रवींद्र का दलित विमर्श- पांच
शूद्र धर्मःहिंदुत्व में शूुद्रों की अटूट आस्था ही अस्पृश्यता का रसायनशास्त्र है जिसके समाधान का कोई राजनीतिक फार्मूला नहीं है!
श्वेत आतंकवाद के रंगभेदी राष्ट्रवाद का फासिस्ट नाजी चेहरा अमेरिका तक सीमाबद्ध नहीं है।नस्ली श्रेष्ठता के राष्ट्र और राष्ट्रवाद की यह मनुष्यताविरोधी सभ्यता विरोधी नरसंहार संस्कृति विश्वव्यापी है ग्लोबीकरण और मुक्तबाजार की डिजिटल कारपोरेट दुनिया में भी,जिसके हम अभिन्न अंग है।राष्ट्र के इस उत्पीड़न,दमन और आतंक का सामना करने वाले रवींद्रनाथ,गांधी और आइंस्टीन ऐसे नस्ली सैन्य राष्ट्र और असमता और अन्याय पर आधारित राष्ट्रवाद की विरोध करते थे।
रवींद्रनाथ असमता और अन्याय की राष्ट्र व्यवस्था को सामाजिक समस्या मानते थे जिसके मूल में फिर वही नस्ली वर्चस्व का रंगभेद है।
पलाश विश्वास
नस्ली राष्ट्रवाद की जड़ें कितनी गहरी होती हैं अमेरिका में नस्ली हिंसा की ताजा घटनाओं से उसके सबूत मिलते हैं।अमेरिकी राष्ट्रवाद पर अब भी श्वेत आंतकवाद हावी है जो अमेरिकी साम्राज्यवाद का मौलिक चरित्र है,जिससे वह कभी मुक्त हुआ ही नहीं है।बाराक ओबामा के अश्वेत राष्ट्रपति की हैसियत से दो कार्यकाल पूरे होने के बावजूद नस्ली श्वेत आतंकवाद का कुक्लाक्स क्लान चेहरा अमेरिकी राजनीतिक नेतृत्व का चेहरा है और इसी लिए श्वेतआतंकवादियों की प्रतिमाओं के खंडित होने पर भड़की नस्ली हिंसा के विमर्श की भाषा में बोल रहे हैं अमेरिकी राष्ट्रपति।
श्वेत आतंकवाद के रंगभेदी राष्ट्रवाद का फासिस्ट नाजी चेहरा अमेरिका तक सीमाबद्ध नहीं है।नस्ली श्रेष्ठता के राष्ट्र और राष्ट्रवाद की यह मनुष्यताविरोधी सभ्यता विरोधी नरसंहार संस्कृति विश्वव्यापी है ग्लोबीकरण और मुक्तबाजार की डिजिटल कारपोरेट दुनिया में भी,जिसके हम अभिन्न अंग है।राष्ट्र के इस उत्पीड़न,दमन और आतंक का सामना करने वाले रवींद्रनाथ,गांधी और आइंस्टीन ऐसे नस्ली सैन्य राष्ट्र और असमता और अन्याय पर आधारित राष्ट्रवाद की विरोध करते थे।
रवींद्रनाथ असमता और अन्याय की राष्ट्र व्यवस्था को सामाजिक समस्या मानते थे जिसके मूल में फिर वही नस्ली वर्चस्व का रंगभेद है।
रवींद्रनाथ ने अपने निबंध शूद्र धर्म में जातिव्यवस्था के तहत शूद्रों के अछूत होते जाने की प्रक्रिया की विस्तार से चर्चा करते हुए साफ साफ लिखा है कि मनुस्मृति विधान के मुताबिक इस देश में शूद्र ही अपने धर्म का पालन करते हैं और अपने धर्म में उऩकी अटूट आस्था है।भारत शूद्रों का ही देश है।जाति व्यवस्था और अस्पृस्यता को केंद्रित नस्ली असमानता और अन्याय के धर्म में शूद्रों की अटूट आस्था ही भारतीय समाज की मौलिक समस्या है।
शूद्र कौन हैं,यह लिखते हुए बाबासाहेब डां,अंबेडकर ने भी शायद इसी समस्या को चिन्हित किया है।
भारत में राजकाज और राजनीति में हिंदुत्व के पुनरुत्थान के मूल में ही शूद्रों का यह अटूट हिंदुत्व है और रवींद्रनाथ की मानें तो इसका कोई राजनीतिक समाधान असंभव है। इस सामाजिक समस्या का समाधान स्थाई सामाजिक बदलाव ही है,जो नस्ली अस्मिताओं के एकीकरण और विलय और उनके सहिष्णु सहअस्तित्व से ही संभव है।नस्ली वर्चस्व के सत्ता समीकरण की राष्ट्रवादी राजनीति से मनुष्यता और सभ्यता को सबसे बड़ा खतरा है।इसीलिए धर्म उऩके लिए अस्मिता या पहचान नहीं,मनुष्यता,सभ्यता,अहिंसा,सत्य,प्रेम और शांति है।जो हमारी साझा विरासत है।
नई दिल्ली में साझा विरासत सम्मेलन की राजनीति कुल मिलाकर अटूट हिंदुत्व आस्था के तहत राजनीतिक चुनावी गठबंधन का तदर्थ विकल्प है और यह भारतीय नस्ली असमानता और अन्याय की बुनियादी समस्या के समाधान की दिशा दिखाने के बदले हिंदुत्व की राजनीति को ही मजबूत बनाता है।जो सही मायने में हमारी साझा विरासत के खिलाफ है।
ओबीसी क्षत्रपों के राजनीतिक कायाकल्प और बहुजन राजनीति के नेताओं के हिंदुत्व में निष्णात होते जाने की यह हरिकथा अनंत दलित आंदोलन का भी यथार्थ है।
उन्नीसवीं सदी में शुरु बंगाल के चंडाल आंदोलन के तमाम नेता 1937 में गुरुचांद ठाकुर के निधन के बाद इसी तरह बिखराव के शिकार होकर एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो गये थे।गांधी और देश बंधु के कांग्रेस के स्वदेशी आंदोलन में शामिल होने को ठुकराने वाले गुरुचांद ठाकुर के पोते प्रमथ रंजन ठाकुर सीधे कांग्रेस के पाले में चले गये और जोगेंद्रनाथ मंडल और मुकुंदबिहारी मल्लिक अलग अलग खेमे में हो गये।भारत विभाजन के बाद चंडाल आंदोलन का भूगोल पूर्वी पाकिस्तान में शामिल होते ही वह आंदोलन पूरी तरह बिखर कर रह गया।
नेताओं के सत्ता पक्ष में पालाबदल से सामाजिक बदलाव के सारे आंदोलनों की नियति अंततः यही होती है।इसलिए राजनीति के सत्ता समीकरण से सामाजिक न्याय का लक्ष्य हासिल करना मुश्किल ही लगता है।
मनुष्य के धर्म और राष्ट्रवाद की चर्चा से हमने बात शुरु की थी,जो रवींद्र के कृतित्व व्यक्तित्व को समझने के लिए अनिवार्य पाठ है।
रवींद्रनाथ गांधी,अंबेडकर और राम मनोहर लोहिया की तरह भारत की बुनियादी समस्या सामाजिक विषमता को मानते रहे हैं।
गांधी,अंबेडकर और लोहिया इस समस्या के राजनीतिक समाधान के लिए आजीवन जूझते रहे लेकिन रवींद्रनाथ इस सामाजिक समस्या को राजनीतिक मानने से सिरे से इंकार करते रहे हैं।
राजनीति और राष्ट्रवाद सामाजिक असमानता और अन्याय की जाति व्यवस्था को खत्म नहीं कर सकते,यही रवींद्र की मनुष्यता का धर्म है और अंध नस्ली राष्ट्रवाद के खिलाफ उनके विश्वबंधुत्व की उनकी वैश्विक नागरिकता है।
गांधी वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था का समर्थन करते हुए अस्पृश्यता के खिलाफ थे तो अंबेडकर समूची वैदिकी सभ्यता,वैदिकी धर्म और वैदिकी साहित्य का खंडन करते हुए जाति उन्मूलन की राजनीति कर रहे थे।
रवींद्र नाथ भारतीय इतिहास और भारतीय संस्कृति की मौलिक समस्या नस्ली वर्चस्व और संघर्ष को मानते थे और विविधता में एकता के प्रवक्ता थे।उन्होंने वैदिकी इतिहास,साहित्य और धर्म का अंबेडकर की तरह खंडन मंडन नहीं किया लेकिन वे भारतीय इतिहास और संस्कृति,सामाजिक यथार्थ को नस्ली विविधता की समग्रता में देखते हुए भारतीय सहिष्णुता और सहअस्तित्व की साझा विरासत के रुप में चिन्हित करते हुए असमानता,अन्याय के लिए वर्ण व्यवस्था,ब्राह्मण धर्म,पुरोहित तंत्र, विशुद्धता, अस्पृश्यता और बहिस्कार के नस्ली वर्चस्व का लगातार विरोध करते हुए समता और न्याय पर आधारित मनुष्यता के धर्म की बात कर रहे थे।
दर्शन,विचारधारा के स्तर पर रवींद्रनाथ,गांधी और अंबेडकर तीनों गौतम बुद्ध के सत्य,अहिंसा और प्रेम के बौद्धमय भारत के आदर्शों और सिद्धांतों के तहत नये भारत की परिकल्पना बना रहे थे।
गांधी और रवींद्र के बीच निरंतर वाद विवाद,विचार विमर्श होते रहे हैं तो अंबेडकर और गांधी के बीच भी संवाद का सिलसिला बना रहा।
रवींद्र नाथ के दलित विमर्श पर चर्चा न होने का सबसे बड़ा कारण शायद यही है कि बाबासाहेब और रवींद्रनाथ के बीच कभी किसी संवाद या संपर्क के बारे में जानकारी न होना है।
अंबेडकर और अंबेडकर की राजनीति को जोड़े बिना दलित विमर्श में चूंकि दलितों और बहुजनों की कोई दिलचस्पी नहीं होती,इसलिए रवींद्र के दलित विमर्श पर चर्चा शुरु ही नहीं हो सकी।
यह जाहिर सी बात है कि दलितों और बहुजनों की अगर दिलचस्पी रवींद्रनाथ के व्यक्तित्व और कृतित्व में नहीं है तो सवर्ण विद्वतजन उन्हें जबरन अंबेडकर की श्रेणी में नहीं रखने वाले हैं और न वे रवींद्र के दलित विमर्श पर चर्चा शुरु करके सामाजिक बदलाव के पक्ष में खड़े होने वाले हैं।
गांधी से निरंतर संवाद करने वाले रवींद्रनाथ का अंबेडकर के साथ कोई संवाद क्यों नहीं हुआ,इस सवाल का जबाव हमारे पास नहीं है।ऐसे किसी संवाद के लिए न अंबेडकर और न रवींद्रनाथ की ओर से किसी पहल होने की कोई सूचना हमारी नजर में नहीं है।गांधी के स्वराज में रवींद्र की दिलचस्पी थी लेकिन गांधी के अलावा किसी दूसरे राजनेता के साथ वैसी आत्मीयता रवींद्रनाथ की नहीं थी।
बहरहाल राष्ट्रवाद और अस्मिता राजनीति के विरोध और अन्याय और असमता के राजनीतिक समाधान में रवींद्र की कोई आस्था न होने की वजह ही अंबेडकर के साथ उनका कोई संवाद हो नहीं सका,ऐसा समझकर ही हम इस पर आगे चर्चा नहीं करेंगे।फिरभी इस तथ्य को नजर्ंदाज नहीं किया जा सकता कि रवींद्र ही नहीं, बंगाल के दलित बहुजन आंदोलन के नेताओं के साथ अंबेडकर का संवाद भी बेहद संक्षिप्त रहा है।
जोगेन्द्रनाथ मंडल से शिड्युल्ड कास्ट फेडरेशन के पहले सम्मेलन में नागपुर में 1942 में जब अंबेडकर की मुलाकात हुई थी,उससे पहले 1937 में गुरुचांद ठाकुर के निधन के बाद बंगाल के दलित आंदोलन का बिखराव शुरु हो चुका था।
बंगाल से संविधान सभा के लिए चुनाव के अलावा बंगाल में अंबेडकर की किसी गतिविधि का ब्यौरा नहीं मिलता है।इसके विपरीत गांधी का बंगाल के नेताओं के साथ मियमित संपर्क बना रहा है और वे बंगाल आते जाते रहे हैंं।भारत विभाजन के वक्त कोलकाता और नोआखाली के दंगापीड़ितों के बीच गांधी पहुंच गये थे।
जाहिर है कि रवींद्र और अंबेडकर के बीच संवाद का वह अवसर कभी नहीं बना जो गांधी और रवींद्र के बीच बना।इसलिए हम यह नहीं बता सकते कि रवींद्र की क्या धारणा अंबेडकर के आंदोलन और विचारधारा के प्रति रही होगी।
भारत के बहुजन आंदोलन की जमीन जिस साझा संस्कृति और मनुष्यता के सामंतवाद विरोधी समानता और न्याय के मूल्यों पर आधारित संतों,पीरों फकीरों,बाउलों ,गुरुओं की विचारधारा से बनती है,जिस लोकसंस्कृति और इतिहास में उनकी जड़ें हैं,रवींद्र का व्यक्तित्व और कृतित्व उसी मुताबिक है।
बहरहाल यह गौरतलब है कि पूर्वी बंगाल के जिन दलित नमोशूद्रों के समर्थन से बाबासाहेब अंबेडकर संविधान सभा पहुंचे,उनका सारा का सारा भूगोल पूर्वी पाकिस्तान में शामिल हो गया और बाबासाहेब का चुनाव क्षेत्र भी।बाबासाहेब को समर्थन करने वाले नमोशूद्र समुदाय के लोग भारत विभाजन के शिकार हुए लेकिन इस भयंकर विपदा,त्रासदी और खूनखराबा ,बेदखली के दौर को झेलते वक्त न बाबासाहेब उनके साथ खड़े थे और न जोगेंद्रनाथ मंडल।
मंडल पाकिस्तान के कानून मंत्री बने लेकिन वे दंगा रोक नहीं सके।वे भागकर पूर्वी बंगाल आ गये।लेकिन आजादी के बाद मंडल और अंबेडकर के बीच कोई संबंध नहीं रहा।बंगाल में अंबेडकरी आंदोलन शुरु होने से पहले खत्म हो गया।
इसी वजह से गुरुचांद ठाकुर के पौत्र प्रमथनाथ ठाकुर के नेतृत्व में बंगाल का मतुआ और दलित आंदोलन पूरीतरह कांग्रेस के पाले में चला गया और स्थाई तौर पर बंगाल का मतुआ और दलित आंदोलन सत्ता की राजनीति से नत्थी हो गया,जिसका बाबासाहेब के आंदोलन और विचारधारा से कोई नाता नहीं रहा तो पूर्वी बंगाल के नमोशूद्र शरणार्थी बनकर देशभर में बिखर गये और उनकी राजनीतिक पहचान और ताकत हमेशा के लिए खत्म हो गयी।
गांधी हिुंदुत्व के प्रबल प्रवक्ता थे और वे विशुद्ध हिंदू थे।वे सनातनपंथी थी लेकिन उनके दर्शन और विचारों पर गौतम बुद्ध का सबसे ज्यादा असर था।इसी वजह से अपने उदार हिंदुत्व से वे साम्राज्यवाद के खिलाफ भारतीय आम जनता के एकताबद्ध महासंग्राम के नेता बन गये।
रवींदनाथ ब्रह्मसमाजी थे और जाति से हिंदुत्व से खारिज दलित पीराली ब्राह्मण थे।वे किसी भी सूरत में सनातनपंथी नहीं थे।हिंदुत्व के प्रवक्ता तो वे किसी भी सूरत में नहीं थे।
इस सिलसिले में उनकी गीतांजलि पर हम आगे ब्यौरेवार चर्चा करेंगे।
वैदिकी साहित्य में उपनिषदों के दर्शन और जिज्ञासाओं का रवींद्रमानस पर सबसे ज्यादा असर रहा है।वैदिकी साहित्य के अलावा वे बौद्ध साहित्य के भी अध्येता थे और ज्ञान विज्ञान का अध्ययन भी उनकी दिनचर्या में शामिल रहा है।
वैज्ञानिक दृष्टि और इतिहासबोध की ठोस जमीन पर खड़े होकर रवींद्रनाथ के चिंतन मनन पर भारत की साधु संत पीर फकीर बाउल गुरु परंपरा की उदारता और मनुष्यता सबसे गहरा असर हुआ और इसी बिंदू पर मनुष्यता के धर्म की बात करते हुए वे सरहदों के दायरे में सियासती मजहब के खिलाफ खड़े हो जाते हैं तो नस्ली रंगभेद की जातिव्यवस्था और अस्पृश्यता के खिलाफ युद्ध घोषणा कर देते हैं।
मनुष्यता के धर्म में अपनी गहरी आस्था की वजह से ही रवींद्रनाथ जाति व्यवस्था ,पुरोहित तंत्र, विशुद्धता,अस्पृश्यता और बहिस्कार पर आधारित हिंदुत्व के खिलाफ खड़े थे और इसीलिए उनका साहित्य आज भी रंगभेदी फासिस्ट राजकाज के खिलाफ विविधता और सहिष्णुता,अनेकता में एकता के मोर्चे पर ठोस प्रतिरोध साबित हो रहा है।इसीलिए प्रतिक्रिया में इतिहास बदलने से साथ साथ साहित्यिक सांस्कृतिक साझा विरासत को भी मिटाने की कोशिशें जारी हैं।
रवींद्र के लिखे निबंध शूद्र धर्म में शूद्रो के अछूत बनते जाने की प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए जन्म जात जातिव्यवस्था और जन्मजात पेशे के अनुशासन की तीखी आलोचना करते हुए शूद्रों के हिंदुत्व के मुताबिक अपना धर्म मानने की अनिवार्यता पर तीखे प्रहार करते हुए साफ साफ लिखा है कि जो समाज अपने अभिन्न हिस्सों का काटकर अलग फेंकता है,उसका पतन अनिवार्य है।
रवींद्रनाथ ने यह भी लिखा हैःअपना धर्म मानने वाले शूद्रों की संख्या ही भारत में सबसे ज्यादा है और इस दृष्टि से देखें तो भारत शूद्रों का ही देश है।
मुझे नये सिरे से इस विषय पर सिलसिलेवार चर्चा करनी पड़ रही है।मूल पांडुलिपि के सौ से ज्यादा पेज शायद मेरे पास बचे नहीं हैं जो आधे अधूरे हैं।
इसलिए मेरी कोशिश यह है कि तकनीक की सुविधा का इ्सतेमाल करते हुए सारी संदर्भ समाग्री सोशल मीडिया के मार्फत आप तक पहुंचा दी जाये,ताकि इस अति महत्ववपूर्ण मुद्दे पर खुले दिमाग से संवाद हो सके।
इसी सिलसिले में आज सुबह से नेट पर रवींद्र नाथ टैगोर के बहुचर्चित आलेख शूद्र धर्म को खोज रहा था।
हिंदी,बांग्ला और अंग्रेजी में मुझे 1925 में लिखा यह निबंध नहीं मिला है।
आपसे निवेदन यह है कि किसी के पास यह आलेख किसी भाषा में उपलब्ध हो तो उसे सार्वजनिक जरुर करें।
जाहिर है कि यह संवाद साहित्यिक शोध या संवाद नहीं है,यह सामाजिक असमानता, अन्याय, उत्पीड़न, बेदखली अभियान, कारपोरेट फासिस्ट राजकाज और राजनीति, बेदखली की नरसंहार संस्कृति और रंगभेदी वर्ण वर्ग वर्चस्व के शिकार किसानों,मेहनतकशों,दलितों,स्त्रियों,युवाओं,पिछड़ों,आदिवासियों और गैरनस्ली विधर्मी भारत की बहुसंख्य आमजनता के सामने भारतीय इतिहास,साहित्य और संस्कृति का परत दर परत सच रखने का प्रयास है।
तकनीकी और मोबाइल क्रांति से जो आम लोग सोशल मीडिया में मौजूद हैं,उन् तक पहुंचना हमारा मकसद है।जाहिर है कि किसी विश्वविद्यालय से कोई डिग्री हासिल करने के लिए यह कोई शोध निबंध नहीं है और न ही यह विद्वतजनों तक सीमाबद्ध बौद्धिक कवायद है।
1937 में गुरुचांद ठाकुर के निधन के बाद नमोशूद्र आंदोलन के बिखराव का ब्यौरा शेखर बंद्योपाध्याय के निंबंध में सिलसिलेवार है।अंबेडकर के बंगाल के नमोशूद्र नेताओं के साथ संबंध का ब्यौरा भी यही है।कृपया देखेंः
১৯৩৭ সালের মার্চ মাসে গুরুচাঁদের মৃত্যু ঘটলে যে প্রভাব নমশূদ্র আন্দোলনকে কংগ্রেসি রাজনীতির থেকে দূরে সরিয়ে রেখেছিল তা অন্তর্হিত হয় এবং এই একই বছরে গঠিত ‘ক্যালকাটা শিডিউল্ড কাস্ট লীগ’ এই দুই গোষ্ঠীর মধ্যে সেতুবন্ধনের কাজ শুরু করে। যে সমস্ত বিশিষ্ট নমশূদ্র নেতা এই নতুন সংগঠনের সঙ্গে যুক্ত ছিলেন তাঁদের মধ্যে গুরুচাঁদের পৌত্র প্রথমরঞ্জন ঠাকুরের নাম উল্লেখ করা যেতে পারে২৮। অন্যদিকে কংগ্রেসের পক্ষে যাঁরা এই নতুন মৈত্রীবন্ধনের উদ্যোগ নিয়েছিলেন তাঁদের মধ্যে ছিলেন সুভাষ এবং শরৎ বসু-ভ্রাতৃদ্বয়। ১৯৩৮ সালের ১৩ই মার্চ অ্যালবার্ট হলের এক সভায় কংগ্রেসের নবনির্বাচিত সভাপতি সুভাষ বসু গুরুচাঁদকে বর্ণনা করেন ‘অতিমানব’ বলে, ‘যিনি বাংলার হিন্দু সমাজে এক নতুন প্রাণের সঞ্চার করে তাকে পুনর্জাগরিত করেছিলেন।’২৯ এই সভার তিনদিন পরে তফসিলি জাতির প্রায় কুড়িজন সাংসদ, যাদের মধ্যে ছিলেন প্রথমরঞ্জন ঠাকুর এবং যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল, শরৎ বসুর বাড়িতে মিলিত হয়ে কংগ্রেসের সঙ্গে সহযোগিতা করার এবং সম্মিলিত সরকারের প্রতি সমর্থন তুলে নেওয়ার সিদ্ধান্ত নেন৩০। তাঁরা একটি নতুন সংসদীয় দল গঠন করেন, যার নাম দেওয়া হয় Independent Scheduled Caste Party। যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল হলেন এর সচিব এবং এই দল ‘কংগ্রেসের সঙ্গে সহযোগিতা করে চলবে’ বলে ঠিক হয়৩১।
১৯৩৮ সালের ১৮ই মার্চ কলকাতায় গান্ধীজীও কয়েকজন বিশিষ্ট নমশূদ্র সাংসদের সঙ্গে দেখা করেন। তাঁর ব্যক্তিগত অনুরোধেই জুলাই মাসে প্রথমরঞ্জন ঠাকুর কংগ্রেস-শাষিত প্রদেশগুলি সফর করেন এবং সফর শেষে এক প্রেস বিজ্ঞপ্তিতে জানান যে এইসব কংগ্রেসি সরকারগুলি তফসিলি জাতির উন্নয়নের জন্য যা করেছে তা দেখে তিনি গভীরভাবে প্রভাবিত হয়েছেন৩২। এরপর আগস্ট মাসে হক মন্ত্রীসভার দশজন মন্ত্রীর বিরুদ্ধে দশটি পৃথক কংগ্রেস-সমর্থিত প্রস্তাব আনা হয় আইনসভায়। নমশূদ্র মন্ত্রী মুকুন্দবিহারী মল্লিকের বিরুদ্ধে প্রস্তাবটি আনেন নমশূদ্র নেতা প্রথমরঞ্জন ঠাকুর এবং সমর্থন জানান আরেক নমশূদ্র নেতা যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল। এই আস্থা ভোটে ভোটাভুটির নমুনা থেকে দেখা যায় যে এই সময় তফসিলি জাতিভুক্ত একত্রিশ জন এম.এল.এ-র মধ্যে অন্তত ষোল জন ছিলেন কংগ্রেস সমর্থক৩৩। নমশূদ্রদের ক্ষেত্রে এই রাজনৈতিক স্থান পরিবর্তন আনুষ্ঠানিকভাবে ঘোষিত হয় ১৯৩৯ সালের ২৯শে মে তমলুকের নিখিলবঙ্গ নমশূদ্র সম্মেলনে, যেখানে প্রথমরঞ্জন ঠাকুর তাঁর সভাপতির ভাষণে নমশূদ্র সম্প্রদায়কে ‘জাতীয় কংগ্রেসে যোগদান করে ভারতের স্বাধীনতার জন্য সংগ্রাম করতে’ উপদেশ দেন৩৪। পিতামহের রাজনৈতিক পৃথকীকরণের নীতির বদলে আসে পরবর্তী প্রজন্মের একীকরণের আশীর্বাদ। এদের সাহায্যই ১৯৪১ সালের অক্টোবর মাসে মুসলিম-লীগ সমর্থিত হক মন্ত্রীসভার পতন ঘটিয়ে ক্ষমতা দখল করে কংগ্রেস-সমর্থিত প্রগ্রেসিভ কো-অ্যালিশন সরকার, সাধারণভাবে যা ‘শ্যামা-হক মন্ত্রীসভা’ নামেই পরিচিত ছিল। রাজবংশী নেতা উপেন্দ্রনাথ বর্মন এই মন্ত্রীসভায় তফসিলি জাতির প্রতিনিধি হিসেবে যোগদান করেন (বর্মন, ১৯৮৫, পৃঃ ৮১-৮৪)।
তবে সব নমশূদ্র নেতাই যে কংগ্রেসের সঙ্গে একীকরণের নীতি মেনে নিয়েছিলেন তা নয়, বরং এই সময়ে তাঁদের আন্দোলনে একটা স্পষ্ট ভাগাভাগির চিহ্ন পরিস্ফুট হয়ে ওঠে। যে সব নেতারা এই কয়েক বছর ধরে মুকুন্দবিহারী মল্লিককে ঘিরে সংগঠিত হচ্ছিলেন, তাঁরা তাঁদের ইংরেজ সরকারের প্রতি পার্থিব এবং নৈতিক সমর্থনের পুরোনো নীতিই ধরে রইলেন। আগের মতোই তাঁরা অধিক চাকরি এবং শিক্ষার সুযোগ দাবি করতে থাকলেন এবং মন্দিরের দ্বার উন্মোচন অথবা অস্পৃশ্যতা দূরীকরণের মতো কংগ্রেসি আন্দোলনগুলির শূন্যগর্ভতা উন্মোচিত করার চেষ্টা করে চললেন৩৫। প্রস্তাবিত ক্রিপস মিশন এবং সাংবিধানিক সংস্কারের সম্ভাবনা সর্বপ্রথম মল্লিকগোষ্ঠীকে কংগ্রেস-সমর্থক ঠাকুরগোষ্ঠীর কাছাকাছি নিয়ে আসতে পেরেছিল। ১৯৪২ সালের ২৬শে মার্চ তাঁরা ঘোষণা করেন যে এক যৌথ দল দিল্লী গিয়ে স্ট্যাফোর্ড ক্রিপস-এর কাছে তাঁদের দাবিদাওয়া জানাবে৩৬। কিন্তু ক্রিপস মিশন অসফল হলে এই দুই গোষ্ঠীর মধ্যে স্থায়ী সমঝোতার সম্ভাবনাও নষ্ট হয়ে যায়।
নতুন করে সন্ধিস্থাপনের সম্ভাবনা আরেকবার দেখা গিয়েছিল ১৯৪২-এর এপ্রিল মাসে, যখন কলকাতায় তফসিলি জাতির বেশ কিছু নেতা মিলিত হয়ে স্থাপন করলেন এক নতুন সংগঠন, যার নাম রাখা হল বেঙ্গল শিডিউল্ড কাস্ট লীগ, এবং যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল হলেন তার সভাপতি। প্রথম দিকে এই সংগঠন কংগ্রেস সমর্থনের নীতি বজায় রাখে এবং ভারত ছাড়ো আন্দোলনে গান্ধিজী গ্রেপ্তার হলে তার নিন্দা করে৩৭। তবে ইতিমধ্যেই সুভাষ-বসু বিতর্কের কারণে মন্ডল কংগ্রেস সম্বন্ধে বীতশ্রদ্ধ হয়ে পড়েছিলেন। এই দূরত্ব আরো বাড়ে ১৯৪৩-এ তিনি মুসলিম-লীগ সমর্থিত নাজিমুদ্দিন মন্ত্রীসভায় যোগদান করলে। কারণ আর সব তফসিলি নেতাই এই মন্ত্রীসভাকে ‘সম্পূর্ণ সাম্প্রদায়িক’ বলে বর্জনের সিদ্ধান্ত নিয়েছিলেন (বর্মন ১৯৮৫, পৃঃ ৮৪; মন্ডল ১৯৭৫, পৃঃ ৫১)। তবে নতুন মন্ত্রীসভায় ছিলেন আরো একজন নমশূদ্র নেতা, পুলিনবিহারী মল্লিক (মুকুন্দবিহারীর ভাই) এবং একজন রাজবংশী নেতা, প্রেমহরি বর্মা, আর মুকুন্দবিহারী হলেন নতুন সংযুক্ত দলের সহযোগী নেতা। এই অবস্থা থেকে নমশূদ্র নেতৃত্বের মধ্যে একটা স্পষ্ট বিভাজন সহজেই চোখে পড়ে। দুই মাসের মধ্যেই আম্বেদকর কর্তৃক ১৯৪২ সালে স্থাপিত সর্বভারতীয় তফসিলি জাতি ফেডারেশনের বঙ্গীয় শাখা প্রতিষ্ঠিত হয়। আম্বেদকর-রাজনীতিতে ইতিমধ্যেই গভীরভাবে দীক্ষিত যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল হলেন এই শাখার প্রথম সভাপতি। ১৯৪৫-এর এপ্রিল মাসে ফরিদপুর জেলার গোপালগঞ্জে অনুষ্ঠিত এই শাখার প্রথম প্রাদেশিক সম্মেলনে যোগেন্দ্রনাথ তাঁর সভাপতির ভাষনে ঘোষণা করেন যে ফেডারেশনের প্রথম এবং প্রধান উদ্দেশ্য হবে তফসিলি জাতিগুলির জন্য এক পৃথক রাজনৈতিক আত্মপরিচয় প্রতিষ্ঠা করা৩৮। তবে এই সময় সমগ্র তফসিলি সম্প্রদায়ের মনের কথা তিনি বলেছিলেন একথা ভাবাটা বোধহয় ঠিক হবে না। কারণ অনেক বিশিষ্ট নেতাই এই সম্মেলন বর্জনের সিদ্ধান্ত নিয়েছিলেন। একটি বর্ণনা অনুযায়ী এই সময় সমগ্র বাংলার ৩১ জন তফসিলি এম.এল.এ-র মধ্যে মাত্র তিনজন এই সম্মেলনে যোগ দিয়েছিলেন। আম্বেদকর সম্ভবত এই অবস্থার কথা জানতে পেরেই শেষ মূহুর্তে তাঁর সম্মেলনে যোগদানের কর্মসূচি বাতিল করেন৩৯।
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