रिलायंस देश में मीडिया भी रिलायंस हवाले,अब पत्रकारिता तेल,गैस,संचार,निर्माण विनिर्माण कारोबार की तर्ज पर!
सत्ता संरक्षित कारपोरेट वर्चस्व के मुकाबले देशी स्थापित औद्योगिक घरानों के लिए मौत की घंटी!
पलाश विश्वास
ऐम्बेसैडर ब्रांड के अस्सी हजार में बिक जाने पर लिखते हुए हमने डिजिटल कैशलैस इंडिया में कारपोरेट एकाधिकार की वजह से देशी कंपनियों के खत्म होने का अंदेशा जताया था।सत्ता संरक्षण और कारपोरेट लाबिइंग से छोटी बड़ी कंपनियों का क्या होना है,बिड़ला समूह के हालात उसका किस्सा बयान कर रहे हैं।टाटा समूह दुनिया पर राज करने चला था और साइरस मिस्त्री के फसाने से साफ हो गया कि उसके वहां भी सबकुछ ठीकठाक नहीं है।नैनो का अंजाम पहले ही देख लिया है।यह बहुत बड़े संकट के गगनघटा गहरानी परिदृश्य है।फासिज्म के राजकाज में आम जनता ,खेती बाड़ी, काम धंधे और खुदरा कारोबार में जो दस दिगंत सर्वनाश है,जो भुखमरी,मंदी और बेरोजगारी की कयामतें मुंह बाएं खड़ी है,इनकी तबाही से देशी पूंजी के लिए भी भारी खतरा पैदा हो गया है।बिड़ला और टाटा समूह का भारतीय उद्योग कारोबार में बहुत खास भूमिका रही है।बिड़ला समूह से किन्हीं मोहनदास कर्मचंद गांधी का भी घना रिश्ता रहा है। इस हकीकत का सामना करें तो हालात देशी तमाम औद्योगिर घरानों और दूसरी छोटी बड़ी कंपनियों के लिए बहुत खराब है।
निजी तौर पर हम जैसे पत्रकारों के लिए हिंदुस्तान का रिलायंस में विलय भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता का अवसान है।वैसे भी मीडिया पर रिलायंस का वर्चस्व स्थापित है।यह वर्चस्व तेल,गैस,संचार,पेट्रोलियम,ऊर्जा से लेकर मीडिया तक अंक गणित के नियमों से विस्तृत हुआ है तो इसमें सत्ता समीकरण का हाथ भी बहुत बड़ा है।आजाद मीडिया अब भारत में नहीं है,यह अहसास हम जैसे सत्तर के दशक से पत्रकारिता में जुड़े लोगों के लिए सीधे तौर मौत की घंटी है। खबर है कि बिड़ला घराने की ऐम्बसैडर कार के बाद उसका अखबार हिंदुस्तान टाइम्स भी बिक गया है।खबरों के मुताबिक शोभना भरतिया के स्वामित्व वाले हिंदुस्तान टाइम्स के बारे में चर्चा है कि हिंदुस्तान टाइम्स की मालकिन शोभना भरतिया ने इस अखबार को पांच हजार करोड़ रुपये में देश के सबसे बड़े उद्योगपति रिलायंस के मुकेश अंबानी को बेच दिया है।यही नहीं चर्चा तो यहाँ तक है कि प्रिंट मीडिया के इस सबसे बड़े डील के बाद शोभना भरतिया 31 मार्च को अपना मालिकाना हक रिलायंस को सौंप देंगी और एक अप्रैल 2017 से हिंदुस्तान टाइम्स रिलायंस का अखबार हो जाएगा।
गौरतलब है कि 2014 में फासिज्म के राजकाज के बिजनेस फ्रेंडली माहोल में रिलायंस ने नेटवर्क 18 खरीदकर मीडिया में अपना दखल बढ़ाया है।नेटवर्क.18 कई प्रमुख डिजिटल इंटरनेट संपत्तियों की मालिक हैं, जिसमें इन डॉट कॉम, आईबीएनलाइव डॉट कॉम, मनीकंट्रोल डॉट कॉम, फर्स्टपोस्ट डॉट कॉम, क्रिकेटनेक्स्ट डॉट इन, होमशाप18 डाट काम, बुकमाईशो डॉट कॉम,बुकमाईशो डॉट कॉम, शामिल हैं। इनके अलावा यह कलर्स, सीएनएनआईबीएन, सीएनबीसी टीवी18, आईबीएन7, सीएनबीसी आवाज चैनल चलाती है।
जाहिर है कि हिंदुस्तान समूह के सौदे से एकाधिकार कारपोरेट वरचस्व का यह सिलसिला थमने वाला नहीं है।स्वतंत्र पत्रकारिता और अभिव्क्ति की आजादी का क्या होना है,इसकी कोई दिशा हमें नहीं दीख रही है।खबर तो यह भी है कि रिलायंस डीफेंस अब अमेरिका नौसेना के सतवें बेड़े की भी देखरेख करेगा।वहीं सातवा नौसैनिक बेड़ा जो हिंद महासागर में भारत पर हमले के लिए 1971 की बांग्लादेश लड़ाी के दौरान घुसा था।अब यह भी खबर है कि मुप्त में इंचरनेट की तर्ज पर मुफ्त में अखबार भी बांटेगा रिलायंस।जाहिर है कि भारतीय जनता को भी मुफ्तखोरी का चस्का लग चुका है। इसी बीच रिलायंस जियो की वीडियो ऑन डिमांड सेवा जियोसिनेमा, जिसे पहले जियोऑन डिमांड के नाम से जाना जाता था, में देखने लायक कई सिनेमा उपलब्ध हैं। अब इस ऐप में नया फ़ीचर जोड़ा गया है।
इस भयावह जीजीजीजीजी संचार क्रांति से भारतीय मीडिया अब समाज के दर्पण, जनमत, जनसुनवाई, मिशन वगैरह से हटकर विशुध कारोबार है सत्ता और फासिज्म के राजकाज के पक्ष में,जिसे देश के रहे सहे ससंधन भी तेल और गैस की तरह रिलायंस के हो जायें।यह जहरीला रसायन आम जनता के हित में कितना है,पत्रकारिया के संकट के मुकबाले हमारे लिए फिक्र का मुद्दा यही है।
भारत सरकार के बाद रिलायंस समूद देश में सबसे ताकतवर संस्था है।विकिपीडिया के मुताबिकः
रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड {अंग्रेज़ी: Reliance Industries Limited) एक भारतीय संगुटिकानियंत्रक कंपनी है, जिसका मुख्यालय मुंबई, महाराष्ट्र में स्थित है। यह कंपनी पांच प्रमुख क्षेत्रों में कार्यरत है: पेट्रोलियम अन्वेषण और उत्पादन, पेट्रोलियम शोधन और विपणन, पेट्रोकेमिकल्स, खुदरा तथा दूरसंचार।[2][3]
आरआईएल बाजार पूंजीकरण के आधार पर भारत की दूसरी सबसे बड़ी सार्वजनिक रूप कारोबार करने वाली कंपनी है एवं राजस्व के मामले में यह इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी है।[4] 2013 के रूप में, यह कंपनी फॉर्च्यून ग्लोबल 500 सूची के अनुसार दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में 99वें स्थान पर है।[5] आरआईएल भारत के कुल निर्यात में लगभग 14% का योगदान देती है।[6]
हमने पत्रकारिता नौकरी के लिए नहीं की है।जीआईसी नैनीताल में जब हम ग्यारहवीं बारहवीं के छात्र थे,तभी हमारे तमाम सहपाठी आईएएस पीसीएस डाक्ट इंजीनियर वगैरह वगैरह होने की तैयारी कर रहे थे।बचपन से जीआईसी के दिनों तक हम साहित्य के अलावा जिंदगी में कुछ और की कल्पना नहीं करते थे।अब जनपक्षदर पत्रकारिता के लिए साहित्य और सृजनशील रचनाधर्मिता को भी तिलांजलि दिये दो दशक पूरे होने वाले हैं।पूरी जिंदगी पत्रकारिता में खपा देने वाले हम जैसे नाचीज लोगं के लिए यह बहुत बड़ा झटका है,काबिल कामयाब लोगों के लिए हो या न होजो नई विश्व व्यवस्था,फासिज्म के राजकाज की तरह रिलायंस समूह के साथ राजनैतिक रुप से सही कोई न कोईसमीकरण जरुर साध लेंगे।हम हमेशा इस समीकरणों के बाहर हैं।
डीएसबी में तो कैरियरवादी तमाम छात्र कांवेंट स्कूलों से आकर हमारे साथ थे।जब हम युगमंच,पहाड़ और नैनीताल समाचार से जुड़े तब भी हमारे साथ बड़ी संख्या में कैरियर बनाने वाले लोग थे जिन्होंने अपना अपना कैरियर बना भी लिया।
हममें फर्क यह पड़ा कि गिर्दा राजीव दाज्यू और शेखर पाठक जैसे लोगों की सोहबत में हम भी पत्रकार हो गये।तब भी हम यूनिवर्सिटी में साहित्य पढ़ाने के अलावा कोई और सपना भविष्य का देखते न थे।दुनियाभर का साहित्य पढ़ना हमारा रोजनामचा रहा है,लेकिन नवउदारवाद के दौर में हमने साहित्यपढ़ना भी छोड़ दिया है।
लेकिन उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी और चिपको आंदोलन की वजह से पत्रकारिता हम पर हावी होती चली गयी।हम अखबारों में नियमित लिखने लगे थे।उन्ही दिनों से हिंदुतस्तान समूह से थोड़ा अपनापा होना शुरु हो गया।खास वजह वहां मनोहर श्याम जोशी, हिमांशु जोशी और मृणाल पांडे की लगातार मौजूदगी रही है।
हमने टाइम्स समूह के धर्मयुग और दिनमान में लिखा लेकिन हिंदुस्तान के लिए कभी नहीं लिखा।हमने 1979 में जब एमए पास किया,उसके तत्काल बाद 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गयी और पिताजी के मित्र नारायण दत्त तिवारी देश के वित्त मंत्री बन गये।तिवारी के सरकारी बंगले में पिताजी के रहने का स्थाई इंतजाम था।वित्त मंत्री बनते ही तिवारी ने पिताजी से कहा कि मुझे वे दिल्ली भेज दें।उन्होंने कहा था कि यूनिवर्सिटी में नौकरी लग जायेगी और मैं बदले में उनके लिखने पढ़ने के काम में मदद कर दूं।
पहाड़ और तराई में हमने तिवारी का हमेशा विरोध किया है तो यह प्रस्ताव हमें बेहद आपत्तिजनक लगा और हमने इसे ठुकरा दिया और फिर उर्मिलेश के कहने पर मदन कश्यप के भरोसे धनबाद में कोयलाखान और भारत में औद्योगीकरण,राष्ट्रीयता की समस्या के अध्ययन के लिए पत्रकारिता के बहाने धनबाद जाकर दैनिक आवाज में उपसंपादक बन गये।फिर हम पत्रकारिता से निकल ही नहीं सके।
उन दिनों हिंदुस्तान समूह में केसी पंत की चलती थी और केसी पंत भी चाहते थे कि मैं हिंदुस्तान में नौकरी ले लूं और दिल्ली में पत्रकारिता करुं।हमने वह भी नहीं किया।
हालांकि झारखंड से निकलकर मेऱठ में दैनिक जागरण की नौकरी के दिनों दिल्ली आना जाना लगा रहता था।दिनमान में रघुवीर सहाय के जमाने से छात्र जीवन से आना जाना था और वहां बलराम और रमेश बतरा जैसे लोग हमारे मित्र थे।बाद में अरुण वर्द्धने भी वहां पहुंच गये।देहरादून से भी लोग दिनमान में थे।लेकिन मेरठ में पत्ररकारिता करने से पहले रघुवीर सहाय दिनमान से निकल चुके थे और दिनमान से तमाम लोग जनसत्ता में आ गये थे।जिनमें लखनऊ से अमृतप्रभात होकर मंगलेश डबराल भी शामिल थे।नभाटा में बलराम थे और बाद में राजकिशोर जी आ गये।
नभाटा,जनसत्ता, कुछ दिनों के लिए रमेश बतरा ,उदय प्रकाश,पंकज प्रसून की वजह से संडे मेल और शुरुआत से आखिर तक पटियाला हाउस में आजकल और हिंदुस्तान के दफ्तर में मेरा आना जाना रहा है।आजकल में पंकजदा थे।हिंदुस्तान में जाने की एक और खास वजह वहां संपादक मनोहर श्याम जोशी को देखना भी था।
हम मेरठ जागरण में ही थे कि कानपुर जागरण से निकलकर हरिनारायण निगम दैनिक हिंदुस्तान के संपादक बने।दिल्ली पहुंचते ही उनने हमें मेरठ में संदेश भिजवाया कि हम उनसे जाकर दिल्ली में मिले।
हम जागरण छोड़ने के बाद 1990 में ही उनसे जाकर मिल सके।
यह सारा किस्सा इसलिए कि यह समझ लिया जाये कि निजी तौर पर हिंदुस्तान समूह में मेरी कोई दिलचस्पी कभी नहीं रही है।
1973 से हम नियमित अखबारों में लिखते रहे हैं।वैसे हमने 1970 में आठवीं कक्षा में ही तराई टाइम्स में छप चुके थे,जहां संपादकीय में तराई में पहले पत्रकार शहीद जगन्नाथ मिश्र और संघी सुभाष चतुर्वेदी के बाद पत्रकारिता शुरु करने वाले हमारे पारिवारिक मित्र दिनेशपुर के गोपाल विश्वास भी थे,जो बरेली से अमरउजाला छपने के शुरु आती दौर में उदित साहू जी के साथ भी थे।1970 से जोड़ें तो 47 साल और 1973 से जोड़ें तो 44 साल हम अखबारों से जुड़े रहे हैं।
नई आर्थिक नीतियों के नवउदारवादी मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था के दिनों में पूरे पच्चीस साल हमने इंडियन एक्सप्रेस समूह जैसे कारपोरेट संस्थान में बिता दिये लेकिन इस पच्चीस साल में एक दिन भी शायद ऐसा बीता हो जब हमने अमेरिकी साम्राज्यवाद,मुक्त बाजार और कारपोरेट अर्थव्यवस्था के खिलाफ न लिखा हो या न बोला हो।हमें नियुक्ति देने वाले प्रभाष जोशी के अलावा हमारा एक्सप्रेस समूह के किसी संपादक प्रबंधक से कोई संवाद नहीं रहा है।
यहां तक कि ओम थानवी को बेहतर संपादक मानने के बावजूद उनकी सीमाएं जानते हुए संपादकीय बैठकों में भी लगातार अनुपस्थित रहा हूं।
कारपोरेट तंत्र का हिस्सा बने बिना पत्रकारिता में कोई तरक्की संभव नहीं है।लेकिन अपनी तरक्की मेरा मकसद कभी नहीं रहा है।
हमने छात्र जीवन में टाइम्स समूह में लिखकर नैनीताल में पढ़ाई का खर्च जरुर निकाला लेकिन पेशेवर पत्रकारिता में लिखकर कभी नहीं कमाया है।रिटायर होने के बावजूद मेरा लेकन कामर्शियल नहीं है।आजीविका के लिए हम नियमित अनुवाद की मजदूरी कर रहे हैं ताकि हमारी जनपक्षधरता और राशन पानी दोनों चलता रहे।
पहले पहल मैं जब मुख्य उपसंपादक होकर नये पत्रकारों की भर्ती कर रहा था तब जरुर भविष्य में संपादक बनने की महात्वाकांक्षा रही होगी।लेकिन नब्वे के दशक में हम अच्छी तरह समझ गये कि जनपक्षधरता और कारपोरेट पत्रकारिता परस्परविरोधी हैं।दोनों नावों पर लवारी नामुमकिन है।जनपक्षधरता के रास्ते में तरक्की नहीं है।हमने जनपक्षधरता का रास्ता अख्तियार किया।हम अपनी नाकामियों के खुद जिम्मेदार हैं।अपने फैसलों के लिए मुझे कोई अफसोस नहीं है।
हिंदुस्तान समूह से कुछ भी लेना देना नहीं होने या टाटा बिड़ला से खास प्रेम मुहब्बत न होने की बावजूद देश के रिलायंस समूह में समाहित होने की यह प्रक्रिया हमें बेहद खतरनाक लग रही है।तेल गैस और पेट्रोलियम की तरह मीडिया का कारोबार होगा,एक्सप्रेस समूह में पच्चीस साल तक आजाद पत्रकारिता करने के बाद यह भयंकर सच हम हजम नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि हम पत्रकारिता के सिपाहसालार, मसीहा, संपादक ,आइकन, साहिबे किताब,प्रोपेसर वगैरह कभी नहीं रहे हैं और न होंगे।
छात्र जीवन में हमने जैसे समय को जनता के हक में संबोधित कर रहे थे और पेशेवर पत्रकारिता में आम लोगों की तकलीफों और पीड़ितों वंचितों की आवाज की गूंज बने रहने की कोशिश की है,उसके मद्देनजर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में कारपोरेट एकाधिकार के जरिये सत्ता के रंगभेदी फासिज्म के कारोबार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा,उसकी हमें बहुत फिक्र हो रही है।
काबिल और कुशल लोग इस तंत्र में भी पत्रकारिता कर लेेंगे,लेकिन जो पैदल सेना है,उनकी पत्रकारिता और उनकी नौकरी दोनों शायद दांव पर है।
बहरहाल खबरों के मुताबिक एक अप्रैल 2017 से रिलायंस प्रिंट मीडिया पर अपना कब्जा जमाने के लिए मुफ्त में ग्राहकों को हिंदुस्तान टाइम्स बांटेगा। ये मुफ्त की स्कीम कहा कहाँ चलेगी इस बात की पुष्टि तो नहीं हो पाई है और इस पांच हजार करोड़ की डील में कौन कौन से हिंदुस्तान टाइम्स के एडिशन है और क्या उसमे हिंदुस्तान भी शामिल है इस बात की पुष्टि नहीं हो पा रही है लेकिन ये हिंदुस्तान टाइम्स में चर्चा तेजी से उभरी है कि हिंदुस्तान टाइम्स को रिलायंस ने पांच हजार करोड़ रुपये में ख़रीदा है और हिंदुस्तान टाइम्स ने ये समझौता रिलायंस से कर्मचारियों के साथ किया है।
अगर यह खबर सच होती है तो हिंदुस्तान टाइम्स के कर्मचारी 1 अप्रैल से रिलायंस के कर्मचारी हो जाएंगे। फिलहाल रिलायंस द्वारा प्रिंट मीडिया में उतरने और हिंदुस्तान टाइम्स को खरीदने तथा मुफ्त में अखबार बांटने की खबर से देश भर के अखबार मालिकों में हड़कंप का माहौल है।सबसे ज्यादा टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रबंधन में हड़कंप का माहौल है।
खबर है कि शोभना भरतिया और रिलायंस के बीच यह डील कोलकाता में कुछ बैकरों और अधिकारियों की मौजूदगी में हुई है।इसका आशय भी बेहद खतरनाक है।
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Sunday, February 12, 2017
एक शोक मंतव्य अस्सी करोड़ में बिकी देशी ब्रांड एम्बेसडर के नाम फासिस्ट रेसिस्ट राजकाज के संरक्षण में बड़ी मछलियां चोटी मछलियों के खाने वाली हैं पलाश विश्वास
एक शोक मंतव्य अस्सी करोड़ में बिकी देशी ब्रांड एम्बेसडर के नाम
फासिस्ट रेसिस्ट राजकाज के संरक्षण में बड़ी मछलियां चोटी मछलियों के खाने वाली हैं
पलाश विश्वास
बीबीसी की खबर है और दिलोदिमाग लहूलुहान हैः
One of India's most iconic car brands has been sold by Hindustan Motors to the French manufacturer Peugeot for a nominal $12m (£9.6m), officials say. The Ambassador car used to be one of India's most prestigious vehicles beloved by government ministers.
बीबीसी हिंदी की खबर में इसकी वजह का खुलासा भी हो गया हैः
एक ज़माने में भारत में रुतबे और रसूख का पर्याय मानी जाने वाली एम्बेसडर कार का ब्रांड 80 करोड़ की मामूली कीमत पर बिक गया है. अधिकारियों ने बताया कि हिंदुस्तान मोटर्स ने फ्रांसीसी कंपनी पूजो के साथ ये सौदा किया है. एक वक्त था जब भारत में सरकारी लोगों की ये पसंदीदा कार हुआ करती थी, लेकिन 2014 के बाद से ही इसका उत्पादन बंद कर दिया गया.
खबरों के मुताबिक कभी नेताओं और नामी-गिरामी लोगों की शाही सवारी रही एंबेसडर कार के ब्रांड को हिंदुस्तान मोटर्स ने बेच दिया है। यूरोप की दिग्गज ऑटो कंपनी प्यूजो ने इसे सिर्फ 80 करोड़ रुपये में खरीदा है। तीन साल पहले 2014 में एंबेसडर कार का प्रोडक्शन रोक दिया गया था। पिछले महीने पीसीए समूह ने भारतीय बाजार में प्रवेश करने के लिए सीके बिड़ला ग्रुप के साथ डील की थी, जिसके तहत शुरुआत में करीब 700 करोड़ रुपये का निवेश किया जाना है। इस रकम से तमिलनाडु में मैन्युफैक्चरिंग प्लांट लगाया जाएगा। इस प्लांट में हर साल 1 लाख वाहन बनाने की क्षमता होगी।
गौर करें,खबर के मुताबिक 2014 से एम्बेसडर कार का उत्पादन बंद हो गया है।
नोटबंदी के बाद यूपी चुनाव से बजट और राम के नाम, राम की सौगंध और राममंदिर के घटाटोप में अर्थव्यवस्था की सेहत समझने के लिए यह आर्थिक वारदात बेहद गौरतलब है।नोटबंदी की तिमाही में उत्पादन दर और विकास दर में गिरावट हुई है,जिससे झोला छाप बगुला भगत वित्तीय प्रबंधक और पालतू अर्थशास्त्री और मीडिया सिरे से इंकार करते हुए सुनहले दिनों के तिलिस्म में आम लोगों की जिंदगी को जलती हुई कब्रगाह में तब्दील करने का मुक्तबाजारी महोत्सव मना रहे हैं।
गरीबों की गरीबी दूर करने के बहाने राम के नाम फासिज्म का कोरबार की तर्ज पर गरीबी उन्मूलन और भ्रष्टाचार मुक्त भारत की भगवा वैदिकी पेशवाराज मार्का नैतिकता की सुनामी की आड़ में देश और आम जनता की मिल्कियत देश के संसाधन बेचने की पूरी प्रक्रिया एम्बेसडर ब्रांड विदेशी हवाले करने से जगजाहिर है और बीबीसी की खबर में देश की नीलामी की जो तस्वीर चस्पां है,उसे अंध राष्ट्रवादी हिंदुत्व के नजरिये से देश पाना उतना आसान भी नहीं है।
बजट पेश करने के बाद सरकार ने जिस तरह से राशन कार्ड के साथ आधार कार्ड को नत्थी कर दिया है और जिसपर राजनीति फिर सिरे से खामोश है,जाहिर है कि पटरी से अर्थव्यवस्था उतर जाने और उत्पादन प्रणाली तहस नहस हो जाने से किसी की सेहत में कोई फर्क नहीं पड़ा है तो आम जनता को एम्बेसडर जैसे ब्रांड के विदेशी हाथों में जाने से कोई तकलीफ होगी नहीं।
गौरतलब है कि इस बीच सरकार ने सेबी के नए चेयरमैन का एलान कर दिया है। वित्त मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी अजय त्यागी को पांच साल के लिए सेबी का नया चेयरमैन बनाया है। अजय त्यागी 1 मार्च से मौजूदा सेबी चेयरमैन यू के सिन्हा की जगह लेंगे।सेबी जैसी नियामक संस्था के चेयरमैन पद की काबिलियत अगर संग की वफादारी है तो समझ लीजिये की देश की अर्थव्यवस्था नागपुर के हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक किन लोगों और किन चुनिंदा कंपनियों के हित में है और शेयर बाजार से नत्थी सारी बुनियादी सेवाओं को हासिल करने कैशलैस डिजिटल इंडिया में आम जनाता. कारोबार और इंडियािंकारपोरेशना का क्या हाल होना है।
खबरों के मुताबिक अजय त्यागी हिमाचल प्रदेश कैडर के आईएएस अफसर हैं, जो वित्त मंत्रालय के इकोनॉमिक अफेयर्स डिपार्टमेंट में अतिरिक्त सचिव का कार्यभार संभाल रहे हैं। सेबी चीफ के पद की दौड़ में ऊर्जा सचिव पी के पुजारी और आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांता दास भी थे लेकिन त्यागी दोनों को पीछे छोड़कर चेयरमैन बनने में कामयाब रहे। इससे पहले यूके सिन्हा 18 फरवरी 2011 को सेबी के चेयरमैन बने थे, जिन्हें दो बार का सेवा विस्तार दिया गया था।
इसी बीच वित्त मंत्री ने कहा है कि प्रतिभूति बाजारों में बराबर बड़े घटनाक्रम देखने को मिलते रहते हैं और बाजार विनियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) अर्थव्यवस्था की जरूरत और और बाजार के हिसाब से एक पेशेवर संगठन के रूप में अपना विकास कर रहा है। वित्त मंत्री ने सेबी बोर्ड के सदस्यों और अधिकारियों के साथ बैठक में इस साल सल के बजट में बाजार संबंधी पहलों पर विचार विमर्श किया। हर साल बजट के ठीक बाद होने वाली इस परंपरागत बैठक में बजट प्रस्तावों के संदर्भ में पूंजी बाजार नियामक के भविष्य के एजेंडा पर विचार विमर्श किया गया।
फिर मीडिया का यह शगूफाःनोटबंदी के बाद भले ही भारत की आर्थिक ग्रोथ की रफ्तार कुछ धीमी पड़ गई हो, लेकिन आने वाले अगले 5 साल में भारत दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन जाएगा। अमेरिका के एक शीर्ष खुफिया थिंक टैंक ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पाकिस्तान भारत की आर्थिक ताकत का मुकाबला करने में सक्षम नहीं है, इसलिए वह संतुलन के दिखावे की कोशिश में दूसरे तरीकों की तलाश करेगा।
अंतरराष्ट्रीय कन्सल्टेंसी प्राइसवाटर हाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) ने भविष्यवाणी की है कि 2040 तक भारत अमेरिका को पछाड़कर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। इसकी कीमत हमें कितनी चुकानी है,अपनी जमा पूंजी कमाई पर टैक्स लगने के बावजूद यह सोचने की फुरसत किसी को नहीं है।
दूसरी तरफ,नोटबंदी की कड़ी आलोचना करते हुए प्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री स्टीव एच हांके ने आज कहा कि ऊंचे मूल्य के नोटों पर प्रतिबंध के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था नकदीरहित संकट में है। बाल्टीमोर, मैरीलैंड में जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री ने ट्वीट किया, 'नोटबंदी हारने वालों के लिए है। नकदी को छोडऩा इसका जवाब नहीं है। भारतीय नकदी अर्थव्यवस्था नकदीरहित संकट में है।' हांके ने इससे पहले कहा था कि शुरुआत से ही नोटबंदी में खामियां रहीं अैर यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यह नहीं जानते कि भारत किस दिशा में जा रहा है। हांके ने कहा था कि भारत के पास मोदी की नोटबंदी के अनुरूप ढलने के लिए जरूरी ढांचा नहीं है। उन्हें इस बात का पता होना चाहिए।
पिछले 26 साल से देश बेचने का कारोबार इस अमेरिकी उपनिवेश में राजकाज है और आर्थिक सुधारों के नाम पर आम जनता का और खास तौर पर बहुजनों का कत्लेमाम है।आम जनता को अर्थशास्त्र नहीं आता और न अर्थव्यवस्था में उसकी दिलचस्पी है।
कारपोरेट देशी कंपनियों के मालिकान,शेयर होल्डरों और वित्तीय प्रबंधकों को क्या हो गया है कि वे समझ नहीं पा रहे हैं कि कुछ चुनिंदा कंपनियों को दुनियाभर में अपना साम्राज्य बनाने के लिए राजकोष खुला है।बैंकों से लाखों करोड़ का कर्ज उनके डूबते कारोबार के लिए हैं और इसके अलावा सालाना लाखों का टैक्स माफ है।बाकी सबकी शामत है इस रामराज्य में।
हाल ये हैं कि तेल,गैस और पेट्रोलियम,संचार,ऊर्जा और विमान, जहाज, बंदरगाह,सड़क परिवहन, रेल और मेट्रो रेल,बैंकिंग और बीमा,निर्माण और विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में चुनिंदा कपनियों को लाखों करोड़ की रियायतें,विदेशों में उनके अरबों का निवेश और एम्बेसडर ब्राड का सौदा सिर्फ अस्सी करोड़ में।
विनिवेश और निजीकरण के तहत सरकारी कंपनियां कौड़ियों के मोल बिकते देखने और रेलवे समेत सभी सेक्टरों में थोक पैमाने पर छंटनी का नजारा देखने और क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनों के नेताओं की विदेश यात्राएं और पंचायत से लेकर संसद तक जन प्रतिनिधियों के करोड़पति और लखपति बनते देखने को अभ्यस्त आम जनता को अब भी अपने बैंक खातों में नोटवर्षा की तर्ज पर सुनहले दिनों का बेसब्री से इंतजार है और यूपी चुनाव से पहले गरीबी उन्मूलन के नारे के साथ बेइंतहा सरकारी खर्च कागद पर दिखाने के करतब से अर्थव्यवस्था के जोड़ घटाव करने के मूड में आम जनता नहीं है,जाहिर है।
दिवालियापन का आलम यह है कि कारपोरेट कंपनियों को यह नजर नहीं आ रहा है कि एम्बेसडर जैसे बेशकीमती हिंदुस्तानी ब्रांड को खत्म करने का इंतजाम 2014 में बिजनेस फ्रेंडली हिंदुत्व की सरकार ने कर दिया है तो आगे उद्योग और कारोबार का हाल किसानों मजदूरों से भी बुरा होना है।
नोटबंदी के बारे में हम पहले दिन से लिख रहे हैं,चाहे तो हस्तक्षेप पर नोटबंदी में लगे तमाम आलेख नये सिरे से पढ़कर देख लें कि नोटबंदी और डिजिटल कैशलैस इंडिया का मतलब नकदी पर चलने वाला खुदरा कारोबार और हाट बाजार खत्म है,किसानों की दस दिशा तबाही है,बेरोजगारी ,भुखमरी और मंदी है तो यह कारपोरेट एकाधिकार का चाकचौबंद इंतजाम है।
बड़ी मछलियां छोटी मछलियां को निगलकर और बड़ी हो जायेंगी।वे और बड़ी हो गयी कंपनियां फासिज्म के राजकाज के सहारे बड़ी कंपनियों को भी बख्शेंगी नहीं।
कारपोरेट लाबिइंग से कारपोरेट कंपनियों को पिछले छब्बीस साल में जो चूना लगता रहा है,उसका हिसाब जोड़ लें।
सरकारी संरक्षण में तेल और गैस में ओएनजीसी जैसे नवरत्न कंपनी और तमाम सरकारी गैरसरकारी तेल कंपनियों का बंटाधार करके जैसे कारपोरेट एकाधिकार कायम हुआ है,वही किस्सा अब बाकी हिंदुस्तानी कारपोरेट कंपननियों का भोगा हुआ यथार्थ बनकर सामने आने वाला है।
एम्बेसडर प्रकरण इस प्रक्रिया की शुरुआत है।वैसे भी कारपोरेट लाबिइंग की वजह से आटो सेक्टर में भारी संकट है।आगे आग दिवालिया बनते जाने की किसकी बारी है,यह सिर्फ नागपुर के मुख्यालय की मर्जी और मिजाज पर निर्भर है।
एम्बेसडर को हम बचपन से जान रहे हैं।जब हम नैनीताल में पढ़ रहे थे।पहाड़ों में रेल तो क्या साईकिलें तक दिखती नहीं थी।पहाड़ों में और तराई में तब साठ और सत्तर के दशक में परिवहन का मतलब केएमओ और जीएमओ की बसों,टाटा के ट्रकों के अलावा चार पहिया वाहनों के मामले में एम्बेसडर कारें और जीप हुआ करती थी।जीप और जोंगा तो सिरे से लापता है,लेकिन एम्बेसडर चल रहा था।
हिंदुस्तान मोटर्स का कोलकाता के नजदीक हिंद मोटर काऱखाना संकट में है और 2014 से एम्बेसडर का उत्पादन बंद है तो ब्रांड को विदेशी हाथों में महज अस्सी करोड़ के एवज में सौंपने से पहले बिजनेस फ्रेंडली सरकार के पास बहुत मौके थे एम्बेसडर बचाने के।
किंगफिशर और विजय माल्या या विदेशों में अरबों डालर और पौंड नोटबंदी के आपातकाल में भी निवेश करने वाली कंपनियों के हितों का ख्याल जितना है इस फासिज्म के राजकाज को,उसका तनिको हिस्सा अगर एम्बेसडर के लिए खर्च होता।
हम जब कुमायूं और गढवाल में पदयात्राें कर रहे थे तब कारों की सवारी का ख्वाब हम जाहिरा तौर पर नहीं देखते थे।लेकिन पेशेवर पत्रकारिता की वजह से 36 सालों में हमने कारों की सवारी खूब की है।मेरठ के दंगों के दौरान मारुति जिप्सी या झारखंड में ट्रेकर की सवारी भी खूब की है।लेकिन आधी रात के बाद दफ्तर से घर लौटना हो या कोयला कदानों में भूमिगत आग से घिरी धंसकती हुई जमीन पर दौड़ने की नौबत हो,एम्बेसडर कार हमारी पहली पसंद रही है जो जितने ड्राइवरों से हमारा ताल्लुकात हुआ है,उनके मुताबिक भारत की सड़कों पर सबसे बेहतरीन कार है।
बहरहाल अर्थव्यवस्थी की तबाही,बेरोजगारी और छंटनी के शिकार लोगों के लिए सुनहले दिन हाजिर है क्योंकि सरकार एक तरफ लोगों को नौकरियां दिलवाना चाहती है, तो दूसरी ओर छंटनी के शिकार लोगों को बेहतर मुआवजा मिले, इसकी भी कोशिश कर रही है। इसके लिए सरकार छंटनी से जुड़े कानून में बड़े बदलाव की तैयारी कर रही है। कानून का ये मसौदा अगर लागू होता है तो इससे करोड़ों कर्मचारियों को फायदा होगा।
न रोजगार सृजन की कोई सोच है और न नौकरी की सुरक्षा की कोई गारंटी है।श्रम मंत्रालय छंटनी से जुड़े कानून में संशोधन करने की तैयारी कर रहा है। जानकारी के मुताबिक श्रम मंत्रालय छंटनी की सूरत में कर्मचारियों को मिलने वाले मुआवजे को बढ़ा कर 3 गुना करने का प्रस्ताव भेजेगा।यह इसलिए है कि उत्पादन प्रमाली तहस नहस होने और एकाधिकार कारपोरेट वर्चस्व की वजह से भारी पैमाने पर छंटनी होनी है।यह नजारा खुदरा कारोबार खतम करने वाली ईटेलिंग कंपनियों के रवैये से जाहिर है तो आईटी सेक्र का नाभिनाल तो ट्रंप के एक्जीक्यूटिव आदेशों से जुडा़ है।
मसलन दिग्गज ई-कॉमर्स कंपनी स्नैपडील बड़ी छंटनी की तैयारी में है। सूत्रों के मुताबिक कंपनी अपने 30 फीसदी कर्मचारियों की छंटनी कर सकती है। धीमी ग्रोथ और नई फंडिंग ना मिलने के कारण कंपनी लागत घटाने को मजबूर है। जिसके चलते करीब 1000 कर्मचारियों को निकाला जा सकता है। इसके अलावा कंपनी की लॉजिस्टिक डिवीजन से करीब 3000 स्थायी और 5000 कॉन्ट्रैक्ट पर रखे गए कर्मचारियों को निकाला जा सकता है। कंपनी ने छंटनी की प्रक्रिया शुरू कर दी है, और इसके लिए दो कंसल्टेंट नियुक्त किए गए हैं।
नोटबंदी के फर्जीवाड़े के हक में आंकडे़ भी सामने आ रहे हैं।मसलन नोटबंदी का उद्योगों पर कुछ असर दिसंबर में दिखा था और इसके बाद भी यह सरकार द्वारा आज जारी दो आंकड़ों में दिख रहा है। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) की वृद्घि दर दिसंबर में 0.4 फीसदी रही जबकि नवंबर में इसमें 5.6 फीसदी की तेजी दर्ज की गई थी। इसी तरह कॉरपोरेट कर संग्रह अप्रैल से जनवरी के दौरान महज 2.9 फीसदी बढ़ा जबकि अप्रैल से दिसंबर तक इसमें 4.4 फीसदी की वृद्घि देखी गई थी।
उत्पाद शुल्क संग्रह की वृद्घि भी जनवरी में घटकर 26.3 फीसदी रही जबकि दिसंबर में यह 31.6 फीसदी थी। नोटबंदी के कारण विवेकाधीन खर्चों में कटौती होने से सेवा कर संग्रह में जनवरी के दौरान 9.4 फीसदी की वृद्घि देखी गई जबकि दिसंबर में इसमें 12.4 फीसदी की वृद्घि दर्ज की गई थी। हालांकि यह चकित करने वाला रहा कि नवंबर में शानदार वृद्घि दर्ज करने वाला आईआईपी में जनवरी के दौरान इतनी कमी क्यों रही। आईआईपी में 75.5 फीसदी भारांश वाले विनिर्माण क्षेत्र की वृद्घि दिसंबर में 2 फीसदी रही जबकि जनवरी में यह 5.6 फीसदी बढ़ा था। हालांकि अप्रैल से अक्टूबर में भी आईपीपी में उतनी तेजी नहीं आई थी। ऐसे में केवल विमुद्रीकरण ही आईआईपी में नरमी की वजह नहीं मानी जा सकती। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार अप्रैल-जनवरी के दौरान कुल कर संग्रह 12.85 लाख करोड़ रुपये रही है जो इस वर्ष के बजट अनुमान का 76 फीसदी है।
इस खबर पर भी गौर करें कर्मचारी कि सरकार सरकारी कंपनियों की सूचीबद्धता में तेजी लाने के लिए नई व्यवस्था की योजना बना रही है। इसका मकसद एक विभाग से दूसरे विभाग के बीच लाल फीताशाही को खत्म करना और कंपनियों को सूचीबद्धता के लिए चिह्नित करने और उन्हें शेयर बाजार में उतरने के बीच का वक्त कम करना है। इस व्यवस्था को अंतिम मंजूरी देने के लिए मंत्रियोंं की अधिकार प्राप्त समिति को सौंपा जा सकता है, जैसा कि रणनीतिक बिक्री के मामले में होता है।
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017-18 के अपने बजट भाषण में घोषणा की थी कि केंद्र सरकार सीपीएसई (केंद्र की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों) को शेयर बाजार मेंं समयबद्ध तरीके से सूचीबद्धता के लिए चिह्नित करने के लिए पुनरीक्षित व्यवस्था पेश करेगी। वरिष्ठ सरकारी सूत्रों ने कहा कि इस तरह की व्यवस्था पर अभी काम किया जाना बाकी है। उन्होंने कहा कि इस तरह की प्रक्रिया में जमीनी काम किए जाने के बाद मंत्रियोंं की अधिकार प्राप्त समिति प्रस्तावित सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी की सूचीबद्धता पर अंतिम फैसला करेगी, जिसमेंं मर्चेंट बैंकर चुना जाना, रोड शो आदि शामिल है। इस तरह मंत्रियों की एक समिति सरकार के सामने एक वैकल्पिक व्यवस्था पेश करेगी, जो पहले से ही रणनीतिक बिक्री के लिए बनी हुई है।
कैबिनेट से पहली मंजूरी मिलने के बाद पीएसयू (ज्यादातर गैर सूचीबद्ध) का मूल्यांकन, दिलचस्पी लेने वाले खरीदारों की तलाश और कीमतें तक करने का काम किया जाएगा। उसके बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली, परिवहन मंत्री नितिन गडकरी और जिस विभाग का पीएसयू है, उस विभाग के मंत्री मिलकर इस पर अंतिम फैसला करेंगे। यही समूह सूचीबद्धता के लिए पहले घोषित 5 सरकारी सामान्य बीमा कंपनियों, न्यू इंडिया एश्योरेंस, यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस, ओरिएंटल इंश्योरेंस, नैशनल इंश्योरेंस और जरल इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन आफ इंडिया की सूचीबद्धता को अंतिम मंजूरी देगा। वरिष्ठ सरकारी सूत्रों ने कहा कि या तो जेटली गडकरी की जोड़ी या कोई मंत्रियोंं के नए अधिकार प्राप्त समूह को इस मामले की निगरानी व सरकारी कंपनियों की सूचीबद्धता की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है।
अभी अगर एंप्लॉयर कर्मचारी को निकलता है तो उसे हर साल के लिए 15 दिन का वेतन मुआवजे के तौर पर देना होता है। मतलब यदि कंपनी में 4 साल काम किया है तो एम्प्लॉयर फिलहाल 2 महीने की तनख्वाह हर्जाने के तौर पर देता है। लेकिन नए प्रस्ताव के तहत यह मुआवजा 6 महीने का हो जाएगा। कैबिनेट की हरी झंडी मिलने के बाद इसे इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड के तहत संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण में में पेश किया जा सकता है। संसद से पास होकर अगर यह ड्राफ्ट कानून की शक्ल अख्तियार करता है तो इससे तमाम इंडस्ट्रीज में काम कर रहे करोड़ों लोगों को फायदा पहुंचेगा।
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