Tuesday, September 5, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-सत्रह नस्ली वर्चस्व का परमाणु राष्ट्रवाद अब हाइड्रोजन बम है महात्मा फूले की गुलामगिरि और रवींद्र नाथ के जूता व्यवस्था का आंतरिक उपनिवेशवाद का सामाजिक यथार्थ एक है गोहत्या पर सजा और मनुष्य की हत्या पर बिना प्रायश्चित्त सामाजिक प्रतिष्ठा के हिंदुत्व पर रवींद्रनाथ का प्रहार राष्ट्रीयताओं की विविधता बहुलता के लोकतांत्रिक ढांचा में ही देश बचता है और निरंकुश वर्चस्व की सत्ता देश तोड़ती है पलाश विश्वास

रवींद्र का दलित विमर्श-सत्रह
नस्ली वर्चस्व का परमाणु राष्ट्रवाद अब हाइड्रोजन बम है
महात्मा फूले की गुलामगिरि  और रवींद्र नाथ के जूता व्यवस्था का आंतरिक उपनिवेशवाद का सामाजिक यथार्थ एक है
गोहत्या पर सजा और मनुष्य की हत्या पर बिना प्रायश्चित्त सामाजिक प्रतिष्ठा के हिंदुत्व पर रवींद्रनाथ का प्रहार
राष्ट्रीयताओं की विविधता बहुलता के लोकतांत्रिक ढांचा में ही देश बचता है और निरंकुश वर्चस्व की सत्ता देश तोड़ती है
पलाश विश्वास
नस्ली वर्चस्व के फासीवादी नाजी निरंकुश राष्ट्रवाद पश्चिम से और खासतौर पर यूरोप के साम्राज्यवादी राष्ट्रों से आयातित सबसे खतरनाक हाइड्रोजन बम है।
फासीवादी अंध राष्ट्रवाद की कीमत  जापान को हिरोसिमा और नागासाकी के परमाणु विध्वंस से चुकानी पड़ी है।
रवींद्र नाथ ने जापान यात्रा के दौरान इस अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ जापानियों को चेतावनी दी थी।हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम गिरने से पहले 1941 में ही रवींद्रनाथ दिवंगत हो गये लेकिन उनकी वह चेतावनी अब हाइड्रोजन बम की शक्ल में विभाजित कोरिया के साथ साथ परमाणु साम्राज्यवाद के रचनाकार महाबलि अमेरिका के लिए अस्तित्व संकट बन गया है।
इसी अंध राष्ट्रवाद के कारण दो दो विश्वयुद्ध हारने वाले जर्मनी का विभाजन हुआ लेकिन फासीवाद और नवनाजियों के प्रतिरोध में कामयाबी के बाद बर्लिन की दीवारे ढह गयीं और जर्मनी फिर अखंड जर्मनी है जो बार बार नवनाजियों का प्रतिरोध जनता की पूरी ताकत के साथ कर रहे हैं।
कोरिया खुद जापानी साम्राज्यवाद का गुलाम रहा है और साम्राज्यवाद के हाथों खिलौना बनकर वह उत्तर और दक्षिण में ठीक उसी तरह विभाजित है जैसे अखंड भारत के तीन टुकड़े भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश।
नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद और साम्राज्यवादियों के खेल की वजह से विभाजित भारतवर्ष के भविष्य को लेकर चिंतित थे रवींद्रनाथ।
1890 में रवींद्रनाथ ने अपने समाज निबंधों की शृंखला में जूता व्यवस्था लिखकर औपनिवेशिक भारत में नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद की सामंती साम्राज्यवादपरस्ती की कड़ी आलोचना की थी और मृत्युपूर्व अंतिम निबंध सभ्यता के संकट तक सामंतवाद और साम्राज्यवाद के पिट्ठू आंतरिक उपनिवेशवाद के नस्ली वर्चस्ववाद पर उन्होंने लगातार प्रहार किये क्योंकि वे जानते थे कि पश्चिम के इस फासीवादी नाजी राष्ट्रवाद की अंतिम और निर्णा्यक नियति विभाजन की निरंतरता की त्रासदी है और अंतिम सांस तक रवींद्रनाथ ने नस्ली राष्ट्रीयताओं के सहअस्तित्व से बने अखंड दुर्भागा देश को इस भयंकर नियति के खिलाफ चेतावनी दी है।
ब्राजील और अर्जेंटीना में श्वेत अश्वेत संघर्ष के बारे में कहीं चर्चा नहीं होती। लातिन अमेरिका में यह रंगभेद उस तरह नजर नहीं आता जैसे दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में।
रंगभेद की यह तीव्रता यूरोपीय देशों में अब बुहत ज्यादा नजर नहीं आती।बल्कि इस रंगभेद के प्रवर्तक इंग्लैंड में जीवन के हर क्षेत्र में अश्वेतों का ही वर्चस्व हो गया है।
इसके विपरीत भारत में जाति व्यवस्था के तहत असमानता और अन्याय की व्यवस्था अमेरिका की तरह नस्ली वर्चस्व के रंगभेद में तब्दील है।
अमेरिका का श्वेत आतंकवाद और ग्लोबल हिंदुत्व का नस्ली वर्चस्ववाद एकाकार है।फिरभी अमेरिका का विभाजन नहीं हुआ तो इसका सबसे बड़ा कारण अमेरिकी राष्ट्र का संघीय ढांचा है,जिसमें अमेरिका की बहुलता और विवधता का लोकतंत्र बना हुआ है जो श्वेत आतंकवाद का लगातार प्रतिरोध कर रहा है।
सोवियत संघ में जब तक संघीय ढांचा बना रहा और विविधताओं की बहुलता के खिलाफ राष्ट्रीयताओं का निर्मम दमन नहीं हुआ तब तक सोवियत संघ बना रहा और संघीय ढांचा टूटने के बाद ही सोवियत संघ का विभाजन हुआ।
रवींद्र नाथ के विविधता के दलित विमर्श,गांधी के हिंद स्वराज और यहां तक कि नेताजी के आजाद हिंद फौज की संरचना में संघीय ढांचा के बीज हैं जहां केंद्र की निरंकुश नस्ली वर्चस्व की सत्ता के बजाय जनपदों के लोक गणराज्यों का लोकतंत्र है।
स्वतंत्रता सेनानियों से बनी भारत की संविधान सभा ने दो राष्ट्र के सिद्धांत के आधार बने भारत के संविधान के लिए विविधता और बहुलता के लोकतंत्र की रक्षा के लिए समानता और न्याय के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संविधान की प्रस्तावना में महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म के सिद्धांतों के तहत नागरिक और मनवाधिकार की आधारशिला रखते हुए स्वतंत्र सार्वभौम लोक गणराज्य भारत के लिए संघीय ढांचा का विकल्प चुना जो राष्ट्रीयताओं की समस्या के समाधान का रास्ता था।
नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद ने उस संघीय ढांचा को तहस नहस करके दिल्ली केंद्रित निरंकुश फासीवादी सत्ता की स्थापना कर दी है,जिसके खिलाफ रवींद्रनाथ उन्नीसवीं सदी से अपने मृत्यु से पहले तक लगातार चेतावनी देते रहे हैं।
रवींद्र रचनाधर्मिता की यही मुख्यधारा है जो भारत की साझा संस्कृति की विरासत है जो बौद्धमय भारत के समता और लक्ष्यों के अनुरुप हैं।
बहुजन पुरखों और सामंतवादविरोधी मनुष्यता के धर्म के पक्षधर इस महान देश का धर्म और आध्यात्म भी सत्ता वर्ग के नस्ली वर्चस्व के विरुद्ध है लेकिन सवर्ण विद्वजतजनों की इसमें दिलचस्पी नहीं है तो पीड़ित शोषित अत्याचार के शिकार और नरसंहार संस्कृति के तहत वध्य बहुसंख्य जनगण इसे भारतीय इतिहास और संस्कृति,लोक और जनपद के नजरिये से समझने के लिए तैयार नहीं हैं।

गौरतलब है कि महात्मा ज्योतिबा फूले ने  गुलामगिरी की प्रस्तावना में शुरुआती दो पैरा में इसी नस्ली वर्चस्व के विशुद्ध राष्ट्रवाद की चर्चा की हैः

सैकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज, जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण से शिकार हैं। ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं। इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए। ये लोग अपने आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं, यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं। यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है। यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मण-पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा। वे लोग परदेश से यहाँ आए। उन्होंने इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके इन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया। उन्होंने इनके साथ बड़ी अमावनीयता का रवैया अपनाया था। सैकड़ों साल बीत जाने के बाद भी इन लोगों में बीती घटनाओं की विस्मृतियाँ ताजी होती देख कर कि ब्राह्मणों ने यहाँ के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से बेदखल कर इन्हें अपना गुलाम बनाया है, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया। दफना कर नष्ट कर दिया।
उन ब्राह्मणों ने अपना प्रभाव, अपना वर्चस्व इन लोगों के दिलो-दिमाग पर कायम रखने के लिए, ताकि उनकी स्वार्थपूर्ति होती रहे, कई तरह के हथकंडे अपनाए और वे भी इसमें कामयाब भी होते रहे। चूँकि उस समय ये लोग सत्ता की दृष्टि से पहले ही पराधीन हुए थे और बाद में ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने उन्हें ज्ञानहीन-बुद्धिहीन बना दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के दाँव-पेंच, उनकी जालसाजी इनमें से किसी के भी ध्यान में नहीं आ सकी। ब्राह्मण-पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए, इन्हें हमेशा-हमेशा लिए अपना गुलाम बना कर रखने के लिए, केवल अपने निजी हितों को ही मद्देनजर रख कर, एक से अधिक बनावटी ग्रंथो की रचना करके कामयाबी हासिल की। उन नकली ग्रंथो में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि, उन्हें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं। इस तरह का झूठा प्रचार उस समय के अनपढ़ लोगों में किया गया और उस समय के शूद्रादि-अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोए गए। उन ग्रंथो में यह भी लिखा गया कि शूद्रों को (ब्रह्म द्वारा) पैदा करने का उद्देश्य बस इतना ही था कि शूद्रों को हमेशा-हमेशा के लिए ब्राह्मण-पुरोहितों की सेवा करने में ही लगे रहना चाहिए और ब्राह्मण-पुरोहितों की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करना चाहिए। मतलब, तभी इन्हें ईश्वर प्राप्त होंगे और इनका जीवन सार्थक होगा।
(साभारःहिंदी समय,महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा)
रवींद्रनाथ ने यूरोपीय सभ्यता के अनुकरण के तहत बंगाली भद्रलोक सवर्ण नस्ली राष्ट्र वाद पर तीखा प्रहार करते हुए जूता व्यवस्था निबंध में वैदिकी धर्म संस्कृति के यूरोपीय सभ्यता के साथ सामंजस्य बैठकर ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी कर रहे भद्रलोक बिरादरी के ओहदे के हिसाब से बूट से लेकर भांति भाति के जूतों से पीटे जाने की अनिवार्यता का स्वीकार करने के तर्कों का ब्यौरा पेश किया है।पहले पहल जूता खाने की यूरोपीय सभ्यता में नजीर न होने की वजह से विरोध करनेवाले प्रभुवर्ग वर्ण के लोगों ने लाट साहेब के उन्हीं के हितों का हवाला देने पर उसी जूता व्यवस्था का कैसे महिमामंडन किया है,उसका सिलिसलेवार ब्यौरा दिया है।
गौरतलब है कि बंकिम के आनंदमठ में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आदिवासी किसानों के जनविद्रोह को मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्व के जिहाद बताकर कंपनी राज को हिंदू राष्ट्र बनने से पहले तक हिंदुओं का हित बताने की दैवी वार्ता के साथ वंदेमातरम का उद्घोष हुआ और हिंदुत्व राष्ट्रवादियों ने स्वतंत्रतता संग्राम के दौरान जूता व्यवस्था को अपनी नियति मान ली।अंग्रेजी हुकूमंत की जूताखोरी का महिमामंडन वैदिकी संस्कृति के हवाले से भद्रलोक बिरादरी ने निःसंकोच किया और वे दूसरों के मुकाबले अपने ऊंचे ओहदों को लेकर खुश रहे।यह गुलामगिरी का बांग्ला राष्ट्रवाद है जो आनंदमठ के जरिये हिंदुत्व का फासीवादी राष्ट्रवाद है।
জুতা-ব্যবস্থা
লাটসাহেব রুখিয়া দরখাস্তের উত্তরে কহিলেন, ‘তোমরা কিছু বোঝ না, আমরা যাহা করিয়াছি, তোমাদের ভালোর জন্যই করিয়াছি। আমাদের সিদ্ধান্ত ব্যবস্থা লইয়া বাগাড়ম্বর করাতে তোমাদের রাজ-ভক্তির অভাব প্রকাশ পাইতেছে। ইত্যাদি।'
নিয়ম প্রচলিত হইল। প্রতি গবর্নমেন্ট-কার্যশালায় একজন করিয়া ইংরাজ জুতা-প্রহর্তা নিযুক্ত হইল। উচ্চপদের কর্মচারীদের এক শত ঘা করিয়া বরাদ্দ হইল। পদের উচ্চ-নীচতা অনুসারে জুতা- প্রহার-সংখ্যার ন্যূনাধিক্য হইল। বিশেষ সম্মান-সূচক পদের জন্য বুট জুতা ও নিম্ন-শ্রেণীস্থ পদের জন্য নাগরা জুতা নির্দিষ্ট হইল।
যখন নিয়ম ভালোরূপে জারি হইল, তখন বাঙালি কর্মচারীরা কহিল, ‘যাহার নিমক খাইতেছি, তাহার জুতা খাইব, ইহাতে আর দোষ কী? ইহা লইয়া এত রাগই বা কেন, এত হাঙ্গামাই বা কেন? আমাদের দেশে তো প্রাচীনকাল হইতেই প্রবচন চলিয়া আসিতেছে, পেটে খাইলে পিঠে সয়। আমাদের পিতামহ-প্রপিতামহদের যদি পেটে খাইলে পিঠে সইত তবে আমরা এমনই কী চতুর্ভুজ হইয়াছি, যে আজ আমাদের সহিবে না? স্বধর্মে নিধনং শ্রেয়ঃ পরধর্মোভয়াবহঃ। জুতা খাইতে খাইতে মরাও ভালো, সে আমাদের স্বজাতি-প্রচলিত ধর্ম।’ যুক্তিগুলি এমনই প্রবল বলিয়া বোধ হইল যে, যে যাহার কাজে অবিচলিত হইয়া রহিল। আমরা এমনই যুক্তির বশ! (একটা কথা এইখানে মনে হইতেছে। শব্দ-শাস্ত্র অনুসারে যুক্তির অপভ্রংশে জুতি শব্দের উৎপত্তি কি অসম্ভব? বাঙালিদের পক্ষে জুতির অপেক্ষা যুক্তি অতি অল্পই আছে, অতএব বাংলা ভাষায় যুক্তি শব্দ জুতি শব্দে পরিণত হওয়া সম্ভবপর বোধ হইতেছে!) কিছু দিন যায়। দশ ঘা জুতা যে খায়, সে একশো ঘা-ওয়ালাকে দেখিলে জোড় হাত করে, বুটজুতা যে খায় নাগরা-সেবকের সহিত সে কথাই কহে না। কন্যাকর্তারা বরকে জিজ্ঞাসা করে, কয় ঘা করিয়া তাহার জুতা বরাদ্দ। এমন শুনা গিয়াছে, যে দশ ঘা খায় সে ভাঁড়াইয়া বিশ ঘা বলিয়াছে ও এইরূপ অন্যায় প্রতারণা অবলম্বন করিয়া বিবাহ করিয়াছে। ধিক্‌, ধিক্‌, মনুষ্যেরা স্বার্থে অন্ধ হইয়া অধর্মাচরণে কিছুমাত্র সংকুচিত হয় না। একজন অপদার্থ অনেক উমেদারি করিয়াও গবর্নমেন্টে কাজ পায় নাই। সে ব্যক্তি একজন চাকর রাখিয়া প্রত্যহ প্রাতে বিশ ঘা করিয়া জুতা খাইত। নরাধম তাহার পিঠের দাগ দেখাইয়া দশ জায়গা জাঁক করিয়া বেড়াইত, এবং এই উপায়ে তাহার নিরীহ শ্বশুরের চক্ষে ধুলা দিয়া একটি পরমাসুন্দরী স্ত্রীরত্ন লাভ করে। কিন্তু শুনিতেছি সে স্ত্রীরত্নটি তাহার পিঠের দাগ বাড়াইতেছে বৈ কমাইতেছে না। আজকাল ট্রেনে হউক, সভায় হউক, লোকের সহিত দেখা হইলেই জিজ্ঞাসা করে, 'মহাশয়ের নাম? মহাশয়ের নিবাস? মহাশয়ের কয় ঘা করিয়া জুতা বরাদ্দ?' আজকালকার বি-এ এম- এ'রা নাকি বিশ ঘা পঁচিশ ঘা জুতা খাইবার জন্য হিমসিম খাইয়া যাইতেছে, এইজন্য পূর্বোক্ত রূপ প্রশ্ন জিজ্ঞাসা করাকে তাঁহারা অসভ্যতা মনে করেন, তাঁহাদের মধ্যে অধিকাংশ লোকের ভাগ্যে তিন ঘায়ের অধিক বরাদ্দ নাই। একদিন আমারই সাক্ষাতে ট্রেনে আমার একজন এম-এ বন্ধুকে একজন প্রাচীন অসভ্য জিজ্ঞাসা করিয়াছিল, 'মহাশয়, বুট না নাগরা?' আমার বন্ধুটি চটিয়া লাল হইয়া সেখানেই তাহাকে বুট জুতার মহা সম্মান দিবার উপক্রম করিয়াছিল। আহা, আমার হতভাগ্য বন্ধু বেচারির ভাগ্যে বুটও ছিল না, নাগরাও ছিল না। এরূপ স্থলে উত্তর দিতে হইলে তাহাকে কী নতশির হইতেই হইত! আজকাল শহরে পাকড়াশী পরিবারদের অত্যন্ত সম্মান। তাঁহারা গর্ব করেন, তিন পুরুষ ধরিয়া তাঁহারা বুট জুতা খাইয়া আসিয়াছেন এবং তাঁহাদের পরিবারের কাহাকেও পঞ্চাশ ঘা'র কম জুতা খাইতে হয় নাই। এমন-কি, বাড়ির কর্তা দামোদর পাকড়াশী যত জুতা খাইয়াছেন, কোনো বাঙালি এত জুতা খাইতে পায় নাই। কিন্তু লাহিড়িরা লেপ্টেনেন্ট-গবর্নরের সহিত যেরূপ ভাব করিয়া লইয়াছে, দিবানিশি যেরূপ খোশামোদ আরম্ভ করিয়াছে, শীঘ্রই তাহারা পাকড়াশীদের ছাড়াইয়া উঠিবে বোধ হয়। বুড়া দামোদর জাঁক করিয়া বলে, ‘এই পিঠে মন্টিথের বাড়ির তিরিশটা বুট ক্ষয়ে গেছে।' একবার ভজহরি লাহিড়ি দামোদরের ভাইঝির সহিত নিজের বংশধরের বিবাহ প্রস্তাব করিয়া পাঠাইয়াছিল, দামোদর নাক সিটকাইয়া বলিয়াছিল, 'তোরা তো ঠন্‌ঠোনে।' সেই অবধি উভয় পরিবারে অত্যন্ত বিবাদ চলিতেছে। সেদিন পূজার সময় লাহিড়িরা পাকড়াশীদের বাড়িতে সওগাতের সহিত তিন জোড়া নাগরা জুতা পাঠাইয়াছিল; পাকড়াশীদের এত অপমান বোধ ইহয়াছিল যে, তাহারা নালিশ করিবার উদ্যোগ করিয়াছিল; নালিশ করিলে কথাটা পাছে রাষ্ট্র হইয়া যায় এইজন্য থামিয়া গেল। আজকাল সাহেবদিগের সঙ্গে দেখা করিতে হইলে সম্ভ্রান্ত 'নেটিব'গণ কার্ডে নামের নীচে কয় ঘা জুতা খান, তাহা লিখিয়া দেন, সাহেবের কাছে গিয়া জোড়হস্তে বলেন, 'পুরুষানুক্রমে আমরা গবর্নমেন্টের জুতা খাইয়া আসিতেছি; আমাদের প্রতি গবর্নমেন্টের বড়োই অনুগ্রহ।' সাহেব তাঁহাদের রাজভক্তির প্রশংসা করেন। গবর্নমেন্টের কর্মচারীরা গবর্নমেন্টের বিরুদ্ধে কিছু বলিতে চান না; তাঁহারা বলেন, 'আমরা গবর্নমেন্টের জুতা খাই, আমরা কি জুতা-হারামি করিতে পারি!'

अब गोरक्षकों के राष्ट्रवादी तांडव के संदर्भ में समाज निबंध शृंखला के तहत आचरण अत्याचार विषय पर रवींद्रनाथ के इस मंत्वय पर गौर करें जिसमें उन्होंने गोहत्या पर सजा और मनुष्य की हत्या पर बिना प्रायश्चित्त सामाजिक प्रतिष्ठा के हिंदुत्व पर प्रहार किया है।इस निबंध में जाति व्यवस्था के तहत अस्पृश्यता के वैदिकी धर्म में नीची जातियों,अस्पृश्यों के उत्पीड़न के सामाजिक यथार्थ,उनकी जल जंगल जमीन से बेदखली का भी ब्यौरा है
একজন লোক গোরু মারিলে সমাজের নিকট নির্যাতন সহ্য করিবে এবং তাহার প্রায়শ্চিত্ত স্বীকার করিবে , কিন্তু মানুষ খুন করিয়া সমাজের মধ্যে বিনা প্রায়শ্চিত্তে স্থান পাইয়াছে এমন দৃষ্টান্তের অভাব নাই । পাছে হিন্দুর বিধাতার হিসাবে কড়াক্রান্তির গরমিল হয় , এইজন্য পিতা অষ্টমবর্ষের মধ্যেই কন্যার বিবাহ দেন এবং অধিক বয়সে বিবাহ দিলে জাতিচ্যুত হন ; বিধাতার হিসাব মিলাইবার জন্য সমাজের যদি এতই সূক্ষ্মদৃষ্টি থাকে তবে উক্ত পিতা নিজের উচ্ছৃঙ্খল চরিত্রের শত শত পরিচয় দিলেও কেন সমাজের মধ্যে আত্মগৌরব রক্ষা করিয়া চলিতে পারে । ইহাকে কি কাকদন্তির হিসাব বলে । আমি যদি অস্পৃশ্য নীচজাতিকে স্পর্শ করি , তবে সমাজ তৎক্ষণাৎ সেই দন্তিহিসাব সম্বন্ধে আমাকে সতর্ক করিয়া দেন , কিন্তু আমি যদি উৎপীড়ন করিয়া সেই নীচজাতির ভিটামাটি উচ্ছিন্ন করিয়া দিই , তবে সমাজ কি আমার নিকট হইতে সেই কাহনের হিসাব তলব করেন । প্রতিদিন রাগদ্বেষ লোভমোহ মিথ্যাচরণে ধর্মনীতির ভিত্তিমূল জীর্ণ করিতেছি , অথচ স্নান তপ বিধিব্যবস্থার তিলমাত্র ত্রুটি হইতেছে না । এমন কি দেখা যায় না ।
সমাজ লিখেছেন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর
আচারের অত্যাচার

आज सुबह हमारे एक पुराने मित्र,सरकारी अस्पताल के अधीक्षक पद से रिटायर शरणार्थी नेता ने फोन करके कहा कि आप हिंदुत्व के खिलाफ हैं और बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों के बारे में कुछ भी नहीं लिखते।
उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि आप लोग तो रोहिंगा मुसलमानों के बारे में लिखेंगे और असम बांग्लादेश और बंगाल के मिलाकर ग्रेटर इस्लामी बांग्लादेश के एजंडा पर आप खामोश रहेंगे।
उन्होमने दावा किया की वे मरा लिखा सबकुछ पढ़ते हैं और मरे तमाम वीडियो भी देखते हैं।
पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों,बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न,शरणार्थी समस्या पर मैं लगातार लिखता रहा हूं जिसे वे हिंदुत्व के खिलाफ राजनीति बता रहे हैं और बंगाल के नस्ली सवर्ण वर्चस्व के खिलाफ रवींद्र के दलित विमर्श को भी वे गैर प्रासंगिक मानते हैं।
गौरतलब है कि बंगाल के ज्यादातर शरणार्थी नेताओं और आम शरणार्थियों की तरह वे भी हिंदुत्व के झंडवरदार और संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे के समर्थक हैं और उन्हें समझाना मुश्किल हैं।
वे सुनते नहीं हैं और न वे पढ़ते हैं बल्कि उन्हें हिंदुओं के खतरे में होने की फिक्र ज्यादा है और राष्ट्रवाद की वजह से हुए युद्ध गृहयुद्ध देश के विभाजन और विश्वव्यापी शरणार्थी समस्या और नस्ली वर्चस्व के फासीवाद नाजीवादके बारे में कुछ बी समझाना मुश्किल है।
विभाजनपीड़ितों के भारत विभाजन और शरणार्थी समस्या के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराने की बात समझ में आती है लेकिन नस्ली वर्चस्व के फासीवादी विशुद्धता के हिंदुत्व एजंडे पर किसी संवाद के लिए सवर्ण विद्वतजन उसीतरह तैयार नहीं हैं जैसे वे बहुजनों के जीवन और आजीविका,उनकी नागरिकता,उनके नागरिक और मानवाधिकार और शरणार्थी समस्या पर कुछ भी कहने लिखने को तैयार नहीं हैं।
जाहिर है कि हम उन विद्वतजनों के लिए रवींद्र विमर्श पर यह संवाद नहीं चला रहे हैं।हम उन्हीं को सीधे संबोधित कर रहे हैं जो नियति के साथ सवर्ण अभिसार के शिकार नरसंहारी संस्कृति के वध्य मानुष हैं।
बहारहाल जो मेरा लिखा पढ़ते हैं और मेरा वीडियो देखते हैं,उन्हें मालूम होगा कि पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ितों के बारे में,बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न,सलाम आजाद और तसलिमा नसरीन के साथ इस मुद्दे पर लिखे हर किसी के साहित्य पर,शरणार्थी समस्या,नागरिकता कानून,शरणार्थि्यों के देश निकाला अभियान और आधार के बारे में कितना लिखा और कितना कहा है।
पूर्वी बंगाल के विभाजन पीड़ितों के बारे में हमने जिलावार पूरे भारत के हर हिस्से में बसे शरणार्थियों की समस्या पर विस्तार से लगातार लिखा है।लेकिन मेरी चूंकि किताबें नहीं छपतीं और अखबारों,पत्रिकाओं में भी मैं नहीं छपता तो राष्ट्रवाद के प्रसंग में रवींद्र के दलित विमर्श  पर विभाजन पीड़ित हिंदुत्व सेना में तब्दील शरणार्थियों की इससे बेहतर प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं की जा सकती।
दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत देश के विभाजन के साथ ही राष्ट्रवाद के नस्ली वर्चस्व आधारित राष्ट्र में राष्ट्रीयता का संकट शुरु हो गया था।
विभाजन  के वक्त ही मास्टर तारासिंह ने पूछा था,हिंदुओं को हिंदुस्तान मिला और मुसलमानों को पाकिस्तान,तो सिखों को क्या मिला।
सिखों की राष्ट्रीयता के सवाल पर खालिस्तान आंदोलन और सिखों के नरसंहार के बारे में हम जानते हैं।
आदिवासी राष्ट्रीयताएं आदिवासी भूगोल के अलावा हिमालय क्षेत्र में सबसे ज्यादा हैं लेकिन उनकी राष्ट्रीयता के राष्ट्रीय प्रश्न को संबोधित किये बिना छत्तीसगढ़ और झारखंड आदिवासी राज्य बनाकर आदिवासी भूगोल में गैरआदिवासियों के नस्ली वर्चस्व को बहाल रखकर आदिवासी राष्ट्रीयता के सवाल को और उलझा दिया गया है।इसी तरह उत्तराखंड और तेलंगना अलग राज्य बने और वहां भी आम जनता अपने संसाधनों से बेदखल किये जा रहे हैं।
समस्याओं को बनाये रखकर नस्ली वर्चस्व बहाल करने की यह सत्ता राजनीति है तो निरंकुश कारपोरेट अर्थव्यवस्था का माफियातंत्र भी।
अखंड भारत में हिंदू बहुसंख्यक थे तो भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान बनने के बाद इस्लामी राष्ट्रीयता वहां बड़ी राष्ट्रीयता बन गयी।ज
नसंख्या स्थानांतरण का कार्यक्रम भारी खून खराबे के बावजूद सिरे से फेल हो जाने से भारत में मुसलमान और पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यक हो गये।
विभाजन के तुरंत बाद सीमाओं के आर पार अल्पसंख्यक उत्पीड़न शुरु हो गया।पाकिस्तानी इस्लामी राष्ट्रीयता बंगाली भाषायी राष्ट्रीयता के दमन पर आमादा हो गयी तो पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह हो गया और भारत के सैन्य हस्तक्षेप से बांग्लादेश बना।
बांग्लादेश बनते ही फिर इस्लामी बांग्लादेशी राष्ट्रवाद के तहत बांग्ला राष्ट्रवाद के विरुद्ध अभियान और भारत में अल्पसंख्यक खिलाफ हिंदुत्व की दंगाई राजनीति बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न और तेज हो गया।
विभाजन पीड़ित हिंदुत्व की पैदल सेना को इस्लामी राष्ट्रवाद का यथार्थ समझ में आता है लेकिन हिंदुत्व के अंध राष्ट्रवाद की सीमापार होने वाली भयंकर प्रतिक्रिया की कहानी समझ में नहीं आती।
तसलिमा के उपन्यास लज्जा में हिंदुओं का उत्पीड़न और बांग्लादेश से उनका पलायन से हिंदुत्व की सुनामी बनती है लेकिन बांग्लादेश और दुनियाभर में राम के नाम बाबरी विध्वंस के राष्ट्रवाद की परिणति जो लज्जा की पृष्ठभूमि है,समझ में नहीं आती।दुनियाभर में अंध राष्ट्रवाद के नतीजतन युद्ध गृहयुद्ध और आधी दुनिया के शरणार्थी बन जाने और देश के बीतर जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका रोजगार नागरिक मानवाधिकार से अनंत बेदखली का नस्ली राष्ट्रवाद और मनुस्मति विधान की निरंकुश फासीवादी सत्ता के यथार्थ उन्हें और बाकी नागरिकों को समझ में नहीं आता।वे नरसंहारों के मूक दर्शक हैं और अपनी हत्या के इंतजाम के समर्थक भी।
बंगाल और पंजाब और आदिवासी भूगोल की राष्ट्रीयताएं ही नहीं, बल्कि भारत और पाकिस्तान में कश्मीरियों की राष्ट्रीयता का संकट भी इस दास्तां का भयानक सच है।भारत में शामिल कश्मीर और पाक अधिकृत कश्मीर सीमा के आर पार कश्मीरियत के भूगोल के दोनों हिस्सों में आजादी की मांग उठ रही है और भारत में यह मांग हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ है तो पाकिस्तान में इस्लामी राष्ट्रवाद के खिलाफ।
भारत और पाकिस्तान में कश्मीरी राष्ट्रीयता की इस समस्या को सिरे से नजरअंदाज किये जाने के नतीजतन किसी को समझ में नहीं आता कि कश्मीर समस्या हिंदू मुस्लिम राष्ट्रीयताओं का सवाल नहीं है और यह कश्मीरी राष्ट्रीयता की समस्या है,जिसे सीमायुद्ध में तब्दील करने वाले नस्ली राष्ट्रवाद की सत्ता पाकिस्तान और भारत में सिरे से मानने से इंकार करता है और कश्मीर की समस्या का समाधान आज तक नहीं हो सका।यह निषिद्ध विषय है।
मानवाधिकार के हनन का विरोध के खिलाफ आवाज उठाना हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद दोनों के लिए राष्ट्रद्रोह है उसीतरह जैसे बौद्ध अनुयायी नम्यांमार में बहुसंख्यक बौद्धों की ओर से रोहिंगा मुसलमानों के नरसंहार के खिलाफ खामोश हैं तो हिंदुत्ववादी इस मुद्दे पर चुप्पी के साथ बंगालादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न पर मुखर हैं।
जनसंख्या की इस राजनीति पर हमने पहले चर्चा की है।आगे भी करेंगे।
बंगाल में ही गोरखालैंड आंदोलन गोरखा राष्ट्रीयता बनाम बांग्ला राष्ट्रीयता अस्सी के दशक से चल रहा है।
अस्सी के दशक में अलग गोरखालैंड राष्ट्र के आंदोलन में हजारों लोग मारे गये।दार्जिलिंग के पहाड़ों को राजनीतिक स्वायत्तता देकर इस समस्या का तदर्थ हल निकाला गया लेकिन नस्ली वर्चस्व की राजनीति के तहत दार्जिलिंग के पहाड़ फिर ज्वालामुखी है और फिर गोरखालैंड का आंदोलन जारी है जो सिर्फ दार्जिलिंग के पहाडो़ं तक सीमाबद्ध नहीं है।
गोराखा राष्ट्रीयता के भूगोल  और इतिहास में समूचा नेपाल,उत्तराखंड के गोरखा शासित हिस्से.सिक्किम और भूटान भी शामिल है और महागोरखालैंड का एजंडा भी पुराना है।सत्ता के नस्ली वर्चस्व की राजनीति से यह आग बूझेगी नहीं।
आदिवासी राष्ट्रीयताओं की समस्या को संबोधित किये बिना असम को कई टुकड़ों में विभाजित किया जाता रहा है।लेकिन पूर्वोत्तर की राष्ट्रीयताओं का आपसी विवाद थमा नहीं है।
मणिपुर में नगा और मैती संघर्ष लगातार जारी है तो असम में ही बोरोलैंड को स्वशासी इलाका बनाने के बाद भी अल्फाई अहमिया राष्ट्रवाद,इस्लामी ग्रेटर बांग्लादेश और आदिवासी राष्ट्रीयताओं का गृहयुद्ध जारी है।
इसी तरह त्रिपुरा में आदिवासी राष्ट्रीयता उग्रवाद में तब्दील है।
सत्ता की राजनीति राष्ट्रीयता आंदोलन के उग्रवादी धड़ों का का शुरु से इ्स्तेमाल उसीतरह करती रही है जैसे मेघालय में हाल में भाजपाई राजकाज है और असम में अल्फाई राजकाज है तो त्रिपुरा में फिर वामसत्ता को उखाड़ फेंकने का हिंदुत्व एजंडा है।
कश्मीर में सत्ता हड़पने की राजनीति का किस्सा बंगाल में भी दोहराने की तैयारी के तहत गोरखालैंड बनाम बांग्ला राष्ट्रीयता के गृहयुद्ध के पीछे भी नस्ली वर्चस्ववाद के हिंदुत्व एजंडे का हाथ है।यह हिंदुत्ववादियों को समझाना मुश्किल है तो सवर्ण धर्मनिरपेक्षता के झंडेवरदार बी राष्ट्रीयताओं की समस्या पर उसी नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद के तहत किसी भी संवाद से पिछले सात दशकों से इंकार करते रहे हैं,जिनमें वामपंथी भी शामिल है।
ऐसा तब है जबकि लेनिन,स्टालिन और माओ ने भी राष्ट्रीयता की समस्या को संबोधित करने के गंभीर प्रयास किये हैं।


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