Tuesday, June 6, 2017

डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर मारकाट करती आम जनता भी है। ईमानदारी और विचारधारा के पाखंड की तरह न्यायिक प्रक्रिया और जांच एजसिंयों की भूमिका भी मौके के हिसाब से सापेक्षिक है। पलाश विश्वास


डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर मारकाट करती आम जनता भी है।
ईमानदारी और विचारधारा के पाखंड की तरह न्यायिक प्रक्रिया और जांच एजसिंयों की भूमिका भी मौके के हिसाब से सापेक्षिक है। 
पलाश विश्वास

हम लागातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हरित क्रांति के बाद से लगातार गहराते कृषि संकट और मुक्तबाजारी कारपोरेटअर्थव्यवस्था भारत में तमाम समस्याओं की जड़ है।

डिजिटल इंडिया,आधार निराधार,बायोमेट्रिक लेन देन जैसे तकनीकी तिलिस्म में बुनियादी जिन मुद्दों और समस्याओं को हम नजरअंदाज कर रहे हैं,वे मूलतः कृषि और कृषि आजीविका से जुडे रोजगार, कारोबार, उद्योग धंधों और किसानों,मेहनतकशों और कारोबरियों से लेकर युवाओं और स्त्रियों की समस्याएं है।

किसानों की बदहाली और उनकी थोक खुदकशी के अलावा बेरोजगारी ,पर्यावरण संकट,भुखमरी,प्राकृतिक आपदाओं,मंदी की तमाम समस्याओं के तार कृषि संकट से जुड़े हैं।जिसे हम भारत की नागरिक की हैसियत से सिरे से नजरअंदाज कर रहे हैं और हमारा सारा विम्ऱस नस्ली रंगभेद के तहत कृषि,जनपद,किसानों और मेहनतकशों,आदिवासियों और स्त्रियों के खिलाफ हैं और मनुस्मृति का हिंदुत्व राजकाज और राजनीति,अर्थ व्यवस्था भी वही है।

हम निजी तौर पर यह समझ नहीं रहे हैं तो कारपोरेट मीडिया या कारपोरेट राजनीति से किस समता और न्याय की उम्मीद कर रहे हैं,समझ लीजिये।

हमने बार बार यह कहा है कि सत्ता वर्ग की कोई जाति नहीं सत्ता वर्ग दरअसल सत्ता वर्ण है।

जाति व्यवस्था के शिकंजे में कृषि,प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े बहुसंख्य आम जनता हैं जो जल जगंल जमीन रोजगार आजीविका ,काम धंधे,गांव देहात से बेदखल आधार नंबर के उपभोक्ता वजूद में समाहित है।

हम एनडीटीवी के कायल नहीं है।
हम प्रणय राय,बरखा दत्ता या रवीश कुमार या राडिया टेप को दूध का धुला नहीं मानते हैं।लेकिन एनडीटीवी पर छापामारी की वारदात की राजनीति को खतरनाक मानते हैं क्योंकि खासकर किसानों और मेहनतकशों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों,स्त्रियों और जाति धर्म निरविशेष आम जनता की समस्याओं और उनकी रोजमर्रे की तकलीफों,उनके दमन उत्पीड़न के खिलाफ कही कोई चीख दर्ज नहीं होती।कारपोरेट मीडिया के अंग होने के बावजूद एनडीवी अपने हिसाब और मौके के हिसाब से कभी कभार इन बुनियादी मुद्दों को उठाता है।

इसीलिए एनडीवी पर हमले का समर्थन दरअसल हिंदुत्वबोध की मानसिकता है।

कानून का राज है तो सबके लिए समान होना चाहिए।कानून के ऊपर कोई नहं होना चाहिए।एन डीटीवी भी कानून के ऊपर नहीं है।लेकिन खुली लूट खसोट के तंत्र में जो एकाधिकार और वर्चस्व के स्टा सुपरस्टार हैं,वे सारे के सारे कानून से ऊपर हैं।

मसलन माल्या लाखों करोड़ का न्यारा वारा करके लंदन में मौज मस्ती कर रहे हैं और कुछ हजार कर्ज के लिए सरकारी एजंसियां,बैंक और सूदखोर किसानों को थोक दरों पर खुदकशी के लिए मजबूर कर रहे हैं।

तो दूसरी तरफ क्रिकेट कैसिनों के काले धंधे को युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद का खुल्ला मुनाफा खेल बना दिया गया है, उसके तहत लंदन के कार्निवाल में हमारे तमाम आदरणीय के साथ माल्या नजर आ रहे हैं।

गावस्कर जैसे आइकन के साथ माल्या हैं तो विराट कोहली कीचैरिटी डिनर के भी वे आकर्षण हैं।कानून ऐसे तमाम मामलों में विकलांग है।

अभी अभी रामचंद्र गुहा ने ंबीसीसीआई से इस्तीफा देकर इस कैसिनों की जो अंदरुनी तस्वीरे पेश की हैं और उनसे जुड़े जो राजनीतिक चेहरे अरबपति वर्ग के सुपर सितारे हैं,उनके लिए कानून का राज कहीं नहीं है।

गुहा के लेटर बम पर जाहिर है कि कोई कार्रवाई नहीं हुई और न होने के आसार हैं,लेकिन निजी तौर पर सत्तर के दशक से नैनीताल समाचार और पहाड़ से जुड़े इस इतिहासकार के काजल की कोठरी से बेदाग निकालने पर हमें राहत महसूस हुई  है।

बाकी लोग ईमानदार हैं तो खामोश होकर वहां बने क्यों हुए हैं ,यह कानूनी सवाल से बड़ा नैतिका का सवाल है।

ईमानदारी मौकापरस्त है और सापेक्षिक भी तो इस सिलसिले में हम वस्तुगत दृष्टि से सामाजिक,राजनीति,आर्थिक और ऐतिहासिक संदर्भों का भी ख्याल रखें तो बेहतर है।

प्रधान संवयंसेवक की राजनीति और लोकप्रियता को देश विदेश में प्रायोजित करने वाले अदानी समूह पर 72 हजार करोड़ के घोटाले का आरोप है तो तमाम सेक्टर जिसमें रक्षा और परमाणु ऊर्जा, बैंकिंग बीमा,बिजली,संचार जैसे सेक्टर ,तेल गैस पेट्रोलियम,कोयला,इस्पात से लेकर शिक्षा चिकित्सा तक जिन चुनिंदा कारपोरेट कंपनियों का एकाधिकार बन गया है, उनके खिलाफ लाखों करोड़ के घोटाले हैं लेकिन उनपर कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है।

ताजा वाकया बायोमेट्रिक लेनदेन और आधार लिंकिंग के जरिये मोबाइल नंबर को आधार से जोड़ने के नाम पर पेमेंट बैंक का एकाउंट खोलने के लिए मजबूर करना है।

आधार लिंक करने के लिए पेमेंट बैंक का एकाउंट खोलकर बायोमेट्रिक असुरक्षित लेन देन का जोखिम उछाने के लिए नागरिक मजबूर हैं क्योंकि सारी सेवाएं मोबाइल सिम से जुडी़ हैं।

सिम से आधार नत्थी अनिवार्य  कर दिया गया है तो सिम बचाने के लिए पेमेंट बैंक का ग्राहक करोड़ों के तादाद में हो रहे हैं और आधार की आड़ में लाखों करोड़ की पूंजी बाजार और सरकार से ऐठने का यह खेल कानून के ऊपर है और इस रोकने के लिए किसी भी स्तर पर कोई न्यायिक पहल या सक्रियता  का सवाल भी नहीं उठता।

ईमानदारी और विचारधारा के पाखंड की तरह न्यायिक प्रक्रिया और जांच एजसिंयों की भूमिका भी मौके के हिसाब से सापेक्षिक है। 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खुली अवमानना हो रही है तो सुप्रीम कोर्ट और कानून का राज खामोश हैं।मीडिया और राजनीति की सेहत पर असर नहीं।

इधर पीड़ित पत्रकारों  का पक्ष रखते हुए हमारे भड़ासिया मित्र ने मीडिया में आटोमेशन और छंटनी के अलावा तमाम घोटालों का जो सच पेश किया है, गौरतलब है कि इन तमाम मामलों में भी आटोमेशन के नरसंहार पर रोक के लिए कोई पक्ष नहीं खड़ा हो रहा है।

मीडिया में शत प्रतिशत आटोमेशन और थोकसंस्कृति का माहौल है तो कौन बचा है मीडिया में जो जनसुनवाई के लिए मरेगा खपेगा,बताइये।

वहां सुप्रीम कोर्ट की देखरेख के बावजूद पत्रकारों गैर पत्रकारों के   वेतनमान से लेकर उनकी कार्यस्थितियों पर न सुप्रीम कोर्ट, न श्रम विभाग की और न किसी सरकारी एजंसी की कोई नजरदारी है।

वेतन के एरियर पर इनकाम टैक्स लगाकर वेतन में एरियर को न जोड़कर पीएफ की देय रकम की डकैती तो खुलकर हुई है,जो प्रोमोशन नये वेतनमान के साथ देने थे,कहीं नहीं दिये गये हैं।

ठेकेवाले पत्रकारों गैरपत्रकारों  के लिए कोई सिफारिश लागू नहीं की गयी है और दर्जनों संस्करण आटोमेशन के बिना ख्रच विज्ञापन बटोरु पेड न्यूज के खुल्ला खेल फर्रुखाबादी के बावजूद अखबारों की श्रेणी तय करने में मर्जी माफिक जो घोटाले हुए हैं,इन तमाम मामलों में कानून का राज कहीं बहाल नहीं हुआ है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया के चमकदार चेहरों के अलावा खुल्ला जो शोषण दमन उत्पीड़न है,उसके लिए कहीं सुनवाई नहीं है।

एनडीटीवी भी इस पाप से बरी नहीं है।लेकिन जिस डिजिटल इंडिया के आटोमेशन और नरसंहार संस्कृति के तहत यह सबकुछ हो रहा है,उसके लिए मीिडिया पर जो फासिस्ट हमला है,उसे हम मीडिया मालिकान और कुछ बेईमान लोगों की वजह से जायज नहीं मान सकते।

सारी बहस,सारी राजनीति  गोरक्षा और राममंदिर एजंडे के हिंदुत्व के तहत हो रही है और इस हिंतुत्व राजनीति में हर पक्ष क लोग समान रुप से आम जनता के खिलाफ लामबंद हैं।

लोकतंत्र सिरे से खत्म है और सारा देश मृत्यु उपत्यका है।

हम इन दिनों विक्टोरियन अंग्रेजी में एक अत्यंत जटिल दस्तावेज का हिंदी अनुवाद कर रहे हैं।

1936 में छोटानागपुर के आदिवासियों के हक हकूक पर शरत चंद्र दास ने यह दस्तावेज दलितों की तरह आदिवासियों को भी अल्पसंख्यक मानकर राजनीतिक आर्थिक सांस्कृतिक शैक्षणिक आरक्षण देने की मांग लेकर लिखा था ,जिसमें आदिवासियों के अलगाव का खुल्ला विरोध उन्होंने किया है और विकसित समुदायों की तुलना में आदिवासियों की हर क्षेत्र में तरक्की के त्थयपेश करते हुए उन्हें पिछड़ा मानेन के नस्ली  रंगभेद का जमकर विरोध करते हुए आदिवासी अस्मिता की सही तस्वीर पेश की है।

गौरतलब है कि पूना समझौते तके तहत दलितों को संरक्षण मिला था और आदिवासियों को नहीं मिला था।

आदिवासियों के आजाद भारत के संविधान के तहत संरक्षण मिला है लेकिन आदिवासियों का अलगाव,दमन उत्पीड़न अभी खत्म नहीं हुआ है।

सिर्फ आदिवासी हीं नहीं, संरक्षण के बावजूद दलितों,पिछड़ों,अल्पसंख्यकों और स्त्रियों के खिलाफ नरसंहार बलात्कार अभियान जारी है और पीड़ित उत्पीड़ित आम जनता खेती और देहात से जुड़े हैं या फिर मेहनतकश हैं।


डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।

इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर माकाट करती आम जनता भी है।
शरत चंद्र राय ने 1936 में जो लिखा है,वह आज भी सच है।मसलनः
आदिवासियों के साथ हमारी तमाम पेशागत सहानुभूति के बावजूद बेहद शर्मिंदगी के साथ हमें इसे मानना होगा कि  जब कभी हितों के टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है,तब आदिवासियों को देशवासियों की सहानुभूति बहुत कम मिल पाती है।उन्हें अपनी ही ताकत और सरकारी सक्रिय सहानुभूति और मदद पर जीना होता है।

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