रवींद्र का दलित विमर्श-27
ताशेर देशःमनुस्मृति व्यवस्था के फासीवाद पर तीखा प्रहार
नर्मदा बांध विरोधी आंदोलन के खिलाफ दैवी सत्ता का आवाहन ,हिटलर की आर्य विशुद्धता का सिद्धांत और नरहसंहार कार्यक्रम
पलाश विश्वास
नर्मदा बांध के खिलाफ आदिवासियों और किसानों के आंदोलन का दमन का सिलसिला जारी रखते हुए आज इसे देश के नाम समर्पित करते हुए दावा किया गया कि इसके निर्माण में विदेशी कर्ज की जगह मंदिरों के धन का इस्तेमाल किया गया है।यह दावा किसान आदिवासी विरोधी नर्मदा घाटी की पूरी आबादी को डूब में शामिल करने वाले इस विध्वंसक निर्माण कार्य को धर्म और धर्म स्थल से जोड़ने का विशुद्ध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का आवाहन है जिसके तहत प्रकृति और मनुष्यविरोधी इस बड़े बांध के निर्माण का विरोध करने वालों को जनमानस में राष्ट्रद्रोही बनाया जा सके।
हमने रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या और उनके मानवाधिकार हनन को समर्थन करने के पश्चिमी धर्मयुद्ध से जनमे राष्ट्रवाद की चर्चा करते हुए राजसत्ता के दैवीसत्ता में बदल जाने की चर्चा की है।नर्मदा बांध में इसी दैवी सत्ता का आवाहन किया जा रहा है।
रवींद्र नाथ के तासेर घर की फंतासी को रवींद्र के अंध राष्ट्रवाद के विरोध के मद्देनजर फासीवाद के विरोध के रुप में देखा जाता है।विचारधारा के तहत मनुष्यों को अनुशासित सैन्यदल या ताश के पत्तों में बदल देने की फासिस्ट राष्ट्रवाद के खिलाफ यह प्रतिरोध है।
हम मजहबी राजनीति में इस तरह जनसमुदायों को वोटबैंक राजनीति के तहत कार्ड और ट्रंप कार्ड में तब्दील होते देख रहे हैं।इस सिलसिले में हम ओबीसी ट्रंप कार्ड की चर्चा करते रहे हैं तो दलित और मुसलमान ट्रंप कार्डों का चलन शुरु से हो रहा है।
आज भी हम मजहबी सियासत और फासिज्म के राजकाज में मनुष्यों को पैदल सेनाओं में तब्दील होते हुए देख रहे हैं और कार्ड बनते जाने की नियति आज आधार कार्ड से लेकर आटोमेशन,आर्टिफिशियल टैलेंट और रोबोटिक्स का डिजिटल इंडिया का घनघोर वास्तव है जहां नागरिक और मानवाधिकार,मनुष्यता,सभ्यता और नागरिकता निषिद्ध है तो कुलीनों के सिवाय बाकी जनता वध्य है और पूरा देश एक अनंत वधस्थल है।लेकिन ताश के घर में जिस द्वीप राष्ट्र की बात की जा रही है,वहीं की रेजीमेंटेड जनगण की तरह इस नरसंहार संस्कृति के विरुद्ध सन्नाटा है और जीवन यापन उसी विशुद्धता के मनुस्मृति विधान को सख्ती से मानकर चलना है।
फिरभी इसमें वर्णव्यवस्था के नस्ली राष्ट्रवाद और मनुस्मृति व्यवस्था का जो खुल्ला विरोध रवींद्र नाथ ने किया है,उस पर कहीं चर्चा उसी तरह नहीं होती जैसे कि चंडालिका और रक्तकरबी में अस्पृश्यता के खिलाफ मनुष्यता के मुक्तिसंग्राम के बारे में कोई विमर्श नहीं है।चंडालिका में बौद्ध दर्शन की चर्चा होती है तो रक्तकरबी में स्वतंत्रत्रा संघर्ष की चर्चा होती है,लस्ली वर्चस्व की सामाजिक विषमत और इसके विरुद्ध न्याय और समानता के लिए रवींद्र नाथ की रचनाधर्मिता की नहीं।
1933 में इस नृत्यनाटिका का प्रकाशन हुआ और 1933 में ही हिटलर का जर्मनी के शासक के रुप में अभ्युत्थान हुआ लेकिन यहूदियों और कम्युनिस्टों के सफाये के घोषित लक्ष्य को लेकर हिटलर ने नाजी पार्टी की स्थापना 1923 में ही कर दी थी।प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार के लिए हिटलर ने यहूदियों को उसीतरह जिम्मेदार ठहराया,जिस तरह भारत में ब्रिटिश हुकूमत का साथ देनेवाले हिंदुत्ववादियों की भूमिका को सिरे से नजरअंदाज करके भारत विभाजन के लिए भारत में संस्थागत फासिस्ट रंगभेदी नस्ली राजनीति मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराती है।
जिस तरह अच्छे दिन के वायदे और नये खुशहाल बारत के निर्माण के वायदे से भारत में फासिज्म की सत्ता मनुस्मृति व्यवस्था नये सिरे से चलाने में कामयाब हो रही है,ठीक उसीतरह पश्चिम के धर्मयुद्ध मार्फत दैवीसत्ता बहाल करने के नाजी फासी विशुद्धता की विचारधारा के तहत हिटलर ने जर्मनी को आर्थिक संकट से उबारकर उसका कायाकल्प के तहत युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद के तहत जर्मन जनता का समर्थन लूटकर नाजी राजकाज चलाने में कामयाब हो गये।
गौरतलब है कि हिटलर ने भूमिसुधार करने, वर्साई संधि को समाप्त करने और एक विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य जनता के सामने रखा जिससे जर्मन लोग सुख से रह सकें। इस प्रकार 1922 ई. में हिटलर एक प्रभावशाली व्यक्ति हो गए। उन्होंने स्वस्तिक को अपने दल का चिह्र बनाया जो कि हिन्दुओं का शुभ चिह्र है। वे अपने को विशुद्ध आर्य बताते रहे और इसीलिए भारत में फासिज्म की धर्मोन्मादी विचारधारा के झंडेवरदार शुरु से हिटलर का खुलकर समर्थन करते रहे।
यह फासिज्म हिटलर की विचारधारा के अलावा आर्य सभ्यता और विशुद्धता की उस हिंदुत्व विचारधारा का मिश्रण है,जिसका एजंडा नस्ली रंगभेद के तहत भारत में मनुस्मृति विधान और जाति व्यवस्था के तहत यहूदियों की तरह अछूतों, शूद्रों, किसानों, मेहनतकशों, आदिवासियों, अनार्यों,द्रविड़ों और गैरहिंदू नस्लों के सफाये से हिंदू साम्राज्य स्थापना करने का है।
हिटलर ने मीन कैम्फ ("मेरा संघर्ष") नामक अपनी आत्मकथा लिखी। इसमें नाजी दल के सिद्धांतों का विवेचन किया। उन्होंने लिखा कि आर्य जाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है और जर्मन आर्य हैं। उन्हें विश्व का नेतृत्व करना चाहिए। यहूदी सदा से संस्कृति में रोड़ा अटकाते आए हैं। जर्मन लोगों को साम्राज्यविस्तार का पूर्ण अधिकार है। फ्रांस और रूस से लड़कर उन्हें जीवित रहने के लिए भूमि प्राप्ति करनी चाहिए।
गौरतलब है कि हिटलर का मीन कैम्प भारत के फासिस्ट नस्ली राष्ट्रवादियों का धर्मग्रंथ है।
फासिज्म के खिलाफ निर्मम प्रहार रवींद्रनाथ शुरु से कर रहे थे और तासेर घर की पंतासी में इसी कुलीन तंत्र के वर्चस्ववाद पर उन्होने तीखा प्रहार करते हुए वर्णों की उत्पत्ति के सिद्धांत पर खुला प्रहार किया है।
हमने चंडालिका में अस्पृश्यता के खिलाफ समानता और न्याय के लिए अस्पृश्य चंडाल कन्या चंडालिका के विद्रोह और चंडाल आंदोलन की चर्चा पहले ही की है।बाउल फकीर किसान आदिवासी विद्रोह और भक्ति आंदोलन की बहुजन विरासत की भी हमने सिलसिलेवार चर्चा की है।
मनुष्यता के धर्म,राष्ट्रवाद और सभ्यता के संकट के बारे में चर्चा करते हुए नस्ली वर्चस्व की वजह से भारत में सामाजिक विषमता पर रवींद्रे के दलित विमर्श पर भी हम लगातार फोकस बनाये हुए हैं।
गौरतलब है कि 1930-32 में जर्मनी में बेरोज़गारी बहुत बढ़ गई। संसद् में नाजी दल के सदस्यों की संख्या 230 हो गई। 1932 के चुनाव में हिटलर को राष्ट्रपति के चुनाव में सफलता नहीं मिली। जर्मनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई और विजयी देशों ने उसे सैनिक शक्ति बढ़ाने की अनुमति की। 1933 में चांसलर बनते ही हिटलर ने जर्मन संसद् को भंग कर दिया, साम्यवादी दल को गैरकानूनी घोषित कर दिया और राष्ट्र को स्वावलंबी बनने के लिए ललकारा। हिटलर ने डॉ॰ जोज़ेफ गोयबल्स को अपना प्रचारमंत्री नियुक्त किया। नाज़ी दल के विरोधी व्यक्तियों को जेलखानों में डाल दिया गया। कार्यकारिणी और कानून बनाने की सारी शक्तियाँ हिटलर ने अपने हाथों में ले ली। 1934 में उन्होंने अपने को सर्वोच्च न्यायाधीश घोषित कर दिया। उसी वर्ष हिंडनबर्ग की मृत्यु के पश्चात् वे राष्ट्रपति भी बन बैठे। नाजी दल का आतंक जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में छा गया। 1933 से 1938 तक लाखों यहूदियों की हत्या कर दी गई। नवयुवकों में राष्ट्रपति के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करने की भावना भर दी गई और जर्मन जाति का भाग्य सुधारने के लिए सारी शक्ति हिटलर ने अपने हाथ में ले ली।हिटलर ने 1933 में राष्ट्रसंघ को छोड़ दिया और भावी युद्ध को ध्यान में रखकर जर्मनी की सैन्य शक्ति बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। प्राय: सारी जर्मन जाति को सैनिक प्रशिक्षण दिया गया।
इस पूरी अवधि के दौरान भारत के न्सली राष्ट्रवादियों का हिटलर और जर्मनी के साथ नाभिनाल का संबंध रहा है।
रक्त करबी और चंडालिका में जहां किसानों और मेहनतकशों के अस्पृश्य, वंचित, अपमानित,उत्पीड़त वर्ण वर्ग की मनुष्यता की मुक्ति का महासंग्राम है,वही रवींद्रनाथ की नृत्यनाटिका ताशेर घर में सत्ता वर्ग की संरचना और सामाजिक विषमता का तानाबाना है जो मुकम्मल मनुस्मृति व्यवस्था है,उसका सामाजिक यथार्थ पर तीखे प्रहार है।
रवींद्र नाथ ने अपनी कहानी एकटि आषाढ़े गल्प को नृत्यनाटिका का रुप दिया और 1933 में इसे प्रकाशित करते हुए नेताजी सुभाष चंद्र के नाम उत्सर्गित कियाः
তাসের দেশ. উৎসর্গ কল্যাণীয় শ্রীমান সুভাষচন্দ্র, স্বদেশের চিত্তে নূতন প্রাণ সঞ্চার করবার পুণ্যব্রত তুমি গ্রহণ করেছ, সেই কথা স্মরণ ক'রে তোমার নামে 'তাসের দেশ' নাটিকা উৎসর্গ করলুম। শান্তিনিকেতন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর
गौरतलब है कि रवींद्र के अवसान के बाद आजादी के लिए भारत छोड़ने से पहले तक नेताजी सुभाषचंद्र बंगाल में हिंदुत्ववादियों के फासीवादी राष्ट्रवाद को सबसे बड़ा खतरा मानते हुए उसका लगातार प्रतिरोध करते रहे हैं।
इसका कथानक रवींद्र ने एकटि आषाढ़े गल्प में लिखा है,जिसकी शुरुआत में भारतीय समाज की प्रगतिविरोधी आदिम बर्बर संरचना का खुलासा उन्होंने इस प्रकार किया है जिसमें ब्रह्मा के मुख से विशुद्ध कुलीन तंत्र का जन्म बताया जाता हैः
দূর সমুদ্রের মধ্যে একটা দ্বীপ । সেখানে কেবল তাসের সাহেব , তাসের বিবি , টেক্কা এবং গোলামের বাস । দুরি তিরি হইতে নহলা-দহলা পর্যন্ত আরো অনেক-ঘর গৃহস্থ আছে, কিন্তু তাহারা উচ্চজাতীয় নহে ।
টেক্কা সাহেব গোলাম এই তিনটেই প্রধান বর্ণ, নহলা-দহলারা অন্ত্যজ- তাহাদের সহিত এক পঙ্ক্তিতে বসিবার যোগ্য নহে ।
কিন্তু, চমৎকার শৃঙ্খলা । কাহার কত মূল্য এবং মর্যাদা তাহা বহুকাল হইতে স্থির হইয়া গেছে , তাহার রেখামাত্র ইতস্তত হইবার জো নাই । সকলেই যথানির্দিষ্ট মতে আপন আপন কাজ করিয়া যায়। বংশাবলিক্রমে কেবল পূর্ববর্তীদিগের উপর দাগা বুলাইয়া চলা ।
সে যে কী কাজ তাহা বিদেশীর পক্ষে বোঝা শক্ত । হঠাৎ খেলা বলিয়া ভ্রম হয় । কেবল নিয়মে চলাফেরা , নিয়মে যাওয়া-আসা , নিয়মে ওঠাপড়া । অদৃশ্য হস্তে তাহাদিগকে চালনা করিতেছে এবং তাহারা চলিতেছে ।
তাহাদের মুখে কোনো ভাবের পরিবর্তন নাই । চিরকাল একমাত্র ভাব ছাপ মারা রহিয়াছে । যেন ফ্যাল্-ফ্যাল্ ছবির মতো । মান্ধাতার আমল হইতে মাথার টুপি অবধি পায়ের জুতা পর্যন্ত অবিকল সমভাবে রহিয়াছে ।
কখনো কাহাকেও চিন্তা করিতে হয় না , বিবেচনা করিতে হয় না ; সকলেই মৌন নির্জীবভাবে নিঃশব্দে পদচারণা করিয়া বেড়ায় ; পতনের সময় নিঃশব্দে পড়িয়া যায় এবং অবিচলিত মুখশ্রী লইয়া চিৎ হইয়া আকাশের দিকে তাকাইয়া থাকে ।
কাহারো কোনো আশা নাই , অভিলাষ নাই , ভয় নাই, নূতন পথে চলিবার চেষ্টা নাই , হাসি নাই , কান্না নাই , সন্দেহ নাই , দ্বিধা নাই । খাঁচার মধ্যে যেমন পাখি ঝট্পট্ করে , এই চিত্রিতবৎ মূর্তিগুলির অন্তরে সেরূপ কোনো-একটা জীবন্ত প্রাণীর অশান্ত আক্ষেপের লক্ষণ দেখা যায় না ।
অথচ এককালে এই খাঁচাগুলির মধ্যে জীবের বসতি ছিল — তখন খাঁচা দুলিত এবং ভিতর হইতে পাখার শব্দ এবং গান শোনা যাইত । গভীর অরণ্য এবং বিস্তৃত আকাশের কথা মনে পড়িত । এখন কেবল পিঞ্জরের সংকীর্ণতা এবং সুশৃঙ্খল শ্রেণী-বিন্যস্ত লৌহশলাকাগুলাই অনুভব করা যায়— পাখি উড়িয়াছে কি মরিয়াছে কি জীবন্মৃত হইয়া আছে , তাহা কে বলিতে পারে ।
আশ্চর্য স্তব্ধতা এবং শান্তি । পরিপূর্ণ স্বস্তি এবং সন্তোষ । পথে ঘাটে গৃহে সকলই সুসংহত , সুবিহিত — শব্দ নাই , দ্বন্দ্ব নাই , উৎসাহ নাই , আগ্রহ নাই — কেবল নিত্য-নৈমিত্তিক ক্ষুদ্র কাজ এবং ক্ষুদ্র বিশ্রাম ।
সমুদ্র অবিশ্রাম একতানশব্দপূর্বক তটের উপর সহস্র ফেনশুভ্র কোমল করতলের আঘাত করিয়া সমস্ত দ্বীপকে নিদ্রাবেশে আচ্ছন্ন করিয়া রাখিয়াছে — পক্ষীমাতার দুই প্রসারিত নীলপক্ষের মতো আকাশ দিগ্দিগন্তের শান্তিরক্ষা করিতেছে । অতিদূর পরপারে গাঢ় নীল রেখার মতো বিদেশের আভাস দেখা যায় — সেখান হইতে রাগদ্বেষের দ্বন্দ্বকোলাহল সমুদ্র পার হইয়া আসিতে পারে না ।
नृत्य नाटिका में कुलीन तंत्र के सत्ता वर्म वर्ग की उत्पत्ति के बारे में साफ तौर पर कहा गया हैः
সদাগর। তোমাদের উৎপত্তি কোথা থেকে।
ছক্কা। ব্রহ্মা হয়রান হয়ে পড়লেন সৃষ্টির কাজে। তখন বিকেল বেলাটায় প্রথম যে হাই তুললেন, পবিত্র সেই হাই থেকে আমাদের উদ্ভব।
পঞ্জা। এই কারণে কোনো কোনো ম্লেচ্ছভাষায় আমাদের তাসবংশীয় না বলে হাইবংশীয় বলে।
সদাগর। আশ্চর্য।
ছক্কা। শুভ গোধূলিলগ্নে পিতামহ চার মুখে একসঙ্গে তুললেন চার হাই।
সদাগর। বাস্ রে। ফল হল কী।
ছক্কা। বেরিয়ে পড়ল ফস্ ফস্ করে ইস্কাবন, রুইতন, হরতন, চিঁড়েতন। এঁরা সকলেই প্রণম্য। (প্রণাম)
রাজপুত্র। সকলেই কুলীন?
ছক্কা। কুলীন বৈকি। মুখ্য কুলীন। মুখ থেকে উৎপত্তি।
भारत का प्राचीन नाम जम्बू द्वीप है और ताशों का यह देश भी समुद्र से घिरा एक द्वीप है जहां कुलीन वर्ण वर्ग की सत्ता है।साहब बीवी गुलाम और इक्का का सत्तावर्ग और कुलीन तंत्र है और अश्पृश्य अंत्यजों का व्रात्य बहुजन समाज नहला दहला वगैरह वगैरह है।जहां मनुस्मृति विधान के कठोर अनुशासन में जीवन बंधा है।वहां विचारों,सपनों,आशा,आकांक्षा या अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता नहीं है।जीवन में अचलावस्था है और समामाजिक परिवर्तन की कोई स्थिति नहीं है।
आज ही नर्मदा बांध देश को समर्पित कर दिया गया है।जल जंगल जमीन आजीविका नागरिक और मानवाधिकार से किसानों और मेहनतकशों की अनंत बेदखली में यह देश डिजिटल इंडिया वही ताशों का देश है,जहां राजनीति मुखर है और सामाजिक शक्तियां मौन है और आम जनता का सफाया का अटूट मनुस्मृति तंत्र वर्ण वर्ग वर्चस्व का सैन्य राष्ट्र है।
आज हम सिलसिलेवार इस पर चर्चा करेंगे।इससे पहले ताशेर देश नृत्यनाटिका का मूल पाठ हमने अपने फेसबुक पेज पर शेयर कर दिया है।बाकी संदर्भ सामग्री भी वहीं शेयर कर रहे हैं।तकनीकी कारणों से हम इसे समूहों में शेयर नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि रवींद्र दलित विमर्श सत्ता वर्ग के लिए निषिद्ध विषय है।
बांग्लादेशी अखबार डेली स्टार में इस नाटक के एक हालिया मंचन पर समीक्षक करीम वहीद का यह आलेख जरुर पढ़ लेंः
Life Lessons from a Deck of Cards
Tagore's "Tasher Desh” in a new light
Karim Waheed
The production was a smash hit with the audience. It offered Tagore's work in a package that reached out to a wider group of people. Photo: Mumit M.
Rabindranath Tagore wrote "Tasher Desh" (Land of Cards) 78 years ago, in the context of British India. This dance-drama is a satire on the rigidity of class systems, both Indian and British, employing the dramatic and comedic device of a land of cards where a population is trapped in countless, inane rituals. But has this satire/fantasy managed to retain its pertinence after almost eight decades?
As part of its 'Rediscovering Tagore' festival, celebrating the 150th birth anniversary of the Nobel laureate poet, British Council presented "Tasher Desh" at National Theatre Hall, Bangladesh Shilpakala Academy in Dhaka on April 22. The Daily Star is the communication partner of the festival.
Of all the components of the festival, this was hands down the most ambitious project undertaken by British Council. This was way more than a dance-drama, it was a 'dance-opera', a magnum opus if you will, executed by Shadhona (A Centre for Advancement of South Asian Culture), and presented a fusion of diverse dance forms -- Manipuri (one of the classical Indian forms), Chhau (indigenous to Bengal) and Western Contemporary. Directed by accomplished Bangladeshi dancer Warda Rihab, the production was jointly choreographed by Rihab and Rachel Krische (known for her expertise in contemporary dance) from UK. Biren Kalindi and Jagannath Chowdhury (from Purulia, India) choreographed the Chhau movements.
Shadhona experimented with the music as well. Under the direction of famed new age percussionist Tanmoy Bose, the vocal cast included traditionally trained Rabindra Sangeet singers like Nandita Yasmin, Lopamudra Mitra and contemporary/indie vocalists, Shayan Chowdhury Arnob, Anusheh Anadil and Rupankar Bagchi.
After a brief speech by Information and Cultural Affairs Minister Abul Kalam Azad, the curtains went up. Before the actual play rolled out, choreographers Rihab and Krische, surrounded by dancers, presented a jugalbandi of contemporary and Manipuri to the song "Khoro Bayu Boi Begey". I was impressed but keener on seeing the two forms mesh during the play.
The Plot: Tired of the monotonous palace life, a prince wants to set out on a voyage. He is accompanied by his mate/sidekick, a merchant. They encounter a tempest. After a shipwreck, the duo find themselves in a land where seemingly ridiculous rules and disciplines reign supreme. Abidance to strict rules in daily lives has taken away basic human qualities like emotions. There is no place for the desires of the heart. Life in this country is literally like a game of cards -- all rules -- and nothing is spontaneous. The denizens, aptly, resemble cards.
The arrival of the two foreigners who advocate free will cause an upheaval and soul searching in this land of cards, and gradually one after another, the cards shed their lifeless, zombie-like identities -- appearing very human.
Wow Factors: The masked Chhau dancers from Purulia. From the moment they appeared on the stage, these dancers had the audience in their puppet-like grips. They were brilliant, magical, and impossible to look away from. In fact, all the dancers went above and beyond to make this production a rousing success. Music direction by Tanmoy Bose offered fresh, new sounds to the ever-familiar Tagore songs. Veteran dancers Laila Hasan (as the Queen Mother) and Lubna Marium (Queen of the Cards) added depth to this innovative production. Nandita Yasmin's impassioned rendition embodied everything Tagore said and left unsaid. Costumes by Neelay (Odissi Vision & Movement Centre - Kolkata), Shalonkara, Shama razzled and dazzled.
What Didn't Quite Work: As a hardcore admirer of Anusheh Anadil's vocal prowess, I didn't find myself drawn to her rendition of "Gharetey Bhromor Elo Gunguniye". Anusheh's bold, throaty vocals didn't do justice to the song that called for romance and playfulness. But the singer did make up for that with her rendition of "Bijaymala Eno Amar Lagi". Warda Rihab's strong suit, her years of Manipuri training, seemed to have become her limitation when executing the contemporary moves. The problem is contemporary dance involves a lot of improvisation, and often short bursts of energetic movements like lifts, that go against the principle of traditional Manipuri dance that embodies delicate and graceful movements. Manipuri dance avoids sudden movements, sharp edges or straight lines. Mastering contemporary dance and seamlessly mingling it with Manipuri in just three weeks is a Herculean task, considering professional contemporary training usually takes three/four years.
On the whole, however, the production was a smash hit with the audience. It offered Tagore's work in a package that reached out to a wider group of people -- the cheering full-house was evidence to that. Through this, British Council has successfully rediscovered Tagore and as many discerning music/dance enthusiasts suggested, this production should be staged again, aired on TV and recording of it should be released in DVD format. A music album featuring the songs should be made available as well.
Now going back to the question regarding relevance of this dance-drama (presented in the intro) to modern times: Unless we manage to turn this world into a utopia, the bard's message remains absolutely pertinent.
http://www.thedailystar.net/news-detail-182843
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