सार्वजनिक बयान
“मंदबुद्धि लोगों का देश”, नागरिकों को निराधार करती बायोमेट्रिक
युआईडी/आधार अनूठा पहचान परियोजना का सच और बारह अंकों का रहस्य
वित्त कानून 2017 और कंपनी राज की स्थापना की घोषणा
कल 26 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट कि न्यायामूर्ति अर्जन कुमार सिकरी की
अध्यक्षता वाली दो जजों की पीठ बायोमेट्रिक अनूठा पहचान/आधार संख्या से
मौलिक अधिकार के उल्लंघन के मामले की सुनवाई कर फैसला देंगे. यह संयुक्त
मुक़दमा मेजर जनरल (भूतपूर्व) सुधीर वोम्बात्केरे, सफाई कर्मचारी आन्दोलन
के नेता बेज्वाडा विल्सन और केरल के पूर्व मंत्री बिनोय विस्वम द्वारा
अलग-अलग दायर किया गया है. 21 अप्रैल को न्यायामूर्ति सिकरी ने अटॉर्नी
जनरल से पुछा था कि आप अदालत के आदेश के बावजूद अनूठा पहचान/आधार संख्या
को अनिवार्य क्यों कर रहे है. अटॉर्नी जनरल ने जवाब दिया कि क्योंकि आधार
कानून, 2016 लागु हो गया है अदालत के आदेश का अब कोई महत्व नहीं रह गया
है.
मौजूदा कानून के सम्बन्ध में 10 अप्रैल को कानून मंत्री ने संसद को और 21
अप्रैल को अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह करते हुए यह कहा कि
आधार कानून, 2016 के 12 सितम्बर, 2016 से लागु हो जाने के कारण संविधान
पीठ का आदेश अब कानून नहीं रहा. दोनों ने बड़ी ही बेशर्मी से सुप्रीम
कोर्ट के सितम्बर 14, 2016 के फैसले के बारे में अनभिज्ञ रहने का स्वांग
रचा. ये बात संसद में भी सरकार को बताई गयी है और जल्द ही कोर्ट भी भी यह
निर्णय सुनाएगा कि सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का आखिरी फैसला ही देश
का कानून है और वह सर्वोपरी है क्योंकि वह आधार कानून के लागु होने के
बाद आया है.
तथ्य यह है कि सितम्बर 14, 2016 के न्यायमूर्ति वि. गोपाला गौड़ा और
आदर्श कुमार गोयल की खंडपीठ ने 5 जजों के संविधान पीठ के 15 अक्टूबर 2015
के आदेश को सातवी बार यह कहते हुए दोहराया कि युआईडी/आधार संख्या किसी भी
कार्य के लिए जरूरी नहीं बनाया जा सकता है. इस मामले की सुनवाई को
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टी .एस ठाकुर, न्यायाधीश ए. एम.
खानविलकर और न्यायाधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ के पीठ ने 9 सितम्बर को तय
किया था. यह फैसला पश्चिम बंगाल अल्पसंख्यक विद्यार्थी कौंसिल द्वारा दी
गयी चनौती के सन्दर्भ में आया है. इससे पहले पश्चिम बंगाल विधान सभा ने
आधार के खिलाफ सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव भी पारित किया है.
अच्छा हुआ कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वित्त कानून 2017 अब सबकी निगाह
नए मुख्य न्यायाधीश पर टिकी है क्योकि डिजिटल उपनिवेशवाद को निमंत्रण
देता डिजिटल इंडिया और बायोमेट्रिक युआईडी/आधार संख्या का भविष्य उन्हें
ही तय करना है. के जरिये संशोधन के सम्बन्ध में वह कर दिया जो वित्त
मंत्री रहते प्रणब मुख़र्जी ने संसद में बायोमेट्रिक “ऑनलाइन डेटाबेस”
अनूठा पहचान अंक (यू.आई.डी./आधार) परियोजना की घोषणा करते वक्त अपने
2009-10 बजट भाषण में नहीं किया था. अंततः भारत सरकार ने कंपनी कानून,
2013 और आधार कानून, 2016 का जिक्र साथ-साथ कर ही दिया. इस कानून ने
कानून के राज की समाप्ति करके कंपनी राज की पुनः स्थपाना की विधिवत घोषणा
कर दिया है. इसने देश के राजनीतिक भूगोल में को ही फिर से लिख डाला है
जिसे शायद एक नयी आज़ादी के संग्राम से ही भविष्य में कभी सुधारा जा सके.
इसके कारण बायोमेट्रिक युआईडी/आधार अनूठा पहचान परियोजना और कंपनियों के
इरादे के बीच अब तक छुपे रिश्ते जगजाहिर हो गए है. मगर सियासी दलों और
नागरिकों के लिए वित्त कानून 2017 का अर्थ अभी ठीक से खुला ही नहीं है.
भारत में एक अजीब रिवाज चल पड़ा है। वह यह कि दुनिया के विकसित देश जिस
योजना को खारिज कर देते हैं, हमारी सरकार उसे सफ़लता की कुंजी समझ बैठती
है। अनूठा पहचान (युआईडी)/आधार संख्या परियोजना इसकी ताजा मिसाल है। मोटे
तौर पर ‘आधार’ तो बारह अंकों वाला एक अनूठा पहचान संख्या है, जिसे
देशवासियों को सूचीबद्ध कर उपलब्ध कराया जा रहा है। लेकिन यही पूरा सच
नहीं है। असल में यह 16 अंकों वाला है मगर 4 अंक छुपे रहते है. सरकार के
इस परियोजना के कई रहस्य अभी भी उजागार नहीं हुए है।
सरकारी व कंपनियों के विचारकों के अनुसार भारत “मंदबुद्धि लोगों का देश”
है. शायद इसीलिए वो मानते जानते है कि लोग खामोश ही रहेंगे. ऐसा भारतीय
गृह मंत्रालय के तहत नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) विभाग के मुखिया
रहे कैप्टन रघुरमन का मानना है.
कैप्टन रघुरमन पहले महिंद्रा स्पेशल सर्विसेस ग्रुप के मुखिया थे और
बॉम्बे चैम्बर्स ऑफ़ इंडस्ट्रीज एंड कॉमर्स की सेफ्टी एंड सेक्यूरिटी
कमिटि के चेयरमैन थे। इनकी मंशा का पता इनके द्वारा ही लिखित एक दस्तावेज
से चलता है, जिसका शीर्षक “ए नेशन ऑफ़ नम्ब पीपल” अर्थात् असंवेदनशील
मंदबुद्धि लोगों का देश है। इसमें इन्होंने लिखा है कि भारत सरकार देश को
आंतरिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं कर सकती। इसलिए कंपनियों को अपनी सुरक्षा के
लिए निजी सेना का गठन करना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि ‘कॉर्पोरेटस’
सुरक्षा के क्षेत्र में कदम बढ़ाएं। इनका निष्कर्ष यह है कि ‘यदि वाणिज्य
सम्राट अपने साम्राज्य को नहीं बचाते हैं तो उनके अधिपत्य पर आघात हो
सकता है।’’ कैप्टन रघुरमन बाद में नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड के मुखिया
बने. इस ग्रिड के बारे में 3 लाख कंपनियों की नुमाइंदगी करने वाली
एसोसिएट चैम्बर्स एंड कॉमर्स (एसोचेम) और स्विस कंसलटेंसी के एक दस्तावेज
में यह खुलासा हुआ है कि विशिष्ट पहचान/आधार संख्या इससे जुड़ा हुआ है।
आजादी से पहले गठित अघोषित और अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी “फिक्की”
(फेडरेशन ऑफ़ इंडियन कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) द्वारा 2009 में तैयार
राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद पर टास्कफोर्स (कार्यबल) की 121 पृष्ठ कि
रिपोर्ट में सभी जिला मुख्यालयों और पुलिस स्टेशनों को ई-नेटवर्क के
माध्यम से नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) में जोड़ने की बात सामने
आती है. यह रिपोर्ट कहती है कि निलेकणी के नेतृत्व में जैसे ही भारतीय
विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) तैयार हो जाएगा, उसमें शामिल
आंकड़ों को नेशनल ग्रिड का हिस्सा बनाया जा सकता है जिससे आतंकवाद निरोधक
कार्रवाइयों में मदद मिल सके।’’ ऐसा पहली बार नहीं है कि नैटग्रिड और
यूआईडीएआई के रिश्तों पर बात की गई है। कंपनियों के हितों के लिए काम
करने वाली संस्था व अघोषित और अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी “एसोचैम” और
स्विस परामर्शदाता फर्म केपीएमजी की एक संयुक्त रिपोर्ट ‘होमलैंड
सिक्योरिटी इन इंडिया 2010’ में भी यह बात सामने आई है। इसके अलावा जून
2011 में एसोचैम और डेकन क्रॉनिकल समूह के प्रवर्तकों की पहल एवियोटेक की
एक संयुक्त रिपोर्ट ‘होमलैंड सिक्योरिटी एसेसमेंट इन इंडिया: एक्सपैंशन
एंड ग्रोथ’ में कहा गया है कि ‘राष्ट्रीय जनगणना के तहत आने वाले
कार्यक्रमों के लिए बायोमीट्रिक्स की जरूरत अहम हो जाएगी।’ इस रिपोर्ट से
पता चलता है कि यूआईडी से जुड़े राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर कार्यक्रम का
लक्ष्य क्या है। रिपोर्ट अमेरिका, ब्रिटेन और इजरायल की तरह आतंकवाद
निरोधक प्रणाली अपनाने की सिफारिश करती है तथा कंपनियों के लिए सुरक्षित
शहर (स्मार्ट सिटी) योजना की मंजूरी का आवाहन करती है।
वैसे तो अमेरिका में बायोमेट्रिक यूआईडी के बारे में क्रियान्वयन की
चर्चा 1995 में ही हो चुकी थी मगर हाल के समय में धरातल पर इसे अमेरिकी
रक्षा विभाग में यूआईडी और रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी)
की प्रक्रिया माइकल वीन के रहते उतारा गया. वीन 2003 से 2005 के बीच
एक्विजिशन, टेक्नोलॉजी एंड लॉजिस्टिक्स (एटी ऐंड एल) में अंडर सेक्रेटरी
डिफेंस हुआ करते थे। एटी ऐंड एल ने ही यूआईडी और आरएफआईडी कारोबार को
जन्म दिया। अंतरराष्ट्रीय फौजी गठबंधन “नाटो” के भीतर दो ऐसे दस्तावेज
हैं जो चीजों की पहचान से जुड़े हैं। पहला मानकीकरण संधि है जिसे 2010
में स्वीकार किया गया था। दूसरा एक दिशा निर्देशिका है जो नाटो के
सदस्यों के लिए है जो यूआईडी के कारोबार में प्रवेश करना चाहते हैं। ऐसा
लगता है कि भारत का नाटो से कोई रिश्ता बन गया है. यहां हो रही घटनाएं
इसी बात का आभास दे रही हैं।
इसी के आलोक में देखें तो चुनाव आयोग और यूआईडीएआई द्वारा गृह मंत्रलय को
भेजी गयी सिफारिश कि मतदाता पहचान पत्र को यूआईडी के साथ मिला दिया जाय,
चुनावी पर्यावरण को बदलने की एक कवायद है जो एक बार फिर इस बात को
रेखांकित करती है कि बायोमीट्रिक प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग
मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल उतना निर्दोष और राजनीतिक रूप से तटस्थ चीज
नहीं जैसा कि हमें दिखाया जाता है। ध्यान देने वाली बात ये है कि चुनाव
आयोग के वेबसाइट के मुताबिक हर ईवीएम में यूआईडी होता है। मायावती,
अरविन्द केजरीवाल सहित 16 सियासी दलों ने ईवीएम के विरोध में तो देरी कर
ही दी अब वे बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार के विरोध में भी देरी कर रहे है.
यही नहीं राज्यों में जहा इन विरोधी दलों कि सरकार है वह वे अनूठा पहचान
यूआईडी/आधार परियोजना का बड़ी तत्परता से लागू कर रहे है.
यह ऐसा ही है जैसे अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति जब पहली बार
शपथ ले रहे थे तो उन्हें यह पता ही नहीं चला कि जिस कालीन पर खड़े थे वह
उनके परम विरोधी पूंजीपति डेविड कोच की कम्पनी इन्विस्ता द्वारा बनायीं
गई थी. डेविड कोच ने ही अपने संगठनो के जरिये पहले उन्हें उनके कार्यकाल
के दौरान गैर चुनावी शिकस्त दी और फिर बाद में चुनावी शिकस्त भी दी. भारत
में भी विरोधी दल जिस बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार और यूआईडी युक्त ईवीएम की
कालीन पर खड़े है वह कभी भी उनके पैरो के नीचे से खिंची जा सकती है.
लोकतंत्र में विरोधी दल को अगर आधारहीन कर दिया जाता है तो इसका
दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता है क्योंकि ऐसी स्थिति में उनके
लोकतान्त्रिक अधिकार छीन जाते है.
ईवीएम के अलावा जमीन के पट्टे संबंधी विधेयक में जमीन के पट्टों को अनूठा
यूआईडी/आधार से जोड़ने की बात शामिल है। यह सब हमारे संवैधानिक अधिकारों
का अतिक्रमण होगा और प्रौद्योगिकी आधारित सत्ता प्रणाली की छाया लोकतंत्र
के मायने ही बदल रहा है जहां प्रौद्योगिकी और प्रौद्योगिकी कंपनियां
नियामक नियंत्रण से बाहर है क्योंकि वे सरकारों, विधायिकाओं और विरोधी
दलों से हर मायने में कहीं ज्यादा विशाल और विराट हैं।
यूआईडी/आधार और नैटग्रिड एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं। एक ही रस्सी
के दो सिरे हैं। विशिष्ट पहचान/आधार संख्या सम्मिलित रूप से राजसत्ता और
कंपनिया विभिन्न कारणों से नागरिकों पर नजर रखने का उपकरण हैं। यह
परियोजना न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दोष हैं। हैरत कि बात
यह भी है कि एक तरफ गाँधी जी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल होने पर
सरकारी कार्यक्रम हो रहे है वही वे गाँधी जी के द्वारा एशिया के लोगो का
बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पंजीकरण के खिलाफ उनके पहले सत्याग्रह और
आजादी के आन्दोलन के सबक को भूल गए. उन्होंने उंगलियों के निशानदेही
द्वारा पंजीकरण कानून को कला कानून कहा था और सबंधित दस्तावेज को
सार्वजनिक तौर पर जला दिया था. चीनी निवासी भी उस विरोध में शामिल थे.
ऐसा लगता है जैसे चीन को यह सियासी सबक याद रहा मगर भारत भूल गया. चीन ने
बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पहचान अनूठा परियोजना को रद्द कर दिया है.
गौर तलब है कि कैदी पहचान कानून, 1920 के तहत किसी भी कैदी के उंगलियों
के निशान को सिर्फ मजिसट्रेट की अनुमति से लिया जाता है और उनकी रिहाई पर
उंगलियों के निशान के रिकॉर्ड को नष्ट करना होता है. कैदियों के ऊपर
होनेवाले जुल्म की अनदेखी की यह सजा की अब हर देशवासी को उंगलियों के
निशान देने होंगे और कैदियों के मामले में तो उनके रिहाई के वक्त नष्ट
करने का प्रावधान रहा है, देशवासियों के पूरे शारीरिक हस्ताक्षर को
रिकॉर्ड में रखा जा रहा है. बावजूद इसके जानकारी के अभाव में देशवासियों
की सरकार के प्रति आस्था धार्मिक आस्था से भी ज्यादा गहरी प्रतीत होती
है. सरकार जो की जनता की नौकर है अपारदर्शी और जनता को अपारदर्शी बना रही
है.
10 अप्रैल को रवि शंकर प्रसाद ने राज्यसभा में आधार पर चर्चा के दौरान
बताया कि सरकार नैटग्रिड और बायोमेट्रिक आधार को नहीं जोड़ेगी. ऐसी सरकार
जिसने आधार को गैरजरूरी बता कर देशवासियों से पंजीकरण करवाया और बाद में
उसे जरुरी कर दिया उसके किसी भी ऐसे आश्वासन पर कैसे भरोसा किया जा सकता
है. जनता इतनी तो समझदार है ही वह यह तय कर सके कि कंपनियों के समूह
फिक्की और असोचैम के रिपोर्टों और मंत्री की बातों में से किसे ज्यादा
विश्वसनीय माना जाय. इन्ही कंपनियों के समूहों में वे गुमनाम चंदादाता भी
शामिल है जो ज्यादा भरोसेमंद है क्योंकि उन्ही के भरोसे सत्तारूढ़ सियासी
दलों का कारोबार चलता है. फिक्की और असोचैम के रिपोर्टों से स्पष्ट है कि
नैटग्रिड और बायोमेट्रिक आधार संरचनात्मक तौर पर जुड़े हुए है. वैसे भी
ऐसी सरकार जो “स्वैछिक” कह कर लोगो को पंजीकृत करती है और धोखे से उसे
“अनिवार्य” कर देती है उसके आश्वासन पर कौन भरोसा कर्र सकता है.
इस हैरतंगेज सवाल का जवाब कि देशवासियों की पहचान के लिए यूआईडी/संख्या
संख्या की जरूरत को कब और कैसे स्थापित कर दिया गया, किसी के पास नहीं।
पहचान के संबंध में यह 16 वां प्रयास है। चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव से
पहले यह घोषणा करता है कि यदि किसी के पास मतदाता पहचान पत्र नहीं है तो
वे अन्य 14 दस्तावेजों में से किसी का प्रयोग कर सकते हैं। ये वे पहचान
के दस्तावेज हैं जिससे देश में प्रजातंत्र एवं संसद को मान्यता मिलती है।
ऐसे में इस 16वें पहचान की कवायद का कोई ऐसा कारण नजर नहीं आता जिसे
लोकशाही में स्वीकार किया जाए। संसद को पेश किये गए अपने रिपोर्ट में
वित्त की संसदीय समिति ने खुलासा किया है कि सरकार ने इस 16वें पहचान के
अनुमानित खर्च का पहले हुए पहचान पत्र के प्रयासों से कोई तुलना नहीं
किया है. देशवासियों को अंधकार में रखकर बायोमेट्रिक-डिजिटल पहलों से
जुड़े हुए उद्देश्य को अंजाम दिया जा रह हैं। ज्ञात हो कि इस समिति ने
सरकार के जवाब के आधार पर यह अनुमान लगाया है की एक आधार संख्या जारी
करने में औसतन 130 रुपये का खर्चा आता है जो देश के प्रत्येक 130 करोड़
लोगों को भुगतान करना पड़ेगा.
बायोमेट्रिक यू.आई.डी. नीति को नागरिक जीवन (सिविल लाइफ) के लिए समीचीन
बताकर 14 विकासशील देशो में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कंपनियों और
विश्व बैंक के जरिये लागु किया जा रहा है. दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान
में लागु हो चुका है और नेपाल और बांग्लादेश में भी लागु किया जा रहा है.
भारत में इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि कैसे विराट स्तर पर सूचनाओं
को संगठित करने की धारणा चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और
जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में
विकसित हुई है। विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, 2009 के औपचारिक निर्माण से
अस्तित्व में आई यू.आई.डी./आधार परियोजना जनवरी 1933 (जब हिटलर सत्तारूढ़
हुआ) से लेकर दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद के दौर की याद ताजा कर देती
है। जिस तरह इंटरनेशनल बिजनेस मशीन्स (आई.बी.एम.) नाम की दुनिया की सबसे
बड़ी टेक्नॉलाजी कम्पनी ने नाजियों के साथ मिलकर यहूदियों की संपत्तियों
को हथियाने, उन्हें नारकीय बस्तियों में महदूद कर देने, उन्हें देश से
भगाने और आखिरकार उनके सफाए के लिए पंच-कार्ड (कम्प्यूटर का पूर्व रूप)
और इन कार्डो के माध्यम से जनसंख्या के वर्गीकरण की प्रणाली के जरिए
यहूदियों की निशानदेही की, उसने मानवीय विनाश के मशीनीकरण को सम्भव
बनाया। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है।
खासतौर पर जर्मनी और आमतौर पर यूरोप के अनुभवों को नजरअंदाज करके,
निशानदेही के तर्क को आगे बढ़ाते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री ने 2010-2011
का बजट संसद में पेश करते हुए फर्माया कि यू.आई.डी. परियोजना वित्तीय
योजनाओं को समावेशी बनाने और सरकारी सहायता (सब्सिडी) जरूरतमंदों तक ही
पहुंचाने के लिए उनकी निशानदेही करने का मजबूत मंच प्रदान करेगी। जबकि यह
बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि निशानदेही के यही औजार बदले की भावना
से किन्हीं खास धर्मो, जातियों, क्षेत्रों, जातीयताओं या आर्थिक रूप से
असंतुष्ट तबकों के खिलाफ भी इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं। आश्चर्य है
कि आधार परियोजना के प्रमुख यानी वित्त मंत्री ने वित्तीय समावेशन की तो
बात की, लेकिन गरीबों के आर्थिक समावेशन की नहीं। भारत में राजनीतिक
कारणों से समाज के कुछ तबकों का अपवर्जन लक्ष्य करके उन तबकों के जनसंहार
का कारण बना- 1947 में, 1984 में और सन् 2002 में। अगर एक समग्र अन्तः
आनुशासनिक अध्ययन कराया जाए तो उससे साफ हो जाएगा कि किस तरह निजी
जानकारियां और आंकड़े जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए था, वे हमारे देश
में दंगाइयों और जनसंहार रचाने वालों को आसानी से उपलब्ध थे।
भारत सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती। अगर नाजियों जैसा कोई दल
सत्तारूढ़ होता है तो क्या गारंटी है कि यू.आई.डी. के आंकड़े उसे प्राप्त
नहीं होंगे और वह बदले की भावना से उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास
तबके के खिलाफ नहीं करेगा? दरअसल यही जनवरी 1933, जनवरी 2009 से अप्रैल
2017 तक के निशानदेही के प्रयासों का सफरनामा है। यू.आई.डी. वही सब कुछ
दोहराने का मंच है जो जर्मनी, रूमानिया, यूरोप और अन्य जगहों पर हुआ जहां
वह जनगणना से लेकर नाजियों को यहूदियों की सूची प्रदान करने का माध्यम
बना। यू.आई.डी. का नागरिकता से कोई संबंध नहीं है, वह महज निशानदेही का
साधन है। इस पृष्ठभूमि में, ब्रिटेन द्वारा विवादास्पद राष्ट्रीय
पहचानपत्र योजना को समाप्त करने का निर्णय स्वागत योग्य हैं क्योंकि यह
फैसला नागरिकों की निजी जिंदगियों में हस्तक्षेप से उनकी सुरक्षा करता
है। पहचानपत्र कानून 2006 और स्कूलों में बच्चों की उंगलियों के निशान
लिए जाने की प्रथा का खात्मा करने के साथ-साथ ब्रिटेन सरकार अपना
राष्ट्रीय पहचानपत्र रजिस्टर बंद कर दिया है।
इसकी आशंका प्रबल है कि आधार जो कि यू.आई.डी. (विशिष्ट पहचान संख्या) का
ब्रांड नाम है वही करने जा रही है जो कि हिटलर के सत्तारूढ़ होने से पहले
के जर्मन सत्ताधारियों ने किया, अन्यथा यह कैसे सम्भव था कि यहूदी नामों
की सूची नाजियों के आने से पहले भी जर्मन सरकार के पास रहा करती थी?
नाजियों ने यह सूची आई.बी.एम. कम्पनी से प्राप्त की जो कि जनगणना के
व्यवसाय में पहले से थी। यह जनगणना नस्लों के आधार पर भी की गई थी जिसके
चलते न केवल यहूदियों की गिनती, बल्कि उनकी निशानदेही सुनिश्चित हो सकी,
वाशिंगटन डी.सी. स्थित अमेरिका के होलोकास्ट म्युजियम (विभीषिका
संग्रहालय) में आई.बी.एम. की होलोरिथ डी-11 कार्ड सार्टिग मशीन आज भी
प्रदर्शित है जिसके जरिए 1933 की जनगणना में यहूदियों की पहले-पहल
निशानदेही की गई थी।
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने एक जैवमापन मानक समिति (बायोमेट्रिक्स
स्टैंडर्डस कमिटि) का गठन किया. समिति खुलासा करती है कि जैवमापन सेवाओं
के निष्पादन के समय सरकारी विभागों और वाणिज्यिक संस्थाओं द्वारा
प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए किया जाएगा। यहां वाणिज्यिक संस्थाओं को
परिभाषित नहीं किया गया है। जैवमापन मानक समिति ने यह संस्तुति की है कि
जैवमापक आंकड़े राष्ट्रीय निधि हैं और उन्हें उनके मौलिक रूप में
संरक्षित किया जाना चाहिए। समिति नागरिकों के आंकड़ाकोष को राष्ट्रीय
निधि अर्थात ‘धन’ बताती है। यह निधि कब कंपनियों की निधि बन जाएगी कहा
नहीं जा सकता.
ऐसे समय में जब बायोमेट्रिक आधार और कंपनी कानून मामले में कांग्रेस और
भारतीय जनता पार्टी के बीच खिचड़ी पकती सी दिख रही है, आधार आधारित
केंद्रीकृत ऑनलाइन डेटाबेस से देश के संघीय ढांचे को खतरा पैदा हो गया
है। आधार आधारित व्यवस्था के दुरुपयोग की जबर्दस्त संभावनाएं हैं और यह
आपातकालीन स्थिति तक पैदा कर सकने में सक्षम है। ये देश के संघीय ढांचे
का अतिक्रमण करती हैं और राज्यों के अधिकारों को और मौलिक व लोकतान्त्रिक
अधिकारों को कम करती हैं।
देश के 28 राज्यों एवं 7 केंद्र शासित प्रदेशों में से अधिकतर ने
यूआईडीएआई के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। राज्यों में वामपंथी
पार्टियों की सरकारों ने इस मामले में दोमुहा रवैया अख्तियार कर लिया है.
अपने राज्य में वे इसे लागु कर रहे है मगर केंद्र में आधार परियोजना में
अमेरिकी ख़ुफ़िया विभाग की संग्लिप्तता के कारण विरोध कर रहे है. क्या
उनके हाथ भी ठेके के बंटवारे के कारण बांध गए है? कानून के जानकार बताते
हैं कि इस समझौते को नहीं मानने से भी राज्य सरकारों को कोई फ़र्क नहीं
पड़ता, क्योंकि कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। पूर्व न्यायाधीश, कानूनविद
और शिक्षाविद यह सलाह दे रहे हैं कि यूआईडी योजना से देश के संघीय ढांचे
को एवं संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया
है। राज्य सरकारों, केंद्र के कई विभागों और अन्य संस्थाओं को चाहिए कि
यूआईडीएआई के साथ हुए एमओयू की समग्रता में समीक्षा करे और अनजाने में
अधिनायकवाद की स्थिति का समर्थन करने से बचें। एक ओर जहां राज्य और उनके
नागरिक अपने अधिकारों को लेकर चिंतित हैं और केंद्रीकृत ताकत का विरोध
करने में लगे हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतिगामी कनवर्जेंस इकनॉमी पर आधारित
डेटाबेस और अनियमित सर्वेलेंस, बायोमीट्रिक व चुनावी तकनीकों पर मोटे तौर
पर किसी की नजर नहीं जा रही और उनके खिलाफ आवाज अभी-अभी उठना शुरू हुआ
है।
ठेका-राज से निजात पाने के लिए विशिष्ट पहचान/आधार संख्या जैसे उपकरणों
द्वारा नागरिकों पर सतत नजर रखने और उनके जैवमापक रिकार्ड तैयार करने पर
आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत करने वाले व्यक्तियों, जनसंगठनों,
जन आंदोलनों, संस्थाओं के अभियान का समर्थन करना एक तार्किक मजबूरी है.
फिलहाल देशवासियों के पास अपनी संप्रभुता को बचाने के लिए आधार परियोजना
का बहिष्कार ही एक मात्र रास्ता है. अगले चुनाव से पहले एक ऐसे भरोसेमंद
विपक्ष की जरुरत है जो यह लिखित वायदा करे कि सत्ता में आने पर ब्रिटेन,
अमेरिका और अन्य देशों कि तरह भारत भी अपने वर्तमान और भविष्य के
देशवासियों को बायोमेट्रिक आधार आधारित देशी व विदेशी खुफिया निगरानी से
आज़ाद करेगी.
संपर्क सूत्र: डॉ गोपाल कृष्ण, सदस्य, सिटीजन्स फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज
व www.toxicswatch.org के संपादक है जो आधार विधेयक, 2010 के आकलन के
लिए वित्त संबंधी संसद की स्थायी समिति के समक्ष विशेषज्ञ के रूप में
उपस्थित हुए थे.
“मंदबुद्धि लोगों का देश”, नागरिकों को निराधार करती बायोमेट्रिक
युआईडी/आधार अनूठा पहचान परियोजना का सच और बारह अंकों का रहस्य
वित्त कानून 2017 और कंपनी राज की स्थापना की घोषणा
कल 26 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट कि न्यायामूर्ति अर्जन कुमार सिकरी की
अध्यक्षता वाली दो जजों की पीठ बायोमेट्रिक अनूठा पहचान/आधार संख्या से
मौलिक अधिकार के उल्लंघन के मामले की सुनवाई कर फैसला देंगे. यह संयुक्त
मुक़दमा मेजर जनरल (भूतपूर्व) सुधीर वोम्बात्केरे, सफाई कर्मचारी आन्दोलन
के नेता बेज्वाडा विल्सन और केरल के पूर्व मंत्री बिनोय विस्वम द्वारा
अलग-अलग दायर किया गया है. 21 अप्रैल को न्यायामूर्ति सिकरी ने अटॉर्नी
जनरल से पुछा था कि आप अदालत के आदेश के बावजूद अनूठा पहचान/आधार संख्या
को अनिवार्य क्यों कर रहे है. अटॉर्नी जनरल ने जवाब दिया कि क्योंकि आधार
कानून, 2016 लागु हो गया है अदालत के आदेश का अब कोई महत्व नहीं रह गया
है.
मौजूदा कानून के सम्बन्ध में 10 अप्रैल को कानून मंत्री ने संसद को और 21
अप्रैल को अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह करते हुए यह कहा कि
आधार कानून, 2016 के 12 सितम्बर, 2016 से लागु हो जाने के कारण संविधान
पीठ का आदेश अब कानून नहीं रहा. दोनों ने बड़ी ही बेशर्मी से सुप्रीम
कोर्ट के सितम्बर 14, 2016 के फैसले के बारे में अनभिज्ञ रहने का स्वांग
रचा. ये बात संसद में भी सरकार को बताई गयी है और जल्द ही कोर्ट भी भी यह
निर्णय सुनाएगा कि सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का आखिरी फैसला ही देश
का कानून है और वह सर्वोपरी है क्योंकि वह आधार कानून के लागु होने के
बाद आया है.
तथ्य यह है कि सितम्बर 14, 2016 के न्यायमूर्ति वि. गोपाला गौड़ा और
आदर्श कुमार गोयल की खंडपीठ ने 5 जजों के संविधान पीठ के 15 अक्टूबर 2015
के आदेश को सातवी बार यह कहते हुए दोहराया कि युआईडी/आधार संख्या किसी भी
कार्य के लिए जरूरी नहीं बनाया जा सकता है. इस मामले की सुनवाई को
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टी .एस ठाकुर, न्यायाधीश ए. एम.
खानविलकर और न्यायाधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ के पीठ ने 9 सितम्बर को तय
किया था. यह फैसला पश्चिम बंगाल अल्पसंख्यक विद्यार्थी कौंसिल द्वारा दी
गयी चनौती के सन्दर्भ में आया है. इससे पहले पश्चिम बंगाल विधान सभा ने
आधार के खिलाफ सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव भी पारित किया है.
अच्छा हुआ कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वित्त कानून 2017 अब सबकी निगाह
नए मुख्य न्यायाधीश पर टिकी है क्योकि डिजिटल उपनिवेशवाद को निमंत्रण
देता डिजिटल इंडिया और बायोमेट्रिक युआईडी/आधार संख्या का भविष्य उन्हें
ही तय करना है. के जरिये संशोधन के सम्बन्ध में वह कर दिया जो वित्त
मंत्री रहते प्रणब मुख़र्जी ने संसद में बायोमेट्रिक “ऑनलाइन डेटाबेस”
अनूठा पहचान अंक (यू.आई.डी./आधार) परियोजना की घोषणा करते वक्त अपने
2009-10 बजट भाषण में नहीं किया था. अंततः भारत सरकार ने कंपनी कानून,
2013 और आधार कानून, 2016 का जिक्र साथ-साथ कर ही दिया. इस कानून ने
कानून के राज की समाप्ति करके कंपनी राज की पुनः स्थपाना की विधिवत घोषणा
कर दिया है. इसने देश के राजनीतिक भूगोल में को ही फिर से लिख डाला है
जिसे शायद एक नयी आज़ादी के संग्राम से ही भविष्य में कभी सुधारा जा सके.
इसके कारण बायोमेट्रिक युआईडी/आधार अनूठा पहचान परियोजना और कंपनियों के
इरादे के बीच अब तक छुपे रिश्ते जगजाहिर हो गए है. मगर सियासी दलों और
नागरिकों के लिए वित्त कानून 2017 का अर्थ अभी ठीक से खुला ही नहीं है.
भारत में एक अजीब रिवाज चल पड़ा है। वह यह कि दुनिया के विकसित देश जिस
योजना को खारिज कर देते हैं, हमारी सरकार उसे सफ़लता की कुंजी समझ बैठती
है। अनूठा पहचान (युआईडी)/आधार संख्या परियोजना इसकी ताजा मिसाल है। मोटे
तौर पर ‘आधार’ तो बारह अंकों वाला एक अनूठा पहचान संख्या है, जिसे
देशवासियों को सूचीबद्ध कर उपलब्ध कराया जा रहा है। लेकिन यही पूरा सच
नहीं है। असल में यह 16 अंकों वाला है मगर 4 अंक छुपे रहते है. सरकार के
इस परियोजना के कई रहस्य अभी भी उजागार नहीं हुए है।
सरकारी व कंपनियों के विचारकों के अनुसार भारत “मंदबुद्धि लोगों का देश”
है. शायद इसीलिए वो मानते जानते है कि लोग खामोश ही रहेंगे. ऐसा भारतीय
गृह मंत्रालय के तहत नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) विभाग के मुखिया
रहे कैप्टन रघुरमन का मानना है.
कैप्टन रघुरमन पहले महिंद्रा स्पेशल सर्विसेस ग्रुप के मुखिया थे और
बॉम्बे चैम्बर्स ऑफ़ इंडस्ट्रीज एंड कॉमर्स की सेफ्टी एंड सेक्यूरिटी
कमिटि के चेयरमैन थे। इनकी मंशा का पता इनके द्वारा ही लिखित एक दस्तावेज
से चलता है, जिसका शीर्षक “ए नेशन ऑफ़ नम्ब पीपल” अर्थात् असंवेदनशील
मंदबुद्धि लोगों का देश है। इसमें इन्होंने लिखा है कि भारत सरकार देश को
आंतरिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं कर सकती। इसलिए कंपनियों को अपनी सुरक्षा के
लिए निजी सेना का गठन करना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि ‘कॉर्पोरेटस’
सुरक्षा के क्षेत्र में कदम बढ़ाएं। इनका निष्कर्ष यह है कि ‘यदि वाणिज्य
सम्राट अपने साम्राज्य को नहीं बचाते हैं तो उनके अधिपत्य पर आघात हो
सकता है।’’ कैप्टन रघुरमन बाद में नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड के मुखिया
बने. इस ग्रिड के बारे में 3 लाख कंपनियों की नुमाइंदगी करने वाली
एसोसिएट चैम्बर्स एंड कॉमर्स (एसोचेम) और स्विस कंसलटेंसी के एक दस्तावेज
में यह खुलासा हुआ है कि विशिष्ट पहचान/आधार संख्या इससे जुड़ा हुआ है।
आजादी से पहले गठित अघोषित और अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी “फिक्की”
(फेडरेशन ऑफ़ इंडियन कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) द्वारा 2009 में तैयार
राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद पर टास्कफोर्स (कार्यबल) की 121 पृष्ठ कि
रिपोर्ट में सभी जिला मुख्यालयों और पुलिस स्टेशनों को ई-नेटवर्क के
माध्यम से नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) में जोड़ने की बात सामने
आती है. यह रिपोर्ट कहती है कि निलेकणी के नेतृत्व में जैसे ही भारतीय
विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) तैयार हो जाएगा, उसमें शामिल
आंकड़ों को नेशनल ग्रिड का हिस्सा बनाया जा सकता है जिससे आतंकवाद निरोधक
कार्रवाइयों में मदद मिल सके।’’ ऐसा पहली बार नहीं है कि नैटग्रिड और
यूआईडीएआई के रिश्तों पर बात की गई है। कंपनियों के हितों के लिए काम
करने वाली संस्था व अघोषित और अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी “एसोचैम” और
स्विस परामर्शदाता फर्म केपीएमजी की एक संयुक्त रिपोर्ट ‘होमलैंड
सिक्योरिटी इन इंडिया 2010’ में भी यह बात सामने आई है। इसके अलावा जून
2011 में एसोचैम और डेकन क्रॉनिकल समूह के प्रवर्तकों की पहल एवियोटेक की
एक संयुक्त रिपोर्ट ‘होमलैंड सिक्योरिटी एसेसमेंट इन इंडिया: एक्सपैंशन
एंड ग्रोथ’ में कहा गया है कि ‘राष्ट्रीय जनगणना के तहत आने वाले
कार्यक्रमों के लिए बायोमीट्रिक्स की जरूरत अहम हो जाएगी।’ इस रिपोर्ट से
पता चलता है कि यूआईडी से जुड़े राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर कार्यक्रम का
लक्ष्य क्या है। रिपोर्ट अमेरिका, ब्रिटेन और इजरायल की तरह आतंकवाद
निरोधक प्रणाली अपनाने की सिफारिश करती है तथा कंपनियों के लिए सुरक्षित
शहर (स्मार्ट सिटी) योजना की मंजूरी का आवाहन करती है।
वैसे तो अमेरिका में बायोमेट्रिक यूआईडी के बारे में क्रियान्वयन की
चर्चा 1995 में ही हो चुकी थी मगर हाल के समय में धरातल पर इसे अमेरिकी
रक्षा विभाग में यूआईडी और रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी)
की प्रक्रिया माइकल वीन के रहते उतारा गया. वीन 2003 से 2005 के बीच
एक्विजिशन, टेक्नोलॉजी एंड लॉजिस्टिक्स (एटी ऐंड एल) में अंडर सेक्रेटरी
डिफेंस हुआ करते थे। एटी ऐंड एल ने ही यूआईडी और आरएफआईडी कारोबार को
जन्म दिया। अंतरराष्ट्रीय फौजी गठबंधन “नाटो” के भीतर दो ऐसे दस्तावेज
हैं जो चीजों की पहचान से जुड़े हैं। पहला मानकीकरण संधि है जिसे 2010
में स्वीकार किया गया था। दूसरा एक दिशा निर्देशिका है जो नाटो के
सदस्यों के लिए है जो यूआईडी के कारोबार में प्रवेश करना चाहते हैं। ऐसा
लगता है कि भारत का नाटो से कोई रिश्ता बन गया है. यहां हो रही घटनाएं
इसी बात का आभास दे रही हैं।
इसी के आलोक में देखें तो चुनाव आयोग और यूआईडीएआई द्वारा गृह मंत्रलय को
भेजी गयी सिफारिश कि मतदाता पहचान पत्र को यूआईडी के साथ मिला दिया जाय,
चुनावी पर्यावरण को बदलने की एक कवायद है जो एक बार फिर इस बात को
रेखांकित करती है कि बायोमीट्रिक प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग
मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल उतना निर्दोष और राजनीतिक रूप से तटस्थ चीज
नहीं जैसा कि हमें दिखाया जाता है। ध्यान देने वाली बात ये है कि चुनाव
आयोग के वेबसाइट के मुताबिक हर ईवीएम में यूआईडी होता है। मायावती,
अरविन्द केजरीवाल सहित 16 सियासी दलों ने ईवीएम के विरोध में तो देरी कर
ही दी अब वे बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार के विरोध में भी देरी कर रहे है.
यही नहीं राज्यों में जहा इन विरोधी दलों कि सरकार है वह वे अनूठा पहचान
यूआईडी/आधार परियोजना का बड़ी तत्परता से लागू कर रहे है.
यह ऐसा ही है जैसे अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति जब पहली बार
शपथ ले रहे थे तो उन्हें यह पता ही नहीं चला कि जिस कालीन पर खड़े थे वह
उनके परम विरोधी पूंजीपति डेविड कोच की कम्पनी इन्विस्ता द्वारा बनायीं
गई थी. डेविड कोच ने ही अपने संगठनो के जरिये पहले उन्हें उनके कार्यकाल
के दौरान गैर चुनावी शिकस्त दी और फिर बाद में चुनावी शिकस्त भी दी. भारत
में भी विरोधी दल जिस बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार और यूआईडी युक्त ईवीएम की
कालीन पर खड़े है वह कभी भी उनके पैरो के नीचे से खिंची जा सकती है.
लोकतंत्र में विरोधी दल को अगर आधारहीन कर दिया जाता है तो इसका
दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता है क्योंकि ऐसी स्थिति में उनके
लोकतान्त्रिक अधिकार छीन जाते है.
ईवीएम के अलावा जमीन के पट्टे संबंधी विधेयक में जमीन के पट्टों को अनूठा
यूआईडी/आधार से जोड़ने की बात शामिल है। यह सब हमारे संवैधानिक अधिकारों
का अतिक्रमण होगा और प्रौद्योगिकी आधारित सत्ता प्रणाली की छाया लोकतंत्र
के मायने ही बदल रहा है जहां प्रौद्योगिकी और प्रौद्योगिकी कंपनियां
नियामक नियंत्रण से बाहर है क्योंकि वे सरकारों, विधायिकाओं और विरोधी
दलों से हर मायने में कहीं ज्यादा विशाल और विराट हैं।
यूआईडी/आधार और नैटग्रिड एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं। एक ही रस्सी
के दो सिरे हैं। विशिष्ट पहचान/आधार संख्या सम्मिलित रूप से राजसत्ता और
कंपनिया विभिन्न कारणों से नागरिकों पर नजर रखने का उपकरण हैं। यह
परियोजना न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दोष हैं। हैरत कि बात
यह भी है कि एक तरफ गाँधी जी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल होने पर
सरकारी कार्यक्रम हो रहे है वही वे गाँधी जी के द्वारा एशिया के लोगो का
बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पंजीकरण के खिलाफ उनके पहले सत्याग्रह और
आजादी के आन्दोलन के सबक को भूल गए. उन्होंने उंगलियों के निशानदेही
द्वारा पंजीकरण कानून को कला कानून कहा था और सबंधित दस्तावेज को
सार्वजनिक तौर पर जला दिया था. चीनी निवासी भी उस विरोध में शामिल थे.
ऐसा लगता है जैसे चीन को यह सियासी सबक याद रहा मगर भारत भूल गया. चीन ने
बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पहचान अनूठा परियोजना को रद्द कर दिया है.
गौर तलब है कि कैदी पहचान कानून, 1920 के तहत किसी भी कैदी के उंगलियों
के निशान को सिर्फ मजिसट्रेट की अनुमति से लिया जाता है और उनकी रिहाई पर
उंगलियों के निशान के रिकॉर्ड को नष्ट करना होता है. कैदियों के ऊपर
होनेवाले जुल्म की अनदेखी की यह सजा की अब हर देशवासी को उंगलियों के
निशान देने होंगे और कैदियों के मामले में तो उनके रिहाई के वक्त नष्ट
करने का प्रावधान रहा है, देशवासियों के पूरे शारीरिक हस्ताक्षर को
रिकॉर्ड में रखा जा रहा है. बावजूद इसके जानकारी के अभाव में देशवासियों
की सरकार के प्रति आस्था धार्मिक आस्था से भी ज्यादा गहरी प्रतीत होती
है. सरकार जो की जनता की नौकर है अपारदर्शी और जनता को अपारदर्शी बना रही
है.
10 अप्रैल को रवि शंकर प्रसाद ने राज्यसभा में आधार पर चर्चा के दौरान
बताया कि सरकार नैटग्रिड और बायोमेट्रिक आधार को नहीं जोड़ेगी. ऐसी सरकार
जिसने आधार को गैरजरूरी बता कर देशवासियों से पंजीकरण करवाया और बाद में
उसे जरुरी कर दिया उसके किसी भी ऐसे आश्वासन पर कैसे भरोसा किया जा सकता
है. जनता इतनी तो समझदार है ही वह यह तय कर सके कि कंपनियों के समूह
फिक्की और असोचैम के रिपोर्टों और मंत्री की बातों में से किसे ज्यादा
विश्वसनीय माना जाय. इन्ही कंपनियों के समूहों में वे गुमनाम चंदादाता भी
शामिल है जो ज्यादा भरोसेमंद है क्योंकि उन्ही के भरोसे सत्तारूढ़ सियासी
दलों का कारोबार चलता है. फिक्की और असोचैम के रिपोर्टों से स्पष्ट है कि
नैटग्रिड और बायोमेट्रिक आधार संरचनात्मक तौर पर जुड़े हुए है. वैसे भी
ऐसी सरकार जो “स्वैछिक” कह कर लोगो को पंजीकृत करती है और धोखे से उसे
“अनिवार्य” कर देती है उसके आश्वासन पर कौन भरोसा कर्र सकता है.
इस हैरतंगेज सवाल का जवाब कि देशवासियों की पहचान के लिए यूआईडी/संख्या
संख्या की जरूरत को कब और कैसे स्थापित कर दिया गया, किसी के पास नहीं।
पहचान के संबंध में यह 16 वां प्रयास है। चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव से
पहले यह घोषणा करता है कि यदि किसी के पास मतदाता पहचान पत्र नहीं है तो
वे अन्य 14 दस्तावेजों में से किसी का प्रयोग कर सकते हैं। ये वे पहचान
के दस्तावेज हैं जिससे देश में प्रजातंत्र एवं संसद को मान्यता मिलती है।
ऐसे में इस 16वें पहचान की कवायद का कोई ऐसा कारण नजर नहीं आता जिसे
लोकशाही में स्वीकार किया जाए। संसद को पेश किये गए अपने रिपोर्ट में
वित्त की संसदीय समिति ने खुलासा किया है कि सरकार ने इस 16वें पहचान के
अनुमानित खर्च का पहले हुए पहचान पत्र के प्रयासों से कोई तुलना नहीं
किया है. देशवासियों को अंधकार में रखकर बायोमेट्रिक-डिजिटल पहलों से
जुड़े हुए उद्देश्य को अंजाम दिया जा रह हैं। ज्ञात हो कि इस समिति ने
सरकार के जवाब के आधार पर यह अनुमान लगाया है की एक आधार संख्या जारी
करने में औसतन 130 रुपये का खर्चा आता है जो देश के प्रत्येक 130 करोड़
लोगों को भुगतान करना पड़ेगा.
बायोमेट्रिक यू.आई.डी. नीति को नागरिक जीवन (सिविल लाइफ) के लिए समीचीन
बताकर 14 विकासशील देशो में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कंपनियों और
विश्व बैंक के जरिये लागु किया जा रहा है. दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान
में लागु हो चुका है और नेपाल और बांग्लादेश में भी लागु किया जा रहा है.
भारत में इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि कैसे विराट स्तर पर सूचनाओं
को संगठित करने की धारणा चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और
जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में
विकसित हुई है। विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, 2009 के औपचारिक निर्माण से
अस्तित्व में आई यू.आई.डी./आधार परियोजना जनवरी 1933 (जब हिटलर सत्तारूढ़
हुआ) से लेकर दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद के दौर की याद ताजा कर देती
है। जिस तरह इंटरनेशनल बिजनेस मशीन्स (आई.बी.एम.) नाम की दुनिया की सबसे
बड़ी टेक्नॉलाजी कम्पनी ने नाजियों के साथ मिलकर यहूदियों की संपत्तियों
को हथियाने, उन्हें नारकीय बस्तियों में महदूद कर देने, उन्हें देश से
भगाने और आखिरकार उनके सफाए के लिए पंच-कार्ड (कम्प्यूटर का पूर्व रूप)
और इन कार्डो के माध्यम से जनसंख्या के वर्गीकरण की प्रणाली के जरिए
यहूदियों की निशानदेही की, उसने मानवीय विनाश के मशीनीकरण को सम्भव
बनाया। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है।
खासतौर पर जर्मनी और आमतौर पर यूरोप के अनुभवों को नजरअंदाज करके,
निशानदेही के तर्क को आगे बढ़ाते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री ने 2010-2011
का बजट संसद में पेश करते हुए फर्माया कि यू.आई.डी. परियोजना वित्तीय
योजनाओं को समावेशी बनाने और सरकारी सहायता (सब्सिडी) जरूरतमंदों तक ही
पहुंचाने के लिए उनकी निशानदेही करने का मजबूत मंच प्रदान करेगी। जबकि यह
बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि निशानदेही के यही औजार बदले की भावना
से किन्हीं खास धर्मो, जातियों, क्षेत्रों, जातीयताओं या आर्थिक रूप से
असंतुष्ट तबकों के खिलाफ भी इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं। आश्चर्य है
कि आधार परियोजना के प्रमुख यानी वित्त मंत्री ने वित्तीय समावेशन की तो
बात की, लेकिन गरीबों के आर्थिक समावेशन की नहीं। भारत में राजनीतिक
कारणों से समाज के कुछ तबकों का अपवर्जन लक्ष्य करके उन तबकों के जनसंहार
का कारण बना- 1947 में, 1984 में और सन् 2002 में। अगर एक समग्र अन्तः
आनुशासनिक अध्ययन कराया जाए तो उससे साफ हो जाएगा कि किस तरह निजी
जानकारियां और आंकड़े जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए था, वे हमारे देश
में दंगाइयों और जनसंहार रचाने वालों को आसानी से उपलब्ध थे।
भारत सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती। अगर नाजियों जैसा कोई दल
सत्तारूढ़ होता है तो क्या गारंटी है कि यू.आई.डी. के आंकड़े उसे प्राप्त
नहीं होंगे और वह बदले की भावना से उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास
तबके के खिलाफ नहीं करेगा? दरअसल यही जनवरी 1933, जनवरी 2009 से अप्रैल
2017 तक के निशानदेही के प्रयासों का सफरनामा है। यू.आई.डी. वही सब कुछ
दोहराने का मंच है जो जर्मनी, रूमानिया, यूरोप और अन्य जगहों पर हुआ जहां
वह जनगणना से लेकर नाजियों को यहूदियों की सूची प्रदान करने का माध्यम
बना। यू.आई.डी. का नागरिकता से कोई संबंध नहीं है, वह महज निशानदेही का
साधन है। इस पृष्ठभूमि में, ब्रिटेन द्वारा विवादास्पद राष्ट्रीय
पहचानपत्र योजना को समाप्त करने का निर्णय स्वागत योग्य हैं क्योंकि यह
फैसला नागरिकों की निजी जिंदगियों में हस्तक्षेप से उनकी सुरक्षा करता
है। पहचानपत्र कानून 2006 और स्कूलों में बच्चों की उंगलियों के निशान
लिए जाने की प्रथा का खात्मा करने के साथ-साथ ब्रिटेन सरकार अपना
राष्ट्रीय पहचानपत्र रजिस्टर बंद कर दिया है।
इसकी आशंका प्रबल है कि आधार जो कि यू.आई.डी. (विशिष्ट पहचान संख्या) का
ब्रांड नाम है वही करने जा रही है जो कि हिटलर के सत्तारूढ़ होने से पहले
के जर्मन सत्ताधारियों ने किया, अन्यथा यह कैसे सम्भव था कि यहूदी नामों
की सूची नाजियों के आने से पहले भी जर्मन सरकार के पास रहा करती थी?
नाजियों ने यह सूची आई.बी.एम. कम्पनी से प्राप्त की जो कि जनगणना के
व्यवसाय में पहले से थी। यह जनगणना नस्लों के आधार पर भी की गई थी जिसके
चलते न केवल यहूदियों की गिनती, बल्कि उनकी निशानदेही सुनिश्चित हो सकी,
वाशिंगटन डी.सी. स्थित अमेरिका के होलोकास्ट म्युजियम (विभीषिका
संग्रहालय) में आई.बी.एम. की होलोरिथ डी-11 कार्ड सार्टिग मशीन आज भी
प्रदर्शित है जिसके जरिए 1933 की जनगणना में यहूदियों की पहले-पहल
निशानदेही की गई थी।
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने एक जैवमापन मानक समिति (बायोमेट्रिक्स
स्टैंडर्डस कमिटि) का गठन किया. समिति खुलासा करती है कि जैवमापन सेवाओं
के निष्पादन के समय सरकारी विभागों और वाणिज्यिक संस्थाओं द्वारा
प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए किया जाएगा। यहां वाणिज्यिक संस्थाओं को
परिभाषित नहीं किया गया है। जैवमापन मानक समिति ने यह संस्तुति की है कि
जैवमापक आंकड़े राष्ट्रीय निधि हैं और उन्हें उनके मौलिक रूप में
संरक्षित किया जाना चाहिए। समिति नागरिकों के आंकड़ाकोष को राष्ट्रीय
निधि अर्थात ‘धन’ बताती है। यह निधि कब कंपनियों की निधि बन जाएगी कहा
नहीं जा सकता.
ऐसे समय में जब बायोमेट्रिक आधार और कंपनी कानून मामले में कांग्रेस और
भारतीय जनता पार्टी के बीच खिचड़ी पकती सी दिख रही है, आधार आधारित
केंद्रीकृत ऑनलाइन डेटाबेस से देश के संघीय ढांचे को खतरा पैदा हो गया
है। आधार आधारित व्यवस्था के दुरुपयोग की जबर्दस्त संभावनाएं हैं और यह
आपातकालीन स्थिति तक पैदा कर सकने में सक्षम है। ये देश के संघीय ढांचे
का अतिक्रमण करती हैं और राज्यों के अधिकारों को और मौलिक व लोकतान्त्रिक
अधिकारों को कम करती हैं।
देश के 28 राज्यों एवं 7 केंद्र शासित प्रदेशों में से अधिकतर ने
यूआईडीएआई के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। राज्यों में वामपंथी
पार्टियों की सरकारों ने इस मामले में दोमुहा रवैया अख्तियार कर लिया है.
अपने राज्य में वे इसे लागु कर रहे है मगर केंद्र में आधार परियोजना में
अमेरिकी ख़ुफ़िया विभाग की संग्लिप्तता के कारण विरोध कर रहे है. क्या
उनके हाथ भी ठेके के बंटवारे के कारण बांध गए है? कानून के जानकार बताते
हैं कि इस समझौते को नहीं मानने से भी राज्य सरकारों को कोई फ़र्क नहीं
पड़ता, क्योंकि कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। पूर्व न्यायाधीश, कानूनविद
और शिक्षाविद यह सलाह दे रहे हैं कि यूआईडी योजना से देश के संघीय ढांचे
को एवं संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया
है। राज्य सरकारों, केंद्र के कई विभागों और अन्य संस्थाओं को चाहिए कि
यूआईडीएआई के साथ हुए एमओयू की समग्रता में समीक्षा करे और अनजाने में
अधिनायकवाद की स्थिति का समर्थन करने से बचें। एक ओर जहां राज्य और उनके
नागरिक अपने अधिकारों को लेकर चिंतित हैं और केंद्रीकृत ताकत का विरोध
करने में लगे हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतिगामी कनवर्जेंस इकनॉमी पर आधारित
डेटाबेस और अनियमित सर्वेलेंस, बायोमीट्रिक व चुनावी तकनीकों पर मोटे तौर
पर किसी की नजर नहीं जा रही और उनके खिलाफ आवाज अभी-अभी उठना शुरू हुआ
है।
ठेका-राज से निजात पाने के लिए विशिष्ट पहचान/आधार संख्या जैसे उपकरणों
द्वारा नागरिकों पर सतत नजर रखने और उनके जैवमापक रिकार्ड तैयार करने पर
आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत करने वाले व्यक्तियों, जनसंगठनों,
जन आंदोलनों, संस्थाओं के अभियान का समर्थन करना एक तार्किक मजबूरी है.
फिलहाल देशवासियों के पास अपनी संप्रभुता को बचाने के लिए आधार परियोजना
का बहिष्कार ही एक मात्र रास्ता है. अगले चुनाव से पहले एक ऐसे भरोसेमंद
विपक्ष की जरुरत है जो यह लिखित वायदा करे कि सत्ता में आने पर ब्रिटेन,
अमेरिका और अन्य देशों कि तरह भारत भी अपने वर्तमान और भविष्य के
देशवासियों को बायोमेट्रिक आधार आधारित देशी व विदेशी खुफिया निगरानी से
आज़ाद करेगी.
संपर्क सूत्र: डॉ गोपाल कृष्ण, सदस्य, सिटीजन्स फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज
व www.toxicswatch.org के संपादक है जो आधार विधेयक, 2010 के आकलन के
लिए वित्त संबंधी संसद की स्थायी समिति के समक्ष विशेषज्ञ के रूप में
उपस्थित हुए थे.
No comments:
Post a Comment