इतिहास और वर्तमान का संबंध: रोमिला थापर
Posted by Reyaz-ul-haque on 11/24/2015 09:41:00 PMप्रसिद्ध इतिहासकार और चिंतक रोमिला थापर से रणबीर चक्रवर्ती की इतिहास, समाज और संस्कृति पर बातचीत. साक्षात्कारकर्ता प्रो. रणबीर चक्रवर्ती सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़, जे एन यू में प्राचीन इतिहास के शिक्षक हैं। प्रस्तुत साक्षात्कार, अंग्रेज़ी पाक्षिक फ्रंटलाइन में प्रकाशित, रोमिला थापर के लंबे साक्षात्कार “लिंकिंग द पास्ट एंड द प्रेजेंट” का कुछ संपादित रूप है और यहां इसका पहला आधा हिस्सा प्रकाशित किया जा रहा है। अनुवाद: शुभनीत कौशिक।
रोमिला थापर, जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एमेरिटस हैं, भारत के सबसे प्रसिद्ध इतिहासकारों में से एक हैं। आदिकालीन भारत के अपने व्याख्यापरक अध्ययनों के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली है। उनके अनथक प्रयासों से आदिकालीन भारतीय इतिहास का अध्ययन समाज-विज्ञानों की ओर अधिक उन्मुख हुआ है। भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास का उनका विशद अध्ययन अतीत के अन्वेषण और व्याख्याओं से पूर्ण है, जो न सिर्फ़ साक्ष्यों में समृद्ध है बल्कि प्राचीन इतिहास के अध्ययन में समाज-विज्ञानों जैसे, समाज शास्त्र, राजनीति विज्ञान, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानव-विज्ञान, भूगोल आदि को भी जोड़ने के लिए विशिष्ट है। जिसका नतीजा हमारे सामने प्राचीन/आदिकालीन इतिहास के ऐसे अध्ययन के रूप में आया है, जिसमें महज़ राजवंशों के विवरण और तिथियों की जगह अतीत के अंतर्दृष्टिपूर्ण अध्ययन ने ली है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान, रोमिला थापर ने हमें बार-बार इन बातों की भी याद दिलाई है: इतिहासलेखन के बदलते पैटर्न, इतिहासकारों द्वारा उठाए जाने वाले सवालों का विश्लेषण, इतिहासकारों की प्रविधियाँ और अतीत के अध्ययन के प्रति उनके दृष्टिकोण, जो अक्सर ही वर्तमान से भी जुड़े होते हैं। रोमिला ने अपने अध्ययनों के जरिये यह भी दिखाया है कि कैसे अतीत के एक अध्ययन-विशेष का प्रभाव वर्तमान की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दशाओं पर भी पड़ता है।
रोमिला थापर ने 1958 में लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ से, प्रो. ए एल बाशम के शोध-निर्देशन में पीएच-डी की उपाधि हासिल की। मौर्यकाल पर आधारित उनका यह शोध ग्रंथ बाद में, अशोक एंड द डिक्लाइन ऑव द मौर्याज़ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक में प्राथमिक स्रोतों के आलोचनात्मक अध्ययन के आधार पर रोमिला थापर ने, अशोक और मौर्यकाल को उसके सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ में देखने का प्रयास किया। इस पुस्तक ने आदिकालीन भारत से जुड़े इतिहासलेखन पर अमिट छाप छोड़ी। एंशियंट इंडियन सोशल हिस्ट्री और इंटरप्रेटिंग अर्ली इंडिया जैसी उनकी किताबों ने प्राचीन भारत के सामाजिक इतिहास संबंधी अध्ययन में उल्लेखनीय योगदान दिया। 1980 के दशक में रोमिला थापर द्वारा आरंभिक राज्यों के अध्ययन ने (मसलन, फ़्राम लिनिएज़ टू स्टेटऔर मौर्याज़ रिविजिटेड), ऐतिहासिक अनुसंधान के नए क्षेत्र खोले। इन पुस्तकों में, उन्होंने राज्य-समाजों के निर्माण के लिए उत्तरदायी जटिल सामाजिक-राजनीतिक और वैचारिक कारकों को रेखांकित करते हुए आदिकालीन भारत में राज्यों के गठन के इतिहास को समझाने की कोशिश की। यद्यपि रोमिला थापर की मुख्य रुचि आदिकालीन भारत के सामाजिक इतिहास में रही है, फिर भी उन्होंने आर्थिक इतिहास से जुड़े विषयों, जैसे जंगलों, व्यापारिक श्रेणियों, और व्यापार पर भी प्रचुर लेखन किया है।
हालिया दशकों में, शकुंतला और सोमनाथ: मेनी वायसेज़ ऑव हिस्ट्री जैसी उनकी किताबों में सांस्कृतिक इतिहास के प्रति उनका रुझान स्पष्ट है (यद्यपि, यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि सांस्कृतिक इतिहास, उत्तर-आधुनिक एवं उत्तर-औपनिवेशिक अध्ययनों से प्रभावित और उन्हीं से उपजे ‘सांस्कृतिक अध्ययन’ से कदाचित भिन्न है)। उनके अध्ययन का एक अन्य विशिष्ट क्षेत्र रहा है, इतिहास-पुराण की परंपरा का, आधुनिक विषय के रूप में इतिहास के साथ संबंध और इन दोनों का परस्पर तुलनात्मक अध्ययन। उन्होंने इस यूरोकेंद्रिक अवधारणा का भी सफलतापूर्वक खंडन किया कि आदिकालीन भारत में इतिहास का सेंस नहीं था और इसी प्रक्रिया में उन्होंने चक्रीय समय और रेखीय समय की अवधारणाओं का भी आलोचनात्मक विश्लेषण किया।
उनकी सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली किताबों में अर्ली इंडिया: फ़्राम द ओरिजिंस टू एडी 1300 शामिल है, जो उनकी पहले लिखी गयी किताब, हिस्ट्री ऑव इंडिया खंड (I) का ही परिवर्धित रूप है। इस पुस्तक में जो बदलाव और संवर्धन उन्होंने किए हैं, वह नए आंकड़ों, व्याख्या के नए मॉडलों, और नए परिप्रेक्ष्यों को अपने अध्ययन में शामिल करने को लेकर उनके खुलेपन को दर्शाते हैं। इससे विषय के प्रति उनकी निष्ठा का भी पता चलता है और यह दर्शाता है कि इतिहासकार की धारणाओं और मान्यताओं में भी बदलाव आते हैं – जो इतिहास की सजीवता का परिचायक है। अतीत की सांप्रदायिक और दक़ियानूसी व्याख्याओं की बेबाक आलोचक, रोमिला थापर को इतिहास में उनके योगदान के लिए, क्लुग प्राइज़ फॉर लाइफ़टाईम अचीवमेंट से भी नवाजा जा चुका है। वे वर्ष 1983 में भारतीय इतिहास कांग्रेस की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं।
इस साक्षात्कार में प्रो. रोमिला थापर बताती हैं कि कैसे अतीत – सुदूर और/या हालिया- वर्तमान से अंतरंग रूप से जुड़ा हुआ है। वे इस बात पर भी चर्चा करती हैं कि अतीत के किसी चरण-विशेष के अध्ययन के चुनाव को वर्तमान परिस्थितियाँ कैसे और किस हद तक प्रभावित और निर्धारित करती हैं। उनके ये वक्तव्य अतीत के अध्ययन के प्रति अधिक संवेदना और जागरूकता पैदा करने वाले हैं। वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर अतीत के समरूपीकरण को लेकर हमें चेताती है और भारत के बहुलतावादी परम्पराओं पर ज़ोर देती हैं। वर्तमान को अधिक बेहतर समझने के दृष्टिकोण से, अतीत संबंधी अध्ययनों में नए सवाल उठाने को भी वे इस साक्षात्कार में बार-बार प्रोत्साहित करती हैं।
रणबीर चक्रवर्ती: आपकी हाल में आई किताब पास्ट एज़ प्रीजेंट पढ़ने पर ऐसा लगता है कि भारत में इतिहास के अध्ययन की दशा और इतिहास के प्रति बनी आम धारणा को लेकर आप थोड़ा दुखी हैं। इसे लेकर आप आशावादी नहीं दिखतीं। यद्यपि आप इसे लेकर निराश भी कतई नहीं हैं – जैसा आपने स्पष्ट ही लिखा है। इस बारे में बताएं।
रोमिला थापर: आपका सवाल यह है कि पिछले कुछ दशकों में भारत में एक विषय के रूप में इतिहास कहाँ पहुँचा है। मुझे स्पष्ट करने दें कि इतिहास के अध्ययन और उस पर चर्चा करने के दो स्तर रहे हैं। एक तो है, अकादमिक इतिहासकारों वाला स्तर जहां मैं समझती हूँ कि पिछले दशकों में इतिहासलेखन में उल्लेखनीय और प्रभावशाली प्रगति हुई है, कम-से-कम उन इतिहासकारों के कार्यों में जो बेहतर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों से जुड़े हुए हैं। जब मैं इस मुद्दे पर विचार करती हूँ कि आज से पचास साल पहले इतिहास कैसे पढ़ाया जाता था, और उस समय इतिहासकारों को इतिहासलेखन को नयी दिशा की ओर उन्मुख करने में, जो संघर्ष करने पड़े, और इसकी तुलना जब आज इतिहास की दिशा-दशा से करती हूँ तो मुझे काफी बदलाव नजर आता है। यद्यपि ये बदलाव विश्वविद्यालयों में सार्वभौम नहीं रहे हैं। फिर भी, अब ऐसे इतिहासकार हैं जो इतिहास को बतौर समाज-विज्ञान ही नहीं देखते बल्कि उसके वैचारिक आधार को भी संज्ञान में लेते हैं।
पर इतिहास की एक दूसरी धारा भी है, जिसके बारे में मेरे विचार पहली धारा से बिलकुल विपरीत हैं। मेरा अभिप्राय है लोकप्रिय इतिहास (पापुलर हिस्ट्री) से, जिससे आम लोग अधिक परिचित हैं। इस धारा के अंतर्गत हो रहा लेखन या तो इतिहास ही नहीं है या है भी तो इसकी पद्धति लगभग एक सदी पिछड़ी हुई है। ‘लोकप्रिय इतिहास’ की इन किताबों में अक्सर बेतुके सवाल पूछे जाते हैं, अतीत के बारे में हर तरह का सामान्यीकरण किया जाता है, जो सामान्यतया इतिहास के बारे में ज्ञान के अभाव को ही दर्शाता है। लोक वृत्त में फैल रही इतिहास की यह धारा, जिसका प्रचार-प्रसार ऐसे लोगों द्वारा किया जा रहा है जो पेशेवर इतिहासकार नहीं हैं, कहीं-न-कहीं स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाये जा रहे इतिहास की पद्धति से भी जुड़ी हुई है। हम आज भी इतिहास की ऐसी समझ और इतिहास पढ़ाने की ऐसी पद्धति इस्तेमाल कर रहे हैं, जो पुरानी पड़ चुकी हैं। आज भी पूरा ज़ोर तिथियों और घटनाओं पर है और इतिहास को उन सूचनाओं के संकलन के रूप में देखा जा रहा है, जिसे छात्रों को कंठस्थ करना है। छात्रों को दिये गए इतिहास के नोट्स को देखकर किसी ने सही ही कहा कि वे बिलकुल टेलीफ़ोन डायरेक्ट्री की तरह दिखते हैं, जिसमें एक ओर संख्याएँ होती हैं और दूसरी ओर लोगों के नाम।
इतिहास की पद्धति के बारे में.
यह दुखद है कि लोग आज भी यही सोचते हैं कि इतिहास अतीत के बारे में सूचना भर ही है। यह दृष्टिकोण, बतौर विषय इतिहास की सीमाओं को अत्यंत सीमित कर देने वाला है। इतिहास के शोध में हमारा ज़ोर महज़ ज्ञात स्रोतों से सूचनाएँ जुटाना ही नहीं है। बल्कि इसमें स्रोतों के नए प्रकारों की खोज करना, और अतीत को समझने और उसकी व्याख्या करने के लिए सूचनाओं का इस्तेमाल करने से पूर्व, पहले से कहीं अधिक सजग होकर साक्ष्यों की निर्भरता को जाँचना भी शामिल है। सूचनाएँ हासिल करने के लिए अतीत को खंगालने और फिर अतीत की व्याख्या करने के ये दो पक्ष, जोकि ‘ऐतिहासिक पद्धति’ का निर्माण करते हैं, आज अत्यंत ज़रूरी हो गए हैं।
दुर्भाग्य से इस बात पर पर्याप्त ज़ोर नहीं दिया जा रहा है कि स्कूलों और कॉलेजों में यह पद्धति, छात्रों को कैसे पढ़ाई जाये। इस पद्धति का अनिवार्य पहला चरण है: आँकड़े और साक्ष्य जुटाना। दूसरा चरण है इन आँकड़ों की विश्वसनीयता को जांचना और यह सुनिश्चित करना कि इस्तेमाल किए जाने वाले साक्ष्य विश्वसनीय और निर्भर-योग्य हैं। तीसरा चरण, घटनाओं के बीच कार्य-कारण संबंधों को देखना है क्योंकि तार्किक विश्लेषण के लिए यह बहुत ज़रूरी है। अगले चरण में यह सुनिश्चित करना कि हर विश्लेषण आँकड़ों के आलोचनात्मक मूल्यांकन पर आधारित हो। लोकप्रिय इतिहास में अक्सर ही, वास्तविक तार्किक विश्लेषण की जगह फंतासियां ले लेती हैं।
इन चरणों से गुजरकर ही आप वह वक्तव्य दे सकते हैं, जिसे हम ऐतिहासिक सामान्यीकरण कहते हैं। आज इस पूरी प्रक्रिया से गुजरने की अपेक्षा इतिहास के हरेक छात्र से की जाती है।
तो आप यह सुझा रही हैं कि इतिहास और अतीत में शौकिया रुचि और अतीत की एक इतिहासकार की समझ में, जो तार्किक आधार पर सूचनाओं को एकत्र कर उनके पद्धतिगत व्याख्या से संभव होती है, काफी अंतर है।
हाँ, बिलकुल। यह बात सभी इतिहासों के संदर्भ में सही है। पर यह प्राचीन भारतीय इतिहास के संदर्भ में और भी जटिल है, अगर हम इस्तेमाल होने वाले स्रोतों के वैविध्यता को ध्यान में रखें। प्राचीन भारतीय इतिहास की दर्जन भर किताबें पढ़ लेना ही काफी नहीं है, इससे आप विशेषज्ञ नहीं हो जाते। आपको स्रोतों के बारे में पता होना चाहिए और यह भी कि उनका विश्लेषण कैसे करना है। स्रोतों की भाषाओं में भी आपकी दक्षता होनी चाहिए। आपको पुरातत्व, भाषा-विज्ञान की भी जानकारी होनी चाहिए। भाषा-विज्ञान के जरिये ही आप भाषाओं में आने वाले बदलावों, शब्द-भंडारों के निर्माण, व्याकरण के बारे में और भाषाओं के अलगाव और उनके बीच होने वाली अंतःक्रिया के संबंध में अधिक बेहतर समझ बना पाएंगे।
उदाहरण के लिए, जब हम छात्र थे तो हमें यह बताया जाता था कि ऋग्वेद की भाषा इंडो-आर्यन भाषा ही है। पर आज यदि आप ऐसा वक्तव्य दें, तो वैदिक काल में विशेषज्ञता रखने वाले कुछ विद्वान इस कथन से जरूर अपनी असहमति जताएंगे क्योंकि भाषा-विज्ञान के सिद्धांतों के प्रयोग ने यह दर्शाया है कि ऋग्वेद में द्रविड़ भाषाओं के भी अंश सम्मिलित हैं। इन जानकारियों से इतिहासकार के प्रत्यक्षीकरण और स्रोतों के प्रति उसके दृष्टिकोण में भी बदलाव आते हैं। अब ऋग्वेद के संदर्भ में ही यह जानकारी इतिहासकार को ऐसे ऐतिहासिक संदर्भ के अध्ययन के लिए प्रेरित करती है, जो एकल संस्कृति का न होकर सह-अस्तित्व में विद्यमान उन संस्कृतियों का है, जिनमें एक का प्रभुत्त्व है। तो इतिहासकार को इन अन्य संस्कृतियों के बारे में भी जानकारी जुटानी होगी और उनका अध्ययन करना होगा। इतिहासकार को नदियों के जल तंत्र के अध्ययन (हाइड्रोलॉजी) और आनुवंशिकी के अध्ययन और रिपोर्टों से मिलने वाली जानकारियों का समावेश भी अपने अध्ययन में करना होगा।
साक्ष्य से जुड़े इन पक्षों की चर्चा मैं इसलिए कर रही हूँ ताकि मैं यह समझा सकूँ कि इतिहास से जुड़े सवालों के जवाब, यह ज़रूरी नहीं कि हमेशा हाँ या ना में ही हों। क्योंकि इतिहास से जुड़े साक्ष्य वैविध्यता से भरे हुए और विवादित दोनों हो सकते हैं (इस कारण भी मुझे लगता है कि इतिहास में वस्तुनिष्ठ सवाल पूछे जाने का कोई मतलब नहीं बनता)। इतिहासकार को अपनी व्याख्याओं की तार्किकता पर निर्भर रहना होगा। यह भी कि साक्ष्यों में बदलाव होने पर इन व्याख्याओं में भी बदलाव हो सकते हैं। ऐतिहासिक व्याख्याएँ, एक निश्चित समय-बिन्दु पर एक विषय से संबंधित ज्ञान-विशेष की मात्रा पर भी निर्भर होती हैं। ऐसी व्याख्याओं पर प्रयोजन-विशेष के उद्देश्य से एक खास रंग भी चढ़ सकता है।
अब मैं आपका ध्यान एक व्यापक मुद्दे की ओर आकर्षित करना चाहूँगा। वह यह कि आम लोगों के समक्ष कई बार कुछ समूहों द्वारा इतिहास और अतीत का एक समरूपी संस्करण प्रस्तुत किया जाता है। हम जानते हैं कि अतीत घटनाओं का समरूपी प्रस्तुतीकरण भर नहीं है। आप कह रही थीं कि ऋग्वेद में सिर्फ़ इंडो-आर्यन भाषा ही नहीं है! यह एक भाषा में रचा हुआ ग्रंथ नहीं है, इसमें अनेक भाषाएँ शामिल हैं जो विविध संस्कृतियों के अस्तित्व की ओर भी इशारा करती हैं।
एक अंतर तो विद्वत्ता के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी है। प्राचीन भारत पर काम करने वाले विद्वानों का मानना है कि आर्य भाषा मध्य एशिया से ईरान होते हुए भारत पहुँची। पर अब भारत में कुछ लोगों द्वारा इस दृष्टिकोण का प्रचार किया जा रहा है कि आर्यभाषा भाषी भारत के स्थानीय निवासी ही थे। कुछ तो हड़प्पा सभ्यता के निवासियों को भी आर्य साबित करते हुए यह सुझाना चाहते हैं कि भारतीय सभ्यता की उत्पत्ति में कोई गैर-आर्य तत्त्व था ही नहीं! यह ऐसा तर्क है जो मुझे विभिन्न कारणों से कतई स्वीकार नहीं। भाषाई और पुरातात्विक आधार पर भी यह किसी तरह से संभव नहीं जान पड़ता। हम कहते हैं कि ऋग्वैदिक संस्कृति उत्तर-हड़प्पाकालीन थी, तो जाहिर है कि इसका मतलब हुआ कि इसमें इसकी पूर्वतर संस्कृति परिलक्षित नहीं होगी। हड़प्पा संस्कृति का संपर्क ओमान और मेसोपोटामिया से था, जिनका जिक्र ऋग्वेद में नहीं मिलता। ईसा पूर्व की तीसरी सहस्राब्दी के अंत और दूसरी सहस्राब्दी के आरंभ में, हड़प्पा संस्कृति अन्य समकालीन गैर-हड़प्पाई संस्कृतियों के साथ अस्तित्व में थी। दूसरी सहस्राब्दी के मध्य से अंत तक, जो ऋग्वेद का रचनाकाल भी माना जाता है, अनेक संस्कृतियों की मौजूदगी की जानकारी मिलती है। जैसे, चित्रित धूसर मृदभांड (पेंटेड ग्रे वेयर) संस्कृति, काला एवं लाल मृदभांड (ब्लैक एंड रेड वेयर) संस्कृति, महापाषाणकालीन (मेगालिथिक) संस्कृति आदि। यह एकल संस्कृतियाँ नहीं हैं, इनमें विविधता भरी हुई है। अपने प्रसार और विस्तार के क्रम में आर्यभाषा भाषी, इन संस्कृतियों के संपर्क में ज़रूर आए होंगे। यह भी याद रखना चाहिए कि जहां एक ओर हड़प्पा संस्कृति एक विकसित नगरीय संस्कृति थी, जो लिखने की कला से भी परिचित थी, वहीं दूसरी ओर ऋग्वेद कालीन समाज नगरीकरण से अपरिचित एक कृषि आधारित समाज था।
पर इस सबके बावजूद आज एक “परिशुद्ध आर्यवाद” (सेनीटाइज्ड आर्यानिज़्म) गढ़ने की कोशिश की जा रही है, जिसमें सब कुछ सरलीकृत होगा और जिसका स्रोत भी बस एक होगा। और समस्या की सारी जटिलताओं को दरकिनार कर दिया जाएगा।
ऋग्वेद में दक्षिणी प्रायद्वीप की महापाषाणकालीन (मेगालिथिक) संस्कृति का भी कोई उल्लेख नहीं मिलता।
हाँ, ऋग्वेद में इस रूप में महापाषाणकालीन (मेगालिथिक) संस्कृति का जिक्र नहीं है। पर इस टेक्स्ट में अन्य समूहों की चर्चा जरूर की गयी है, जैसे असुर, दास, दस्यु आदि। ऋग्वेद दो वर्णों की चर्चा करता है – आर्य और दास। ‘दास’ कौन थे? उनके बारे में ऋग्वेद में जो विवरण मिलता है वह यह है कि वे उन कर्मकांडों और रीति-रिवाजों को मानने वाले थे, जो आर्यों से भिन्न थे। ‘दास’ अलग देवताओं की उपासना करते थे, और वे वैदिक ग्रंथों के लेखकों की भाषा से भिन्न भाषाएँ बोलते थे। वे समृद्ध थे, मवेशियों के रूप में उनकी संपत्ति ईर्ष्या का विषय थी और वे अलग बसावटों में रहते थे। इसलिए कुछ विद्वान यह भी सोचते हैं कि वे अलग संस्कृति के थे। इतिहासकार के रूप में हमें यह सवाल करना होगा कि ‘दास कौन थे’ और उनका मिथकीकरण क्यों किया गया?
इसी तरह ‘दासी-पुत्र ब्राह्मणों’ का भी उल्लेख मिलता है। जिन्हें पहले तो अस्वीकार्य माना गया, पर बाद में जब इन लोगों ने अपनी शक्ति दिखाई तो उन्हें ब्राह्मण के रूप में स्वीकार कर लिया गया। ‘दासी-पुत्र ब्राह्मण’ स्वयं में ही एक विरोधाभाषी शब्द है क्योंकि ‘दासी-पुत्र’ (यानि एक दासी से उत्पन्न हुआ पुत्र) होना और ब्राह्मण की हैसियत दोनों में विरोध भाव है। वैदिक ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि देवों और असुरों में अक्सर संघर्ष होते रहते थे। यह एक स्तर पर मिथक है, पर यह मिथक भी तत्कालीन समाज की अवधारणाओं से बिलकुल अलग नहीं है। इतिहासकारों के मत में, वैदिक ग्रंथों में उत्तर-हड़प्पा काल से लेकर ईसापूर्व पाँचवी सदी के ऐतिहासिक नगरों के रूप में नगरीय संस्कृति के उदय तक का उल्लेख मिलता है। ऐसी स्थिति में क्या यह कहना संभव है कि ये वैदिक ग्रंथ संस्कृति के एक पैटर्न के उद्विकास के परिचायक भर हैं! पाँच हजार वर्षों के ऐतिहासिक गतिविधियों के बाद भी आज हम विविध संस्कृतियों के अस्तित्व के साक्षी हैं।
यह न तो एकल संस्कृति थी न एकाश्मी, यह तो संस्कृति के विविध समुच्चयों का संयोग थी। पर समरूपीकरण की इस प्रक्रिया में कहीं-न-कहीं यह दावा भी निहित है कि ‘हमारी सभ्यता अन्य सभ्यताओं से श्रेष्ठ है’।
एक प्रचलित तर्क यह भी है कि आर्य मूल रूप से भारत के ही निवासी थे और भारत से ही वे दुनिया के अन्य हिस्सों में गए और यूरोप में भी सभ्यता लेकर आर्य ही गए। इस सिद्धांत की खोज की गयी 19वीं सदी में, पर यह आज भी उतना ही लोकप्रिय है। सबसे पहले अमेरिका के थिओसोफिस्ट, कर्नल हेनरी एस ओलकाट ने इसे प्रतिपादित किया और यह सिद्धांत थिओसोफिस्टों ने अपना लिया। यद्यपि थिओसोफिस्ट कुछ समय के लिए आर्य समाज के निकट थे, पर स्वयं आर्य समाज के संस्थापक दयानन्द सरस्वती का मानना था कि आर्य तिब्बत से आए थे।
ये वे सिद्धांत हैं जो भारत के प्राचीनतम अतीत से जुड़े ऐतिहासिक विवादों से गहरे जुड़े हुए हैं। इनकी शुरुआत 19वीं सदी में हुई। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि यह वही समय था जब ‘नस्ल विज्ञान’ के अधीन यूरोपीय सर्वोच्चता पर, आर्य उत्पत्ति को आधार बनाकर चर्चा की जा रही थी। इनमें से कुछ सिद्धांत, बीसवीं सदी के यूरोप में ‘आर्यवाद’ को विनाशकारी दिशा की ओर ले गए। अतिरेक राष्ट्रवाद और अस्मिता की राजनीति के साथ ऐतिहासिक सिद्धांतों की जुगलबंदी के भयानक नतीजे हो सकते हैं, इसलिए यह ज़रूरी है इन सिद्धांतों पर चर्चा की जाए।
उन सवालों को, जिन पर ऐतिहासिक रूप से मतभेद है, वैसे ही सवाल या मुद्दे के रूप में देखा जाना चाहिए, जिन पर विद्वान अलग-अलग मत रख सकें और उनमें से हरेक का दृष्टिकोण साक्ष्यों के आधार पर आँका जाए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में ‘आर्यों’ का मुद्दे पर इतना अधिक राजनीतिकरण हो चुका है कि जो विद्वान ‘आर्यों के भारत में ही उत्पन्न होने’ की अवधारणा पर सवाल उठाते हैं, उन्हें सोशल मीडिया और इंटरनेट का गुस्सा और अपमान झेलना पड़ता है। ऐसी स्थिति ऐतिहासिक परिचर्चा और वाद-विवाद-संवाद की संभावना को घटा देती है।
क्या आपको लगता है कि भारत की राजनीतिक संस्कृति में एक रुझान तेजी से बढ़ रहा है जिसमें अतीत को समरूपी बनाने और अतीत तथा वर्तमान के बीच एक निर्बाध निरंतरता दिखाने की कोशिश हो रही है।
अतीत को विविध संस्कृतियों की जटिल अंतःक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए न कि एक सरलीकृत एकल संस्कृति के प्रभुत्त्व के रूप में। पर कुछ लोग अतीत को इसके जटिल रूप में देखना ही नहीं चाहते, वे इससे डरते हैं। हमारे अंदर यह आत्मविश्वास भी नहीं है कि हम अपनी संस्कृतियों को ऐसी संस्कृति के रूप में स्वीकार कर सकें, जिसकी उत्पत्ति विविध स्रोतों से हुई है और जो सदियों में विकसित हुई है और आगे ऐसे ही विकसित होगी। यह बात विश्व की अन्य संस्कृतियों के बारे में भी सच है। इतिहास के हर कालखंड ने संस्कृति-विशेष के उद्विकास को देखा है और हर समय में एकाधिक महत्त्वपूर्ण संस्कृतियाँ विद्यमान रही हैं। इतिहासकार के रूप में हमें इन संस्कृतियों के बीच समानताओं, विभेदों और उनमें होने वाली परस्पर अंतःक्रिया का अध्ययन करना होगा।
पर कुछ ऐसे लोग हैं जो चाहते हैं कि राष्ट्रवाद एक ही प्रभुत्वशाली संस्कृति पर आधारित हो, और जो अपनी संस्कृति मात्र को ही देश की सार्वकालिक राजनीतिक अस्मिता के तौर पर देखना चाहते हैं। समस्या की शुरुआत तभी होती है क्योंकि हम एक बहुलतावादी संस्कृतियों के समाज में रह रहे हैं।
इस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में क्या राष्ट्रीकृत संस्कृति (नेशनलाइज्ड कल्चर) शामिल नहीं है? दूसरे शब्दों में, यह दावा कि केवल एक तरह की संस्कृति भारत में है और सब कुछ समरूप है और था।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के निर्माण की प्रक्रिया की जड़ संस्कृति के औपनिवेशिक व्याख्याओं में है, बजाय कि संस्कृति के उन व्याख्याओं में जो प्राक-औपनिवेशिक काल में मौजूद थीं। हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि अलग-अलग समयों में, मसलन मौर्य काल, गुप्त काल, चोल युग, मुग़लों के समय में संस्कृति को किस रूप में देखा गया और उसे कैसे परिभाषित किया गया। हम इस मुद्दे पर सोचने से शायद इसलिए कतराते हैं क्योंकि इसकी पुनर्रचना करना आसान नहीं है। पर वे सभी देश, जो कभी उपनिवेश रहे हैं, उन्हें यह बात विचारनी होगी कि जिस रूप में आज वे अपनी पारंपरिक संस्कृति को स्वीकार कर रहे हैं, उसमें से कितना कुछ औपनिवेशिक परियोजना का रचा हुआ और औपनिवेशिक मान्यताओं का अंश है। यह बात जितनी भारत के लिए सच है उतनी ही इंडोनेशिया के लिए भी। और पेरू और मेक्सिको जैसे देशों के लिए तो और भी ज्यादे, जहाँ के पुराने दस्तावेजों को स्पेनिश आक्रमणकारियों ने जला दिया था।
इतिहास हमें बताता है कि परम्पराएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी या कुछ विशेष अवसरों पर रची जाती हैं। इसलिए यह कहना बिलकुल निराधार है कि एक खास समकालीन परंपरा पूर्णतः शुद्ध है और उसका इतिहास सहस्राब्दियों पीछे तक जाता है। वे परम्पराएँ भी, जिनका लंबा इतिहास होता है, समय-समय पर खुद में बदलावों का दौर देखती हैं।
यही बात शब्दों के इतिहास पर भी लागू होती है। अगर कोई संस्कृत, पालि और प्राकृत ग्रंथों में ‘आर्य’ शब्द के उल्लेख का अध्ययन करे, और यह समझने की कोशिश करे कि कैसे इतिहास में ‘आर्य’ शब्द का अर्थ और अस्मिता समय-समय पर बदले हैं। तो वह इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि ‘आर्य’ शब्द का यह जटिल इतिहास, 19वीं सदी में की जा रही ‘आर्य’ शब्द की व्याख्याओं से कदाचित भिन्न है। इस अध्ययन के दौरान इतिहासकार को यह भी देखना होगा कि संस्कृत, पालि और प्राकृत टेक्स्ट में कौन किसे ‘आर्य’ संबोधित कर रहा है, और क्यों। इस शब्द का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है? पालि टेक्स्ट में हम पाएंगे कि ‘आर्य’ वह है जो श्रद्धेय है, जैसे एक बौद्ध संन्यासी, और इसका उसकी जाति, उत्पत्ति या पूर्व-व्यवसाय से कोई लेना-देना नहीं है।
देशज आर्यवाद (इंडीजेनस आर्यानिज़्म), कुछ अंशों में, धार्मिक राष्ट्रवाद का ही सह-उत्पाद है। धार्मिक राष्ट्रवाद संस्कृतियों की बहुलता को स्वीकार नहीं करता। यह एक धार्मिक संस्कृति को मुख्य ‘राष्ट्रीय’ संस्कृति बनाने की पुरजोर कोशिश करता है। दुनिया भर में राष्ट्रवाद का यह एक प्रमुख लक्षण रहा है, चाहे वह उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद हो या भाषाई, धार्मिक या नृजातीय राष्ट्रवाद हो। राष्ट्रीय आंदोलनों में भी एक संस्कृति की सर्वोच्चता को स्वीकारने की प्रवृत्ति होती है, और यही संस्कृति ‘राष्ट्रीय’ संस्कृति बन जाती है।
धार्मिक राष्ट्रवाद एक धर्म, संस्कृति, भाषा आदि के सबसे अलग होने को रेखांकित करता है। यह अक्सर, राजनीतिक समर्थन हासिल करने के लिए जान-बूझकर गढ़ा जाता है, जैसा हिंदुत्व के उदाहरण में हमें स्पष्ट दिखता है। जैसा कि बहुत-से विद्वानों ने कहा है कि ‘हिंदुइज़्म’ और हिंदुत्व दोनों एक ही चीज नहीं हैं।‘हिंदुइज़्म’ एक धर्म है, जबकि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा। हिंदुत्व एक आधुनिक विचारधारा है जो कुछ बातें तो ज़रूर ‘हिंदुइज़्म’ से लेती है, पर यह ‘हिंदुइज़्म’ से बहुत अलग है। हिंदुत्व की अवधारणा 20वीं सदी में अस्तित्त्व में आई, और इसका उद्देश्य था - हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए हिंदुओं को राजनीतिक रूप से संगठित करना। धर्म पर आधारित विचारधारा के निर्माण में ज़रूरत पड़ने पर धर्म की आधारभूत बातों को भी फिर से रचा जा सकता है। यह पुनर्रचना अक्सर धर्म के अभिजात्य और पुरातनपंथी अनुयायियों को ध्यान में रखकर की जाती है। हिंदुत्व एक निश्चित भू-भाग, एकल संस्कृति और नृजातीय उत्पत्ति, एक भाषा और एक धर्म की बात करता है। यह हिंदुओं की साझी ‘पुण्यभूमि, पितृभूमि’ की भी बात करता है और अन्य सभी को विदेशी बतलाता है। हिंदुत्व अपने धार्मिक पक्ष में, सामी (सेमिटिक) धर्मों की रूपरेखा का ही अनुसरण करता है, मसलन, ‘ऐतिहासिकता’ पर ज़ोर और एकाश्मी (मोनोलिथिक) धर्म, एक पवित्र ग्रंथ, चर्च जैसे धार्मिक संगठन। गौरतलब है कि ये बातें सामाजिक और राजनीतिक संगठन में सहायक होती हैं। इसीलिए मैंने इसे ‘सिंडिकेटेड हिंदुइज़्म’ कहा है।
हाँ।
कई बार राष्ट्रीय संस्कृतियाँ उन महाकाव्यों (एपिक) को भी आधार बनाती हैं, जिनसे बहुसंख्यक लोग परिचित होते हैं। जब किसी महाकाव्य के बहुत से संस्करण होते हैं तो समस्या हो जाती है क्योंकि फिर ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ के निर्माण के लिए उनमें से एक ‘सही’ संस्करण का चुनाव करना होता है। जैसे भारत में रामायण के बहुत-से और विरोधाभासी संस्करण मौजूद हैं। पर धार्मिक राष्ट्रवाद को तो उनमें से किसी एक को ही ‘सही’ संस्करण के रूप में प्रोजेक्ट करना है – अब जाहिर है कि इतिहासकार इस पूरे प्रयास को ही अस्वीकार्य मानेंगे। एक टेक्स्ट जो ‘पवित्र ग्रंथ’ बन जाता है, असल में एक क्षेत्र के एक समुदाय के लिए रचा गया होता है। पर अलग-अलग कारणों से अन्य क्षेत्रों के लोगों द्वारा भी उस टेक्स्ट के स्वीकार्य हो जाने की स्थिति में, उस क्षेत्र के लोगों द्वारा उस टेक्स्ट में, या उसके कुछ भागों में अपनी ज़रूरत के हिसाब से आवश्यक बदलाव किए जाते हैं।
कई बार इतिहास के एक काल-विशेष को चुनकर उसे ‘क्लासिकल’ बताया जाता है, जिसके अंतर्गत उस समय में एकल प्रभुत्वशाली संस्कृति होने और सब कुछ सकारात्मक होने की अतिशयोक्तिपूर्ण बातें कही जाती हैं। यह राष्ट्रीय आंदोलन का भी केंद्रीय विचार (‘कोर आईडिया’) बन जाता है। पर असल समस्या तब पैदा होती है जब राष्ट्र-राज्य अस्तित्व में आता है, क्योंकि यह एकल संस्कृति अक्सर प्रभुत्वशाली बहुसंख्यक समुदाय की ही संस्कृति होती है। पर अब इस एकल संस्कृति की अवधारणा की ज़रूरत नहीं रह जाती चूँकि राष्ट्र एक धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र बन चुका होता है, या वैसा बनने की कोशिश कर रहा होता है। अन्य संस्कृतियाँ भी समान दर्जे की मांग करने लगती हैं।
और यदि कोई ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ की बात कर रहा है तो स्पष्ट है कि इसमें देश की सभी संस्कृतियों का समावेश होना चाहिए – मसलन, आदिवासी, दलित, मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन, पारसी आदि। ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ के निर्माण में बहुलता और विविधता तथा साझे इतिहास का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
आज हम संस्कृति के एक खास पक्ष को ही, उस संस्कृति-विशेष का परिचायक बताने का रुझान बढ़ता हुआ देख रहे हैं। यह कोशिश उन लोगों द्वारा की जा रही है जो या तो शक्तिशाली समूह का हिस्सा हैं या किसी तरह की सत्ता/शक्ति पाने की आकांक्षा रखते हैं। और सत्ता की इस आकांक्षा में कोई सांस्कृतिक संदेश या अभिव्यक्ति जैसी बात नहीं है, यह तो महज राजनीतिक सत्ता की आकांक्षा भर है। इससे इतिहास को भी नुकसान पहुँच रहा है।
हाँ, इस पूरी प्रक्रिया में इतिहास को ज़रूर नुकसान पहुँच रहा है। इस बात के बावजूद कि आज इतिहासकार अतीत को इसकी विविधताओं में समझने की कोशिश कर रहे हैं। इसका मतलब यह है कि जब तक कि वह एक समुदाय-विशेष का ही इतिहास न लिख रहा हो, तब तक इतिहासकार को चाहिए कि वह अन्य समुदायों की उपेक्षा करते हुए एक ही समुदाय पर ध्यान न केन्द्रित करे। क्योंकि अतीत की इस विविधता में भी एक-दूसरे से अलग प्रतीत होने वाली इन बातों को, जोड़ने वाले संपर्क सूत्र मौजूद होते हैं।
19वीं सदी के सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलनों ने, कुछ सीमा तक ही सही, भारतीय धर्मों के प्रारूप में बदलाव लाये। 20वीं सदी में जब विद्वानों ने बदलाव की इस प्रक्रिया को समझने और इसे समर्थन देने वाले सामाजिक समूहों को पहचानने और समझने की कोशिश की, तो उन्होंने अपना ध्यान उच्च जतियों पर ही केन्द्रित किया। यद्यपि वे अन्य जातियों का भी संदर्भ देते थे, पर उनका मुख्य ज़ोर उच्च जातियों पर ही था। कुछ इतिहासकारों ने अलग-अलग सामाजिक समूहों के राष्ट्रवादी उन्मुखता पर काम करना शुरू किया। सबआल्टर्न स्टडीज़ में इसकी शुरुआत हुई, जिसने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। जल्द ही यह बात भी पता चल गयी कि ‘निम्न’ माने जाने वाले सामाजिक स्तरों ने भी, मसलन, दलित एवं आदिवासी, राष्ट्रीय आंदोलन में अलग-अलग तरीकों से भागीदारी की।
इन अध्ययनों में दूसरे किस्म के भी सवाल पूछे गए, जैसे किन समूहों ने राष्ट्रवाद को धार्मिक राष्ट्रवाद में तब्दील किया, जिसका नतीजा हम वर्तमान में अस्मितापरक राजनीति के रूप में भी देख रहे हैं। और किन समूहों ने इस प्रक्रिया का विरोध, यह कहते हुए किया कि राष्ट्रवाद को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए। तो इस तरह ‘राष्ट्रवाद’ से जुड़े दावों और अवधारणाओं का विधिवत अध्ययन शुरू हुआ।
पर ये अध्ययन अपने प्रभावशीलता में अकादमिक दुनिया तक ही सीमित रहे, इसका लोकप्रिय स्तर पर कोई खास प्रभाव नहीं दिखा। कारण यह कि राष्ट्रवाद के इन विश्लेषणात्मक और आलोचनापरक अध्ययनों को, नेताओं और जनता के द्वारा इन विद्वानों में ‘देशभक्ति के अभाव’ के रूप में देखा गया। इसलिए मेरा मानना है कि यदि हमें “धार्मिक राष्ट्रवाद” और “सेकुलर (धर्मनिरपेक्ष) राष्ट्रवाद” में फर्क करना है तो हमें सेकुलरवाद की एक स्पष्ट परिभाषा की भी जरूरत होगी।
इस तरह, उत्तर-औपनिवेशिक भारत में धर्मनिरपेक्षता की समझ बनाने के क्रम में विविध संस्कृतियों और बहुलतावाद को संज्ञान में लेना अनिवार्य हो जाता है। इसमें एक समस्या तो, ‘सेकुलरवाद’ शब्द के हमारे प्रयोगों को लेकर ही है। सेकुलरवाद का भारतीय दृष्टिकोण, आमतौर पर केवल धर्मों के सह-अस्तित्व की ही बात करता है। पर मैं इस दृष्टिकोण को अपर्याप्त समझती हूँ। अक्सर इस संदर्भ में, अशोक के शिलालेखों को उद्धृत किया जाता है, जिनमें अशोक ने सभी पंथों (सेक्ट्स) को एक-दूसरे का सम्मान करने और, विशेषतया, अन्य लोगों के पंथ का भी आदर करने की बात कही है। हालिया समय में, अक्सर यह कहा जाता है कि भारतीय सभ्यता ऐसी सभ्यता है, जिसमें हर धर्म का आदर किया जाता था और किया जा रहा है। यह कहना भर काफी नहीं है कि सभी धर्मों के सह-अस्तित्व का मतलब है एक सेकुलर समाज। बल्कि हमें इसके साथ ही सभी धर्मों के बराबरी के दर्जे पर, उनकी एक समान हैसियत पर भी ज़ोर देना होगा। जब हम धर्मों को एक ‘बहुसंख्यक समुदाय’ और ‘अल्पसंख्यक समुदाय’ से जोड़ते हैं, जैसा कि हम अक्सर ही करते हैं, तो हमारे द्वारा किया गया यह अंतर धर्मों के बराबरी के दर्जे के अभाव को भी मान्यता देता है।
कुछ विद्वानों ने कई बार यह कहा है कि ‘भारतीय समाज को सेकुलर बनाने और धर्म से अलग करने की सीमाएं हैं’। मेरा यह कहना है कि इसी अर्थ में धर्म की भी सीमाएं हैं, यानि राजनीति और समाज तथा इनसे संबंधित संस्थाओं को प्रभावित करने वाला एकमात्र कारक धर्म ही नहीं हो सकता। समाज की अस्मिता ‘खुली/मुक्त अस्मिता’ (ओपन आइडेंटिटी) होनी चाहिए।
क्या आपका तात्पर्य ‘बहु-अस्मिताओं’ (मल्टीपल आइडेंटिटीज़) से है?
“ओपन आइडेंटिटी” शब्द का इस्तेमाल मैं इसलिए कर रही हूँ क्योंकि एक सच्चे लोकतन्त्र में एक स्थायी बहुसंख्यक समुदाय या अस्मिता का वर्चस्व नहीं हो सकता। हर बदलते मुद्दे के साथ, ‘बहुसंख्यक’ समूह की अवधारणा, उसका स्वरूप और गठन भी बदल जाता है। इसलिए ‘बहुसंख्यक’/बहुमत’ (मेजोरिटी) की अवधारणा, कोई पूर्व-निर्धारित अवधारणा नहीं है। यह एक प्रवाहमान तरल (फ्लुइड) अवधारणा है और लोकतंत्र में ऐसा ही होना चाहिए। जब हम लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, तो हम एक ऐसी व्यवस्था के बारे में बात कर रहे होते हैं, जिसमें बहुतेरी अस्मिताएं सह-अस्तित्व में तो होती ही हैं, वे प्रवाहमान और वैविध्यतापूर्ण भी होती हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि एक धर्मनिरपेक्ष समाज में, ये अस्मिताएं कोई वर्चस्वशाली धार्मिक अस्मिताएं नहीं हैं।
हम भारतीय, अतीतकाल से ही खुद के अत्यंत सभ्य और सहिष्णु होने के दावे करते हैं। पर हम ‘अछूतों’ के साथ किए गए अमानवीय व्यवहार, जिसमें उन्हें अधिकार, प्रतिष्ठा और मानव-अस्तित्व के लिए ज़रूरी बुनियादी चीजों से भी वंचित कर दिया गया, की चर्चा नहीं करते।
जब हम ‘हिन्दू’ होने को परिभाषित करते हैं तो सामान्यतया ऐसा उच्च जाति के लोगों के संदर्भ में ही किया जाता है। क्योंकि इस परिभाषा का आधार वे टेक्स्ट होते हैं, जो इन्हीं जाति-समूहों के हैं। चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, ईसाई या सिख, इस तथ्य की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता कि बहुतेरे धर्मावलंबी ऐसे होते हैं जो अपने धार्मिक ग्रंथों से थोड़ा ही परिचय रखते हैं। उनके लिए धर्म एक अलग ही मसला होता है। असल व्यवहार में, ये लोग अपना खुद का धर्म निर्मित कर लेते हैं, अपने चुने हुए तरीके से अपने देवताओं की पूजा करते हैं। ये लोग भले ही, जनगणना की रिपोर्ट में खुद को हिन्दू या मुस्लिम के रूप में दर्ज़ कराएं, पर असल में तो ये अपना खुद का धर्म ही निभाते है। मुझे लगता है कि इतिहास में हमेशा से ऐसा ही होता आया है। धर्म के इतिहासकारों को इसका मूल्यांकन करना चाहिए कि आखिर लोगों के धर्म और उनके विश्वास किस हद तक धार्मिक टेक्स्ट पर या व्यवहारों पर निर्भर होते हैं।
दलित समूहों की आकांक्षाओं और उनकी सामाजिक दशा को लेकर हम बिलकुल हाल ही में अधिक सजग हुए हैं। यद्यपि हम सर्वाधिक सहिष्णु समाज होने का दावा करते जरूर हैं, पर ऐसा है नहीं। हम एक अहिंसक समाज नहीं हैं।
एक जुमले के रूप में ‘अहिंसा और सहिष्णुता’ को राष्ट्रवाद के आविर्भाव के साथ ही अधिक लोकप्रियता मिली, जब पारंपरिक मूल्यों पर अधिक ज़ोर दिया जाने लगा। यह कहा गया कि भारतीय आध्यात्मिकता ने खुद को अहिंसा और सहिष्णुता के रूप में अभिव्यक्त किया जबकि पश्चिम में भौतिकवाद के प्रभाव के कारण, इन मूल्यों का अभाव दिखता है। इसके बावजूद जब कोई भारतीय इतिहास का अध्ययन करता है तो पाता है कि दुनिया के किसी अन्य हिस्से की तरह ही भारतीय इतिहास में भी असहिष्णुता और हिंसक संघर्षों के उदाहरण मौजूद हैं। ऐसे उदाहरण अरबों, तुर्कों और मंगोलों के आने से पहले के समय में भी मौजूद हैं। प्राचीन भारत में सेनाओं का जितना बड़ा आकार बताया जाता है, वह अगर अतिरंजित भी हो तो, यह बताता है कि पड़ोसी राज्यों से होने वाले युद्धों में बड़ी सेना की जरूरत होती थी। ऐसे ग्रंथों की भी कोई कमी नहीं है जो युद्धों का बखान करते नहीं थकते।
जब हम अतीत के धार्मिक समूहों की बात करते हैं तो अक्सर हम सोचते हैं कि ये समूह समरूपी अथवा समांगी समूह थे, पर असलियत इससे अलग थी। अतीत में बहुत से पंथ अस्तित्व में थे और इन पंथों के बीच प्रतिरोध, मेल-मिलाप, अंतःक्रिया की प्रक्रिया अनवरत चलती थी। पंथों की बहुलतावादी छवि की अक्सर ही उपेक्षा की जाती है। आम लोगों को के समक्ष अतीत की इस बहुलतावादी छवि को प्रस्तुत करने में इतिहास की क्या भूमिका हो सकती है?
असल में धर्मों ने, व्यावहारिक रूप में समाज में कैसे काम (फंक्शन) किया, यह आप तभी पढ़ा सकते हैं, जब आप इतिहास की पाठ्यचर्या में धर्मों के इतिहास को भी शामिल करें। एक विषय के रूप में, धर्मों का इतिहास, सिर्फ टेक्स्ट पर ही निर्भर नहीं होता। इसमें दैनंदिन व्यवहार, धर्म के प्रदर्शन और धर्म के संरक्षकत्व के मसले भी शामिल होते हैं। धर्मों का इतिहास इन बातों को भी समझने की कोशिश करता है: धर्म-विशेष के समर्थकों का समाजशास्त्र, धार्मिक संस्थाओं की संरचना, धर्म को प्राप्त होने वाले समर्थन के कारणों की पड़ताल।
हमें धर्मों के इतिहास का अध्ययन जरूर करना चाहिए। कारण कि धर्म और समाज की जो परस्पर निर्भर प्रकृति है, उसकी समझ धर्म और समाज को बेहतर समझने के लिए बेहद जरूरी है। धर्मों के इतिहास के जरिये ही लोग धर्मों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पक्षों को समझ सकेंगे। वे यह जान पाएंगे कि धर्म और धर्म की समझ, महज धार्मिक टेक्स्ट और कुछ अमूर्त मूल्यों तक ही सीमित नहीं है। बल्कि इसमें ये बातें भी शामिल होंगी: धार्मिक शिक्षाओं का इस्तेमाल राजदरबारों द्वारा कैसे किया गया, कुछ सामाजिक संस्थाओं को प्राधिकार (अथॉरिटी) देने में इसका प्रयोग कैसे हुआ, तीर्थस्थलों में, संन्यासियों द्वारा, और भू-स्वामित्व और वाणिज्य जैसी आर्थिक गतिविधियों में धर्म और इसकी शिक्षाओं का उपयोग कैसे हुआ।
धर्म लोगों के जीवन से अलग कोई वस्तु नहीं है। धर्म, कुछ लोगों के भावनात्मक जीवन का एक स्पंदित हिस्सा होता है, जबकि कुछ लोगों के जीवन में यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता। पर सामाजिक-राजनीतिक अभिव्यक्ति के रूप में धर्म, अक्सर एक धार्मिक समूह के दूसरे धार्मिक समूह के प्रति व्यवहार को निर्धारित करता है। यह पूरी प्रक्रिया इतिहास का हिस्सा रही है, इसलिए सामाजिक-राजनीतिक अभिप्रेरणाओं को उतना ही महत्त्व दिया जाना चाहिए जितना कि धार्मिक भावों को। क्योंकि व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक अक्सर धर्मेतर होते हैं। अंततः धर्मों को बिना विशेष दर्जे की मांग किए, एक दूसरे के साथ बराबरी के दर्जे में रहना भी सीखना होगा। जाहिर है कि एक ऐसे समाज में जहां एक धर्म सदियों से वर्चस्व में रहा हो, ऐसा होना आसान नहीं है।
(यह अंश समयांतर के नवंबर 2015 अंक में प्रकाशित हुआ है. बाकी हिस्सा जल्दी ही हाशियापर.)
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