रवींद्र का दलित विमर्शःतेरह
ब्राह्मणों की भूमिका,अनार्यों की देन और हिंदुत्व के भगवा एजंडे में भारत तीर्थ के आदिवासी!
मजे की बात है कि इस अंध राष्ट्रवाद के निशाने पर मुसलनमान माने जाते हैं लेकिन असल निशाने दलित और आदिवासी हैं।आदिवासी चूंकि हिंदुत्व की पैदल सेना नहीं हैं दलितों और पिछड़ों की तरह तो अलगाव के शिकार आदिवासी भूगोल एक अनंत वधस्थल में तब्दील है और कारपोरेट हितों में कारपोरेट राजकाज के तरह जिन बहुमूल्य राष्ट्रीय संसाधनों की खुलेआम डकैती हो रही हैं,वे आदिवासी भूगोल में ही है तो यह दमन,उत्पीड़न,विस्थापन और नरसंहार आदिवासासियों की दिनचर्या है।
यह भारतीय इतिहास और भारतीय संस्कृति और भारतवर्ष की परिकल्पना के खिलाफ एक अक्षम्य युद्ध अपराध है।
राम के नाम रामराज्य का स्वराज अब भगवा आतंकवाद में तब्दील है।
पलाश विश्वास
संविधान सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने कहा थाः
“आज़ादी की इस लड़ाई में हम सबको एक साथ चलना चाहिए। पिछले छह हजार साल से अगर इस देश में किसी का शोषण हुआ है तो वे आदिवासी ही हैं। उन्हें मैदानों से खदेड़कर जंगलों में धकेल दिया गया और हर तरह से प्रताड़ित किया गया, लेकिन अब जब भारत अपने इतिहास में एक नया अध्याय शुरू कर रहा है तो हमें अवसरों की समानता मिलनी चाहिए।”
लेकिन स्वतंत्र भारत में आदिवासियों का अलगाव,दमन,उत्पीड़न,विस्थापन और उनका सफाया विकास का पर्याय बन गया है।बाकी भारतवासियों को इन आदिवासियों की कोई परवाह नहीं है और इसके उलट अंध राष्ट्रवाद की आड़ में कारपोरेट हित में आदिवासियों के खिलाफ इस अश्वमेधी नरसंहारी अभियान की वैदिकी संस्कृति का समर्थन करती है गैरआदिवासी भारतीय जनता।
26 जनवरी से पहले भारत कोई राष्ट्र नहीं था।दो राष्ट्र सिद्धांत के तहत भारत विभाजन के बाद बचे खुचे भारतवर्ष को भारतीय संविधान के तहत एक स्वतंत्र सार्वभौम लोक गणराज्य घोषित किया गया।इससे पहले भारत एक देश था।जनपदों का देश जो प्राचीन काल में लोक गणराज्यों का देश रहा है।
जनसंख्या स्थानातंरण के तहत हिंदुओं के लिए भारत और मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनाने की परिकल्पना फेल हो गयी और भारत में मुसलमानों की जैसे अच्छी खासी तादाद मौजूद रही वैसे ही पाकिस्तान और खासतौर पर पूर्वी पाकिस्तान में बड़ी संख्या में हिंदुओं की आबादी रह गयी।
पाकिस्तान के विभाजन के बाद बांग्लादेश में अब भी करीब दो करोड़ गैर मुसलमान हैं जिनमें सबसे ज्यादा हिंदू हैं तो बौद्ध और आदिवासी भी हैं।
देश के विभाजन से पहले जिस तरह संस्कृतियों और नस्लों के एकीकरण की प्रक्रिया चल रही थी,दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत भारत पाकिस्तान बनने के बाद वह प्रक्रिया सिरे से रुक गयी।बांग्ला राष्ट्रीयता के नाम पर बांग्लादेश बना तो भारत में सिख राष्ट्रीयता के तहत खालिस्तान आंदोलन से खून खराबा हुआ।
खालिस्तानी आंदोलन की हिंसा की वजह से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई के आपरेशन ब्लू स्टार के तहत जालियांवाला कांड दोहराया गया और इस वजह से हुए उथल पुथल के नतीजतन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी और इसकी प्रतिक्रिया में देश भर में सिखों का कत्लेआम हुआ और आज तक पीड़ित सिखों को न्याय नहीं मिला।
सिखों का यह सदाबहार जख्म राष्ट्रवाद का चेहरा है।
बंगाल में अलग गोरखालैंड और वृहत्तर गोरखालेैंड आंदोलन के तहत अस्सी के दशक में खूनखराबा हुआ।असम में अल्फाई अहमिया राष्ट्रीयता का उपद्रव जारी है तो कश्मीरी राष्ट्रीयता भारत पाक युद्धों का प्रमुख कारण है।इसी तरह पूर्वोत्तर में अलग अलग राष्ट्रीयता आंदोलन चल रहे हैं।असम और पूर्वोत्तर में भी अलग राष्ट्रवाद के नाम नरसंहार होते रहे हैं।
मराठा राष्ट्रवाद का भगवा एजंडा अब हिंदुत्व का कारपोरेट एजंडा है तो द्रविड़नाडु आंदोलन अब तमिल आत्ममर्यादा आंदोलन की जगह ले चुका है।
राम के नाम रामराज्य का स्वराज अब भगवा आतंकवाद में तब्दील है।
गनीमत है कि फिलहाल आदिवासी और दलित अपने लिए अलग राष्ट्र की मांग नहीं कर रहे हैं।
राष्ट्र बनने से पहले ,राष्ट्र के सैन्यीकरण से पहले,संविधान लागू होने से पहले हजारों साल से भारत में विविधता,बहुलता और सहिष्णुता के लोकतंत्र के तहत विभिन्न नस्लों और राष्ट्रीयताओं के निरंतर विलय और एकीकरण से भारतवर्ष बनता रहा,वह राष्ट्र बनने के बाद खंडित राष्ट्रीयताओं का एक आत्मघाती अनंत युद्धस्थल में तब्दील हो गया और जिस दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत भारत का विभाजन हुआ,उसी सिद्धांत के तहत हिंदू राष्ट्र के एजंडे के तहत आजादी के बाद से अब तक दंगोल का सिलसिला जारी है।गुजरात नरसंहार और बाबरी विध्वंस के बाद देश व्यापी दंगे उसी अंध फासीवादी राष्ट्रवाद की फसल है,जिसका विरोध रवींद्रनाथ कर रहे थे।
मजे की बात है कि इस अंध राष्ट्रवाद के निशाने पर मुसलनमान माने जाते हैं लेकिन असल निशाने दलित और आदिवासी हैं।आदिवासी चूंकि हिंदुत्व की पैदल सेना नहीं हैं दलितों और पिछड़ों की तरह तो अलगाव के शिकार आदिवासी भूगोल एक अनंत वधस्थल में तब्दील है और कारपोरेट हितों में कारपोरेट राजकाज के तरह जिन बहुमूल्य राष्ट्रीय संसाधनों की खुलेआम डकैती हो रही हैं,वे आदिवासी भूगोल में ही है तो यह दमन,उत्पीड़न,विस्थापन और नरसंहार आदिवासासियों की दिनचर्या है।
यह भारतीय इतिहास और भारतीय संस्कृति और भारतवर्, की परिकल्पना के खिलाफ एक अक्षम्य युद्ध अपराध है।
गौरतलब है कि अनार्यों की देन शीर्षक आलेख में रवींद्रनाथ ने संस्कृतियों के एकीकरण और विलय के मार्फत भारतवर्ष की परिकल्पना की है जो गीतांजलि से लेकर उनकी अनेक रचनाओं का मुख्य स्वर है।
अनार्यों की देन में उन्होंने लिखा हैः
किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि अनार्यों ने हमें कुछ नहीं दिया। वास्तव में प्राचीन द्रविड़ लोग सभ्यता की दृष्टि से हीन नहीं थे। उनके सहयोग से हिंदू सभ्यता को रूप-वैचित्र्य और रस-गांभीर्य मिला। द्रविड़ तत्व-ज्ञानी नहीं थे। पर उनके पास कल्पना शक्ति थी, वे संगीत और वस्तुकला में कुशल थे। सभी कलाविद्याओं में वे निपुण थे। उनके गणेश-देवता की वधू कला-वधू थी। आर्यों के विशुद्ध तत्वज्ञान के साथ द्रविड़ों की रस-प्रवणता और रूपोद्भाविनी शक्ति के मिलन से एक विचित्र सामग्री का निर्माण हुआ। यह सामग्री न पूरी तरह आर्य थी, न पूरी तरह अनार्य -यह हिंदू थी। दो विरोधी प्रवृत्तियों के निरंतर समन्वय-प्रयास से भारतवर्ष को एक आश्चर्यजनक संपदा मिली है। उसने अनंत को अंत के बीच उपलब्ध करना सीखा है, और भूमा को प्रात्यहिक जीवन की तुच्छता के बीच प्रत्यक्ष करने का अधिकार प्राप्त किया है। इसलिए भारत में जहाँ भी ये दो विरोधी शक्तियाँ नहीं मिल सकीं वहाँ मूढ़ता और अंधसंस्कार की सीमा न रही; लेकिन जहाँ भी उनका मिलन हुआ वहाँ अनंत के रसमय रूप की अबाधित अभिव्यक्ति हुई। भारत को ऐसी चीज मिली है जिसका ठीक से व्यवहार करना सबके वश का नहीं है, और जिसका दुर्व्यवहार करने से देश का जीवन गूढ़ता के भार से धूल में मिल जाता है। आर्य और द्रविड़, ये दो विरोधी चित्तवृत्तियाँ जहाँ सम्मिलित हो सकी हैं वहाँ सौंदर्य जगा है; जहाँ ऐसा मिलन संभव नहीं हुआ, वहाँ हम कृपणता और छोटापन देखते हैं। यह बात भी स्मरण रखनी होगी कि बर्बर अनार्यों की सामग्री ने भी एक दिन द्वार को खुला देखकर नि:संकोच आर्य-समाज में प्रवेश किया था। इस अनधिकृत प्रवेश का वेदनाबोध हमारे समाज ने दीर्घ काल तक अनुभव किया।
यह निबंध महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हिंदी समय पर आनलाइन उपलब्ध है।आज हमने रवींद्र के लिखे इसी निबंध अनार्यों की देन सोशल मीडिया पर शेयर किया है।रवींद्र इस आलेख में भी समकालीन परिदृश्य और सामाजिक यथार्थ बतौर वैदिकी सभ्यता को भारतीय समाज की मुख्यधारा मानते हुए उसमें आर्य और अनार्य सभ्यता के विलय से भारतीयता के निर्माण की बातें की हैं।
हम जानबूझकर गीतांजलि,रवींद्र संगीत,रवींद्र उपन्यास या उनके गीति नाट्य और रंगकर्म पर फिलहाल विस्तार से चर्चा नहीं कर रहे हैं।क्योंकि इनके बारे में कमोबेश चर्चा होती रही है।हम रवींद्र के दलित विमर्श के तहत उनके दर्शन और खासतौर पर उनके राष्ट्रवाद,उनके मनुष्यता के धर्म पर चर्चा केंद्रित कर रहे हैं,जिसपर बांग्ला में भी चर्चा कम हुई है।
जाहिर है कि इस अनार्य द्रविड़ सभ्यता के वंशज और उत्तराधिकारी भारत के आदिवासी हैं।आज के डिजिटल भारत के हिंदुत्व एजंडे में आदिवासी कहां हैं,इसकी पड़ताल किये बिना मनुष्यता की धाराओं के विलय से भारतीयता और भारत के निर्माण की प्रक्रिया समझना जरुरी है।
रवींद्र नाथ जिस अंध राष्ट्रवाद और सैन्य राष्ट्र की पश्चिमी सभ्यता के विरुद्ध भारतीय संस्कृति की साझा विरासत की बात कर रहे थे,उस अंध राष्ट्रवाद और सैन्य राष्ट्र के फासीवादी हिंदुत्व के एजंडे में आदिवासी भूगोल एक अखंड वधस्थल है और भारतीय मानस में आदिवासी विमर्श के लिए कोई स्थान नहीं है तो समझा जा सकता है कि नस्ली वर्चस्व के मनुस्मृति बंदोबस्त के तहत अनार्यों और द्रविड़ों, शक, हुण, कुषाण, पठान,मुगल और दूसरे गैरनस्ली जनसमुदायों की स्थिति क्या है।
रवींद्र नाथ टैगोर ने भारतवर्ष मासिक पत्रिका में लिखे ब्राह्मण शीर्षक आलेख की शुरुआत में ही ब्रिटिश हुकूमत में मनुस्मृति विधान के तहत ब्राह्मण के साथ गलत आचरण के दंडविधान के टूटने का उल्लेख करते हैं।
यह आलेख बेहद महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि भारत में बहुजन आंदोलन के नेताओं का विचार यही था कि ब्रिटिश हुकूमत की वजह से मनुस्मृति विधान के ब्राह्मणतंत्र के शिकंजे से उन्हें आजादी मिली है।उन्हें शिक्षा के साथ साथ आजीविका बदलने की आजादी मिली है।सेना और पुलिस में भर्ती होकर हथियार उठाने,कारोबार करने और संपत्ति अर्जित करने के हकहकूक मिले हैं।उन्हें डर था कि अंग्रेजी हुकूमत के बाद सत्ता फिर ब्राह्मणों क हाथों में होगी।
भारत के बहुजन पुरखे बौद्धमय भारत के अवसान के बाद हिंदू और गैरहिंदू तमाम शासकों के मुकाबले ब्रिटिश राजकाज को बेहतर मानते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ब्राह्मण तंत्रक ब्रिटिश हुकूमत की वजह से टूटने लगा है।जन्मगत पेशा बदलने की छूट ब्रिटिश हुकूमत की वजह से ही मिली है।
ताराशंकर बंद्योपाध्याय के उपन्यास गणदेवता और हांसुली बांकेर उपकथा में इस संक्रमण काल का विवरण है।गणदेवता में जन्म और जाति के हिसाब से तय पेशा बदलने के लिए ग्रामीण समाज में मची खलबली का ब्यौरा है तो हांसुली बांकेर उपकथा में आदिवासी समाज में हो रहे बदलाव के आख्यान हैं।
ताराशंकर बंद्योपाध्याय इस बदलाव के खिलाफ थे और वे गांधीवादी भी थे। अरोग्य निकेतन में भी पुरातन चिकित्सा पद्धति का महिमामंडन है तो उनके बाकी कथा साहित्य में ब्रिटिश राज और भूमि के स्थाई बंदोबस्त,पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के कारण जमींदारों और सामंतोें के संकट का सिलसिलेवार ब्यौरा हैं जिसमें आदिवासी और दलित भी हैं।
दलितों और आदिवासी दिनचर्या और जीवन यापन का सही ब्यौरा पेश करते हुए उनके हक में सामंतों के खिलाफ हो रहे सामाजिक बदलाव को ताराशंकर बंद्योपाध्याय सामंती व्यवस्था का अवसान मान रहे थे।
गौरतलब है कि बंगाल का भद्र सवर्ण समाज और जमींदारी भूस्वामी वर्ग पलाशी युद्ध और उसके बाद लगातार ईस्ट इंडिया कंपनी के पक्ष में बने रहे हैं।
चुआड़ विद्रोह, संन्यासी विद्रोह,संथाल मुंडा विद्रोह नील विद्रोह,1857 की क्रांति और आदिवासी किसान जनविद्रोह के खिलाफ वे ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश राजकाज के पक्ष में ही थे।
बंगाल का नव जागरण भद्रलोक समाज तक सीमाबद्ध था और नव जागरण के मसीहा आदिवासियों और किसानों के विद्रोह और 1857 की क्रांति के पूरे दौर में अंग्रेजों के साथ थे।लेकिन पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली,तेज होते बहुजन आंदोलन और सामाजिक बदलाव से स्थाई भूमि बंदोबस्त के तहत बने जमींदारों और भूस्वामियों का संकट गहराते ही बंग भंग के बाद बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के समर्थन में भद्र कुलीन वर्ग शामिल हुआ।उसका नेतृत्व भी इसी भद्र समाज तक सीमाबद्ध था।
इसके विपरीत इससे पहले तक अंग्रेजों के खिलाफ सारी लड़ाई आदिवासी, शूद्र, अछूत ,मुसलमान ,किसान और मजदूर ही लड़ रहे थे।
स्वदेशी आंदोलन में भद्र समाज और जमींदार तबके के वर्चस्व के खिलाफ ही शुरु से आखिर तक अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने वाले तबकों में अंग्रेजी हकूमत के बदले ब्राह्मणों की हुकूमंत का डर पैदा हुआ और वे स्वदेशी आंदोलन से अलग हो गये।
रवींद्रनाथ भी बहुजन पुरखों की तरह ब्रिटिश हुकूमत के राजकाज को बेहतर मानते थे।1905 में बंगभंग के खिलाफ नाइट की उपाधि वापस करने और जालियांवाला नरसंहार के खिलाफ सबसे पहले मुखर होने,स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के बावजूद वे सामाजिक बदलाव और प्रगति के सिलसिले में लगातार ब्रिटिश राजकाज के पक्ष में बोल रहे थे।
इसके साथ ही फासीवाद नाजी नरसंहारी अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ दुनिया भर में नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद व्याख्यान दे रहे थे।लिख रहे थे।
इसी लिए वे हिंदुत्ववादियों के निशाने पर आ गये।
मौजूदा डिजिटल कारपोरेट भारत के अंध राष्ट्रवाद के निशाने पर अनार्य द्रविड़ और दूसरी नस्लों के बहुसंख्य भारतवासी। सामाजिक विषमता लगातार बढ़ रही है,जिसे रवींद्रनाथ भारत की मुख्य समस्या मानते रहे हैं।
अनार्यों की देन के बारे में रवींद्र नाथ के भारत विमर्श में सर्वत्र विस्तार से उल्लेख है हालांकि आदिवासियों के बारे में अलग से उनका लिखा हमारे सामने फिलहाल नहीं है।
अनार्य और द्रविड़ सभ्यता से आदिवासियों को अलग रखा नहीं जा सकता तो अलग से आदिवासियों पर लिखने की शायद रवींद्रनाथ ने जरुरत न समझी हो।
गौरतलब है कि बहुजन आंदोलन के नेताओं ने भी आदिवासियों को अलगाव से निकालने की कोई कोशिश नहीं की जबकि साम्राज्यवादी औपनिवेशिक शासन के खिलाफ बहुजन समाज,शूद्र अछूत और मुसलमान किसान भी आदिवासियों के नेतृत्व में जल जंगल जमीन की साम्राज्यवाद सामंतवाद विरोधी हर लड़ाई में शामिल थे।
आदिवासी अस्मिता के बारे में वैदिकी आर्य नस्ली वर्चस्व की वजह से कोई समाजिक विमर्श ही शुरु नहीं हो सका और इसीि वजह से आनंदमठ के सौजन्य से ईस्टइंडिया कंपनी के खिलाफ साधु संतों पीर फकीर बाउलों,आदिवासियों,शूद्रों,अछूतों और मुसलमानों,किसानों के जनविद्रोह का हिंदुत्वकरण हो गया और इसे संन्यासी विद्रोह कहकर आदिवासियों,शूद्रों,दलितों,मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम के नेतृत्व से बेदखल कर दिया गया और इसी प्रक्रिया के तहत स्वदेशी आंदोलन पर जमींदार तबकों,रियासतों और रजवाडो़ं का वर्चस्व कायम हो गया और अंग्रेजों के जाने के बाद सत्ता पर भी उन्हीं सवर्ण जमींदार रजवाड़ा वर्ग का ही वर्चस्व है और हिंदुत्व का फासीवादी अंध राष्ट्रवाद उन्हीं आदिवासियों,शूद्रों,अछूतों और मुसलमानों के किलाफ नरसंहार संस्कृति है,जिसका रवींद्रनाथ शुरु से ही विरोध कर रहे थे।
बहुजन समाज से आदिवासियों का अलगाव खत्म करने के लिए शूद्र,दलित और मुसलमान नेताओं ने खास कुछ किया नहीं है तो पिछड़ों को अलग हांककर उन्हें सवर्ण का दर्जा देकर ब्राह्मणतंत्र और मजबूत होता चला गया।
भारतीय इतिहास में जिन शूद्रों ने सामती वर्चस्व को बार तोड़ा वही शूद्र नई कारपोरेट व्यवस्था के मुक्तबाजार में नस्ली वर्चस्व की फासिस्ट सत्ता की पैदल सेना हैं और आदिवासी लगातार अलगाव में हैं हालांकि जल जंगल जमीन की लड़ाई में वे आज भी सबसे आगे हैं लेकिन साम्राज्यवाद के खिलाफ जन विद्रोहों की तरह शूद्र,अछूत और मुसलमान आदिवासियों के साथ अब कहीं नहीं है।
आदिवासी विमर्श में सिर्फ अंग्रेजी हुकूमत के दौरान लिखे सरकारी गजट में प्रकाशित सामग्री या मानवशास्त्रियों,समाजशास्त्रियों और नृतत्वविदों के अध्ययन ही काफी नहीं है,उसके लिए समूचे भारतीय इतिहास की नये सिरे से जांच पड़ताल जरुरी है।इतिहास के खोये हुए पन्नों को खोज निकालकर रोशनी में लाना जरुरी है।
क्योंकि नस्ली वजूद के हिसाब से आदिवासी सिर्फ वे ही नहीं हैं जो आज आदिवासी हैं बल्कि शूद्रों,अछूतों और मुसलमानों के धर्मांतरण से पहले के अतीत में मोहनजोदोड़ो हड़प्पा समय से लेकर ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भी एक अखंड आदिवासी समय है जिसे रवींद्रनाथ अनार्य और द्रविड़ सभ्यता कह रहे हैं।
हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि सिर्फ आर्यावर्त भारत का भूगोल नहीं है।आर्यावर्त से बाहर समूचा भारतवर्ष अनार्य द्रविड़ सभ्यता का भूगोल है तो हिमालय में भी जनजाति मूल के गैर आर्य लोगों की बहुसंख्य आबादी है।
इसी सिलसिले में आदिवासी विमर्श पर सिलसिलेवार चर्चा जरुरी है और आदिवासी इतिहास में ही भारत का अनार्य द्रविड़ इतिहास की पहेलियां सुलझायी जा सकती है।अभी हाल में डाक से रांची से अश्विनी कुमार पंकज की भेजी चार कितांबें मिल गयी हैं।अंग्रेजी में जयपाल सिंह मुंडा के लेखों और भाषणों पर आधारित आदिवासीडम,ऱघुवीर प्रसाद की आदिवासी रियासतों के इतिहास पर ऐतिहासिक कृति झारखंड झंकार,पंकज संपादित प्राथमिक आदिवासी विमर्श और पहली आदिवासी कवियत्री सुशीला सामत का पहला कविता संग्रह।
जयपाल सिंह मुंडा (3 जनवरी 1903 – 20 मार्च 1970)[1] भारतीय आदिवासियों और झारखंड आंदोलन के एक सर्वोच्च नेता थे। वे एक जाने माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद् और 1925 में ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब पाने वाले हॉकी के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे।[2]उनकी कप्तानी में १९२८ के ओलिंपिक में भारत ने पहला स्वर्ण पदक प्राप्त किया।[3]
जयपाल सिंह छोटा नागपुर (अब झारखंड) राज्य की मुंडा जनजाति के थे। मिशनरीज की मदद से वह ऑक्सफोर्ड के सेंट जॉन्स कॉलेज में पढ़ने के लिए गए।[4] वह असाधारण रूप से प्रतिभाशाली थे। उन्होंने पढ़ाई के अलावा खेलकूद, जिनमें हॉकी प्रमुख था, के अलावा वाद-विवाद में खूब नाम कमाया।
महेंद्र नारायण सिंह यादव ने यूथ की आवाज में लिखा हैः
मरांग गोमके यानी ग्रेट लीडर के नाम से लोकप्रिय हुए जयपाल सिंह मुंडा ने 1938-39 में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा का गठन करके आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध राजनीतिक और सामाजिक लड़ाई लड़ने का निश्चय किया।
मध्य-पूर्वी भारत में आदिवासियों को शोषण से बचाने के लिए उन्होंने अलग आदिवासी राज्य बनाने की माँग की। उनके प्रस्तावित राज्य में वर्तमान झारखंड, उड़ीसा का उत्तरी भाग, छत्तीसगढ़ और बंगाल के कुछ हिस्से शामिल थे। उनकी माँग पूरी नहीं हुई, जिसका नतीजा यह रहा कि इन इलाकों में शोषण के खिलाफ नक्सलवाद जैसी समस्याएँ पैदा हुईं, जो आज तक देश के लिए परेशानी बनी हुई है। हालाँकि करीब साठ साल बाद वर्ष 2000 में झारखंड राज्य के निर्माण के साथ उनकी माँग आंशिक रूप से पूरी हुई, लेकिन तब तक आदवासियों की संख्या राज्य में घटकर करीब 26 फीसदी बची, जबकि 1951 में ये आबादी 51 फीसदी हुआ करती थी।
जयपाल सिंह मुंडा आदिवासियों के लिए सबसे बड़े पैरोकार बनकर उभरे। संविधान सभा के लिए जब वे बिहार प्रांत से निर्वाचित हुए तो उन्होंने आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए कड़े प्रयास किए।
अगस्त 1947 में जब अल्पसंख्यकों और वंचितों के अधिकारों पर पहली रिपोर्ट प्रकाशित ही तो उसमें केवल दलितों के लिए ही विशेष प्रावधान किए गए थे। दलित अधिकारों के लिए डॉ अंबेडकर बहुत ताकतवर नेता बन चुके थे, जिसका लाभ दलितों को तो मिलता दिख रहा था, लेकिन आदिवासियों को अनदेखा किया जा रहा था। ऐसे में जयपाल सिंह मुंडा ने कड़े तेवर दिखाए और संविधान सभा में ज़ोरदार भाषण दिया।
“आज़ादी की इस लड़ाई में हम सबको एक साथ चलना चाहिए। पिछले छह हजार साल से अगर इस देश में किसी का शोषण हुआ है तो वे आदिवासी ही हैं। उन्हें मैदानों से खदेड़कर जंगलों में धकेल दिया गया और हर तरह से प्रताड़ित किया गया, लेकिन अब जब भारत अपने इतिहास में एक नया अध्याय शुरू कर रहा है तो हमें अवसरों की समानता मिलनी चाहिए।”
प्राथमिक आदिवासी विमर्श में शरत चंद्र राय का 1936 में लिखा आदिवासी अस्मिता पर ऐतिहासिक दस्तावेज भी शामिल है,जिसका मूल अंग्रेजी से मैंने हिंदी में अनुवाद किया है।इसके लिए आभारी हूूं।
बेहतर होता कि भारत राष्ट्र में आदिवासियों की स्थिति के विवेचन के सिलसिले में इन पुस्तकों पर भी चर्चा कर दी जाती।लेकिन इस परिसर की सीमा के मद्देनजर ऐसा संभव नहीं है।इन पुस्तकों पर अलग अलग लिखने की जरुरत है।
बहरहाल मैं अपने को आदिवासी समाज में शामिल मानता हूं और यह जानता हूं कि भारत की अश्वेत जनता के कृषि समुदाय के तमाम लोग हिंदुत्व में धर्मांतरित होने से पहले आदिवासी रहे हैं।इसलिए शुरु से मैं आदिवासी इतिहास में अपने पुरखों की भूमिका की खोज में रहा हूूं।इस दृष्टि से इस तरह की शोध सामग्री बेहद महत्वपूर्ण है।
मेरी हैसियत कुछ नहीं है लेकिन फिर भी सत्ता वर्ग मुझे जीने का मौका देने से इंकार कर रहा है।ऐसे कामों में संलग्न रहकर ही मैं जीवित रह सकता हूं।मुझे झारखंड और आदिवासी भूगोल से दस्तावेजों के अनुवाद के इसी तरह के काम का इंतजार है जिससे इतिहास को नये सिरे से देखने समझने की दृष्टि मिले और उस पारिश्रामिक से मेरा सार्थक जीविका निर्वाह हो सके।
पंकज जी अनुमति दें तो आदिवासी विमर्श की समीक्षा के साथ मैं शरत चंद्र राय के अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज को सोशल मीडिया पर उन लोगों के लिए शेयर करना चाहुंगा,जो आगे इस दस्तावेज को पढ़ने के बाद आदिवासी विमर्श की प्रासंगिकता को समझने में और उससे अपनी पहचान और जमीन को तलाशने में दिलचस्पी लें।
इन पुस्तकों का उल्लेख सिर्फ इसी मकसद से कर रहा हूं कि आदिवासियों को शामिल किये बिना भारतवर्ष बनता नहीं है।इसलिए आदिवासी विमर्श पर हम जितनी जल्दी व्यापक संवाद शुरु कर सकें तो बेहतर।
इसी तरह ब्राह्मणतंत्र के खिलाफ और वैदिकी सभ्यता के विरुद्ध कुछ भी नहीं लिखनेवाले रवींद्रनाथ लगातार सामाजिक न्याय और समता की बात करते हुए सामाजिक बदलाव की बात कर रहे थे।ब्राह्मणतंत्र के टूटने की प्रक्रिया पर बात कर रहे थे ब्राह्मणों की सामाजिक नेतृ्त्व के नस्ली वर्चस्व में बदलने की चर्चा करते हुए। उनका लिखे ब्राह्मण शीर्षक निबंध में ब्राह्मणों की भूमिका में बदलाव के साथ साथ ब्राह्मणतंत्र के टूटते जाने का ब्यौरा भी है।
इसमें वर्ण व्यवस्था के तहत तीनों वर्णों के द्विजत्व की चर्चा उन्होंने की है और ब्राह्मणत्व अर्जित करने की बात भी की है लेकिन शूद्रों और अवर्णों को इस आर्य समाज से बाहर ही रखा है।गौरतलब है कि हिंदू मुसलमान दो राष्ट्रीयताओं के सावल खड़े हो जाने पर हिंदुओं की आबादी मुसलमानों से कम पड़ जाने से सत्ता से बेदखली का खतरा पैदा होने से पहले तक भारत में शूद्रों और अछूतों को हिंदू नहीं माना जाता है।यह वैसा ही है जैसा कि ओबीसी की जनगणना न कराने की कुल वजह यह है कि शूद्रों की जनसंख्या आधा से ज्यादा होने की स्थिति में उन्हें जनसंख्या के हिसाब से मौके दिये जाने पर तीन वर्णों के आधार पर हिंदुत्व के नस्ली वर्चस्व का बेड़ा गर्क तय है।
जन्मजात पेशे को बदलने की निषेधाज्ञा भी इन्हीं शूद्रों और अछूतों के खिलाफ थी।गौरतलब है कि भारत के आदिवासी समाज में ऐसी पेशागत सामाजिक निषेधाज्ञा और उसके उल्लंघन पर सजा और बहिस्कार न होने की वजह से वहां दलितों और शूद्रों की तरह हीनताबोध कभी नहीं रहा है और मानसिक तौर पर वे कभी गुलाम नहीं रहे हैं।उऩका चरित्र स्वतंत्रता का धारक वाहक है।वे इसलिए लड़ाई से भागते भी नहीं है और न नस्ली वर्चस्व की पैदल सेना बनते हैं।आखिरी आदमी या औरत के बलिदान से पहले तक वे किसी विद्रोह या युद्ध में हार नहीं मानते।यही अनार्य द्रविड़ सभ्यता है।
जाहिर है कि ब्राह्मणतंत्र से बहिस्कृत शूद्रों और अवर्णों के लिए ही वे सामाजिक न्याय और समता की आवाज बुलंद करते हुए बौद्धमय भारत के आदर्शों और मूल्यों को अपनी रचनाधर्मिता का कथानक बना रखा था तो वे अंध राष्ट्रवाद के निशाने पर इस वंचित तबके की स्थिति के मद्देनजर ब्राह्मणतंत्र के टूटने के सामाजिक आर्थिक बदलाव के सिलसिले में ही फासीवादी नाजी नरसंहारी राष्ट्रवाद के विरुद्ध ब्रिटिश राजकाज के पक्ष में बोल रहे थे लेकिन वे किसी भी सूरत में साम्राज्यवादी औपनिवेशिक ब्रिटिश हुकूमत के पक्ष में नहीं थे और आजादी की लड़ाई में वे भारतीय जनता के पक्ष में ही मोर्चाबंद थे।
रवींद्रनाथ सिर्फ ब्राहमणतंत्र के मुताबिक सामंती नस्ली वर्चस्व के तहत सामाजिक विषमता के खिलाफ न्याय,समता और कानून के राज के सिलसिले में बहुजन पुरखों की तरह ब्रिटिश राजकाज के पक्ष में बोल रहे थे।
ब्राह्मण शीर्षक आलेख की शुरुआत में ही उन्होंने लिखा हैः
সকলেই জানেন, সম্প্রতি কোনো মহারাষ্ট্রী ব্রাহ্মণকে তাঁহার ইংরাজ প্রভু পাদুকাঘাত করিয়াছিল; তাহার বিচার উচ্চতম বিচারালয় পর্যন্ত গড়াইয়াছিল–শেষ, বিচারক ব্যাপারটাকে তুচ্ছ বলিয়া উড়াইয়া দিয়াছেন।
सभी जानते हैं कि हाल में महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण को उसके अंग्रेज प्रभु ने जूतों से पीटा है।इस मामले में इंसाफ की फरियाद उच्चतम न्यायलय तक पहुंची और अंत में न्यायाधीश ने इसे तुच्छ मामला मानकर खारिज कर दिया।
ঘটনাটা এতই লজ্জাকর যে, মাসিক পত্রে আমরা ইহার অবতারণা করিতাম না। মার খাইয়া মারা উচিত বা ক্রন্দন করা উচিত বা নালিশ করা উচিত, সে-সমস্ত আলোচনা খবরের কাগজে হইয়া গেছে–সে-সকল কথাও আমরা তুলিতে চাহি না। কিন্তু এই ঘটনাটি উপলক্ষ করিয়া যে-সকল গুরুতর চিন্তার বিষয় আমাদের মনে উঠিয়াছে তাহা ব্যক্ত করিবার সময় উপস্থিত।
यह घटनी इतनी शर्मनाक है कि मासिक पत्रिका में हम इसका उल्लेख नहीं करते।मार खाकर मारना चाहिए या रोना चाहिए या शिकायत करनी चाहिेए,ऐसी तमाम चर्चाएं अखबारों में हो चुकी है और हम वे मुद्दे उठाना नहीं चाहते।किंतु इस घटना के उपलक्ष्य में जिन गंभीर चिंता के मसले हमारे मन में उठ खड़े हुए हैं,उन्हें व्यक्त करने का यह समय है।
বিচারক এই ঘটনাটিকে তুচ্ছ বলেন–কাজেও দেখিতেছি ইহা তুচ্ছ হইয়া উঠিয়াছে, সুতরাং তিনি অন্যায় বলেন নাই। কিন্তু এই ঘটনাটি তুচ্ছ বলিয়া গণ্য হওয়াতেই বুঝিতেছি, আমাদের সমাজের বিকার দ্রুতবেগে অগ্রসর হইতেছে।
न्यायाधीश ने इस घटना को तुच्छ बता दिया है और वास्तव में भी हम देख रहे हैं कि यह घटना तुच्छ हो गयी है।किंतु इस घटना के तुच्छ हो जाने से यह बात समज में आ रही है कि हमारे समाज का विकार तेजी से बढ़ रहा है।
ইংরাজ যাহাকে প্রেস্টিজ, অর্থাৎ তাঁহাদের রাজসম্মান বলেন, তাহাকে মূল্যবান জ্ঞান করিয়া থাকেন। কারণ, এই প্রেষ্টিজের জোর অনেক সময়ে সৈন্যের কাজ করে। যাহাকে চালনা করিতে হইবে তাহার কাছে প্রেস্টিজ রাখা চাই। বোয়ার যুদ্ধের আরম্ভকালে ইংরাজ সাম্রাজ্য যখন স্বল্প পরিমিত কৃষকসম্প্রদায়ের হাতে বারবার অপমানিত হইতেছিল তখন ইংরাজ ভারতবর্ষের মধ্যে যত সংকোচ অনুভব করিতেছিল এমন আর কোথাও নহে। তখন আমরা সকলেই বুঝিতে পারিতেছিলাম, ইংরাজের বুট এ দেশে পূর্বের ন্যায় তেমন অত্যন্ত জোরে মচ্মচ্ করিতেছে না।
अंग्रेज जिसे प्रेस्टिज अर्थात राजकीय सम्मान कहते हैं और उसे बेशकीमती मानते हैं।क्योंकि इस प्रेस्टिज का जोर समय समय पर सेना के बहुत काम आता है।जिसे चलाना है,उसकी नजर में प्रेस्टिज बनाये रखना जरुरी है।बोयार युद्ध के आरंभकाल में जब सीमित संख्यक किसानों के हाथों ब्रिटिस साम्राज्य बार बरा अपमानित हो रहा था तब भारतवर्ष में अंग्रेजों को जो संकोच महसूस होने लगा,ऐसा अन्यत्र कहीं नहीं हुआ।तभी हम सभी समझने लग गये थे कि अंग्रेजों के बूटों की धमक इस देश में पहले की तरह उतने जोर से गूंज नहीं रही है।
আমাদের দেশে এককালে ব্রাহ্মণের তেমনি একটা প্রেস্টিজ ছিল। কারণ, সমাজচালনার ভার ব্রাহ্মণের উপরেই ছিল। ব্রাহ্মণ যথারীতি এই সমাজকে রক্ষা করিতেছেন কি না এবং সমাজরক্ষা করিতে হইলে যে-সকল নিঃস্বার্থ মহদ্গুণ থাকা উচিত সে-সমস্ত তাঁহাদের আছে কি না, সে কথা কাহারো মনে উদয় হয় নাই–যতদিন সমাজে তাঁহাদের প্রেস্টিজ ছিল। ইংরাজের পক্ষে তাঁহার প্রেস্টিজ যেরূপ মূল্যবাণ ব্রাহ্মণের পক্ষেও তাঁহার নিজের প্রেস্টিজ সেইরূপ।
हमारे देश में कभी ब्राह्मणों का ऐसा ही प्रेस्टिज रहा है।क्योंकि समाज के संचालन का कार्यभार ब्राह्मण का ही था।ब्राह्मण विधिपूर्वक समाज की रक्षा कर रहे हैं या नहीं एवं समाज की रक्षा के लिए जिन समस्त निःस्वार्थ महान गुणों की जरुरत होती है,वे गुण उनमें हैं या नहीं,ऐसा संशय किसी के मन में तबतक कभी पैदा नहीं हुआ,जबतक ब्राह्मणों का प्रेस्टिज बना रहा है।अंग्रेजों के लिए उनका प्रेस्टिज जितना बेशकीमती है,ब्राह्मणों के लिए बी अपना प्रेस्टिज उतना ही बेशकीमती है।
जयपाल सिंह के सशक्त हस्तक्षेप के बाद संविधान सभा को आदिवासियों के बारे में सोचने पर मजबूर होना पड़ा। इसका नतीजा यह निकला कि 400 आदिवासी समूहों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया। उस समय इनकी आबादी करीब 7 फीसदी आँकी गई थी। इस लिहाज से उनके लिए नौकरियों और लोकसभा-विधानसभाओं में उनके लिए 7.5% आरक्षण सुनिश्चित किया जा सका।
इसके बाद आदिवासी हितों की रक्षा के लिए जयपाल सिंह मुंडा ने 1952 में झारखंड पार्टी का गठन किया। 1952 में झारखंड पार्टी को काफी सफलता मिली थी। उसके 3 सांसद और 23 विधायक जीते थे। स्वयं जयपाल सिंह लगातार चार लोकसभा चुनाव जीतकर संसद में पहुँचे थे। बाद में झारखंड के नाम पर बनी तमाम पार्टियाँ उन्हीं के विचारों से प्रेरित हुईं।
पूर्वोत्तर के आदिवासियों में फैले असंतोष को उस समय भी जयपाल सिंह मुंडा पहचान रहे थे। नागा आंदोलन के जनक जापू पिजो को भी उन्होंने झारखंड की ही तर्ज पर अलग राज्य की माँग के लिए मनाने की कोशिश की थी, लेकिन पिजो सहमत नहीं हुए। इसी का नतीजा ये रहा कि आज तक नागालैंड उपद्रवग्रस्त इलाका बना हुआ है।
जयपाल सिंह मुंडा के ही कारण जनजातियों को संविधान में कुछ विशिष्ट अधिकार मिल सके, हालाँकि, व्यवहार में उनका शोषण अब भी जारी है। खासकर, भारतीय जनता पार्टी के शासन वाले राज्यों- छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश और गुजरात में तो इनके सामूहिक खात्मे का अभियान छिड़ा हुआ है। किसी को भी नक्सली बताकर गोली से उड़ा दिए जाने की परंपरा स्थापित हो चुकी है। यह दुखद स्थिति खत्म करने के लिए एक बार फिर से जयपाल सिंह मुंडा की विचारधारा का अनुसरण किए जाने की जरूरत है। पूरे जीवन आदिवासी हितों के लिए लड़ते-लड़ते 20 मार्च 1970 को जयपाल सिंह मुंडा का निधन हो गया।
उनका चयन भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में हो गया था। आईसीएस का उनका प्रशिक्षण प्रभावित हुआ क्योंकि वह 1928 में एम्सटरडम में ओलंपिक हॉकी में पहला स्वर्णपदक जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान के रूप में नीदरलैंड चले गए थे। वापसी पर उनसे आईसीएस का एक वर्ष का प्रशिक्षण दोबारा पूरा करने को कहा गया (बाबूगीरी का आलम तब भी वही था जो आज है!)। उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया।
उन्होंने बिहार के शिक्षा जगत में योगदान देने के लिए तत्कालीन बिहार कांग्रेस अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद को इस संबंध में पत्र लिखा. परंतु उन्हें कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला. 1938 की आखिरी महीने में जयपाल ने पटना और रांची का दौरा किया. इसी दौरे के दौरान आदिवासियों की खराब हालत देखकर उन्होंने राजनीति में आने का फैसला किया.[5]
1939 जनवरी में उन्होंने आदिवासी महासभा की अध्यक्षता ग्रहण की जिसने बिहार से इतर एक अलग झारखंड राज्य की स्थापना की मांग की। इसके बाद जयपाल सिंह देश में आदिवासियों के अधिकारों की आवाज बन गए। उनके जीवन का सबसे बेहतरीन समय तब आया जब उन्होंने संविधान सभामें बेहद वाकपटुता से देश की आदिवासियों के बारे में सकारात्मक ढंग से अपनी बात रखी।
अनार्यों की देन
रवींद्रनाथ टैगोर
किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि अनार्यों ने हमें कुछ नहीं दिया। वास्तव में प्राचीन द्रविड़ लोग सभ्यता की दृष्टि से हीन नहीं थे। उनके सहयोग से हिंदू सभ्यता को रूप-वैचित्र्य और रस-गांभीर्य मिला। द्रविड़ तत्व-ज्ञानी नहीं थे। पर उनके पास कल्पना शक्ति थी, वे संगीत और वस्तुकला में कुशल थे। सभी कलाविद्याओं में वे निपुण थे। उनके गणेश-देवता की वधू कला-वधू थी। आर्यों के विशुद्ध तत्वज्ञान के साथ द्रविड़ों की रस-प्रवणता और रूपोद्भाविनी शक्ति के मिलन से एक विचित्र सामग्री का निर्माण हुआ। यह सामग्री न पूरी तरह आर्य थी, न पूरी तरह अनार्य -यह हिंदू थी। दो विरोधी प्रवृत्तियों के निरंतर समन्वय-प्रयास से भारतवर्ष को एक आश्चर्यजनक संपदा मिली है। उसने अनंत को अंत के बीच उपलब्ध करना सीखा है, और भूमा को प्रात्यहिक जीवन की तुच्छता के बीच प्रत्यक्ष करने का अधिकार प्राप्त किया है। इसलिए भारत में जहाँ भी ये दो विरोधी शक्तियाँ नहीं मिल सकीं वहाँ मूढ़ता और अंधसंस्कार की सीमा न रही; लेकिन जहाँ भी उनका मिलन हुआ वहाँ अनंत के रसमय रूप की अबाधित अभिव्यक्ति हुई। भारत को ऐसी चीज मिली है जिसका ठीक से व्यवहार करना सबके वश का नहीं है, और जिसका दुर्व्यवहार करने से देश का जीवन गूढ़ता के भार से धूल में मिल जाता है। आर्य और द्रविड़, ये दो विरोधी चित्तवृत्तियाँ जहाँ सम्मिलित हो सकी हैं वहाँ सौंदर्य जगा है; जहाँ ऐसा मिलन संभव नहीं हुआ, वहाँ हम कृपणता और छोटापन देखते हैं। यह बात भी स्मरण रखनी होगी कि बर्बर अनार्यों की सामग्री ने भी एक दिन द्वार को खुला देखकर नि:संकोच आर्य-समाज में प्रवेश किया था। इस अनधिकृत प्रवेश का वेदनाबोध हमारे समाज ने दीर्घ काल तक अनुभव किया।
युद्ध बाहर का नहीं, शरीर के भीतर का था। अस्त्र ने शरीर के भीतर प्रवेश कर लिया; शत्रु घर के अंदर पहुँच गया। आर्य-सभ्यता के लिए ब्राह्मण अब सब-कुछ हो गए। जिस तरह वेद अभ्रांत धर्म-शास्त्र के रूप में समाज-स्थिति का सेतु बन गया, उसी तरह ब्राह्मण भी समाज में सर्वोच्च पूज्य पद ग्रहण करने की चेष्टा करने लगे। तत्कालीन पुराणों, इतिहासों और काव्यों में सर्वत्र यह चेष्टा प्रबल रूप से बार-बार व्यक्त हुई है जिससे हम समझ सकते हैं कि यह प्रतिकूलता के विरुद्ध प्रयास था, धारा के विपरीत दिशा में यात्रा थी। यदि हम ब्राह्मणों के इस प्रयास को किसी विशेष संप्रदाय का स्वार्थ-साधन और क्षमता-लाभ का प्रयत्न मानें, तो हम इतिहास को संकीर्ण और मिथ्या रूप में देखेंगे। यह प्रयास उस समय की संकट-ग्रस्त आर्य-जाति का आंतरिक प्रयास था। आत्मरक्षा का उत्कट प्रयत्न था। उस समय समाज के सभी लोगों के मन में ब्राह्मणों का प्रभाव यदि अक्षुण्ण न होता तो चारों दिशाओं में टूट कर गिरने वाले मूल्यों को जोड़ने का कोई उपाय न रह जाता।
इस अवस्था में ब्राह्मणों के सामने दो काम थे - एक, पहले से चली आ रही धारा की रक्षा करना, और दूसरा, नूतन को उसके साथ मिलाना। जीवन-क्रम में ये दोनों काम अत्यंत बाधाग्रस्त हो उठे थे, इसलिए ब्राह्मणों की क्षमता और अधिकार को समाज ने इतना अधिक बढ़ाया। अनार्य देवता को वेद के प्राचीन मंच पर स्थान दिया गया। रुद्र की उपाधि ग्रहण करके शिव ने आर्य-देवताओं के समूह में पदार्पण किया। इस तरह भारतवर्ष में सामाजिक मिलन ने ब्रह्मा-विष्णु-महेश का रूप ग्रहण किया। ब्रह्मा में आर्य-समाज का आरंभकाल था, विष्णु में मध्याह्नकाल, और शिव में उसकी शेष परिणति।
यद्यपि शिव ने रुद्र के नाम से आर्य-समाज में प्रवेश किया, फिर भी उसमें आर्य और अनार्य दोनों मूर्तियाँ स्वतंत्र हैं। आर्य के पक्ष से वह योगीश्वरी है - मदन को भस्म करके निर्वाण के आनंद में मग्न। उसका दिग्वास संन्यासी के त्याग का लक्षण है। अनार्य के पक्ष से वह वीभत्स है - रक्तरंजित गजचर्मधारी, भाँग और धतूरे से उन्मत्त। आर्य के पक्ष से वह बुद्ध का प्रतिरूप है और वह सर्वत्र बौद्ध मंदिरों पर सहज ही अधिकार करता है। दूसरी ओर, वह भूत-प्रेत इत्यादि श्मशानचर विभीषिकाओं को, और सर्प-पूजा, वृषभ-पूजा, लिंग-पूजा और वृक्ष-पूजा को आत्मसात करते हुए समाज के अंतर्गत अनार्यों की सारी तामसिक उपासना को आश्रय देता है। एक ओर, प्रवृत्ति को शांत कर के निर्जन स्थान में ध्यान और जप द्वारा उसकी साधना की जाती है; दूसरी ओर, चड़क पूजा इत्यादि विधियों से अपने-आपको प्रमत्त करके, और शरीर को तरह-तरह के क्लेश में उत्तेजित करके उसकी आराधना होती है। इस तरह आर्य-अनार्य की धाराएँ गंगा-जमुना की तरह एक हुईं; लेकिन उसके दो रंग एक-दूसरे के समीप हो कर पृथक रहे।
ভারতবর্ষ/ব্রাহ্মণ
https://bn.wikisource.org/s/2e4
লিখেছেন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর
সকলেই জানেন, সম্প্রতি কোনো মহারাষ্ট্রী ব্রাহ্মণকে তাঁহার ইংরাজ প্রভু পাদুকাঘাত করিয়াছিল; তাহার বিচার উচ্চতম বিচারালয় পর্যন্ত গড়াইয়াছিল–শেষ, বিচারক ব্যাপারটাকে তুচ্ছ বলিয়া উড়াইয়া দিয়াছেন।
ঘটনাটা এতই লজ্জাকর যে, মাসিক পত্রে আমরা ইহার অবতারণা করিতাম না। মার খাইয়া মারা উচিত বা ক্রন্দন করা উচিত বা নালিশ করা উচিত, সে-সমস্ত আলোচনা খবরের কাগজে হইয়া গেছে–সে-সকল কথাও আমরা তুলিতে চাহি না। কিন্তু এই ঘটনাটি উপলক্ষ করিয়া যে-সকল গুরুতর চিন্তার বিষয় আমাদের মনে উঠিয়াছে তাহা ব্যক্ত করিবার সময় উপস্থিত।
বিচারক এই ঘটনাটিকে তুচ্ছ বলেন–কাজেও দেখিতেছি ইহা তুচ্ছ হইয়া উঠিয়াছে, সুতরাং তিনি অন্যায় বলেন নাই। কিন্তু এই ঘটনাটি তুচ্ছ বলিয়া গণ্য হওয়াতেই বুঝিতেছি, আমাদের সমাজের বিকার দ্রুতবেগে অগ্রসর হইতেছে।
ইংরাজ যাহাকে প্রেস্টিজ, অর্থাৎ তাঁহাদের রাজসম্মান বলেন, তাহাকে মূল্যবান জ্ঞান করিয়া থাকেন। কারণ, এই প্রেষ্টিজের জোর অনেক সময়ে সৈন্যের কাজ করে। যাহাকে চালনা করিতে হইবে তাহার কাছে প্রেস্টিজ রাখা চাই। বোয়ার যুদ্ধের আরম্ভকালে ইংরাজ সাম্রাজ্য যখন স্বল্প পরিমিত কৃষকসম্প্রদায়ের হাতে বারবার অপমানিত হইতেছিল তখন ইংরাজ ভারতবর্ষের মধ্যে যত সংকোচ অনুভব করিতেছিল এমন আর কোথাও নহে। তখন আমরা সকলেই বুঝিতে পারিতেছিলাম, ইংরাজের বুট এ দেশে পূর্বের ন্যায় তেমন অত্যন্ত জোরে মচ্মচ্ করিতেছে না।
আমাদের দেশে এককালে ব্রাহ্মণের তেমনি একটা প্রেস্টিজ ছিল। কারণ, সমাজচালনার ভার ব্রাহ্মণের উপরেই ছিল। ব্রাহ্মণ যথারীতি এই সমাজকে রক্ষা করিতেছেন কি না এবং সমাজরক্ষা করিতে হইলে যে-সকল নিঃস্বার্থ মহদ্গুণ থাকা উচিত সে-সমস্ত তাঁহাদের আছে কি না, সে কথা কাহারো মনে উদয় হয় নাই–যতদিন সমাজে তাঁহাদের প্রেস্টিজ ছিল। ইংরাজের পক্ষে তাঁহার প্রেস্টিজ যেরূপ মূল্যবাণ ব্রাহ্মণের পক্ষেও তাঁহার নিজের প্রেস্টিজ সেইরূপ।
আমাদের দেশে সমাজ যেভাবে গঠিত, তাহাতে সমাজের পক্ষেও ইহার আবশ্যক আছে। আবশ্যক আছে বলিয়াই এত সম্মান ব্রাহ্মণকে দিয়াছিল।
আমাদের দেশে সমাজতন্ত্র একটি সুবৃহৎ ব্যাপার। ইহাই সমস্ত দেশকে নিয়মিত করিয়া ধারণ করিয়া রাখিয়াছে। ইহাই বিশাল লোকসম্প্রদায়কে অপরাধ হইতে, স্খলন হইতে, রক্ষা করিবার চেষ্টা করিয়া আসিয়াছে। যদি এরূপ না হইত তবে ইংরাজ তাঁহার পুলিস ও ফৌজের দ্বারা এতবড়ো দেশে এমন আশ্চর্য শান্তিস্থাপন করিতে পারিতেন না। নবাব-বাদশাহের আমলেও নানা রাজকীয় অশান্তিসত্ত্বেও সামাজিক শান্তি চলিয়া আসিতেছিল-তখনো লোকব্যবহার শিথিল হয় নাই, আদানপ্রদানে সততা রক্ষিত হইত, মিথ্যা সাক্ষ্য নিন্দিত হইত, ঋণী উত্তমর্ণকে ফাঁকি দিত না এবং সাধারণ ধর্মের বিধানগুলিকে সকলে সরল বিশ্বাসে সম্মান করিত।
সেই বৃহৎ সমাজের আদর্শ রক্ষা করিবার ও বিধিবিধান স্মরণ করাইয়া দিবার ভার ব্রাহ্মণের উপর ছিল। ব্রাহ্মণ এই সমাজের চালক ও ব্যবস্থাপক। এই কার্যসাধনের উপযোগী সম্মানও তাঁহার ছিল।
প্রাচ্যপ্রকৃতির অনুগত এই-প্রকার সমাজবিধানকে যদি নিন্দনীয় বলিয়া না মনে করা যায়, তবে ইহার আদর্শকে চিরকাল বিশুদ্ধ রাখিবার এবং ইহার শৃঙ্খলাস্থাপন করিবার ভার কোনো-এক বিশেষ সম্প্রদায়ের উপর সমর্পণ করিতেই হয়। তাঁহারা জীবনযাত্রাকে সরল ও বিশুদ্ধ করিয়া, অভাবকে সংক্ষিপ্ত করিয়া, অধ্যয়নঅধ্যাপন যজনযাজনকেই ব্রত করিয়া, দেশের উচ্চতম আদর্শকে সমস্ত দোকানদারির কলুষস্পর্শ হইতে রক্ষা করিয়া, সামাজিক যে সম্মান প্রাপ্ত হইতেছেন তাহার যথার্থ অধিকারী হইবেন–এরূপ আশা করা যায়। যথার্থ অধিকার হইতে লোক নিজের দোষে ভ্রষ্ট হয়। ইংরাজের বেলাতেও তাহা দেখিতে পাই। দেশী লোকের প্রতি অন্যায় করিয়া যখন প্রেস্টিজ রক্ষার দোহাই দিয়া ইংরাজ দণ্ড হইতে অব্যাহতি চায়, তখন যথার্থ প্রেস্টিজের অধিকার হইতে নিজেকে বঞ্চিত করে। ন্যায়পরতার প্রেস্টিজ সকল প্রেস্টিজের বড়ো–তাহার কাছে আমাদের মন স্বেচ্ছাপূর্বক মাথা নত করে–বিভীষিকা আমাদিগকে ঘাড়ে ধরিয়া নোয়াইয়া দেয়, সেই প্রণতিঅবমাননার বিরুদ্ধে আমাদের মন ভিতরে ভিতরে বিদ্রোহ না করিয়া থাকিতে পারে না।
ব্রাহ্মণও যখন আপন কর্তব্য পরিত্যাগ করিয়াছে তখন কেবল গায়ের জোরে পরলোকের ভয় দেখাইয়া সমাজের উচ্চতম আসনে আপনাকে রক্ষা করিতে পারে না।
কোনো সম্মান বিনা মূল্যের নহে। যথেচ্ছ কাজ করিয়া সম্মান রাখা যায় না। যে রাজা সিংহাসনে বসেন তিনি দোকান খুলিয়া ব্যবসা চালাইতে পারেন না। সম্মান যাঁহার প্রাপ্য তাঁহাকেই সকল দিকে সর্বদা নিজের ইচ্ছাকে খর্ব করিয়া চলিতে হয়। গৃহের অন্যান্য লোকের অপেক্ষা আমাদের দেশে গৃহকর্তা ও গৃহকর্ত্রীকেই সাংসারিক বিষয়ে অধিক বঞ্চিত হইতে হয়–বাড়ির গৃহিণীই সকলের শেষে অন্ন পান। ইহা না হইলে আত্মম্ভরিতার উপর কর্তৃত্বকে দীর্ঘকাল রক্ষা করা যায় না। সম্মানও পাইবে, অথচ তাহার কোনো মূল্য দিবে না, ইহা কখনোই চিরদিন সহ্য হয় না।
আমাদের আধুনিক ব্রাহ্মণেরা বিনা মূল্যে সম্মান আদায়ের বৃত্তি অবলম্বন করিয়াছিলেন। তাহাতে তাঁহাদের সম্মান আমাদের সমাজে উত্তরোত্তর মৌখিক হইয়া আসিয়াছে। কেবল তাহাই নয়; ব্রাহ্মণেরা সমাজের যে উচ্চকর্মে নিযুক্ত ছিলেন সে কর্মে শৈথিল্য ঘটাতে, সমাজেরও সন্ধিবন্ধন প্রতিদিন বিশ্লিষ্ট হইয়া আসিতেছে।
যদি প্রাচ্যভাবেই আমাদের দেশে সমাজ রক্ষা করিতে হয়, যদি য়ুরোপীয় প্রণালীতে এই বহুদিনের বৃহৎ সমাজকে আমূল পরিবর্তন করা সম্ভবপর বা বাঞ্ছনীয় না হয়, তবে যথার্থ ব্রাহ্মণসম্প্রদায়ের একান্ত প্রয়োজন আছে। তাঁহারা দরিদ্র হইবেন, পণ্ডিত হইবেন, ধর্মনিষ্ঠ হইবেন,সর্বপ্রকার আশ্রমধর্মের আদর্শ ও আশ্রয়-স্বরূপ হইবেন ও গুরু হইবেন।
যে সমাজের একদল ধনমানকে অবহেলা করিতে জানেন, বিলাসকে ঘৃণা করেন–যাঁহাদের আচার নির্মল, ধর্মনিষ্ঠা দৃঢ়, যাঁহারা নিঃস্বার্থভাবে জ্ঞান-অর্জন ও নিঃস্বার্থভাবে জ্ঞান-বিতরণে রত–পরাধীনতা বা দারিদ্র্যে সে সমাজের কোনো অবমাননা নাই। সমাজ যাঁহাকে যথার্থভাবে সম্মাননীয় করিয়া তোলে, সমাজ তাঁহার দ্বারাই সম্মানিত হয়।
সকল সমাজেই মান্যব্যক্তিরা, শ্রেষ্ঠ লোকেরাই, নিজ নিজ সমাজের স্বরূপ। ইংলণ্ডকে যখন আমরা ধনী বলি তখন অগণ্য দরিদ্রকে হিসাবের মধ্যে আনি না। য়ুরোপকে যখন আমরা স্বাধীন বলি, তখন তাহার বিপুল জনসাধারণের দুঃসহ অধীনতাকে গণ্য করি না। সেখানে উপরের কয়েকজন লোকই ধনী, উপরের কয়েকজন লোকই স্বাধীন, উপরের কয়েকজন লোকই পাশবতা হইতে মুক্ত। এই উপরের কয়েকজন লোক যতক্ষণ নিম্নের বহুতর লোককে সুখস্বাস্থ্য জ্ঞানধর্ম দিবার জন্য সর্বদা নিজের ইচ্ছাকে প্রয়োগ ও নিজের সুখকে নিয়মিত করে ততক্ষণ সেই সভ্যসমাজের কোনো ভয় নাই।
য়ুরোপীয় সমাজ এই ভাবে চলিতেছে কি না সে আলোচনা বৃথা মনে হইতে পারে, কিন্তু সম্পূর্ণ বৃথা নহে।
যেখানে প্রতিযোগিতার তাড়নায়, পাশের লোককে ছাড়াইয়া উঠিবার অত্যাকাঙ্ক্ষায়, প্রত্যেককে প্রতি মুহূর্তে লড়াই করিতে হইতেছে, সেখানে কর্তব্যের আদর্শকে বিশুদ্ধ রাখা কঠিন। এবং সেখানে কোনো একটা সীমায় আসিয়া আশাকে সংযত করাও লোকের পক্ষে দুঃসাধ্য হয়।
য়ুরোপের বড়ো বড়ো সাম্রাজ্যগুলি পরস্পর পরস্পরকে লঙ্ঘন করিয়া যাইবার প্রাণপণ চেষ্টা করিতেছে, এ অবস্থায় এমন কথা কাহারো মুখ দিয়া বাহির হইতে পারে না যে, বরঞ্চ পিছাইয়া প্রথম শ্রেণী হইতে দ্বিতীয় শ্রেণীতে পড়িব, তবু অন্যায় করিব না। এমন কথাও কাহারো মনে আসে না যে, বরঞ্চ জলে স্থলে সৈন্যসজ্জা কম করিয়া রাজকীয় ক্ষমতায় প্রতিবেশীর কাছে লাঘব স্বীকার করিব, কিন্তু সমাজের অভ্যন্তরে সুখসন্তোষ ও জ্ঞানধর্মের বিস্তার করিতে হইবে। প্রতিযোগিতার আকর্ষণে যে বেগ উৎপন্ন হয় তাহাতে উদ্দামভাবে চালাইয়া লইয়া যায়–এবং এই দুর্দান্তগতিতে চলাকেই য়ুরোপে উন্নতি কহে, আমরাও তাহাকেই উন্নতি বলিতে শিখিয়াছি। কিন্তু যে চলা পদে পদে থামার দ্বারা নিয়মিত নহে তাহাকে উন্নতি বলা যায় না। যে ছন্দে যতি নাই তাহা ছন্দই নহে। সমাজের পদমূলে সমুদ্র অহোরাত্র তরঙ্গিত ফেনায়িত হইতে পারে, কিন্তু সমাজের উচ্চতম শিখরে শান্তি ও স্থিতির চিরন্তন আদর্শ নিত্যকাল বিরাজমান থাকা চাই।
সেই আদর্শকে কাহারা অটলভাবে রক্ষা করিতে পারে? যাহারা পুরুষানুক্রমে স্বার্থের সংঘর্ষ হইতে দূরে আছে, আর্থিক দারিদ্র্যেই যাহাদের প্রতিষ্ঠা, মঙ্গলকর্মকে যাহারা পণ্যদ্রব্যের মতো দেখে না, বিশুদ্ধ জ্ঞান ও উন্নত ধর্মের মধ্যে যাহাদের চিত্ত অভ্রভেদী হইয়া বিরাজ করে, এবং অন্য-সকল পরিত্যাগ করিয়া সমাজের উন্নততম আদর্শকে রক্ষা করিবার মহদ্ভারই যাঁহাদিগকে পবিত্র ও পূজনীয় করিয়াছে।
য়ুরোপেও অবিশ্রাম কর্মালোড়নের মাঝে মাঝে এক-একজন মনীষী উঠিয়া ঘূর্ণগতির উন্মত্ত নেশার মধ্যে স্থিতির আদর্শ, লক্ষ্যের আদর্শ, পরিণতির আদর্শ ধরিয়া থাকেন। কিন্তু দুই দণ্ড দাঁড়াইয়া শুনিবে কে? সম্মিলিত প্রকাণ্ড স্বার্থের প্রচণ্ড বেগকে এই প্রকারের দুই-একজন লোক তর্জনী উঠাইয়া রুখিবেন কী করিয়া! বাণিজ্য-জাহাজে উনপঞ্চাশ পালে হাওয়া লাগিয়াছে, য়ুরোপের প্রান্তরে উন্মত্ত দর্শকবৃন্দের মাঝখানে সারিসারি যুদ্ধ-ঘোড়ার ঘোড়দৌড় চলিতেছে–এখন ক্ষণকালের জন্য থামিবে কে?
এই উন্মত্ততায়, এই প্রাণপণে নিজ শক্তির একান্ত উদ্ঘট্টনে, আধ্যাত্মিকতার জন্ম হইতে পারে এমন তর্ক আমাদের মনেও ওঠে। এই বেগের আকর্ষণ অত্যন্ত বেশি; ইহা আমাদিগকে প্রলুব্ধ করে; ইহা যে প্রলয়ের দিকে যাইতে পারে, এমন সন্দেহ আমাদের হয় না।
ইহা কী প্রকারের? যেমন চীরধারী যে-একটি দল নিজেকে সাধু ও সাধক বলিয়া পরিচয় দেয় তাহারা গাঁজার নেশাকে আধ্যাত্মিক আনন্দলাভের সাধনা বলিয়া মনে করে। নেশায় একাগ্রতা জন্মে, উত্তেজনা হয়, কিন্তু তাহাতে আধ্যাত্মিক স্বাধীন সবলতা হ্রাস হইতে থাকে। আর-সমস্ত ছাড়া যায়, কিন্তু এই নেশার উত্তেজনা ছাড়া যায় না–ক্রমে মনের বল যত কমিতে থাকে নেশার মাত্রাও তত বাড়াইতে হয়। ঘুরিয়া নৃত্য করিয়া বা সশব্দে বাদ্য বাজাইয়া, নিজেকে উদ্ভ্রান্ত ও মূর্ছান্বিত করিয়া, যে ধর্মোন্মাদের বিলাস সম্ভোগ করা যায় তাহাও কৃত্রিম। তাহাতে অভ্যাস জন্মিয়া গেলে, তাহা অহিফেনের নেশার মতো আমাদিগকে অবসাদের সময় কেবলই তাড়না করিতে থাকে। আত্মসমাহিত শান্ত একনিষ্ঠ সাধনা ব্যতীত যথার্থ স্থায়ী মূল্যবান কোনো জিনিস পাওয়া যায় না ও স্থায়ী মূল্যবান কোনো জিনিস রক্ষা করা যায় না।
অথচ আবেগ ব্যতীত কাজ ও কাজ ব্যতীত সমাজ চলিতে পারে না। এই জন্যই ভারতবর্ষ আপন সমাজে গতি ও স্থিতির সমন্বয় করিতে চাহিয়াছিল। ক্ষত্রিয় বৈশ্য প্রভৃতি যাহারা হাতে কলমে সমাজের কার্যসাধন করে তাহাদের কর্মের সীমা নির্দিষ্ট ছিল। এইজন্যই ক্ষত্রিয় ক্ষাত্রধর্মের আদর্শ রক্ষা করিয়া নিজের কর্তব্যকে ধর্মের মধ্যে গণ্য করিতে পারিত। স্বার্থ ও প্রবৃত্তির ঊর্ধ্বে ধর্মের উপরে কর্তব্য স্থাপন করিলে, কাজের মধ্যেও বিশ্রাম এবং আধ্যাত্মিকতালাভের অবকাশ পাওয়া যায়।
য়ুরোপীয় সমাজ যে নিয়মে চলে তাহাতে গতিজনিত বিশেষ একটা ঝোঁকের মুখেই অধিকাংশ লোককে ঠেলিয়া দেয়। সেখানে বুদ্ধিজীবী লোকেরা রাষ্ট্রীয় ব্যাপারেই ঝুঁকিয়া পড়ে, সাধারণ লোকে অর্থোপার্জনেই ভিড় করে। বর্তমানকালে সাম্রাজ্যলোলুপতা সকলকে গ্রাস করিয়াছে এবং জগৎ জুড়িয়া লঙ্কাভাগ চলিতেছে। এমন সময় হওয়া বিচিত্র নহে যখন বিশুদ্ধজ্ঞানচর্চা যথেষ্ট লোককে আকর্ষণ করিবে না। এমন সময় আসিতে পারে যখন আবশ্যক হইলেও সৈন্য পাওয়া যাইবে না। কারণ, প্রবৃত্তিকে কে ঠেকাইবে? যে জর্মনি একদিন পণ্ডিত ছিল সে জর্মনি যদি বণিক হইয়া দাঁড়ায়, তবে তাহার পাণ্ডিত্য উদ্ধার করিবে কে? যে ইংরাজ একদিন ক্ষত্রিয়ভাবে আর্তত্রাণব্রত গ্রহণ করিয়াছিল সে যখন গায়ের জোরে পৃথিবীর চতুর্দিকে নিজের দোকানদারি চালাইতে ধাবিত হইয়াছে, তখন তাহাকে তাহার সেই পুরাতন উদার ক্ষত্রিয়ভাবে ফিরাইয়া আনিবে কোন্ শক্তিতে? এই ঝোঁকের উপরেই সমস্ত কর্তৃত্ব না দিয়া সংযত সুশৃঙ্খল কর্তব্যবিধানের উপরে কর্তৃত্বভার দেওয়াই ভারতবর্ষীয় সমাজপ্রণালী। সমাজ যদি সজীব থাকে, বাহিরের আঘাতের দ্বারা অভিভূত হইয়া না পড়ে, তবে এই প্রণালী অনুসারে সকল সময়েই সমাজে সামঞ্জস্য থাকে–এক দিকে হঠাৎ হুড়ামুড়ি পড়িয়া অন্য দিক শূন্য হইয়া যায় না। সকলেই আপন আদর্শ রক্ষা করে এবং আপন কাজ করিয়া গৌরব বোধ করে।
কিন্তু কাজের একটা বেগ আছেই। সেই বেগে সে আপনার পরিণাম ভুলিয়া যায়। কাজ তখন নিজেই লক্ষ্য হইয়া উঠে। শুদ্ধমাত্র কর্মের বেগের মুখে নিজেকে ছাড়িয়া দেওয়াতে সুখ আছে। কর্মের ভূত কর্মী লোককে পাইয়া বসে।
শুদ্ধ তাহাই নহে। কার্যসাধনই যখন অত্যন্ত প্রাধান্য লাভ করে তখন উপায়ের বিচার ক্রমেই চলিয়া যায়। সংসারের সহিত, উপস্থিত আবশ্যকের সহিত কর্মীকে নানাপ্রকারে রফা করিয়া চলিতেই হয়।
অতএব যে সমাজে কর্ম আছে সেই সমাজেই কর্মকে সংযত রাখিবার বিধান থাকা চাই, অন্ধ কর্মই যাহাতে মনুষ্যত্বের উপর কর্তৃত্ব লাভ না করে এমন সতর্ক পাহারা থাকা চাই। কর্মিদলকে বরাবর ঠিক পথটি দেখাইবার জন্য, কর্মকোলাহলের মধ্যে বিশুদ্ধ সুরটি বরাবর অবিচলিতভাবে ধরিয়া রাখিবার জন্য, এমন এক দলের আবশ্যক যাঁহারা যথাসম্ভব কর্ম ও স্বার্থ হইতে নিজেকে মুক্ত রাখিবেন। তাঁহারাই ব্রাহ্মণ।
এই ব্রাহ্মণেরাই যথার্থ স্বাধীন। ইঁহারাই যথার্থ স্বাধীনতার আদর্শকে নিষ্ঠার সহিত, কাঠিন্যের সহিত, সমাজে রক্ষা করেন। সমাজ ইঁহাদিগকে সেই অবসর, সেই সামর্থ্য, সেই সম্মান দেয়। ইঁহাদের এই মুক্তি, ইহা সমাজের মুক্তি। ইঁহারা যে সমাজে আপনাকে মুক্তভাবে রাখেন ক্ষুদ্র পরাধীনতায় সে সমাজের কোনো ভয় নাই, বিপদ নাই। ব্রাহ্মণ-অংশের মধ্যে সে সমাজ সর্বদা আপনার মনের–আপনার আত্মার স্বাধীনতা উপলব্ধি করিতে পারে। আমাদের দেশের বর্তমান ব্রাহ্মণগণ যদি দৃঢ়ভাবে উন্নতভাবে অলুব্ধভাবে সমাজের এই পরমধনটি রক্ষা করিতেন তবে ব্রাহ্মণের অবমাননা সমাজ কখনোই ঘটিতে দিত না এবং এমন কথা কখনোই বিচারকের মুখ দিয়া বাহির হইতে পারিত না যে,ভদ্র ব্রাহ্মণকে পাদুকাঘাত করা তুচ্ছ ব্যাপার। বিদেশী হইলেও বিচারক মানী ব্রাহ্মণের মান আপনি বুঝিতে পারিতেন।
কিন্তু যে ব্রাহ্মণ সাহেবের আপিসে নতমস্তকে চাকরি করে, যে ব্রাহ্মণ আপনার অবকাশ বিক্রয় করে, আপনার মহান্ অধিকারকে বিসর্জন দেয়, যে ব্রাহ্মণ বিদ্যালয়ে বিদ্যাবণিক, বিচারালয়ে বিচারব্যবসায়ী, যে ব্রাহ্মণ পয়সার পরিবর্তে আপনার ব্রাহ্মণ্যকে ধিক্কৃত করিয়াছে–সে আপন আদর্শ রক্ষা করিবে কী করিয়া? সমাজ রক্ষা করিবে কী করিয়া? শ্রদ্ধার সহিত তাহার নিকট ধর্মের বিধান লইতে যাইব কী বলিয়া? সে তো সর্বসাধারণের সহিত সমানভাবে মিশিয়া ঘর্মাক্তকলেবরে কাড়কাড়ি-ঠেলাঠেলির কাজে ভিড়িয়া গেছে। ভক্তির দ্বারা সে ব্রাহ্মণ তো সমাজকে ঊর্ধ্বে আকৃষ্ট করে না, নিম্নেই লইয়া যায়।
এ কথা জানি কোনো সম্প্রদায়ের প্রত্যেক লোকই কোনো কালে আপনার ধর্মকে বিশুদ্ধভাবে রক্ষা করে না, অনেকে স্খলিত হয়। অনেকে ব্রাহ্মণ হইয়াও ক্ষত্রিয় ও বৈশ্যের ন্যায় আচরণ করিয়াছে, পুরাণে এরূপ উদাহরণ দেখা যায়। কিন্তু তবু যদি সম্প্রদায়ের মধ্যে আদর্শ সজীব থাকে, ধর্মপালনের চেষ্টা থাকে, কেহ আগে যাক কেহ পিছাইয়া পড়ুক, কিন্তু সেই পথের পথিক যদি থাকে, যদি এই আদর্শের প্রত্যক্ষ দৃষ্টান্ত অনেকের মধ্যে দেখিতে পাওয়া যায়, তবে সেই চেষ্টার দ্বারা, সেই সাধনার দ্বারা, সেই সফলতাপ্রাপ্ত ব্যক্তিদের দ্বারাই সমস্ত সম্প্রদায় সার্থক হইয়া থাকে। আমাদের আধুনিক ব্রাহ্মণসমাজে সেই আদর্শই নাই! সেইজন্যই ব্রাহ্মণের ছেলে ইংরাজি শিখিলেই ইংরাজি কেতা ধরে–পিতা তাহাতে অসন্তুষ্ট হন না। কেন এম. এ. -পাস-করা মুখোপাধ্যায়, বিজ্ঞানবিৎ চট্টোপাধ্যায়, যে বিদ্যা পাইয়াছেন তাহা ছাত্রকে ঘরে ডাকিয়া আসন হইয়া বসিয়া বিতরণ করিতে পারেন না? সমাজকে শিক্ষাঋণে ঋণী করিবার গৌরব হইতে কেন তাঁহারা নিজেকে ও ব্রাহ্মণসমাজকে বঞ্চিত করেন?
তাঁহারা জিজ্ঞাসা করিবেন, খাইব কী? যদি কালিয়া-পোলোয়া না খাইলেও চলে, তবে নিশ্চয়ই সমাজ আপনি আসিয়া যাচিয়া খাওয়াইয়া যাইবে। তাঁহাদের নহিলে সমাজের চলিবে না, পায়ে ধরিয়া সমাজ তাঁহাদিগকে রক্ষা করিবে। আজ তাঁহারা বেতনের জন্য হাত পাতেন, সেইজন্য সমাজ রসিদ লইয়া টিপিয়া টিপিয়া তাঁহাদিগকে বেতন দেয় ও কড়ায় গণ্ডায় তাঁহাদের কাছ হইতে কাজ আদায় করিয়া লয়। তাঁহারাও কলের মতো বাঁধা নিয়মে কাজ করেন; শ্রদ্ধা দেনও না, শ্রদ্ধা পানও না–উপরন্তু মাঝে মাঝে সাহেবের পাদুকা পৃষ্ঠে বহন করা-রূপ অত্যন্ত তুচ্ছ ঘটনার সুবিখ্যাত উপলক্ষ হইয়া উঠেন।
আমাদের সমাজে ব্রাহ্মণের কাজ পুনরায় আরম্ভ হইবে, এ সম্ভাবনাকে আমি সুদূরপরাহত মনে করি না এবং এই আশাকে আমি লঘুভাবে মন হইতে অপসারিত করিতে পারি না। ভারতবর্ষের চিরকালের প্রকৃতি তাহার ক্ষণকালের বিকৃতিকে সংশোধন করিয়া লইবেই।
এই পুনর্জাগ্রত ব্রাহ্মণসমাজের কাজে অব্রাহ্মণ অনেকেও যোগ দিবেন। প্রাচীন ভারতেও ব্রাহ্মণেতর অনেকে ব্রাহ্মণের ব্রত গ্রহণ করিয়া জ্ঞানচর্চা ও উপদেষ্টার কাজ করিয়াছেন, ব্রাহ্মণও তাঁহাদের কাছে শিক্ষালাভ করিয়াছেন, এমন দৃষ্টান্তের অভাব নাই।
প্রাচীনকালে যখন ব্রাহ্মণই একমাত্র দ্বিজ ছিলেন না, ক্ষত্রিয়-বৈশ্যও দ্বিজসম্প্রদায়ভুক্ত ছিলেন, যখন ব্রহ্মচর্য অবলম্বন করিয়া উপযুক্ত শিক্ষালাভের দ্বারা ক্ষত্রিয়-বৈশ্যের উপনয়ন হইত, তখনই এ দেশে ব্রাহ্মণের আদর্শ উজ্জ্বল ছিল। কারণ, চারি দিকের সমাজ যখন অবনত তখন কোনো বিশেষ সমাজ আপনাকে উন্নত রাখিতে পারে না, ক্রমেই নিম্নের আকর্ষণ তাহাকে নীচের স্তরে লইয়া আসে। ভারতবর্ষে যখন ব্রাহ্মণই একমাত্র দ্বিজ অবশিষ্ট রহিল–যখন তাহার আদর্শ স্মরণ করাইয়া দিবার জন্য, তাহার নিকট ব্রাহ্মণত্ব দাবি করিবার জন্য, চারি দিকে আর কেহই রহিল না–তখন তাহার দ্বিজত্বের বিশুদ্ধ কঠিন আদর্শ দ্রুতবেগে ভ্রষ্ট হইতে লাগিল। তখনই সে জ্ঞানে বিশ্বাসে রুচিতে ক্রমশ নিকৃষ্ট অধিকারীর দলে আসিয়া উত্তীর্ণ হইল। চারি দিকে যেখানে গোলপাতার কুঁড়ে সেখানে নিজের বিশিষ্টতা রক্ষা করিতে হইলে একটা আটচালা বাঁধিলেই যথেষ্ট–সেখানে সাত-মহল প্রাসাদ নির্মাণ করিয়া তুলিবার ব্যয় ও চেষ্টা স্বীকার করিতে সহজেই অপ্রবৃত্তি জন্মে।
প্রাচীনকালে ব্রাহ্মণ-ক্ষত্রিয়-বৈশ্য দ্বিজ ছিল, অর্থাৎ সমস্ত আর্যসমাজই দ্বিজ ছিল; শূদ্র বলিতে যে-সকল লোককে বুঝাইত তাহারা সাঁওতাল ভিল কোল ধাঙড়ের দলে ছিল। আর্যসমাজের সহিত তাহাদের শিক্ষা রীতিনীতি ও ধর্মের সম্পূর্ণ ঐক্যস্থাপন একেবারেই অসম্ভব ছিল। কিন্তু তাহাতে কোনো ক্ষতি ছিল না, কারণ, সমস্ত আর্যসমাজই দ্বিজ ছিল–অর্থাৎ আর্যসমাজের শিক্ষা একই রূপ ছিল। প্রভেদ ছিল কেবল কর্মে। শিক্ষা একই থাকায় পরস্পর পরস্পরকে আদর্শের বিশুদ্ধিরক্ষায় সম্পূর্ণ আনুকূল্য করিতে পারিত। ক্ষত্রিয় এবং বৈশ্য ব্রাহ্মণকে ব্রাহ্মণ হইতে সাহায্য করিত এবং ব্রাহ্মণও ক্ষত্রিয়-বৈশ্যকে ক্ষত্রিয়-বৈশ্য হইতে সাহায্য করিত। সমস্ত সমাজের শিক্ষার আদর্শ সমান উন্নত না হইলে এরূপ কখনোই ঘটিতে পারে না।
বর্তমান সমাজেরও যদি একটা মাথার দরকার থাকে, সেই মাথাকে যদি উন্নত করিতে হয় এবং সেই মাথাকে যদি ব্রাহ্মণ বলিয়া গণ্য করা যায়, তবে তাহার স্কন্ধকে ও গ্রীবাকে একেবারে মাটির সমান করিয়া রাখিলে চলিবে না। সমাজ উন্নত না হইলে তাহার মাথা উন্নত হয় না, এবং সমাজকে সর্বপ্রযত্নে উন্নত করিয়া রাখাই সেই মাথার কাজ।
আমাদের বর্তমান সমাজের ভদ্রসম্প্রদায়–অর্থাৎ বৈদ্য কায়স্থ ও বণিক-সম্প্রদায়–সমাজ যদি ইঁহাদিগকে দ্বিজ বলিয়া গণ্য না করে তবে ব্রাহ্মণের আর উত্থানের আশা নাই। এক পায়ে দাঁড়াইয়া সমাজ বকবৃত্তি করিতে পারে না।
বৈদ্যেরা তো উপবীত গ্রহণ করিয়াছেন। মাঝে মাঝে কায়স্থেরা বলিতেছেন তাঁহারা ক্ষত্রিয়, বণিকেরা বলিতেছেন তাঁহারা বৈশ্য–এ কথা অবিশ্বাস করিবার কোনো কারণ দেখি না। আকারপ্রকার বুদ্ধি ও ক্ষমতা, অর্থাৎ আর্যত্বের লক্ষণে, বর্তমান ব্রাহ্মণের সহিত ইঁহাদের প্রভেদ নাই। বঙ্গদেশের যে-কোনো সভায় পইতা না দেখিলে, ব্রাহ্মণের সহিত কায়স্থ সুবর্ণবণিক প্রভৃতিদের তফাত করা অসম্ভব। কিন্তু যথার্থ অনার্য অর্থাৎ ভারতবর্ষীয় বন্যজাতির সহিত তাঁহাদের তফাত করা সহজ। বিশুদ্ধ আর্যরক্তের সহিত অনার্যরক্তের মিশ্রণ হইয়াছে, তাহা আমাদের বর্ণে আকৃতিতে ধর্মে আচারে ও মানসিক দুর্বলতায় স্পষ্ট বুঝা যায়–কিন্তু সে মিশ্রণ ব্রাহ্মণ ক্ষত্রিয় বৈশ্য সকল সম্প্রদায়ের মধ্যেই রহিয়াছে।
তথাপি এই মিশ্রণ এবং বৌদ্ধযুগের সামাজিক অরাজকতার পরেও সমাজ ব্রাহ্মণকে একটা বিশেষ গণ্ডি দিয়া রাখিয়াছে। কারণ, আমাদের সমাজের যেরূপ গঠন, তাহাতে ব্রাহ্মণকে নহিলে তাহার সকল দিকেই বাধে, আত্মরক্ষার জন্য যেমন তেমন করিয়া ব্রাহ্মণকে সংগ্রহ করিয়া রাখা চাই। আধুনিক ইতিহাসে এমনও দেখা যায়, কোনো কোনো স্থানে বিশেষ-প্রয়োজন-বশত রাজা পইতা দিয়া একদল ব্রাহ্মণ তৈরি করিয়াও লইয়াছেন। বাংলাদেশে যখন ব্রাহ্মণেরা আচারে ব্যবহারে বিদ্যাবুদ্ধিতে ব্রাহ্মণত্ব হারাইয়াছিলেন তখন রাজা বিদেশ হইতে ব্রাহ্মণ আনাইয়া সমাজের কাজ চালাইতে বাধ্য হইয়াছিলেন। এই ব্রাহ্মণ যখন চারি দিকের প্রভাবে নত হইয়া পড়িতেছিল তখন রাজা কৃত্রিম উপায়ে কৌলীন্য স্থাপন করিয়া ব্রাহ্মণের নির্বাণোন্মুখ মর্যাদাকে খোঁচা দিয়া জাগাইতেছিলেন। অপর পক্ষে, কৌলীন্যে বিবাহসম্বন্ধে যেরূপ বর্বরতার সৃষ্টি করিল তাহাতে এই কৌলীন্যই বর্ণমিশ্রণের এক গোপন উপায় হইয়া উঠিয়াছিল।
যাহাই হউক, শাস্ত্রবিহিত ক্রিয়াকর্ম রক্ষার জন্য, বিশেষ আবশ্যকতাবশতই, সমাজ বিশেষ চেষ্টায় ব্রাহ্মণকে স্বতন্ত্রভাবে নির্দিষ্ট করিয়া রাখিতে বাধ্য হইয়াছিল। ক্ষত্রিয়-বৈশ্যদিগকে সেরূপ বিশেষভাবে তাহাদের পূর্বতন আচার কাঠিন্যের মধ্যে বদ্ধ করিবার কোনো অত্যাবশ্যকতা বাংলাসমাজে ছিল না। যে খুশি যুদ্ধ করুক, বাণিজ্য করুক, তাহাতে সমাজের বিশেষ কিছু আসিত যাইত না–এবং যাহারা যুদ্ধ বাণিজ্য কৃষি শিল্পে নিযুক্ত থাকিবে তাহাদিগকে বিশেষ চিহ্নের দ্বারা পৃথক করিবার কিছুমাত্র প্রয়োজন ছিল না। ব্যবসায় লোকে নিজের গরজেই করে, কোনো বিশেষ ব্যবস্থার অপেক্ষা রাখে না–ধর্মসম্বন্ধে সে বিধি নহে; তাহা প্রাচীন নিয়মে আবদ্ধ, তাহার আয়োজন রীতিপদ্ধতি আমাদের স্বেচ্ছাবিহিত নহে।
অতএব জড়ত্বপ্রাপ্ত সমাজের শৈথিল্যবশতই এক সময়ে ক্ষত্রিয়-বৈশ্য আপন অধিকার হইতে ভ্রষ্ট হইয়া একাকার হইয়া গেছে। তাঁহারা যদি সচেতন হন, যদি তাঁহারা নিজের অধিকার যথার্থভাবে গ্রহণ করিবার জন্য অগ্রসর হন, নিজের গৌরব যথার্থভাবে প্রমাণ করিবার জন্য উদ্যত হন, তবে তাহাতে সমস্ত সমাজের পক্ষে মঙ্গল, ব্রাহ্মণদের পক্ষে মঙ্গল।
ব্রাহ্মণদিগকে নিজের যথার্থ গৌরব লাভ করিবার জন্য যেমন প্রাচীন আদর্শের দিকে যাইতে হইবে, সমস্ত সমাজকেও তেমনি যাইতে হইবে; ব্রাহ্মণ কেবল একলা যাইবে এবং আর-সকলে যে যেখানে আছে সে সেখানেই পড়িয়া থাকিবে, ইহা হইতেই পারে না। সমস্ত সমাজের এক দিকে গতি না হইলে তাহার কোনো এক অংশ সিদ্ধিলাভ করিতে পারে না। যখন দেখিব আমাদের দেশের কায়স্থ ও বণিকগণ আপনাদিগকে প্রাচীন ক্ষত্রিয় ও বৈশ্য-সমাজের সহিত যুক্ত করিয়া বৃহৎ হইবার, বহু পুরাতনের সহিত এক হইবার চেষ্টা করিতেছেন এবং প্রাচীন ভারতের সহিত আধুনিক ভারতকে সম্মিলিত করিয়া আমাদের জাতীয় সত্তাকে অবিচ্ছিন্ন করিবার চেষ্টা করিতেছেন, তখনই জানিব আধুনিক ব্রাহ্মণ ও প্রাচীন ব্রাহ্মণের সহিত মিলিত হইয়া ভারতবর্ষীয় সমাজকে সজীবভাবে যথার্থভাবে অখন্ডভাবে এক করিবার কার্যে সফল হইবেন। নহিলে কেবল স্থানীয় কলহবিবাদ দলাদলি লইয়া বিদেশী প্রভাবের সাংঘাতিক অভিঘাত হইতে সমাজকে রক্ষা করা অসম্ভব হইবে, নহিলে ব্রাহ্মণের সম্মান অর্থাৎ আমাদের সমস্ত সমাজের সম্মান ক্রমে তুচ্ছ হইতে তুচ্ছতম হইয়া আসিবে। আমাদের সমস্ত সমাজ প্রধানতই দ্বিজসমাজ; ইহা যদি না হয়, সমাজ যদি শুদ্রসমাজ হয়, তবে কয়েকজনমাত্র ব্রাহ্মণকে লইয়া এ সমাজ য়ুরোপীয় আদর্শেও খর্ব হইবে, ভারতবর্ষীয় আদর্শেও খর্ব হইবে।
সমস্ত উন্নত সমাজই সমাজস্থ লোকের নিকট প্রাণের দাবি করিয়া থাকে,আপনাকে নিকৃষ্ট বলিয়া স্বীকার করিয়া আরামে জড়ত্বসুখভোগে যে সমাজ আপনার অধিকাংশ লোককে প্রশ্রয় দিয়া থাকে সে সমাজ মরে, এবং না’ও যদি মরে তবে তাহার মরাই ভালো।
য়ুরোপ কর্মের উত্তেজনায়, প্রবৃত্তির উত্তেজনায় সর্বাদাই প্রাণ দিতে প্রস্তুত–আমরা যদি ধর্মের জন্য প্রাণ দিতে প্রস্তুত না হই তবে সে প্রাণ অপমানিত হইতে থাকিলে অভিমান প্রকাশ করা আমাদের শোভা পায় না।
য়ুরোপীয় সৈন্য যুদ্ধানুরাগের উত্তেজনায় ও বেতনের লোভে ও গৌরবের আশ্বাসে প্রাণ দেয়, কিন্তু ক্ষত্রিয় উত্তেজনা ও বেতনের অভাব ঘটিলেও যুদ্ধে প্রাণ দিতে প্রস্তুত থাকে। কারণ, যুদ্ধ সমাজের অত্যাবশ্যক কর্ম, এক সম্প্রদায় যদি নিজের ধর্ম বলিয়াই সেই কঠিন কর্তব্যকে গ্রহণ করেন তবে কর্মের সহিত ধর্মরক্ষা হয়। দেশ-সুদ্ধ সকলে মিলিয়াই যুদ্ধের জন্য প্রস্তুত হইলে মিলিটারিজ্ম’এর প্রাবল্যে দেশের গুরুতর অনিষ্ট ঘটে।
বাণিজ্য সমাজরক্ষার পক্ষে অত্যাবশ্যক কর্ম। সেই সামাজিক আবশ্যকপালনকে এক সম্প্রদায় যদি আপন সাম্প্রদায়িক ধর্ম, আপন কৌলিক গৌরব বলিয়া গ্রহণ করেন, তবে বণিকবৃত্তি সর্বত্রই পরিব্যাপ্ত হইয়া সমাজের অন্যান্য শক্তিকে গ্রাস করিয়া ফেলে না। তা ছাড়া কর্মের মধ্যে ধর্মের আদর্শ সর্বদাই জাগ্রত থাকে।
ধর্ম এবং জ্ঞানার্জন, যুদ্ধ এবং রাজকার্য, বাণিজ্য এবং শিল্পচর্চা–সমাজের এই তিন অত্যাবশ্যক কর্ম। ইহার কোনোটাকেই পরিত্যাগ করা যায় না। ইহার প্রত্যেকটিকেই ধর্মগৌরব কুলগৌরব দান করিয়া সম্প্রদায়বিশেষের হস্তে সমর্পন করিলে তাহাদিগকে সীমাবদ্ধও করা হয়, অথচ বিশেষ উৎকর্ষসাধনেরও অবসর দেওয়া হয়।
কর্মের উত্তেজনাই পাছে কর্তা হইয়া আমাদের আত্মাকে অভিভূত করিয়া দেয়, ভারতবর্ষের এই আশঙ্কা ছিল। তাই ভারতবর্ষে সামাজিক মানুষটি লড়াই করে, বাণিজ্য করে, কিন্তু নিত্যমানুষটি, সমগ্র মানুষটি শুধুমাত্র সিপাই নহে, শুধুমাত্র বণিক নহে। কর্মকে কুলব্রত করিলে, কর্মকে সামাজিক ধর্ম করিয়া তুলিলে, তবে কর্মসাধনও হয়, অথচ সেই কর্ম আপন সীমা লঙ্ঘন করিয়া, সমাজের সামঞ্জস্য ভঙ্গ করিয়া, মানুষের সমস্ত মনুষ্যত্বকে আচ্ছন্ন করিয়া, আত্মার রাজসিংহাসন অধিকার করিয়া বসে না।
যাঁহারা দ্বিজ তাঁহাদিগকে এক সময় কর্ম পরিত্যাগ করিতে হয়। তখন তাঁহারা আর ব্রাহ্মণ নহেন, ক্ষত্রিয় নহেন, বৈশ্য নহেন–তখন তাঁহারা নিত্যকালের মানুষ–তখন কর্ম তাঁহাদের পক্ষে আর ধর্ম নহে, সুতরাং অনায়াসে পরিহার্য। এইরূপে দ্বিজসমাজ বিদ্যা এবং অবিদ্যা উভয়কে রক্ষা করিয়াছিলেন–তাঁহারা বলিয়াছিলেন, অবিদ্যয়া মৃত্যুং তীর্ত্বা বিদ্যয়ামৃতমশ্নুতে, অবিদ্যার দ্বারা মৃত্যু উত্তীর্ণ হইয়া বিদ্যার দ্বারা অমৃত লাভ করিবে। এই সংসারই মৃত্যুনিকেতন, ইহাই অবিদ্যা–ইহাকে উত্তীর্ণ হইতে হইলে ইহার ভিতর দিয়াই যাইতে হয়; কিন্তু এমনভাবে যাইতে হয়, যেন ইহাই চরম না হইয়া উঠে। কর্মকেই একান্ত প্রাধান্য দিলে সংসারই চরম হইয়া উঠে; মৃত্যুকে উত্তীর্ণ হওয়া যায় না; অমৃত লাভ করিবার লক্ষ্যই ভ্রষ্ট হয়, তাহার অবকাশই থাকে না। এইজন্যই কর্মকে সীমাবদ্ধ করা, কর্মকে ধর্মের সহিত যুক্ত করা–কর্মকে প্রবৃত্তির হাতে, উত্তেজনার হাতে, কর্মজনিত বিপুল বেগের হাতে, ছাড়িয়া না দেওয়া–এবং এইজন্যই ভারতবর্ষে কর্মভেদ বিশেষ বিশেষ জনশ্রেণীতে নির্দিষ্ট করা।
ইহাই আদর্শ। ধর্ম ও কর্মের সামঞ্জস্য রক্ষা করা এবং মানুষের চিত্ত হইতে কর্মের নানা পাশ শিথিল করিয়া তাহাকে এক দিকে সংসারব্রতপরায়ণ অন্য দিকে মুক্তির অধিকারী করিবার অন্য কোনো উপায় তো দেখি না। এই আদর্শ উন্নততম আদর্শ, এবং ভারতবর্ষের আদর্শ। এই আদর্শে বর্তমান সমাজকে সাধারণভাবে অধিকৃত ও চালিত করিবার উপায় কী, তাহা আমাদিগকে চিন্তা করিতে হইবে। সমাজের সমস্ত বন্ধন ছেদন করিয়া কর্মকে ও প্রবৃত্তিকে উদ্দাম করিয়া তোলা–সেজন্য কাহাকেও চেষ্টা করিতে হয় না। সমাজের সে অবস্থা জড়ত্বের দ্বারা, শৈথিল্যের দ্বারা আপনি আসিতেছে। বিদেশী শিক্ষার প্রাবল্যে, দেশের অর্থনৈতিক অবস্থার প্রতিকূলতায়, এই ভারতবর্ষীয় আদর্শ সত্বর এবং সহজে সমস্ত সমাজকে অধিকার করিতে পারিবে না–ইহা আমি জানি। কিন্তু য়ুরোপীয় আদর্শ অবলম্বন করাই যে আমাদের পক্ষে সহজ এ দুরাশাও আমার নাই। সর্বপ্রকার আদর্শ পরিত্যাগ করাই সর্বাপেক্ষা সহজ, এবং সেই সহজ পথই আমরা অবলম্বন করিয়াছি। য়ুরোপীয় সভ্যতার আদর্শ এমন একটা আলগা জিনিস নহে যে, তাহা পাকা ফলটির মতো পাড়িয়া লইলেই কবলের মধ্যে অনায়াসে স্থান পাইতে পারে।
সকল পুরাতন ও বৃহৎ আদর্শের মধ্যেই বিনাশ ও রক্ষার একটি সামঞ্জস্য আছে। অর্থাৎ তাহার শক্তি বাড়াবাড়ি করিয়া মরিতে চায়, তাহার অন্য শক্তি তাহাকে সংযত করিয়া রক্ষা করে। আমাদের শরীরেও যন্ত্রবিশেষের যতটুকু কাজ প্রয়োজনীয়, তাহার অতিরিক্ত অনিষ্টকর, সেই কাজটুকু আদায় করিয়া সেই অকাজটুকুকে বহিস্কৃত করিবার ব্যবস্থা আমাদের শরীরতন্ত্রে রহিয়াছে; পিত্তের দরকারটুকু শরীর লয়, অদরকারটুকু বর্জন করিবার ব্যবস্থা করিতে থাকে।
এই-সকল সুব্যবস্থা অনেকদিনের ক্রিয়া প্রক্রিয়া প্রতিক্রিয়া-দ্বারা উৎকর্ষ লাভ করিয়া সমাজের শরীরবিধানকে পরিণতি দান করিয়াছে। আমরা অন্যের নকল করিবার সময় সেই সমগ্র স্বাভাবিক ব্যবস্থাটি গ্রহণ করিতে পারি না। সুতরাং অন্য সমাজে যাহা ভালো করে, নকলকারীর সমাজে তাহাই মন্দের কারণ হইয়া উঠে। য়ুরোপীয় মানবপ্রকৃতি সুদীর্ঘকালের কার্যে যে সভ্যতা-বৃক্ষটিকে ফলবান করিয়া তুলিয়াছে, তাহার দুটোএকটা ফল চাহিয়া-চিন্তিয়া লইতে পারি, কিন্তু সমস্ত বৃক্ষকে আপনার করিতে পারি না। তাহাদের সেই অতীতকাল আমাদের অতীত।
কিন্তু আমাদের ভারতবর্ষের অতীত যদি বা যত্নের অভাবে আমাদিগকে ফল দেওয়া বন্ধ করিয়াছে তবু সেই বৃহৎ অতীত ধ্বংস হয় নাই, হইতে পারে না; সেই অতীতই ভিতরে থাকিয়া আমাদের পরের নকলকে বারংবার অসংগত ও অকৃতকার্য করিয়া তুলিতেছে। সেই অতীতকে অবহেলা করিয়া যখন আমরা নূতনকে আনি তখন অতীত নিঃশব্দে তাহার প্রতিশোধ লয়–নূতনকে বিনাশ করিয়া, পচাইয়া, বায়ু দূষিত করিয়া দেয়। আমরা মনে করিতে পারি, এইটে আমাদের নূতন দরকার, কিন্তু অতীতের সঙ্গে সম্পূর্ণ আপসে যদি রফা নিষ্পত্তি না করিয়া লইতে পারি, তবে আবশ্যকের দোহাই পাড়িয়াই যে দেউড়ি খোলা পাইব তাহা কিছুতেই নহে। নূতনটাকে সিঁধ কাটিয়া প্রবেশ করাইলেও, নূতনে পুরাতনে মিশ না খাইলে সমস্তই পণ্ড হয়।
সেইজন্য আমাদের অতীতকেই নূতন বল দিতে হইবে, নূতন প্রাণ দিতে হইবে। শুষ্কভাবে শুদ্ধ বিচারবিতর্কের দ্বারা সে প্রাণসঞ্চার হইতে পারে না। যেরূপ ভাবে চলিতেছে সেইরূপ ভাবে চলিয়া যাইতে দিলেও কিছুই হইবে না। প্রাচীন ভারতের মধ্যে যে একটি মহান্ ভাব ছিল, যে ভাবের আনন্দে আমাদের মুক্তহৃদয় পিতামহগণ ধ্যান করিতেন, ত্যাগ করিতেন, কাজ করিতেন, প্রাণ দিতেন, সেই ভাবের আনন্দে, সেই ভাবের অমৃতে আমাদের জীবনকে পরিপূর্ণ করিয়া তুলিলে, সেই আনন্দই অপূর্ব শক্তিবলে বর্তমানের সহিত অতীতের সমস্ত বাধাগুলি অভাবনীয়রূপে বিলুপ্ত করিয়া দিবে। জটিল ব্যাখ্যার দ্বারা জাদু করিবার চেষ্টা না করিয়া, অতীতের রসে হৃদয়কে পরিপূর্ণ করিয়া দিতে হইবে। তাহা দিলেই আমাদের প্রকৃতি আপনার কাজ আপনি করিতে থাকিবে। সেই প্রকৃতি যখন কাজ করে তখনই কাজ হয়–তাহার কাজের হিসাব আমরা কিছুই জানি না–কোনো বুদ্ধিমান লোকে বা বিদ্বান লোকে এই কাজের নিয়ম বা উপায় কোনোমতেই আগে হইতে বলিয়া দিতে পারে না। তর্কের দ্বারা তাহারা যেগুলিকে বাধা মনে করে সেই বাধাগুলিও সহায়তা করে, যাহাকে ছোটো বলিয়া প্রমাণ করে সেও বড়ো হইয়া উঠে।
কোনো জিনিসকে চাই বলিলেই পাওয়া যায় না অতীতের সাহায্য এক্ষণে আমাদের দরকার হইয়াছে বলিলেই যে তাহাকে সর্বতোভাবে পাওয়া যাইবে তাহা কখনোই না। সেই অতীতের ভাবে যখন আমাদের বুদ্ধি-মন-প্রাণ অভিষিক্ত হইয়া উঠিবে তখন দেখিতে পাইব, নব নব আকারে নব নব বিকাশে আমাদের কাছে সেই পুরাতন, নবীন হইয়া, প্রফুল্ল হইয়া ব্যক্ত হইয়া উঠিয়াছে–তখন তাহা শ্মশানশয্যার নীরস ইন্ধন নহে, জীবননিকুঞ্জের ফলবান বৃক্ষ হইয়া উঠিয়াছে। অকস্মাৎ উদ্বেলিত সমুদ্রের বন্যার ন্যায় যখন আমাদের সমাজের মধ্যে ভাবের আনন্দ প্রবাহিত হইবে তখন আমাদের দেশে এই-সকল প্রাচীন নদীপথগুলিই কূলে কূলে পরিপূর্ণ হইয়া উঠিবে। তখন স্বভাবতই আমাদের দেশ ব্রহ্মচর্যে জাগিয়া উঠিবে, সামসংগীতধ্বনিতে জাগিয়া উঠিবে, ব্রাহ্মণে ক্ষত্রিয়ে বৈশ্যে জাগিয়া উঠিবে। যে পাখিরা প্রভাতকালে তপোবনে গান গাহিত তাহারাই গাহিয়া উঠিবে, দাঁড়ের কাকাতুয়া বা খাঁচার কেনারি-নাইটিঙ্গেল নহে।
আমাদের সমস্ত সমাজ সেই প্রাচীন দ্বিজত্বকে লাভ করিবার জন্য চঞ্চল হইয়া উঠিতেছে, প্রত্যহ তাহার পরিচয় পাইয়া মনে আশার সঞ্চার হইতেছে। এক সময় আমাদের হিন্দুত্ব গোপন করিবার, বর্জন করিবার জন্য আমাদের চেষ্টা হইয়াছিল–সেই আশায় আমরা অনেকদিন চাঁদনির দোকানে ফিরিয়াছি ও চৌরঙ্গি-অঞ্চলের দেউড়িতে হাজরি দিয়াছি। আজ যদি আপনাদিগকে ব্রাহ্মণ ক্ষত্রিয় বৈশ্য বলিয়া প্রতিপন্ন করিবার উচ্চাকাঙ্খা আমাদের মনে জাগিয়া থাকে, যদি আমাদের সমাজকে পৈতৃক গৌরবে গৌরবান্বিত করিয়াই মহত্বলাভ করিতে ইচ্ছা করিয়া থাকি, তবে তো আমাদের আনন্দের দিন। আমরা ফিরিঙ্গি হইতে চাই না, আমরা দ্বিজ হইতে চাই। ক্ষুদ্র বুদ্ধিতে ইহাতে যাঁহারা বাধা দিয়া অনর্থক কলহ করিতে বসেন, তর্কের ধুলায় ইহার সুদূরব্যাপী সফলতা যাঁহারা না দেখিতে পান, বৃহৎ ভাবের মহত্বের কাছে আপনাদের ক্ষুদ্র পাণ্ডিত্যের ব্যর্থ বাদবিবাদ যাঁহারা লজ্জার সহিত নিরস্ত না করেন, তাঁহারা যে সমাজের আশ্রয়ে মানুষ হইয়াছেন সেই সমাজেরই শত্রু। দীর্ঘকাল হইতে ভারতবর্ষ আপন ব্রাহ্মণ ক্ষত্রিয় বৈশ্য সমাজকে আহ্বান করিতেছে। য়ুরোপ তাহার জ্ঞানবিজ্ঞানকে বহুতর ভাগে বিভক্ত বিচ্ছিন্ন করিয়া তুলিয়া বিহ্বল বুদ্ধিতে তাহার মধ্যে সম্প্রতি ঐক্য সন্ধান করিয়া ফিরিতেছে–ভারতবর্ষের সেই ব্রাহ্মণ কোথায় যিনি স্বভাবসিদ্ধপ্রতিভাবলে অতি অনায়াসেই সেই বিপুল জটিলতার মধ্যে ঐক্যের নিগূঢ় সরল পথ নির্দেশ করিয়া দিবেন? সেই ব্রাহ্মণকে ভারতবর্ষ নগরকোলাহল ও স্বার্থসংগ্রামের বাহিরে তপোবনে ধ্যানাসনে অধ্যাপকের বেদীতে আহ্বান করিতেছে–ব্রাহ্মণকে তাহার সমস্ত অবমাননা হইতে দূরে আকর্ষণ করিয়া ভারতবর্ষ আপনার অবমাননা দূর করিতে চাহিতেছে। বিধাতার আশীর্বাদে ব্রাহ্মণের পাদুকাঘাতলাভ হয়তো ব্যর্থ হইবে না। নিদ্রা অত্যন্ত গভীর হইলে এইরূপ নিষ্ঠুর আঘাতেই তাহা ভাঙাইতে হয়। য়ুরোপের কর্মিগণ কর্মজালে জড়িত হইয়া তাহা হইতে নিস্কৃতির কোনো পথ খুঁজিয়া পাইতেছে না, সে নানা দিকে নানা আঘাত করিতেছে–ভারতবর্ষে যাঁহারা ক্ষাত্রব্রত বৈশ্যব্রত গ্রহণ করিবার অধিকারী আজ তাঁহারা ধর্মের দ্বারা কর্মকে জগতে গৌরবান্বিত করুন–তাঁহারা প্রবৃত্তির অনুরোধে নহে, উত্তেজনার অনুরোধে নহে, ধর্মের অনুরোধেই অবিচলিত নিষ্ঠার সহিত, ফলকামনায় একান্ত আসক্ত না হইয়া, প্রাণ সমর্পন করিতে প্রস্তুত হউন। নতুবা ব্রাহ্মণ প্রতিদিন শূদ্র, সমাজ প্রত্যহ ক্ষুদ্র এবং প্রাচীন ভারতবর্ষের মাহাত্ম্য যাহা অটল পর্বতশৃঙ্গের ন্যায় দৃঢ় ছিল তাহা দূরস্মৃত ইতিহাসের দিক্প্রান্তে মেঘের ন্যায়, কুহেলিকার ন্যায়, বিলীন হইয়া যাইবে এবং কর্মক্লান্ত একটি বৃহৎ কেরানি সম্প্রদায় এক পাটি বৃহৎ পাদুকা প্রাণপণে আকর্ষণ করিয়া ক্ষুদ্র কৃষ্ণপিপীলিকাশ্রেণীর মতো মৃত্তিকাতলবর্তী বিবরের অভিমুখে ধাবিত হওয়াকেই জীবনযাত্রানির্বাহের একমাত্র পদ্ধতি বলিয়া গণ্য করিবে।
No comments:
Post a Comment