Sunday, June 25, 2017

रामनाथ कोविंद जी के नाम खुला पत्र


2017-06-25 20:33 GMT+05:30 NAVYUG 'NAVYUG' <navyugjpr@gmail.com>:

Dear Friends,
I am enclosing Hindi Translation of Sh. Shamsul Islam Saheb article "Open letter to Ramnath Kovind" as per his instructions. Please do needful.

With regards
Vinod Joshi
Article of Islam Saheb, enclosed word file is in Chanakya font


रामनाथ कोविंद जी के नाम खुला पत्र 
सम्माननीय रामनाथ कोविंद जी, 
नमस्कार, सबसे पहले मैं आपको भाजपा द्वारा भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति उम्मीदवार चुने जाने पर बधाई देता हूं। यह जानकार खुशी हुई कि आपको दलित होने के कारण चुना गया है, जैसा कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा, "एक दलित, जिन्होंने आज जिस स्थान पर आज हैं वहां पहुंचने के लिए संघर्ष किया है।" आगामी राष्ट्रपति चुनाव में आपका चयन आपकी 'दलित पहचान' के कारण हुआ है। इसे रामविलास पासवान, जो केंद्रीय मंत्रिमंडल में दलित मंत्री हैं, ने भी रेखांकित किया है, जब उन्होंने घोषणा की जो भी आपकी उम्मीदवारी का विरोध करेगा उसे 'दलित विरोधी' के रूप में देखा जाएगा। ऐसे समय में जब दलित और अल्पसंख्यकों जैसे मुस्लिम और ईसाई (जो कि अधिकाँश दलित समयदाय से आते हैं) के खिलाफ हिंसा की घटनाएं अचानक कई गुना बढ़ गई हैं और उन्हें अधिकारविहीन करने का काम जोरशोर से किया जा रहा है, आपकी उम्मीदवारी एक उम्मीद जगाती है।
हालांकि, संघ के नेताओं ने यह भी दावा किया है कि संघ के पुराने और निष्ठावान कार्यकर्ता होने के कारण आपका चयन किया गया है। इस बात पर भी जोर दिया गया है कि आप समर्पित और अनुभवी 'हिन्दू राष्ट्रवादी' हैं। हमें यह भी बताया गया है कि कानपुर देहात में स्थित अपना पैतृक आवास भी आपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दान कर दिया है।  
इन परिचयात्मक विशेषताओं के साथ, मुझे डर है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा में आपकी आस्था का लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक भारत के सर्वोच्च संवैधानिक अधिकारी के रूप में आपके निर्णयों पर प्रभाव पडऩे जा रहा है। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में गहरा विरोधाभास होने जा रहा है। मैं आपके सामने अपनी कुछ गंभीर चिंताओं को अवलोकनार्थ रखने जा रहा हूं:
राष्ट्रपति के रूप में शपथ और संघ के सदस्य के रूप में शपथ में टकराव 
एक राष्ट्रपति के रूप में आप यह शपथ लेंगे:
"मैं, रामनाथ कोविंद, ईश्वर के नाम पर शपथ लेता हूं कि मैं श्रद्धापूर्वक भारत के राष्ट्रपति के पद का कार्यपालन करूंगा, तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान एवं विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा और मैं भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूंगा।" 
लेकिन संघ (आरएसएस) के सदस्य के रूप में निम्न शपथ को पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं:
"सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि अपने पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू समाज का संरक्षण कर हिन्दू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूं। संघ का कार्य मैं प्रामाणिकता से, नि:स्वार्थ बुद्धि से तथा तन, मन, धन पूर्वक करूंगा। भारत माता की जय।"  i
इस सबसे ज्यादा, संघ के सदस्य समावेशी लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के खिलाफ रहे हैं। संघ के अंग्रेजी मुखपत्र 'ऑर्गनाइजर' ने आजादी की पूर्व संध्या (14 अगस्त, 1947) पर अपने सम्पादकीय में 'हिन्दू अलग राष्ट्र हैं' कहते हुए 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' पर विश्वास को निम्न शब्दों में रेखांकित किया:
"अब हमें अपने आपको राष्ट्रीयता की झूठी अवधारणाओं से प्रभावित नहीं होने देना है। हम सिर्फ इस साधारण से तथ्य को स्वीकार कर बहुत सी मानसिक उलझनों तथा वर्तमान और भविष्य की कठिनाइयों को दूर कर सकते हैं कि हिन्दुस्तान सिर्फ हिन्दुओं से ही बनेगा और राष्ट्र की संरचना भी इसी सुरक्षित और मजबूत नींव पर होगी..राष्ट्र हिन्दुओं से ही निर्मित होना चाहिए, हिन्दू परम्पराओं, संस्कृति, विचार और आकांक्षाओं के अनुरूप!"    

राष्ट्रीय झंडे के रूप में तिरंगा और भगवा झंडा 
संघ को आजादी के पहले और बाद में भी राष्ट्रीय झंडे से चिढ़ रही है। नागपुर में १४ जुलाई, १९४६ को गुरु गोलवलकर ने गुरुपूर्णिमा पर्व पर एक सभा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि "यह भगवा झंडा ही महान हिन्दू संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। यह ईश्वर का अवतार है, हमें दृढ़ विश्वास है कि सम्पूर्ण राष्ट्र अंत में भगवा ध्वज को ही नमन करेगा।"  ii
आजादी की पूर्वसंध्या पर तो राष्ट्रीय ध्वज को कलंकित करने में संघ ने सभी सीमाएं लांघ दी थीं। संघ के मुखपत्र 'ऑर्गनाइजर' ने १४ अगस्त, १९४७ में तिरंगे के खिलाफ एक तरह से युद्ध छेड़ते हुए लिखा था, "जो लोग भाग्य के भरोसे सत्ता में आ गए हैं वे हमारे हाथ में तिरंगा दे तो सकते हैं; लेकिन यह कभी हिन्दुओं से सम्मान और स्वीकार्यता प्राप्त नहीं कर सकेगा। शब्द तीन स्वयं अशुभ है, और तीन रंगों वाला झंडा देश पर खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और हानिकारक रहेगा।"   
यहां तक कि स्वतंत्रता के बाद जब तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज बन चुका था, यह संघ ही था जो लगातार उसको अपमानित करता रहा। १९६० में गुरु गोलवलकर ने राष्ट्रीय ध्वज के बारे में लिखा, "हमारे नेताओं ने देश के लिए एक नया ध्वज स्थापित किया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सीधे जड़ों से दूर होने और नकल का केस है..हम प्राचीन और वैभवशाली राष्ट्र हैं जिसका शानदार अतीत है। तो, क्या हमारा अपना कोई झंडा नहीं था? क्या इन हजारों सालों में हमारा कोई राष्ट्रीय प्रतीक नहीं था? निस्संदेह था। फिर यह निरा शून्य, यह निरा खालीपन क्यों है हमारे मस्तिष्क में?"  iii

भारतीय लोकतंत्र और संघ की लोकतंत्र से घृणा 
भारत इस धरती पर सबसे बड़ा कार्यशील लोकतंत्र है। हमारा एक लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान है जो लगभग सात दशकों से लागू है। पर संघ को लोकतंत्र से घृणा है। संघ के सबसे प्रमुख विचारक गुरु गोलवलकर ने 1940 में संगठन के चोटी के 1350 प्रचारकों को सम्बोधित करते हुए भारत की राजनैतिक व्यवस्था के बारे में कहा था, "संघ एक झंडे, एक नेता, और एक विचार से प्रेरित होकर इस महान देश के हर कोने पर हिंदुत्व की ज्वाला प्रज्ज्वलित कर रहा है।" iv
मैं इस बात को आपके ध्यान में लाना चाहूंगा कि 'एक ध्वज, एक नेतृत्व और एक विचारधारा' का यह उदघोष  यूरोप में बीसवीं सदी के पहले अर्ध में फासिस्ट और नाजी पार्टियों की रणभेरी होती थी। उन्होंने लोकतंत्र के साथ क्या व्यवहार किया था, किसी से छिपा नहीं है।

भारतीय संविधान जातिवाद को अस्वीकार करता है; लेकिन संघ जातिवाद को हिंदुत्व और हिन्दूराष्ट्र का मूल तत्व घोषित करता है..

भारतीय संविधान भारत देश को एक ऐसे राज्यतंत्र के रूप में स्थापित करता है जो जाति, वर्ण, लिंग, वर्ग के विचार से ऊपर है। लेकिन गुरु गोलवलकर, जिन्होंने लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत को हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित करने की मांग की थी, ने घोषित किया कि जातिवाद हिन्दू राष्ट्र का पर्याय है। उनके अनुसार, हिन्दू और कुछ न होकर, "एक विराट पुरुष हैं, ईश्वर ने खुद अवतार लिया है। पुरुष सूक्त के अनुसार सूर्य और चंद्र उनकी आंखें हैं, तारों और आसमान का निर्माण उनकी नाभि से हुआ है और ब्राह्मण उनके सिर हैं, क्षत्रिय उनके हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं और शूद्र उनके पैर। इसका मतलब है हिन्दू जिनके पास यह चतुशवर्ण व्यवस्था है, हमारे ईश्वर हैं। यह ईश्वर के मस्तिष्क की सर्वोच्चता 'राष्ट्र' का मूल तत्व है और यह हमारी सोच में गहरी पैठी हुई है तथा हमारी सांस्कृतिक विरासत के अद्वितीय सिद्धांतों को ऊंचाई देता है।"  v

लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारतीय संविधान और संघ की मनुस्मृति को संवैधानिक मान्यता की मांग 
26 नवम्बर, 1949 को डॉ. बी.आर. अंबेडकर के मार्गदर्शन में संविधान सभा में भारत का संविधान पारित हुआ। संघ संविधान से खुश नहीं था। संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने 30 नवम्बर 1949 को अपने सम्पादकीय में लिखा:
"प्राचीन भारत के अनूठे संवैधानिक विकास का हमारे संविधान में कोई जिक्र नहीं है। स्पार्टा के लायकरगस और पर्शिया के सोलोन से पहले मनु का विधान लिखा गया था। आज उनका मनुस्मृति में लिखा विधान विश्व में प्रशंसित हो रहा है और स्वाभाविक स्वीकृति प्राप्त कर रहा है। लेकिन हमारे संवैधानिक विद्वानों के लिए उस सब का कोई मलतब नहीं है।"
हकीकत में संघ द्वारा मनुस्मृति को भारतीय संविधान के रूप में थोपने की मांग के पीछे उनके हिंदुत्व आइकॉन 'वीर' सावरकर की घोषणा थी, जिसमें उन्होंने कहा था, "वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र का सबसे पूज्य धर्मग्रंथ और जिसके आधार पर प्राचीन समय से हमारी संस्कृति-परम्पराएं, विचार और प्रथाएं विकसित हुई हैं..आज वह मनुस्मृति ही हमारा हिन्दू कानून है।" vi
मनुस्मृति में शूद्रों के लिए दिए गए अधम और अमानवीय उपदेशों में से कुछ को मैं यहां उदघृत कर रहा हूं:  vii
(1) विश्व की समृद्धि (दैवीय) के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उसके मुख, भुजा, जंघा और पाद से व्युत्पन्न किए गए।
(2) शूद्रों के लिए ईश्वर ने सिर्फ एक कार्य नियत किया है, विनम्रता के साथ बाकी तीन वर्णों की सेवा करना।
(3) एक शूद्र के रूप में पैदा हुआ व्यक्ति अगर अपने से उच्च वर्ण के व्यक्ति का अपमान अशिष्ट शब्दों में करे तो उसकी जिह्वा काट देनी चाहिए, क्योंकि वह निम्न वर्ण में पैदा हुआ है।
(4) अगर वह अपने से उच्च वर्ण के व्यक्ति का नाम अपमानजनक शब्दों में ले, तो दस अंगुली लम्बी लोहे की कील अंगारे जैसी लाल कर उसके मुंह में डाल देनी चाहिए।
(5) अगर वह ब्राह्मण को अभिमानपूर्वक उसके कर्तव्यों के बारे में पाठ पढ़ाए, तो राजा को उसके मुंह और कानों में गर्म तेल डलवा देना चाहिए।
यह ध्यान रखने की बात है कि ऐतिहासिक महाड़ सत्याग्रह में दिसम्बर, 1927 में डॉ. बी.आर.अंबेडकर की उपस्थिति में विरोधस्वरूप मनुस्मृति की प्रति को जलाया गया था।   

गांधी राष्ट्रपिता के रूप में और "हिन्दू राष्ट्रवादी" जो गांधीवध का जश्न मनाते हैं..

नाथूराम गोडसे और उसके सहयोगी जिन्होंने महात्मा गांधी की ह्त्या का षड्यंत्र किया था, दावा किया जाता है कि हिन्दू राष्ट्रवादी थे। आश्चर्यजनक है कि हिन्दू राष्ट्रवादी उनके 'वध' का आज भी जश्न मनाते हैं। इस बात की पुष्टि के लिए एक उदाहरण दे रहा हूं, हिन्दू जनजागृति समिति ने भारत को हिन्दू राष्ट्र के रूप में परिवर्तित करने के उद्देश्य के साथ अपना दूसरा अखिल भारतीय सम्मलेन जून 2013 में गोवा में आयोजित किया था। सम्मलेन की शुरुआत नरेन्द्र मोदी जी के बधाई संदेश से हुई थी। इस सम्मेलन में जिस मंच से मोदी जी का बधाई संदेश पढ़ा गया था, ठीक उसी जगह से सम्मेलन के एक प्रमुख वक्ता के.वी. सीतारमैया ने घोषणा की- गांधी 'खौफनाक, शैतान और पापी' थे। महात्मा गांधी की हत्या पर अपनी खुशी जाहिर करते हुए उन्होंने घोषणा की, "भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम/ धर्मसंस्थापनाय सम्भवामी युगे-युगे (अर्थात अच्छे की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए, मैं हर युग में जन्म लेता हूं)। और 30 जनवरी 1948 की संध्या में श्रीराम नाथूराम गोडसे के रूप में अवतरित हुए और गांधी का जीवन समाप्त किया।"   viii 
  

जातिवाद मुक्त भारत और संघ में दलितों की नियति 
उत्तर प्रदेश की इगलास सुरक्षित विधानसभा सीट से भाजपा ने विजय प्राप्त की है। दिलेर जी जिनका परिवार दो पीढ़ियों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा है (उनके पिता भी भाजपा सांसद रह चुके हैं), अपने चुनाव प्रचार अभियान में जब वे उच्च जाति के मतदाताओं के घरों पर जाते थे, तब न सिर्फ जमीन जमीन पर बैठते थे बल्कि चाय या पानी पीने के लिए अपना स्टील का ग्लास भी साथ लेकर चलते थे। दिलेर, जो कि वाल्मीकि हैं, जातिवाद की बेड़ियों में जकड़े रहने की अपनी इच्छा इन शब्दों में बयां करते हैं, "मैं अपनी मान मर्यादा ख़त्म नहीं कर सकता। जमाना चाहे बदलता रहे।"   ix
यह ध्यान देने की बात है न भाजपा और न संघ ने इस स्व-आरोपित अस्पृश्यता के बारे में कभी बात नहीं की, न इसकी निंदा की। न ही उन्होंने दिलेर जी को इस संविधान विरोधी निंदात्मक कृत्य करने से रोका।

आदरणीय कोविंद जी, मुझे आशा है आप भारत के राष्ट्रपति के रूप में संवैधानिक शपथ का पालन करेंगे, न कि संघ के अनुग्रहीत के रूप में होंगे! आप 'भारतीय राष्ट्रीयता' के ध्वजवाहक होंगे, न कि 'हिन्दू राष्ट्रवाद के! आप मनुस्मृति थोपने के किसी भी प्रयास का विरोध कर लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान की रक्षा करेंगे! आप जातिवाद के महिमामंडन द्वारा अस्पृश्यता की पुनर्स्थापना के किसी भी प्रयत्न का प्रतिरोध करेंगे, क्योंकि यह कुरीति हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्रवाद के आवश्यक घटक हैं! आप राष्ट्रपिता के चरित्रहनन और उनके हत्यारों के महिमामंडन के प्रयासों को रोकेंगे! आप राष्ट्रीय ध्वज और संविधान को क्षति पहुंचाने के किसी भी प्रयत्न को अनुमति नहीं देंगे। और अंत में, आप आज के भारत को हिन्दू पाकिस्तान बनाने के किसी प्रयत्न को स्वीकार नहीं करेंगे।

शुभकामनाओं सहित

आपका
शम्सुल इस्लाम 


21-02-2017

i   Shakha Darshikha, Gyan Ganga, Jaipur, 1997, p. 66.   

ii  MS Golwalkar, Shri Guruji Samagar Darshan (collected works of Golwalkar in Hindi), Bhartiya Vichar Sadhna,  Nagpur, nd., Volume I, p. 98. 
iii MS Golwalkar, Bunch of Thoughts, Sahitya Sindhu, Bangalore, 1996, pp. 237238.
iv MS Golwalkar, Shri Guruji Samagar Darshan (collected works of Golwalkar in Hindi), Bhartiya Vichar Sadhna, Nagpur, nd., vol. I, p. 11.   
v MS Golwalkar, Bunch of Thoughts, Sahitya Sindhu, Bangalore, 1996, pp. 36-37.
vi VD Savarkar, Savarkar Samagar, vol. iv, Prabhat, Delhi, 2016, p. 216.  
vii This selection is from F Max Muller’s Laws of Manu.


हिंदी अनुवाद: विनोद जोशी, कार्यकारी सम्पादक, 'नवयुग' हिंदी पाक्षिक, जयपुर

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