Monday, November 30, 2015

I know that Ashkji had been so much worried about the completion of this novel.कल "हिन्दुस्तानी आवाज़" में अश्क साहब के नाविल "गिरती दीवारें" के अंग्रेज़ी अनुवाद के लोकार्पण की कुछ तस्वीरें

I am so glad because Ashk ji used to interct on this novel with me while I used to discuss with him in on America se savdhan.

Ashkji treated this novel as any master would treat his masterpiece.

I am grateful to Neelabhji that he shares this information and it soothes my heart in the deepest level as I know that Ashkji had been so much worried about the completion of this novel.

But he completed with his brand remained intact.

I have more causes to celebrate because my heart has been always full of inspiration while ,whenever I did read the Gang of Four. 

Ashkji,Manto,Krishnachander and rajinder Singh Bedi. 

Congrats.

However I could not pay respect to his wish that he wanted me to complete America se savdhan and it has never to be published !

I am sure Girti Deeren would be a grand Success!



-- 
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

साजिशों की दास्तान “आपरेशन अक्षरधाम” समीक्षा - अवनीश कुमार



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साजिशों की दास्तान “आपरेशन अक्षरधाम”

समीक्षा - अवनीश कुमार

c-2, Peepal wala Mohalla,
Badli Ext. Delhi-42
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

“आपरेशन अक्षरधाम” हमारे राज्यतंत्र और समाज के भीतर जो कुछ गहरे सड़ गल
चुका है, जो भयंकर अन्यापूर्ण और उत्पीड़क है, का बेहतरीन आलोचनात्मक
विश्लेषण और उस तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा है।

24 सितंबर 2002 को  हुए गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमले को अब करीब 13
साल बीत चुके हैं। गांधीनगर के सबसे पॉश इलाके में स्थित इस मंदिर में
शाम को हुए एक ‘आतंकी’ हमले में कुल 33 निर्दोष लोग मारे गए थे। दिल्ली
से आई एनएसजी की टीम ने वज्रशक्ति नाम से आपरेशन चलाकर दो फिदाईनो को
मारने का दावा किया था। मारे गए लोगों से उर्दू में लिखे दो पत्र भी
बरामद होने का दावा किया गया जिसमें गुजरात में 2002 में राज्य प्रायोजित
दंगों में मुसलमानों की जान-माल की हानि का बदला लेने की बात की गई थी।
बताया गया कि दोनो पत्रों पर तहरीक-ए-किसास नाम के संगठन का नाम लिखा था।

इसके बाद राजनीतिक परिस्थितियों में जो बदलाव आए और जिन लोगों को उसका
फायदा मिला यह सबके सामने है और एक अलग बहस का विषय हो सकता है। इस मामले
में जांच एजेंसियों ने 6 लोगों को आतंकियों के सहयोगी के रूप में
गिरफ्तार किया था जो अंततः सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पूरी तरह
निर्दोष छूट गए। यह किताब मुख्य रूप से जिन बिंदुओं पर चर्चा करती है
उनमें पुलिस, सरकारी जांच एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों तथा निचली
अदालतों और उच्च न्यायालय तक की कार्यप्रणालियों और सांप्रदायिक चरित्र
का पता चलता है। यह भी दिखता है कि कैसे राज्य इन सभी प्रणालियों को
हाइजैक कर सकता है और किसी एक के इशारे पर नचा सकता है।

आपरेशन अक्षरधाम’ मुख्य रूप से उन सारी घटनाओं का दस्तावेजीकरण और
विश्लेषण है जो एक सामान्य पाठक के सामने उन घटनाओं से जुड़ी कड़ियों को
खोलकर रख देता है। यह किताब इस मामले के हर एक गवाह, सबूत और आरोप को
रेशा-रेशा करती है। मसलन इस ‘आतंकी’ हमले के अगले दिन केंद्रीय
गृहमंत्रालय ने दावा किया कि मारे गए दोन फिदाईन का नाम और पता मुहम्मद
अमजद भाई, लाहौर, पाकिस्तान और हाफिज यासिर, अटक पाकिस्तान है। जबकि
गुजरात पुलिस के डीजीपी के चक्रवर्ती ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के दावे
से अपनी अनभिज्ञता जाहिर की और कहा कि उनके पास इस बारे में कोई जानकारी
नहीं है।

इसी तरह पुलिस के बाकी दावों जैसे फिदाईन मंदिर में कहां से घुसे, वे किस
गाड़ी से आए और उन्होने क्या पहना था, के बारे में भी अंतर्विरोध बना
रहा। पुलिस का दावा और चश्मदीद गवाहों के बयान विरोधाभाषी रहे पर
आश्चर्यजनक रूप से पोटा अदालत ने इन सारी गवाहियों की तरफ से आंखें मूंदे
रखी।

चूंकि यह एक आतंकी हमला था इसलिए इसकी जांच ऐसे मामलों की जांच के लिए
विशेष तौर पर गठित आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) को सौंपी गई। लेकिन
इसमें तब तक कोई खास प्रगति नहीं हुई जब तक कि एक मामूली चेन स्नेचर समीर
खान पठान को पुलिस कस्टडी से निकालकर उस्मानपुर गार्डेन में एक फर्जी
मुठभेड़ में मार नहीं दिया गया। अब इस मामले में कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी
जेल में हैं। इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट में लिखा गया – “कि पठान
मोदी और अन्य भाजपा नेताओं को मारना चाहता था। उसे पाकिस्तान में आतंकवाद
फैलाने का प्रशिक्षण देने के बाद भारत भेजा गया था। यह ठीक उसके बाद हुआ
जब पेशावर में प्रशिक्षित दो पाकिस्तानी आतंकवादी अक्षरधाम मंदिर पर हमला
कर चुके थे।“ मजे की बात ये थी इसके पहले अक्षरधाम हमले के सिलसिले में
25 सितंबर 2002 को जी एल सिंघल द्वारा लिखवाई गई प्रथम सूचना रिपोर्ट में
मारे गए दोनो फिदाईन के निवास और राष्ट्रीयता का कहीं कोई जिक्र नहीं था!

28 अगस्त 2003 की शाम को साढ़े 6 बजे एसीपी क्राइम ब्रांच  अहमदाबाद के
दफ्तर पर  डीजीपी कार्यालय से फैक्स  आया जिसमें निर्देशित  किया गया था
कि अक्षरधाम  मामले की जांच क्राइम  ब्रांच को तत्काल प्रभाव  से एटीएस
से अपने हाथ  में लेनी है। इस फैक्स के मिलने के बाद एसीपी जीएल सिंघल
तुरंत एटीएस आफिस चले गए जहां से उन्होने रात आठ बजे तक इस मामले से
जुड़ी कुल 14 फाइलें लीं। इसके बाद शिकायतकर्ता से खुद ब खुद वे
जांचकर्ता भी बन गए और अगले कुछ ही घंटों में उन्होने अक्षरधाम मामले को
हल कर लेने और पांच आरोपियों को पकड़ लेने का चमत्कार कर दिखाया। इस
संबंध में जीएल सिंघल का पोटा अदालत में दिए बयान के मुताबिक – “एटीएस की
जांच से उन्हें कोई खास सुराग नहीं मिला था और उन्होने पूरी जांच खुद नए
सिरे से 28 अगस्त 2003 से शुरू की थी।“ और इस तरह अगले ही दिन यानी 29
अगस्त को उन्होने पांचों आरोपियों को पकड़ भी लिया। पोटा अदालत को इस बात
भी कोई हैरानी नहीं हुई।

परिस्थितियों को देखने के बाद ये साफ था कि पूरा मामला पहले से तय कहानी
के आधार पर चल रहा था। जिन लोगों को 29 अगस्त को गिरफ्तार दिखाया गया
उन्हें महीनों पहले से क्राइम ब्रांच ने अवैध हिरासत में रखा था, जिसके
बारे में स्थानीय लोगों ने प्रदर्शन भी किया था। जिन लोगों को “गायकवाड़
हवेली” में रखा गया था वे अब भी उसकी याद करके दहशत से घिर जाते हैं।
उनको अमानवीय यातनाएं दी गईं, जलील किया गया और झूठे हलफनामें लिखवाए गए।
उन झूठे हलफनामों के आधार पर ही उन्हें मामले में आरोपी बनाया गया और
मामले को हल कर लेने का दावा किया गया।

किताब में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि जिन इकबालिया बयानों के आधार
पर 6 लोगों को आरोपी बना कर गिरफ्तार किया गया था, पोटा अदालत में बचाव
पक्ष की दलीलों के सामनें वे कहीं नहीं टिक रहे थे। लेकिन फिर भी अगर
पोटा अदालत की जज सोनिया गोकाणी ने बचाव पक्ष की दलीलों को अनसुना कर
दिया तो उसकी वजह समझने के लिए सिर्फ एक वाकए को जान लेना काफी होगा।
--“मुफ्ती अब्दुल कय्यूम को लगभग डेढ़ महीने के ना काबिल-ए-बर्दाश्त
शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद रिमांड खत्म होने के एक दिन पहले 25
सितंबर को पुरानी हाईकोर्ट नवरंगपुरा में पेश किया गया जहां पेशी से पहले
इंस्पेक्टर वनार ने उन्हें अपनी आफिस में बुलाया और कहा कि वह जानते हैं
कि वह बेकसूर हैं लेकिन उन्हें परेशान नहीं होना चाहिए, वे उन्हें बचा
लेंगे। वनार ने उनसे कहा कि उन्हें किसी अफसर के सामने पेश किया जाएगा जो
उनसे कुछ कागजात पर हस्ताक्षर करने को कहेंगे जिस पर उन्हें खामोशी से
अमल करना होगा। अगर उन्होने ऐसा करने से इंकार किया या हिचकिचाए तो
उन्हें उससे कोई नहीं बचा पाएगा क्योंकि पुलिस वकील जज सरकार अदालत सभी
उसके हैं।”

दरअसल सच तो ये था कि बाकी सभी लोगों के साथ ऐसे ही अमानवीय पिटाई और
अत्याचार के बाद कबूलनामें लिखवाए गए थे और उनको धमकियां दी गईं कि अगर
उन्होने मुंह खोला तो उनका कत्ल कर दिया जाएगा। लेकिन क्राइम ब्रांच की
तरफ से पोटा अदालत में इन इकबालिया बयानों के आधार पर जो मामला तैयार
किया गया था, अगर अदालत उसपर थोड़ा भी गौर करती या बचाव पक्ष की दलीलों
को महत्व देती तो इन इकबालिया बयानों के विरोधाभाषों के कारण ही मामला
साफ हो जाता, पर शायद मामला सुनने से पहले ही फैसला तय किया जा चुका था।
किताब में इन इकबालिया बयानों और उनके बीच विरोधाभाषों का सिलसिलेवार
जिक्र किया गया है।

इस मामले में हाइकोर्ट का फैसला भी कल्पनाओं से परे था। चांद खान, जिसकी
गिरफ्तारी जम्मू एवं कश्मीर पुलिस ने अक्षरधाम मामले में की थी, के सामने
आने के बाद गुजरात पुलिस के दावे को गहरा धक्का लगा था। जम्मू एवं कश्मीर
पुलिस के अनुसार अक्षरधाम पर हमले का षडयंत्र जम्मू एवं कश्मीर में रचा
गया था जो कि गुजरात पुलिस की पूरी थ्योरी से कहीं मेल नहीं खाता था।
लेकिन फिर भी पोटा अदालत ने चांद खान को उसके इकबालिया बयान के आधार पर
ही फांसी की सजा सुनाई थी।

लेकिन इस मामले में हाइकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा – “वे अहमदाबाद,
कश्मीर से बरेली होते हुए आए। उन्हें राइफलें, हथगोले, बारूद और दूसरे
हथियार दिए गए। आरोपियों ने उनके रुकने, शहर में घुमाने और हमले के स्थान
चिन्हित करने में मदद की।“ जबकि अदालत ने आरोपियों का जिक्र नहीं किया।
शायद इसलिए कि आरोपियों के इकबालियाय बयानों में भी इस कहानी का कोई
जिक्र नहीं था। जबकि पोटा अदालत में इस मामले के जांचकर्ता जीएल सिंघल
बयान दे चुके थे कि उनकी जांच के दौरान उन्हें चांद खान की कहीं कोई
भूमिका नहीं मिली थी। लेकिन फिर भी हाइकोर्ट ने असंभव सी लगने वाली इन
दोनो कहानियों को जोड़ दिया था और इस आधार पर फैसला भी सुना दिया।

इसी तरह हाइकोर्ट के फैसले में पूर्वाग्रह और तथ्य की अनदेखी साफ नजर आती
है जब कोर्ट ये लिखती है कि “27 फरवरी 2002 को गोधरा में ट्रेन को जलाने
की घटना के बाद, जिसमें कुछ मुसलमानों ने हिंदू कारसेवकों को जिंदा जला
दिया था, गुजरात के हिंदुओं में दहशत फैलाने और गुजरात राज्य के खिलाफ
युद्ध छेड़ने की आपराधिक साजिश रची गई।” जबकि गोधरा कांड के मास्टरमाइंड
बताकर पकड़े गए मौलाना उमर दोषमुक्त होकर छूट चुके हैं और जस्टिस यूसी
बनर्जी कमीशन, जिसे ट्रेन में आग लगने के कारणों की तफ्तीश करनी थी, ने
अपनी जांच में पाया था कि आग ट्रेन के अंदर से लगी थी। इसी तरह हाइकोर्ट
ने बहुत सी ऐसी बातें अपने फैसले में अपनी तरफ से जोड़ दीं, जो न तो
आरोपियों के इकबालिया बयानों का हिस्सा थी और न ही जांचकर्ताओं ने पाईं।
और इस तरह पोटा अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए मुफ्ती अब्दुल कय्यूम,
आदम अजमेरी, और चांद खान को फांसी, सलीम को उम्र कैद, मौलवी अब्दुल्लाह
को दस साल और अल्ताफ हुसैन को पांच की सजा सुनाई।

इसी तरह हाइकोर्ट ने इन आरोपों को कि ये षडयंत्र सउदी अरब में रचा गया और
आरोपियों ने गुजरात दंगों की सीडी देखी थी और आरोपियों ने इससे संबंधित
पर्चे और सीडी बांटीं जिसमें दंगों के फुटेज थे, को जिहादी साहित्य माना।
सवाल ये उठता है कि अगर कोई ऐसी सीडी या पर्चा बांटा भी गया जिसमें
गुजरात दंगों के बारे में कुछ था तो उसे जिहादी साहित्य कैसे माना जा
सकता है। हालांकि अदालतें अपने फैसलों में अपराध की परिभाषा भी देती हैं
उसके आधार पर किसी कृत्य को आपराधिक घोषित करती हैं पर इस फैसले में सउदी
अरब में रह रहे आरोपियों को जिहादी साहित्य बांटने का आरोपी तो बताया गया
है पर जिहादी साहित्य क्या है इसके बारे में कोई परिभाषा नहीं दी गई है।

आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने क्रमवार 9 बिंदुओं पर अपना विचार रखते हुए
सभी आरोपियों को बरी किया। सर्वोच्च न्यायलय ने माना कि इस मामले में
जांच के लिए अनुमोदन पोटा के अनुच्छेद 50 के अनुरूप नहीं था। सर्वोच्च
न्यायलय ने यह भी कहा कि आरोपियों द्वारा लिए गए इकबालिया बयानों को दर्ज
करने में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय नियमों की अनदेखी की गई। जिन दो
उर्दू में लिखे पत्रों को क्राइम ब्रांच ने अहम सबूत के तौर पर पेश किया
था उन्हें भी सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। फिदाईन की पोस्टमार्टम
रिपोर्ट का हवाला देते हुए अदालत ने कहा – “जब फिदाईन के सारे कपड़े खून
और मिट्टी से लथपथ हैं और कपड़ों में बुलेट से हुए अनगिनत छेद हैं तब
पत्रों का बिना सिकुड़न के धूल-मिट्टी और खून के धब्बों से मुक्त होना
अस्वाभाविक और असंभ्व है।” इस तरह सिर्फ इकबालिया बयानों के आधार पर किसी
को आरोपी मानने और सिर्फ एक आरोपी को छोड़कर सभी के अपने बयान से मुकर
जाने के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने सारे आरोपियों
को बरी कर दिया।

हालांकि ये सवाल अब भी बाकी है कि अक्षरधाम मंदिर पर हमले का जिम्मेदार
कौन है। इसलिए लेखकद्वय ने इन संभावनाओं पर भी चर्चा की है और खुफिया
विभाग के आला अधिकारियों के हवाले से वे ये संभावना जताते हैं कि इस हमले
की राज्य सरकार को पहले से जानकारी थी। फिदाईन हमलों के जानकार लोगों के
अनुभवों का हवाला देते हुए लेखकों ने यह शंका भी जाहिर की है क्या मारे
गए दोनो शख्स सचमुच फिदाईन थे? इसके साथ ही इस हमले से मिलने वाले
राजनीतिक फायदे और समीकरण की चर्चा भी की गई है।

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि किताब में कहीं भी कोरी कल्पनाओं का सहारा
नहीं लिया गया है। इस पूरे मुकदमें से जुड़े एक-एक तथ्य को बटोरने में
लेखकों को लंबा समय लगा है। मौके पर जा कर की गई पड़तालों, मुकदमें में
पेश सबूतों, गवाहियों, रिपोर्टों और बयानों की बारीकी से पड़ताल की गई है
और इन सारी चीजों को कानून सम्मत दृष्टिकोण से विवेचना की गई है। यह
किताब, राज्य सरकार की मशीनरी और खुफिया एजेंसियों, अदालतों तथा राजनीतिक
महत्वाकांक्षा की साजिशों की एक परत-दर-परत अंतहीन दास्तान है।

"आपरेशन अक्षरधाम"
(उर्दू हिंदी  में एक साथ प्रकाशित)
लेखक – राजीव यादव, शाहनवाज आलम
प्रकाशक – फरोश मीडिया
डी-84, अबुल फजल इन्क्लेव
जामिया नगर, नई दिल्ली-110025

नेपाल का मौजूदा संकट और भारत

Friends,

Since last couple of months after the announcement of a new constitution, Nepal is facing a serious crisis due to the undeclared economic blockade imposed by India. The Indian government has denied any such sanction rather it blames this on Madhesi protestors of terai region who have hindered the entry points on Indo-Nepal border and blocked all supplies. There is no doubt that Madhesi people are dissatisfied with the new constitution and hence they are protesting against it since last three months. They feel that it has failed to address their demands and an injustice has been done to the community. But the Indian Government, that was already unhappy with the Nepali leadership has now played up on this rage and has tried to teach a lesson by first imposing the blockade directly and then indirectly on the pretext of Madhesi sentiment.

This impasse has created an unprecedented crisis for the Nepali people. People from plains and hilly areas both are affected from this. There is serious dearth of petrol, cooking gas, medicines in Nepal and the ordinary life is in shackles. People feel as if they are citizens of a war-ridden nation. The contradictions between both the countries as well as that of hill and terai are getting sharper day by day. This contradiction is making inroads into the common masses too.

This is a grave situation. In solidarity with the people of Nepal including the agitating people of  Tarai-Madhesh, we hope to resolve this situation through dialogue as soon as possible. The government of India must not treat this crisis as a prestige issue rather it should immediately call for an end to this ‘unofficial blockade’.

To deliberate upon the situation we have called a meeting with some of our Nepalese comrades. We expect your presence and participation. 

Nepal’s Present Crisis and India
Date & Time : 4 December 2015, 3.00 pm
Venue : Seminar Hall, N. D. Tewari Bhavan 
(next to Gandhi Peace Foundation), 
Deendayal Upadhyay Marg, New Delhi

Anand Swaroop Verma
On behalf of Samkaleen Teesari Dunia
Phone: 9810720714

मित्रो,
                         
पिछले लगभग दो माह सेजब से नए संविधान की घोषणा हुईभारत द्वारा लागू की गयी आर्थिक नाकाबंदी के कारण पड़ोसी देश नेपाल जबरदस्त संकट के दौर से गुजर रहा है. भारत सरकार का कहना है कि उसने किसी तरह की नाकाबंदी नहीं की है और तराई क्षेत्र में मधेसी आंदोलकारियों ने सीमा से नेपाल के प्रवेश मार्गों पर अवरोध पैदा किये हैं जिससे भारत से कोई आपूर्ति संभव नहीं हो पा रही है. इसमें कोई संदेह नहीं कि मधेस की जनता नए संविधान से असंतुष्ट है और वह पिछले तीन महीनों से आन्दोलन कर रही हैउसे लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है और उसकी मागों को संविधान में संबोधित नहीं किया गया है. नेपाल के मौजूदा नेतृत्व से नाराज भारत सरकार ने मधेसी जनता के आन्दोलन की आड़ ले कर नेपाल को सबक सिखाने के मकसद से पहले तो प्रत्यक्ष तौर पर और फिर अप्रत्यक्ष तौर पर नाकाबंदी की है.

इस स्थिति ने नेपाल की जनता के सामने अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया हैइस संकट की चपेट में पहाड़ और तराई दोनों क्षेत्र की आबादी है. आज देश के अंदर न तो पेट्रोल है और न खाना बनाने की गैसअस्पतालों में दवाएं बिलकुल ख़त्म हैं और उनकी पूरी ज़िन्दगी तहस-नहस हो गयी है. उनकी हालत किसी युद्ध-पीड़ित देश के नागरिक जैसी हो गयी है. पहाड़ और तराई के बीच तथा समग्र नेपाल और भारत के बीच अन्तर्विरोध खतरनाक रूप लेते जा रहे हैं. यह अन्तर्विरोध महज सरकारों के बीच नहीं बल्कि जनता के बीच भी विकसित होने लगा है.

यह स्थिति बहुत चिंताजनक है. मधेस क्षेत्र और तराई सहित नेपाल की जनता के साथ एकजुटता व्यक्त करते हुए हम चाहते हैं कि बातचीत के जरिये समस्या का जल्द से जल्द समाधान हो. भारत सरकार इसे झूठे सम्मान का विषय न बना कर इस अनऑफीसियल ब्लाकेड’ को फ़ौरन ख़त्म करे.

इस समूचे मामले पर विचार करने के लिए हमने नेपाल के अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर एक बैठक बुलाई है. हम चाहते हैं कि आप इसमें शामिल हों और अपनी राय रखें.

विषय : नेपाल का मौजूदा संकट और भारत
तिथि : 4 दिसम्बर 2015, दिन के 3 बजे.
   स्थान : सेमिनार हॉल, एन. डी. तिवारी भवन,
                          (गाँधी शांति प्रतिष्ठान के बगल में), दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नयी दिल्ली

आनंद स्वरूप वर्मा
‘समकालीन तीसरी दुनिया’ की ओर से.
Phone: 9810720714

A SECULARIST RESPONDS TO MINISTER RAJNATH SINGH …. RAM PUNIYANI. Sunday, November 29, 2015

A SECULARIST RESPONDS TO MINISTER RAJNATH SINGH ….

RAM PUNIYANI. Sunday, November 29, 2015


NEW DELHI: The celebration of Constitution day ( November 26 2015) marked the revival of the debate, rather questioning of the concept of secularism, yet again. Rajnath Singh, the home minister repeated the arguments which the RSS parivar has been raising time and over again. He said that the perverse use of the term secularism is causing social tensions. As per Singh, secularism is the most misused term in the country and it is this misuse of the term which is causing social tensions. He repeated that this term has Western roots and stands for separation between religion and state. In India since its religion itself is secular such a concept is not needed here. He repeated the earlier arguments of RSS ideologues that there is no need to have the word Secularism the Preamble of Indian Constitution.

Most of these arguments which keep coming from Sangh parivar have a deeper purpose. They are uncomfortable with the very concept of a secular state so they bring forward this debate in different guises. One recalls that on the eve of Republic Day January 26 2015, the Government issued an advertisement in which the words secular and socialist were missing. The argument put forward after a strong protest was that these words were inserted into the Preamble during the Emergency were not there originally. The point however is that the Indian Constitution has all the provisions for secular values in different clauses of our Constitution, still in the face of rising communal politics this addition to the Preamble made in 1975 merely reinforces the goals of our Constitution.

Is secularism a Western concept? It is true that this value originated in the Western World but the context of the word is not mere geographical it has all to do with the process of modernization, the rise of industrialization and modern education accompanying the process of abolition of kingdoms, feudal values. It runs parallel to coming of the society with equality of all human beings. This process comes in the wake of a change in societal dynamics whereby the hold of organized religion, the clergy, on social affairs starts diminishing or is abolished altogether. This process of secularization heralds the beginning of the modern society where religion, the organized institution in contrast to other facets of religion, is relegated to the margins of society.

The argument that India is different as here there was no organized Church, this concept is not needed in India. As far as the scattered clergy of Hinduism is concerned, it played the same role, allying with the feudal powers to sanctify the divine power of kings or landlords, is no different. For that matter whatever be the religion, the clergy does play the same role in every pre-industrial society. It is a bane of South Asian countries that clergy or ‘politics in the name of religion’ keeps dominating the and acts as an obstacle to the strengthening of democratic values and relationship of equality.

The assertion that the Indian religion, Hinduism is secular, defies all sociological understanding of India, Hinduism and society here. Hinduism, of course is not a Prophet based religion, but is dominated by the Brahminical clergy, which was part of the ruling social powers. Hindu clergy, namely the Brahmins had the same role in giving sanctity to the feudal lord-king as any other clergy had, although in one sense the most visible of this is the organized Catholic Church and so that becomes the most cited example.

In the BJP scheme of things the religions of Indian origin, Buddhism, Jainism, Sikhism are all the sects of Hinduism. This is a political elaboration; not a theological one as all these religions are full-fledged religions as far as scriptures, rituals and values are concerned. This is deliberately done to create ‘the other’ in the followers of Islam and Christianity. So to say that the religions of Indian origin are the only Indian religions is faulty again. Religions don’t have nationality, they are universal.

The origin of religion in that sense is incidental. Look at the spread of Buddhism. Look at the followers of these religions trotting all over the globe. The very formulation of Indian versus foreign religion is a political construct. Hinduism does have different sects like any other religion having many sects. India has many religions thriving here. What are Indian religions is well answered by Gandhi. Gandhi states that in India “Apart from Christianity and Judaism, Hinduism and its offshoots, Islam and Zoroastrianism are living faiths.” (Gandhi’s collected works, Volume XLVI p. 27-28). This is very contrary to the RSS-BJP formulation of Islam and Christianity being foreign religions.

It is true that the practice of secularism has been tardy in India due to the weakness of the political leadership and due to the absence of effective land reforms. In tune with that, the RSS parivar has been coining different terms to criticize secularism as such and to hide its total opposition to religious pluralism and secularism.

First it began with the term appeasement for the affirmative policies of the Congress, and then went on to coin the term pseudo secular and lately sickular as a derogatory term for those trying to uphold the Constitutional values of secularism. The BJP slogan of ‘Justice for all and appeasement of none’ in a way underlines the way Hindu nationalism will operate, with no concern for the weaker religion minorities. Its agenda has been structured around identity issues related to a section of Hindus. Earlier the major issue used on the ground was the Ram temple, and today and the ‘Cow as mother’ is the reigning identity issue.

‘India First’ the highly emotive phrase coined by Prime Minister Narendra Modi as a substitute for secularism is a clever maneuver to bypass the word secular, which is a big obstacle to the agenda of Hindu nationalism of the RSS-BJP. While the freedom movement was totally diverse, plural and secular to the core the ideological foundations of today’s BJP lay in the Hindu nationalism as brought up by Savarkar and later by RSS. This begins with the formulation of India as a Hindu nation from times immemorial, in contrast to the self understanding of Indian national movement that ‘we are a nation in the making’.

Although the BJP currently has no choice but to uphold the Indian constitution it is trying to subvert the spirit of secular values by various means. And that’s what the RSS pracharak Rajnath Singh is doing as a minister in the Indian Government! Such distortions of the spirit of Indian Constitution need to be combated at the ideological, social and political level.

#secularism, # pseudosecular, #sickular #Ram Puniyani # Hindu nationalism, # Indian Nationalism #Indian Constitution # India First #plural# Freedom movement

वीरेन डंगवाल के संग एकालाप

वीरेन डंगवाल के संग एकालाप


मृत्‍युंजय 


मेरे भीतर एक डोमाजी उस्ताद बैठे हैं

             साभारःअभिषेक श्रीवास्तव का जनपथ


(क)



"क्या करूँ
कि रात न हो
टी.वी. का बटन दबाता जाऊँ
देखूँ खून-खराबे या नाच-गाने के रंगीन दृश्य
कि रोऊँ धीमे-धीमे खामोश
जैसे दिन में रोता हूँ
कि सोता रहूँ
जैसे दिन-दिन भर सोता हूँ
कि झगड़ूँ अपने आप से
अपना कान किसी तरह काट लूँ
अपने दाँत से
कि टेलीफोन बजाऊँ
मगर आयँ-बायँ-शायँ कोई बात न हो"

तब मेरा क्या होगा वीरेन दा -

दिन कहीं बचा है क्या वीरेन दा?
कि पूरा दिन एक विशाल चमकीली काली पट्टियों वाला विज्ञापन है
जिसमें रंगों की अँधेरी सुबहें परवाज करती हैं
कि पूरी रात एक रिमोट है
जिसके बटन दिन के हाथों में हैं।
कि पूरी कायनात एक स्क्रीन में बदल गई है
सब कुछ आभासी हो गया है।
कि प्रेम करने को आतुर कमीने नंगे बदन खुले रास्ते में खड़े हैं
रास्ता छेंक कर
कि रक्त की शरण्य भी आखेटकों की सैरगाह है
कि पटक देने का जी चाहता है सर
कहीं भी

कहीं कुछ भी नष्ट नहीं होता
अविनाशी हो गया है सब कुछ
कोई ऐसी जगह बची ही नहीं जहाँ कोई न हो
दुनिया के सारे दर और दीवारजिन्हें घर कहते है
खाक हो गए हैं
आइए एक पहाड़ उलटकर अपनी रीढ़ पर रख लें
और दब जाएँ इस अविनाशी नश्वरता के नीचे
दम घुटने से

मैं तो... मन करता है अपनी टाँगे धीरे धीरे रेत दूँकाट लूँ
गर्दन खींच दूँ रबर की तरह
मुट्ठियों में भींच लूँ सारी हड्डियाँ
बाकी लोथ पटक दूँ
सारे कमरे में फैल जाए आदिम रक्त गंध

कहीं तो कुछ हो
मत बदलेबचा रहे
मत बचेयाद रहे
याद न रहेसपने रहें

सपने जो हरदम हकीकत के अदृश्य हाथों की अवश कठपुतलियाँ हैं
और हकीकत तो वही है न वीरेन दा!

ये हम कहाँ आ गए वीरेन दा -

कि आपके गर्म हाथों में छुपाकर अपना मुँह
रोने का मन कर रहा है
पर आँसू नश्तर की तरह चुभ रहे हैं
रोती हुई आँखे दर्द से सूख गई हैं
दिमाग की नस तक फैल गया है चिपचिपा मांस
मेरी अपनी ही पलकें चुभ रही हैं खुले घाव में
आपकी हथेली को भेद हजार कीड़े भिनक रहे हैं
रक्त गंध के हर जर्रे में उनकी नुकीली सूँड़ गड़ गई है
उसी भयानक स्क्रीन पर लाइव चल रहा है यह दृश्य
पीछे से एक आकार में अँगुलियाँ उठाये एक हिंस्र पशु नगाड़ों के शोर में अपनी बारीक दाढ़ी में नफीस तराना पढ़ रहा है!

आप सुन रहे हैं न !
देखा आपने,
आपने देखा !
देख रहे हैं न।

चलिए उठिए वीरेन दा,
आप इतने घायल तो कभी नहीं हुए
हलक तक तक पसरे लहू में छप छप करते हम स्क्रीन पर दिख रहे हैं
देखिए नाटक नहीं है ये
टी वी चल रहा है
भागिए वीरेन दा
जल्दी करिए
कुचल नहीं सकते तो रेंग कर छुपने की कोशिश करिए प्लीज
हजार मेगा पिक्सल की रेंज में हैं हम !
लोग हँस रहे हैं
पापकार्न के ठोंगे और नया सिमअभी अभी खरीदे गए हैं।
एक नौकरी चहिए वीरेन दामैं तंग आ गया हूँ इस हरामपंथी से
चुपचाप पडा रहूँ कोई आए न जाए कुछ सुनूँ नहीं कुछ भी देख न सकूँ महसूस करना बंद कर दूँ बउरा जाऊँ
सुख में नहीं दुख में नहीं चेतना से भाग जाऊँ

एक नौकरी चहिए वीरेन दा
अपने कमीनेपन की बाड़ लगाकर रोक लेना चाहता हूँ सब
क्यों वीरेन दा
इस हरमजदगी के बाद भी वह मुझे प्रेम करती है
आप भी तो करते हैं
बर्दाश्त नहीं होता अब कुछ भी असली
मुझे छोड़ दीजिए
मत छुइए मुझे
हट जाइए
हटिए

मुझे एक नौकरी चाहिए वीरेन दा
वहीं उस स्क्रीन के भीतर
मेरे गले तक उल्टिओं का स्वाद भर आया है
उसे पी लूँगा
मैं कमजोर नहीं हूँ वीरेन दा
आपने क्या समझ रक्खा है
मैं जानता हूँ ये सब नकली है
मैं अभी फोड़ डालूँगा पूरा प्रोजेक्टर
एक नौकरी दिलाइए न वीरेन दा
नहीं दिलवा सकते फिर भी दिलवाइए तो...

शाम को मर जाता है वक्त
वक्त की लाश पर दिन और रात के गिद्ध खरोंचते है जटिल आकृतियाँ
सुबह गीला लाल रंग पसर जाएगा सब ओर
24 -7 का धंधा है यह
इतनी कठपुतलियाँ इतने वेग से इतनी तरफ घूम रही हैं
इतने धागों से बँधी हुई बड़े से देग में
यह रणनीति बनाने का वक्त है
वहीं चलिए वीरेन दा
उठिएलहू सने होठों में खैनी दबाइए
अपनी कैरिअर वाली साइकिल निकालिए
चलिए चलते हैं कानपुर के रास्ते
जहाँ आपके दोस्त और मेरे गुरु हैं
लाल इमली की भुतही मिल की सीढ़ियाँ उतरिए
जहाँ लोग हैं
इस स्क्रीन से बाहर निकालिए भाई
कोई प्यारा व्यारा नहीं है यहाँ
चलिए!

अपने सलवटों भरे चेहरे को सँभालिए
जी कड़ा करिए
हैंडिल थाम लीजिए कस कर
बाप रे! सँभालिए
इतनी तेजी इस उम्र में
मैं छूट जाऊँगा
गिर जाऊँगा मैं
सहस्रों फुट नीचे यहीं खो जाऊँगा मैं
इन प्रिज्मों की आभासी दुनिया में
जरा धीरे चलिए
हजारहाँ रपट चले घुटनों पर तो तरस खाइए
ये कोई फैसले का वक्त नहीं है
अभी तो रात बाकी है बात बाकी है
बाकीमीर अब नहीं हैं
कोई पीर भी नहीं है
हिंस्र पशुओं से भरा ये अँधेरा काफी डरावना है
अपने डर से डरिए वीरेन दा धीरे चलिए

मेरे भीतर एक डोमाजी उस्ताद बैठे हैं
मुझसे डर बुड्ढे
धीरे चल
चाल बदल कर नहीं बच सकता तू !

माफ करिएगा वीरेन दा
अनाप-शनाप बक गया गुस्से में
पर जा कहाँ रहे हैं
चला तो आप ऐसे रहे हैं जैसे जल्दी ही कहीं पहुँचना है हमें
पर इसी स्क्रीन के भीतर कहाँ तक जाएँगे आप
ऐसा न करिए कि मुझे गिरा दीजिए कहीं
यह रास्ता इतिहास की तरफ तो जाता नहीं है
भविष्य की तरफ तो जाता नहीं है
वर्तमान में तो आप भाग ही रहे हैं
फिर जा कहाँ रहे हैं हम

अद्भुत है यह तो अविश्वसनीय असंभव
हम कहीं पहुँच गए
ये क्या जगह है दोस्तों
ये क्या हो रहा है
मुझे मितली आ रही है
फिर से दिन उग आया है वीरेन दा
चिड़ियों की चोंचे नर्म शबनमी रक्त में लिथड़ी हैं
पेड़ अट्टहास कर रहे हैं
बाजरे की कलगी के रोएँ चुभ रहे हैं भालों की तरह हवा की अँतड़ियों में
हरियाली के थक्कों के बीच आप मुझे कहाँ ले आए हैं
सरपट की नुकीली पत्तियाँ खुखरियों की तरह काट रही हैं मुझे
इतनी रेत इतनी रेत
मेरा दम घुट रहा है
वक्त बीत रहा है वीर... ए...


(ख)


एक दर्द है जो अब होता ही नहीं
एक मन है जो चलता ही नहीं
एक जिस्म भी है जिस पर मेरा छोड़ हर किसी का नियंत्रण है
एक दुख है जो अब देश काल के शर से बिंधकर दुख ही नही रह गया है
आजकल तो इतने मुल्कों से इतनी लाशें उठती रहती हैं इतनी चीजों की कि
दुनिया एक कब्रगाह जैसी हो गई है
यहाँ आपसे धीमे धीमे बतियाते हुए भी मुझे डर है कि
हम एक बड़ी कब्र में तो नहीं बैठे हैं वीरेन दा?

नहीं...
अब पहले जैसी हालत नहीं है।
पक्का !
अब थोड़ा बेहतर महसूस कर रहा हूँ।
कितना परेशान किया आपको
मैं भी कैसा अभागा हूँ कि यह भी नहीं कर सका कि
कम से कम आपके जख्मों पर पट्टी ही बदल पाऊँ
ऐसे हालात में आप न होते तो
मेरा क्या होता वीरेन दा?
चुप रहने से क्या होगा ?
कहा न मेरी तबियत ठीक है !
बेहतर हूँ भाई,

अब सुनिए-
की-बोर्डों की ठक-ठक के नीचे
विराट कंप्यूटर के पीछे से
वहाँउस स्क्रीन के धागों में मैं जब झाँक रहा था
मैंने धब्बे देखे थे
लाल खून से भरे और चमकते हुए...
आप जानते हैं कुछ तो बताइए
उस विशाल स्क्रीन को
शार्ट सर्किट करने का कोई तो रास्ता होगा न

ओ होये बात,
अरे वीरेन दामुझे न बनाइए
मैं तब से जानता हूँ आपको जब आप
कंधे पर लटकाए घूमते थे मुझे
मेरी बेसिक रीडर को सँभालते बचाते
और तीनरंगे झंडे को उदास हसरत से देखते हुए


(ग)


यहाँ कुछ हरा-हरा सा दिख रहा है
क्या यही वह जगह है जहाँ से
पलटकर
कुछ छीन लातेमार खातेमार देते लोग
आत्महत्या की घिरी चौपाल में
हत्या के मंसूबे बनाकर।

'मरनाकहने से अपने घावों की
याद ताजा हो जाती है
और मारने से अपनी चोट भूल जाती है
हमारे अपने ही हैं ये दोस्त
सपने की व्यथा जैसे
कथा जैसी कई युग से कही जाती सुनी जाती आ रही है

गहरे पर्वतों के गर्भ में से
जंगलों की काष्ठव्यापी हरी कच्ची गंध से
पतली चपल और वेगवंती आ-वेग धारा से
बुलावा आ रहा है
चलेंगे वीरेन दा?


(30 नवंबर, 2010)