব তাঁহার। আনিয়াছি মার পূজা।
রাজ্য পতি সব ছেড়ে পালিয়াছি শুধু
প্রতিজ্ঞা আমার। দয়া করো, দয়া করে
দেবীরে ফিরায়ে আনো শুধু, আজি এই
এক রাত্রি তরে। কোথা দেবী?
রঘুপতি। কোথাও সে
নাই। ঊর্ধ্বে নাই, নিম্নে নাই, কোথাও সে
নাই, কোথাও সে ছিল না কখনো।
গুণবতী। প্রভু,
এইখানে ছিল না কি দেবী?
রঘুপতি। দেবী বল
তারে? এ সংসারে কোথাও থাকিত দেবী,
তবে সেই পিশাচীরে দেবী বলা কভু
সহ্য কি করিত দেবী? মহত্ত্ব কি তবে
ফেলিত নিষ্ফল রক্ত হৃদয় বিদারি
মূঢ় পাষাণের পদে? দেবী বল তারে?
পুণ্যরক্ত পান ক'রে সে মহারাক্ষসী
ফেটে মরে গেছে।
अनुवादः
गुणवती। जय जय महादेवी
देवी कहां हैं?
रघुपति। देवी नहीं है।
गुणवती। लौटा लाओ देवी को
गुरुदेव,ले आओ उन्हें,गुस्सा उनका
करुंगी मैं ठंडा।लायी हू मां की पूजा।
राज्य पति छोड़कर भागी हूं मैं
अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने को.दया करो,दया करो,
देवी को लौटा लाओ,सिर्फ आज की
एक रात के लिए।कहां हैं देवी?
रघुपति। कहीं भी नहीं हैं वे
उर्द्धे नहीं हैं,निम्ने नहीं हैं,कहीं भी
नहीं है वे।कहीं वह थीं ही नहीं।
गुणवती। प्रभु,
यहीं क्या थीं नहीं वह?
रघुपति। देवी
कहती हो उसे? इस संसार में होती कहीं देवी
तो उस पिशाची को देवी कहने पर
क्या सहन कर लेती देवी? इसकी महत्ता क्या
फलती ह्रदय तोड़कर निकले निष्फल रक्त
पाषाण के पांवों पर?उसे कहती हो देवी?
पुण्य रक्त पीकर महाराक्षसी
वह पाषाण फटकर मर गयी है।
राजर्षि उपन्यास का आख्यान देखेंः
तीसरा परिच्छेद
राज-सभा बैठी है। भुवनेश्वरी देवी मंदिर का पुरोहित कार्यवश राज-दर्शन को आया है।
पुरोहित का नाम रघुपति है। इस देश में पुरोहित को चोंताई संबोधित किया जाता है। भुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौदह दिन बाद देर रात को चौदह देवताओं की एक पूजा होती है। उस पूजा के समय एक दिन दो रात कोई भी घर से नहीं निकल सकता, राजा भी नहीं। अगर राजा बाहर निकलते हैं, तो उन्हें चोंताई को अर्थ-दण्ड चुकाना पडता है। किंवदंती है कि इस पूजा की रात को मंदिर में नर-बलि होती है। इस पूजा के उपलक्ष्य में सबसे पहले जो पशु-बलि होती है, उसे राजबाड़ी के दान के रूप में ग्रहण किया जाता है। इसी बलि के पशु लेने के लिए चोंताई राजा के पास आया है। पूजा में और बारह दिन बचे हैं।
राजा बोले, "इस बरस से मंदिर में जीव-बलि नहीं होगी।"
सभा के सारे लोग अवाक रह गए। राजा के भाई नक्षत्रराय के सिर के बाल तक खड़े हो गए।
चोंताई रघुपति ने कहा, "क्या मैं यह सपना देख रहा हूँ!"
राजा बोले, "नहीं ठाकुर,हम लोग इतने दिन तक सपना देख रहे थे, आज हमारी चेतना लौटी है। एक बालिका का रूप धारण करके माँ मुझे दिखाई दी थीं। वे कह गई हैं, करुणामयी जननी होने के कारण माँ अपने जीवों का और रक्त नहीं देख सकतीं।"
रघुपति ने कहा, "तब माँ इतने दिन तक जीवों का रक्त-पान कैसे करती आ रही हैं?"
राजा ने कहा, "नहीं, पान नहीं किया। जब तुम लोग रक्तपात करते थे, वे मुँह घुमा लेती थीं।
पाँचवाँ परिच्छेद
प्रात:काल नक्षत्रराय ने आकर रघुपति को प्रणाम करके पूछा, "ठाकुर, क्या आदेश है?"
रघुपति ने कहा, "तुम्हारे लिए माँ का आदेश है। चलो, माँ को प्रणाम करो।"
दोनों मंदिर में गए। जयसिंह भी साथ-साथ गया। नक्षत्रराय ने भुवनेश्वरी की प्रतिमा के सम्मुख साष्टांग प्रणति निवेदन किया।
रघुपति ने नक्षत्रराय से कहा, "कुमार, तुम राजा बनोगे।"
नक्षत्रराय ने कहा, "मैं राजा बनूँगा? पुरोहित जी क्या बोल रहे हैं, उसका कोई मतलब नहीं है।"
कह कर नक्षत्रराय ठठा कर हँसने लगा।
रघुपति ने कहा, "मैं कह रहा हूँ, तुम राजा बनोगे।"
नक्षत्रराय ने कहा, "आप कह रहे हैं, मैं राजा बनूँगा?"
कह कर रघुपति के चेहरे की ओर ताकता रहा।
रघुपति ने कहा, "मैं क्या झूठ बोल रहा हूँ?"
क्षत्रराय ने कहा, "बोलिए, क्या करूँ?"
रघुपति - "ध्यानपूर्वक बात सुनो। तुम्हें माँ के दर्शन के लिए गोविन्द माणिक्य का रक्त लाना होगा।"
नक्षत्रराय ने मन्त्र के समान दोहराया, "माँ के दर्शन के लिए गोविन्द माणिक्य का रक्त लाना होगा।"
रघुपति नितांत घृणा के साथ बोल उठा, "ना, तुमसे कुछ नहीं होगा।"
नक्षत्रराय ने कहा, "क्यों नहीं होगा? जो बोला है, वही होगा। आप तो आदेश दे रहे हैं?"
रघुपति - "हाँ, मैं आदेश दे रहा हूँ।"
नक्षत्रराय - "क्या आदेश दे रहे हैं?"
रघुपति ने झुँझलाते हुए कहा, " माँ की इच्छा है, वे राज रक्त का दर्शन करेंगी। तुम गोविन्द माणिक्य का रक्त दिखा कर उनकी इच्छा पूर्ण करोगे, यही मेरा आदेश है।"
रघुपति - "सुनो वत्स, तब तुम्हें एक और शिक्षा देता हूँ। पाप-पुण्य कुछ नहीं होता। पिता कौन है, भाई कौन है, कोई ही कौन है? अगर हत्या पाप है, तो सारी हत्याएँ ही एक जैसी हैं। लेकिन कौन कहता है, हत्या पाप है? हत्याएँ तो हर रोज ही हो रही हैं। कोई सिर पर पत्थर का एक टुकड़ा गिर जाने से मर रहा है, कोई बाढ़ में बह जाने से मर रहा है, कोई महामारी के मुँह में समा कर मर रहा है, और कोई आदमी के छुरा मार देने से मर रहा है। हम लोग रोजाना कितनी चींटियों को पैरों तले कुचलते हुए चले जा रहे हैं, हम क्या उनसे इतने ही महान हैं? यह सब क्षुद्र प्राणियों के जीवन-मृत्यु का खेल खंडन योग्य तो नहीं है, महाशक्ति की माया खंडन योग्य तो नहीं है। कालरूपिणी महामाया के सम्मुख प्रतिदिन कितने लाखों-करोड़ों प्राणियों का बलिदान हो रहा है - संसार में चारों ओर से जीवों के शोणित की धाराएँ उनके महा-खप्पर में आकर जमा हो रही हैं। शायद मैंने उन धाराओं में और एक बूँद मिला दी। वे अपनी बलि कभी-न-कभी ग्रहण कर ही लेतीं, मैं बस इसमें एक कारण भर बन गया।"
तब जयसिंह प्रतिमा की ओर घूम कर कहने लगा, "माँ, क्या तुझे सब इसीलिए माँ पुकारते हैं! तू ऐसी पाषाणी है! राक्षसी, सारे संसार का रक्त चूस कर पेट भरने के लिए ही तूने यह लाल जिह्वा बाहर निकाल रखी है। स्नेह, प्रेम, ममता, सौंदर्य, धर्म, सभी मिथ्या है, सत्य है, केवल तेरी यह रक्त-पिपासा। तेरा ही पेट भरने के लिए मनुष्य मनुष्य के गले पर छुरी रखेगा, भाई भाई का खून करेगा, पिता-पुत्र में मारकाट मचेगी! निष्ठुर, अगर सचमुच ही यह तेरी इच्छा है, तो बादल रक्त की वर्षा क्यों नहीं करते, करुणा स्वरूपिणी सरिता रक्त की धारा बहाते हुए रक्त-समुद्र में जाकर क्यों नहीं मिलती? नहीं, नहीं, माँ, तू स्पष्ट रूप से बता - यह शिक्षा मिथ्या है, यह शास्त्र मिथ्या है - मेरी माँ को माँ नहीं कहते, संतान-रक्त-पिपासु राक्षसी कहते हैं, मैं इस बात को सहन नहीं कर सकता।"
उसी समय जीवंत तूफानी बारिश की बिजली के समान जयसिंह ने अचानक रात के अंधकार में से मंदिर के उजाले में प्रवेश किया। देह लंबी चादर से ढकी है, सर्वांग से बह कर बारिश की धार गिर रही है, साँस तेजी से चल रही है, चक्षु-तारकों में अग्नि-कण जल रहे हैं।
रघुपति ने उसे पकड़ कर कान के पास मुँह लाकर कहा, "लाए हो राज-रक्त?"
जयसिंह उसका हाथ छुड़ा कर ऊँचे स्वर में बोला, "लाया हूँ। राज-रक्त लाया हूँ। आप हट कर खड़े होइए, मैं देवी को निवेदन करता हूँ।"
आवाज से मंदिर काँप उठा।
काली की मूर्ति के सम्मुख खड़ा होकर कहने लगा, "तो क्या तू सचमुच संतान का रक्त चाहती है, माँ! राज-रक्त के बिना तेरी तृषा नहीं मिटेगी? मैं जन्म से ही तुझे माँ पुकारता आ रहा हूँ, मैंने तेरी ही सेवा की है, मैंने और किसी की ओर देखा ही नहीं, मेरे जीवन का और कोई उदेश्य नहीं था। मैं राजपूत हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मेरे प्रपितामह राजा थे, मेरे मातामह वंशीय आज भी राजत्व कर रहे हैं। तो, यह ले अपनी संतान का रक्त, ले, यह ले अपना राज-रक्त।" चादर देह से गिर पड़ी। कटिबंध से छुरी बाहर निकाल ली - बिजली नाच उठी - क्षण भर में ही वह छुरी अपने हृदय में आमूल भोंक ली, मृत्यु की तीक्ष्ण जिह्वा उसकी छाती में बिंध गई। मूर्ति के चरणों में गिर गया; पाषाण-प्रतिमा विचलित नहीं हुई।
(साभारःहिंदी समय,महात्मा गांधी अतरराष्ट्रीय विश्वविदयालय,वर्धा ,http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=2377&pageno=1)