कल अरुंधती राय जिनने मैसी साहेब की हिरोइन का रोल भी किया है,जिन्हें बुकर पुरस्कार मिला है,जिनने नियमागिरि पहाड़ को पूजने वाले कौंध आदिवासियों की बेदखली के खिलाफ आवाज उठायी और सलवा जुड़ुम के खिलाफ जो जंगल जंगल भटकी,जिनने हाल में भारत के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो बाबासाहेब के जाति उन्मूलन वाले आलेख को नये सिरे से अपनी प्रस्तावन के साथ जारी किया है,अब असहिष्णुता विरोधी देश जोड़ो,दुनियाजोड़ो आंदोलन के मोर्चे पर हैं।
कल अरुंधति ने भी अपना पुरस्कार लौटा दिया।कल 24 फिल्मकारों,कलाकारों ने असहिष्णुता के खिलाफ अपने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटा दिये।जिनमें कुंदन शाह और सईद मिर्जा जैसे फिल्मकार भी शामिल हैं।
इससे पहले दिवाकर बंदोपाध्याय और आनंद पटवर्द्धन की अगुवाई में 12 पिल्मकारों ने पुरस्कार लौटाये हैं।फिलहाल भारतीय फिलमों से 36 लोगों ने पुरस्कार लौटा दिये हैं।दूसरी तरफ साहित्य अकादमी के पुरस्कार और पद छोड़ने वाले कम से कम 42 लेखक और कवि हैं।कलाकारों ने भी पुरस्कार लौटाये हैं।
शुरुआत हिंदी के कवि उदय प्रकाश ने की।यह हमार गर्व है।150 देशों का विवेक हमारे साथ है और राष्ट्र का विवेक बोल रहा है।कारवां लगातार लबा होता जा रहा है।किसी की हार जीत से हमारे लिए उम्मीत की बात यही है और बदलाव की पकी हुई जमीन भी यही है।
पलाश विश्वास
मैं यह सम्मान क्यों लौटा रही हूं: अरुंधति रॉय
Posted by Reyaz-ul-haque on 11/06/2015 03:09:00 AMएक पुरस्कार लौटाते हुए अरुंधति रॉय यहां उन सब बातों को याद कर रही हैं जिन पर हमें नाज करना चाहिए और उन सब पर भी, जिनसे हमें शर्म आनी चाहिए और जिसके खिलाफ उठ खड़े होना चाहिए. अनुवाद: रेयाज उल हक.
हालांकि मैं इसमें यकीन नहीं करती कि सम्मान हमारे किए गए कामों का पैमाना हैं, लेकिन मैं लौटाए जा रहे सम्मानों की बढ़ती हुई तादाद में सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए मिले राष्ट्रीय सम्मान (नेशनल अवार्ड फॉर बेस्ट स्क्रीनप्ले) को शामिल करना चाहूंगी, जो मुझे 1989 में मिला था. मैं यह साफ भी करना चाहूंगी कि मैं इसे इसलिए नहीं लौटा रही हूं कि उस सबसे मैं ‘हिल’ गई हूं जिसे मौजूदा सरकार द्वारा फैलाई जा रही ‘बढ़ती हुई असहिष्णुता’ कहा जा रहा है. सबसे पहले, अपने जैसे इंसानों को पीट-पीट कर मारने, गोली मारने, जलाने और सामूहिक कत्लेआम के लिए ‘असहिष्णुता’ एक गलत शब्द है. दूसरे कि हमारे सामने जो आने वाला था, उसके काफी आसार हमारे पास पहले से थे – इसलिए भारी बहुमत से डाले गए उत्साही वोटों के साथ सत्ता में भेजी गई इस सरकार के आने के बाद से जो कुछ हुआ है, उससे मैं हिल जाने का दावा नहीं कर सकती. तीसरे, ये खौफनाक हत्याएं एक कहीं गहरी बीमारी के ऊपर से दिखने वाले आसार भर हैं. जो लोग जिंदा हैं, जिंदगी उनके लिए भी जहन्नुम है. पूरी की पूरी आबादी, दसियों लाख दलित, आदिवासी, मुसलमान और ईसाई खौफ की एक जिंदगी में जीने के लिए मजबूर कर दिए गए हैं और कुछ पता नहीं कि कब और कहां से उन पर हमला हो जाए.
आज हम एक ऐसे मुल्क में रह रहे हैं, जहां नए निजाम के ठग और कारकुन ‘गैरकानूनी हत्याओं’ की बात करते हैं, तो उनका मतलब एक काल्पनिक गाय से होता है जिसको मारा गया है – उनका मतलब एक सचमुच के इंसान की हत्या से नहीं होता. जब वे अपराध की जगह से ‘फोरेंसिक जांच के लिए सबूतों’ की बात करते हैं तो उसका मतलब फ्रिज में रखे गए खाने से होता है, न कि पीट पीट कर मार दिए गए इंसान की लाश से. हम कहते हैं कि हमने ‘तरक्की’ की है, लेकिन जब दलितों का कत्ल होता है और उनके बच्चों को जिंदा जलाया जाता है, तो आज कौन ऐसा लेखक है जो हमले, पीट-पीट कर मारे जाने, गोली या जेल से डरे बिना आजादी से यह कह सकता है कि ‘अछूतों के लिए हिंदू धर्म सचमुच में खौफ की एक भट्टी है’ जैसा बाबासाहेब आंबेडकर ने कभी कहा थाॽ कौन सा लेखक वह सब लिख सकता है, जिसे सआदत हसन मंटो ने ‘चचा साम के नाम’ में लिखा थाॽ यह बात मायने नहीं रखती कि जो कहा जा रहा है उससे हम सहमत हैं कि नहीं. अगर हमें आजादी से बोलने का हक नहीं है, तो हम एक ऐसा समाज बन जाएंगे, जो बौद्धिक कुपोषण का शिकार, बेवकूफों का राष्ट्र होगा. इस पूरे उपमहाद्वीप में नीचे गिरने की होड़ मची हुई है – और यह नया भारत बड़े जोशोखरोश के साथ इसमें शामिल हुआ है. यहां भी अब भीड़ को सेंसरिशप का जिम्मा दे दिया गया है.
मुझे इससे खुशी हो रही है कि मुझे (अपने अतीत में किसी वक्त का) एक राष्ट्रीय सम्मान मिल गया है, जिसे मैं लौटा सकती हूं, क्योंकि यह मुझे इस मुल्क के लेखकों, फिल्मकारों और अकादमिक दुनिया द्वारा शुरू की गई सियासी मुहिम का हिस्सा बनने की इजाजत देता है, जो एक तरह की विचारधारात्मक क्रूरता और सामूहिक समझदारी पर हमले के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं. अगर हम अभी उठ खड़े नहीं हुए तो यह हमें टुकड़े-टुकड़े कर देगा और बेहद गहराई में दफ्न कर देगा. मैं यकीन करती हूं कि कलाकार और बुद्धिजीवी जो अभी कर रहे हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ, और उसकी तारीख में कोई मिसाल नहीं मिलती. यह भी सियासत का एक दूसरा तरीका है. इसका हिस्सा बनते हुए मुझे बहुत फख्र हो रहा है. और इतनी शर्म आ रही है उस सब पर जो आज इस मुल्क में हो रहा है.
आखिर में: ताकि सनद रहे कि मैंने 2005 में साहित्य अकादेमी सम्मान को ठुकरा दिया था जब कांग्रेस सत्ता में थी. इसलिए कृपया मुझे कांग्रेस-बनाम-भाजपा की पुरानी घिसी-पिटी बहस से बख्श दीजिए. बात इससे काफी आगे निकल चुकी है. शुक्रिया.
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गर्म हवा,कुछ भी नहीं बदला।नफरतें वहीं,सियासतें वहीं बंटवारे की,अलगाव और दंगा फसाद वहीं,चुनावी हार जीत से कुछ नहीं बदलता।
हमें फिजां यही बदलनी है!
Garm Hawa,the scorching winds of insecurity inflicts Humanity and Nature yet again!
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पाकिस्तान बना तो क्या इसकी सजा हम अमन चैन,कायनात को देंगे और कयामत को गले लगायेंगे ?
बिरंची बाबा हारे तो नीतीश लालू के जाति अस्मिता महागबंधन की जीत होगी और मंडल बनाम कमंडल सिविल वार फिर घनघोर होगा और भारत फिर वही महाभारत होगा।फिर वहीं दंगा फसाद।
हमारे लिए चिंता का सबब है कि हमारे सबसे अजीज कलाकार शाहरुख खान को पाकिस्तानी बताया जा रहा है और उनकी हिफाजत का चाकचौबंद इतजाम करना पड़ रहा है।यही असुरक्षा लेकिन गर्म हवा है।सथ्यु की फिल्म गर्म हवा।
पलाश विश्वास
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