Friday, November 6, 2015

https://youtu.be/HTPcgI6usZk गर्म हवा,कुछ भी नहीं बदला।नफरतें वहीं,सियासतें वहीं बंटवारे की,अलगाव और दंगा फसाद वहीं,चुनावी हार जीत से कुछ नहीं बदलता। हमें फिजां यही बदलनी है! Garm Hawa,the scorching winds of insecurity inflicts Humanity and Nature yet again! https://www.youtube.com/watch?v=QZTvF_1AN8A पाकिस्तान बना तो क्या इसकी सजा हम अमन चैन,कायनात को देंगे और कयामत को गले लगायेंगे ? बिरंची बाबा हारे तो नीतीश लालू के जाति अस्मिता महागबंधन की जीत होगी और मंडल बनाम कमंडल सिविल वार फिर घनघोर होगा और भारत फिर वही महाभारत होगा।फिर वहीं दंगा फसाद। हमारे लिए चिंता का सबब है कि हमारे सबसे अजीज कलाकार शाहरुख खान को पाकिस्तानी बताया जा रहा है और उनकी हिफाजत का चाकचौबंद इतजाम करना पड़ रहा है।यही असुरक्षा लेकिन गर्म हवा है।सथ्यु की फिल्म गर्म हवा। पलाश विश्वास

https://youtu.be/HTPcgI6usZk

गर्म हवा,कुछ भी नहीं बदला।नफरतें वहीं,सियासतें वहीं बंटवारे की,अलगाव और दंगा फसाद वहीं,चुनावी हार जीत से कुछ नहीं बदलता।
हमें फिजां यही बदलनी है!
Garm Hawa,the scorching winds of insecurity inflicts Humanity and Nature yet again!
https://www.youtube.com/watch?v=QZTvF_1AN8A


पाकिस्तान बना तो क्या इसकी सजा हम अमन चैन,कायनात को देंगे और कयामत को गले लगायेंगे ?
बिरंची बाबा हारे तो नीतीश लालू के जाति अस्मिता महागबंधन की जीत होगी और मंडल बनाम कमंडल सिविल वार फिर घनघोर होगा और भारत फिर वही महाभारत होगा।फिर वहीं दंगा फसाद।

हमारे लिए चिंता का सबब है कि हमारे सबसे अजीज कलाकार शाहरुख खान को पाकिस्तानी बताया जा रहा है और उनकी हिफाजत का चाकचौबंद इतजाम करना पड़ रहा है।यही असुरक्षा लेकिन गर्म हवा है।सथ्यु की फिल्म गर्म हवा।

पलाश विश्वास
Thanks You Tube for Garm Hawa clippings.I am using the Webcam.I have to handle it manually.I have not the technical expertize to edit it and exclude the mistakes ,errors and disturbances.While talking instant, some time my tongue slips or memory fails.If I note it,I correct it later in the same video or in yet another video.Please forgive me for those mistakes and try to get the points I raise and expect you to share!
बिहार से फैसला आनेवाला है।हो सकता है कि सिपाहसालार और अश्वमेधी घोड़ों और सांढ़ों की उधमी उछलकूद फेल हो जाये और बिहार की जनता का फैसला केसरिया सुनामी के खिलाफ हो जाये।चाणक्य टीवी चैनल ने ऐसी ही भविष्यवाणी की है।हमें तो धर्म या जाति की अस्मिता में से किसीको चुनकर गुलामी की जिंदगी नर्क करने की आदत है।यह आदत बदलनी चाहिए।तूफां खड़ा करना मकसद नहीं हमारा,हालात ये हर हाल में बदलने हैं।

‘गर्म हवा’ का आरंभ फिल्म को सही परिप्रेक्ष्य देता है। कास्टिंग रोल में आजादी का साल 1947 बताने के बाद भारत का अविभाजित नक्शा उभरता है। सबसे पहले महात्मा गांधी की तस्वीर आती है। फिर माउंनबेटेन और लेडी माउंटबेटेन के साथ महात्मा गांधी दिखते हैं। आजादी के संघर्ष में शामिल पटेल, नेहरू, जिन्ना की तस्वीरों के बाद पर्दे पर सत्ता हस्तांतरण की तस्वीरें, लाल किले से नेहरू का संबोधन, हर्ष और उल्लास की छवियों के बीच देश के विभाजित नक्शे को हम देखते हैं।
हमें किसी किस्म की भविष्वाणी का भरोसा नहीं है।जैसे हम तंत्र मंत्रयंत्र या तिलिस्म की परवाह नहीं करते।देश कुरुक्षेत्र है,तो लड़ना  ही होगा।इस लड़ाई की आग से बच नहीं सकते।फिजां बदलने के लिए महब्बत हथियार है और आग की दरिया में छलांगा मारना है।

रविवार को नतीजा आ जायेगा।गुजरात के महादंगाई बाचुओं की ताकत तौल रहे हैं कि नतीजा उनके फेवर में हो या खिलाफ,कैसे वे मनुस्मृति शासन और राजकाज के विरोधियों और असहिष्णुता आंदोलन से निपटेंगे,होशियार।वे आगे भी बख्शेंगे नहीं,तेवर देश लें।ग्लोबल ट्रेंड की परवाह नहीं उन्हें,दुनिया को मनुस्मृति बनायेंगे।

बिरंची बाबा हारे तो नीतीश लालू के जाति अस्मिता महागबंधन की जीत होगी और मंडल बनाम कमंडल सिविल वार फिर घनघोर होगा और भारत फिर वही महाभारत होगा।फिर वहीं दंगा फसाद।

गर्म हवा,कुछ भी नहीं बदला।नफरतें वहीं,सियासतें वहीं बंटवारे की,अलगाव और दंगा फसाद वहीं,चुनावी हार जीत से कुछ नहीं बदलता।
हमें फिजां यही बदलनी है!

हमारे लिए चिंता का सबब है कि हमारे सबसे अजीज कलाकार शाहरुख खान को पाकिस्तानी बताया जा रहा है और उनकी हिफाजत का चाकचौबंद इतजाम करना पड़ रहा है।

यही असुरक्षा लेकिन गर्म हवा है।सथ्यु की फिल्म गर्म हवा।
यही मानसिकता लेकिन गर्म हवा है।यही केसरिया सुनामी फिर वही गर्म हवा है।जिसके मुकाबले हम हैं।मिर्जा साहेब आगरा के थे।
मिर्जा साहेब के रोल में हैं इप्टा के बलराज सहनी।इप्टा के एके हंगल और फारुख शेख भी हैं इस फिल्म में।

नवंबर 2014 में चार दशक बाद एक बार फिर से फिल्म ‘गर्म हवा’ रिलीज की गई। यह फिल्म भारत-पाकिस्तान के विभाजन की पृष्ठभूमि पर बनी है। फिल्म विभाजन के समय के आगरा के एक मुस्लिम परिवार की दास्तान बयां करती है। इस फिल्म में मशहूर अभिनेता बलराज साहनी ने मुख्य किरदार सलीम मिर्जा की भूमिका निभाई,  वहीं ए. के. हंगल और फारुख शेख भी फिल्म में अन्य मुख्य किरदार में दिखाई दिए हैं।
आगरा और इस देश के तमाम कस्बों शहरों में देशी उद्योग धंधे
के लिए तबाही का आलम तबसे है।हमने मेरछ दंगों के आंखों देखा हाल पर उनके मिशन के पाठ पर तीन वीडियो जारी किये हैं।देखेंः




ऋत्विक घटक ने तीन फिल्में भारत विभाजन के माहौल और असर पर बनायी।1960 में मेघे ढाका तारा,1961 में कोमल गांधार और 1962 में सुवर्णरेखा।बांग्ला में यह भारत विभाजन के सिकार पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों की कथा व्यथा है।जो हमारा भोगा हुआ यथार्थ है।

हमने इससे पहले कोमल गांधार का फ्रेम टु फ्रेम विश्लेषण पर वीडियो जारी किया है।
https://www.youtube.com/watch?v=PVSAo0CXCQo


हालात इस लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश के ये है कि साझा चूल्हे सारे के सारे ठंडे हो गये हैं।

हिंदुओं की हिम्मत नहीं होती की किसी मुस्लिम इलाके में बसेरा डालें और न मुसलमानों की हिम्मत होती है कि वे अपने दड़बों से बाहर निकलकर हिंदुओं के बीच रहें।

Sabita Babu speaks from the Heart of the India,where Dilon kaa Bantwara naa huaa hai naa Hoga.Please share as much as you can to save India!The Real India,the greatest pilgrimage of humanity merging so many streams of humanity!

পুরানো সেই দিনের কথা: Memoirs of a Hindu Daughter of a Muslim Family which gave up BEEF!

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আমরা এক বৃন্তে দুটি ফুল-হিন্দু মুসলমান!
মন্ত্রহীন,ব্রাত্য,জাতিহারা রবীন্দ্রনাথ,রবীন্দ্র সঙ্গীতঃ দীনহীনে কেহ চাহে না, তুমি তারে 

हालात ये है कि भरतीय सिनेमा के सबसे लोकप्रिय स्टार शाहरुख खान असहिष्णुता के खिलाफ बोलने के लिए भारी संकट में है और उनके खिलाफ पाकिस्तानी होने का फतवा जारी कर दिया गया है।

अब जाति धर्म वर्ग वर्चस्व की सत्ता उनकी हिफाजत के लिए चोकचौबंद इंतजाम कर रह है।

गर्म हवा देखना इसलिए जरुरी है कि गांधी की हत्या के बाद सरहदों के आरपार जो कयामत का सिलसिला जारी था वह अब भी जारी है।तब भी गैरहिंदुओं के लिए हिंदुस्तान में जगह नहीं थी ,आज भी जगह नहीं है।जिनने पाकिस्तान आंदोलनचलाया,लेकिन जिनने पाकिस्तान कारिज करके हिंदुस्तानी बनकर रहने का फैसला किया है,वे भी उतने ही इंसान हैं,जितने हम हैं।

फिल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन के सहयोग से साल 1973 में बनी यह फिल्म आजादी के बाद पहली बार विभाजन की विकृतियों को उभारती है। फिल्म को तकरीबन चार दशक बाद फिर से रिलीज करने को लेकर निर्देशक एम.एस. सथ्यू ने कहा, 'मैं चाहता हूं कि आज के समय की पीढ़ी भी इस फिल्म को देखे और जाने कि उस समय वास्तव में आखिर हुआ क्या था।'
फिल्म ‘गर्म हवा’ बेहद सादगी और सच्चाई से विभाजन के बाद देश में रह गए मुसलमानों के द्वंद्व और दंश को पेश करती है। कभी देश की राजधानी रहे आगरा के ऐतिहासिक वास्तु शिल्प ताजमहल और फतेहपुर सिकरी के सुंदर, प्रतीकात्मक और सार्थक उपयोग के साथ यह मिर्जा परिवार की कहानी कहती है।
हलीम मिर्जा और सलीम मिर्जा दो भाई मां के साथ पुश्तैनी हवेली में रहते हैं। हलीम मुस्लिम लीग के नेता हैं और पुश्तैनी मकान के मालिक भी। सलीम मिर्जा जूते की फैक्ट्री चलाते हैं। सलीम के दो बेटे हैं बाकर और सिकंदर। एक बेटी भी है अमीना। अमीना अपने चचेरे भाई कासिम से मोहब्बत करती है। विभाजन की वजह से उनकी मोहब्बत कामयाब नहीं होती। हलीम अपने बेटे को लेकर पाकिस्तान चले जाते हैं। कासिम शादी करने के मकसद से आगरा लौटता है, लेकिन शादी की तैयारियों के बीच कागजात न होने की वजह से पुलिस उन्हें जबरन पाकिस्तान भेज देती है। दुखी अमीना को फूफेरे शमशाद का सहारा मिलता है, लेकिन वह मोहब्बत भी शादी में तब्दील नहीं होती।
दूसरी तरफ सलीम मिर्जा आगरा न छोडऩे की जिद्द पर अमीना की आत्महत्या और पाकिस्तानी जासूस होने के लांछन तक अड़े रहते हैं। संदेह और बेरूखी के बावजूद उनकी संजीदगी में फर्क नहीं आता। उन्हें उम्मीद है कि महात्मा गांधी की शहादत बेकार नहीं जाएगी। सब कुछ ठीक हो जाएगा।

वे भी उतने ही हंदुस्तानी हैं,जितने हम हैं।पाकिस्तान जिनने बनाया,उनने लेकिन नहीं बनाया।लेकिन हम लगातार सन सैंतालीस से देश के गैरहिंदुओं को इसकी सजा देने पर आमादा है।

पाकिस्तान बना तो क्या इसकी सजा हम अमन चैन,कायनात को देंगे और कयामत को गले लगायेंगे ?

पाकिस्तान बना तो क्याइसकी सजा हम मुहब्बत को देंगे,ख्वाबों को देंगे,उम्मीदों को देंगे,तयकर लीजिये!

हम सिखों को जिंदा जला चुके हैं और हम मुसलमानों को जिंदा जला रहे हैं।

हम दलितों,आदिवासियों और पिछड़ों का कत्लेआम खामोश देख रहे हैं।

अब हम किस किसका कत्लेआम करेंगे?

रिजर्वेशन और कोटे के बावजूद कितने मुसलमान नौकरियों, कारोबार और उद्योग धंधे में है?

कितन मुसलमान सेना और अर्द्धसैनिक बलों में हैं?

कितने मुसलमान पुलिस में हैं?

फिरभी हम मुसलमानों को तमाम मसलों और मुद्दों की वजह मानते हैं क्योंकि पाकिस्तान बना और हम कतई नहीं जानते कि पाकिस्तान बनाने के गुनाहगार मुसलमान नहीं,जमींदारियां और रियासतें बचाने के लिए बना हिंदुत्व का गठबंधन है,उनका मजहबी सियासत,सियासती मजहब और मनुस्मडति शासन है।चुनाव नतीजे चाहे जो हो,जो भी चाहे हुकूमत में हो,जनादेश चाहे किसी को मिला हो,सनसैतालीस से यह आलम नहीं बदला है।

यही गर्म हवा है।

जाति धर्म अस्मिता के ध्रूवीकरण की जीत या हार से कुछ नहीं बदलेगा,जैसे आजतक कुछ नहीं बदला है,जब तक न हम देश दुनिया जोड़ ने लें।

डा.शेखर पाठक के पद्म श्री लौटाने के बाद हमारे लिए सबसे खुशी कीबात है कि हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने देश दुनिया जोड़ने की हमारी मुहिम का समर्थन किया है और नैनीताल का गिरदा गैंग हमारे साथ हैं।कोलकाता से नैनीताल और कुमायूं कीयात्रा पर गये कोलकाता के प्तरकारों ने एक बेहतरनी फिल्म पहाड़ों, झीलों, घाटियों और जंगल पर बनायी है,जिसमें हमारे जयनारायण प्रसाद,हमारे साथी सहकर्मी खास हैं।उनका वीडियो भी हम जारी करेंगे।

कल अरुंधती राय जिनने मैसी साहेब की हिरोइन का रोल भी किया है,जिन्हें बुकर पुरस्कार मिला है,जिनने नियमागिरि पहाड़ को पूजने वाले कौंध आदिवासियों की बेदखली के खिलाफ आवाज उठायी और सलवा जुड़ुम के खिलाफ जो जंगल जंगल भटकी,जिनने हाल में भारत के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो बाबासाहेब के जाति उन्मूलन वाले आलेख को नये सिरे से अपनी प्रस्तावन के साथ जारी किया है,अब असहिष्णुता विरोधी देश जोड़ो,दुनियाजोड़ो आंदोलन के मोर्चे पर हैं।

कल अरुंधति ने भी अपना पुरस्कार लौटा दिया।कल 24 फिल्मकारों,कलाकारों ने असहिष्णुता के खिलाफ अपने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटा दिये।जिनमें कुंदन शाह और सईद मिर्जा जैसे फिल्मकार भी शामिल हैं।

इससे पहले दिवाकर बंदोपाध्याय और आनंद पटवर्द्धन की अगुवाई में 12 पिल्मकारों ने पुरस्कार लौटाये हैं।फिलहाल भारतीय फिलमों से 36 लोगों ने पुरस्कार लौटा दिये हैं।दूसरी तरफ साहित्य अकादमी के पुरस्कार और पद छोड़ने वाले कम से कम 42 लेखक और कवि हैं।कलाकारों ने भी पुरस्कार लौटाये हैं।

शुरुआत हिंदी के कवि उदय प्रकाश ने की।यह हमार गर्व है।150 देशों का विवेक हमारे साथ है और राष्ट्र का विवेक बोल रहा है।कारवां लगातार लबा होता जा रहा है।किसी की हार जीत से हमारे लिए उम्मीत की बात यही है और बदलाव की पकी हुई जमीन भी यही है।

भयानक असुरक्षाबोध है।असुरक्षा हमारी राष्ट्रीयता है,असुरक्षा हमारी मानसिकता है।असुरक्षित हैं अल्पसंख्यक तो बहुसंख्यक भी असुरक्षित है।मजहबी सियासत और सियासती मजहब की मचायी तबाही का यह आलम है।इसे अब बदलना ही होगा।

सेनसेक्स की दशा हाजतरफा का संकट है।सेनसेक्स निफ्टी में तहलका है बिरंची बाबा की हार के दहशत से।

राजन नारायणमूर्ति,अरुण शौरी जैसे लोगों की चिंता भारतीयजनता के जीवन मरण को लेकर नहीं है और न वे इस कयामत के मंजर को लेकर फिक्र मंद हैं क्योंकि वे भी महाजिन्न और कारपोरेट वकील के संग संग हैं।थोड़ा हैरतशुदा और दंग हैं बजरंगी ब्रिगेड के हुड़दंग से जो सारा खेल फर्रूखाबादी का काम तमाम करने पर आमादा हैं।

मूडीज की भी चिंता यही है कि कंहीं मुक्त बाजार का ही अंत न हो जाये क्योंकि बिना अमन चैन के निवेशकों की आस्था न अटल रह सकती है और न अबाध पूंजी प्रवाह संभव है और न कायदा कानून बदलने के लिए अनिवार्य सर्वदलीय सहमति संभव है।

उनके यही सरोकार यही हैं,खुशफहमी न रहें कि संपूर्ण निजीकरण और संपूर्ण विनिवेश के प्रवक्ता नये सिरे से रिफार्मेट हो गये हैं।



सत्यजित राय ने इस फिल्म के बार में लिखा है, ‘विषयहीन हिंदी सिनेमा के संदर्भ में ‘गर्म हवा’ ने इस्मत चुगताई की कहानी लेकर दूसरी अति की। यह फिल्म सिर्फ अपने विषय की वजह से मील का पत्थर बन गई, जबकि फिल्म में अन्य कमियां थीं। सचमुच, इस फिल्म में तकनीकी गुणवत्ता और बारीकियों से अधिक ध्यान कहानी के यथार्थ धरातल और चित्रण पर दिया गया। सथ्यू की ‘गर्म हवा’ पहली बार विभाजन के थपेड़ों का हमदर्दी और स्पष्ट दृष्टिकोण के साथ पर्दे पर पेश करती है।
‘गर्म हवा’ के निर्माण के बाद आरंभ में इसे सेंसरशिप की मुश्किलों से गुजरना पड़ा। सेंसर बोर्ड के अधिकारियों की राय थी कि ऐसे विषय से हम बचें। इसके विपरीत फिल्मकार और सचेत सामाजिक एंव राजनीतिक कार्यकर्ता विभाजन के बाद से दबे विषयों पर बातें करने के लिए तत्पर थे। छह महीनों तक फिल्म अटकी रही। दिल्ली में फिल्म के पक्ष में समर्थन जुटाने की कोशिश में राजनीतिक हलकों और सांसदों के बीच फिल्म का प्रदर्शन किया गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सूचना प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल की पहल और समर्थन से फिल्म सेंसर मुक्त हुई और दर्शकों के बीच पहुंची।



Thanks You Tube for Garm Hawa clippings.I am using the Webcam.I have to handle it manually.I have not the technical expertize to edit it and exclude the mistakes ,errors and disturbances.While talking instant, some time my tongue slips or memory fails.If I note it,I correct it later in the same video or in yet another video.Please forgive me for those mistakes and try to get the points I raise and expect you to share!
I am not bothered!

We,the Indian people have to chose religious partition or caste war.It is civil war yet again!It is inhuman!Come Sunday,RSS lost or won,it would not change the scenario of intolerance,unprecedented violence,Quamati MANJAR,psyche of insecurity,the continuous holocaust unless we succeed to unite India and humanity to sustain peace, pluralism, intolerance and the Nature intact,the civilization, progress,secularism!It is all about Garm Hawa!

Garm Hava

From Wikipedia, the free encyclopedia

Garam Hava
Garm Hava.jpg
Directed by
Produced by
Abu Siwani
M. S. Sathyu
Written by
Story by
Starring
Dinanath Zutshi
Badar Begum
Music by
Kaifi Azmi (lyrics)
Cinematography
Edited by
S. Chakravarty
Release dates
  • 1973
Running time
146 minutes
Country
India
Language
Budget
1 million (US$15,000)

Garam Hava (Hindi: गर्म हवा; translation: Hot Winds or Scorching Winds)[1] is a 1973 Urdu drama film directed by M. S. Sathyu, with Balraj Sahni as the lead. It was written by Kaifi Azmi and Shama Zaidi, based on an unpublished short story by noted Urdu writer Ismat Chughtai. The film score was given by noted classical musician Ustad Bahadur Khan, with lyrics by Kaifi Azmi, it also featured a qawwali composed and performed by Aziz Ahmed Khan Warsi and his Warsi Brothers troupe.
Set in Agra, Uttar Pradesh, the film deals with the plight of a North IndianMuslim businessman and his family, in the period post partition of India in 1947. In the grim months, after the assassination of Mahatma Gandhi in 1948, film's protagonist and patriarch of the family Salim Mirza, deals with the dilemma of whether to move to Pakistan as many of his relatives or stay back. The film details the slow disintegration of his family, and is one of the most poignant films made on India's partition.[2][3] It remains one of the few serious films dealing with the post-Partition plight of Muslims in India.[4][5]
It is often credited with pioneering a new wave of Art cinema movement in Hindi Cinema, and alongside a film from another debutant film director,Shyam Benegal, Ankur (1973), are considered landmarks of Hindi Parallel Cinema which had already started flourishing in other Indian languages like Kannada and Malayalam. The movie also launched the career of actor,Farooq Shaikh, and also marked the end of Balraj Sahni's film career, who died before its release. It was India's official entry to the Academy Award's Best Foreign Film category, nominated for the Palme d'Or at the Cannes Film Festival, won a National Film Award and three Filmfare Awards. In 2005,Indiatimes Movies ranked the movie amongst the Top 25 Must See Bollywood Films.[2]

Contents

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Plot[edit]

The Mirzas are a Muslim family living in a large ancestral house and running a shoe manufacturing business in the city ofAgra in the United Provinces of northern India (now the state of Uttar Pradesh). The story begins in the immediate aftermath of India's independence and the partition of India in 1947. The family is headed by two brothers; Salim (Balraj Sahni), who heads the family business, and his elder brother Halim, who is mainly engaged in politics and is a major leader in the provincial branch of the All India Muslim League, which led the demand for the creation of a separate Muslim state of Pakistan. Salim has two sons, the elder Baqar, who helps him in the business, and Sikander (Farooq Shaikh), who is a young student. Halim's son Kazim is engaged to Salim's daughter, Amina. Although he had publicly promised to stay in India for the sake of its Muslims, Halim later decides to quietly emigrate to Pakistan with his wife and son, believing that there was no future for Muslims in India. Salim resists the notion of moving, believing that peace and harmony would return soon, besides which, he has to care for their ageing mother, who refuses to leave the house of her forefathers. This puts Kazim and Amina's marriage plans on hold, although Kazim promises to return soon to marry her. Halim's stealthy migration affects Salim's standing in the community. In the aftermath of partition, the sudden migration of many Muslims from Agra left banks and other lenders deeply reluctant to lend money to Muslim businessmen like Salim Mirza, who had previously been held in high esteem, over fears that they would leave the country without repaying the loan. Unable to raise capital to finance production, Salim Mirza's business suffers. Salim Mirza's brother-in-law, formerly a League supporter, now joins the ruling Indian National Congress in an attempt to get ahead in independent India while his son Shamshad unsuccessfully woos Amina, who is still devoted to Kazim and hopeful of his return.
Halim's migration to Pakistan makes the family home an "evacuee property" as the house is in Halim's name and Halim did not transfer it to Salim Mirza. The Indian government mandates the take over of the house, forcing Salim Mirza's family to move out of their ancestral home, which is very hard on Mirza's aged mother. Salim's wife blames him for not raising this issue with his brother Halim before he left for Pakistan. Mirza resists his wife's hints that they also move to Pakistan and his elder son's calls for modernising the family business. Mirza finds it difficult to rent a house, facing discrimination owing to his religion and fears that a Muslim family would skip out on rent if they decided to leave for Pakistan. He finally succeeds in finding a smaller house to rent, but his business is failing and despite his son's exhorting, refuses to change with the times, believing that Allah would protect them. Salim Mirza's passiveness and disconnection from the outside world leaves his wife and son frustrated. The Mirza family house is bought by a close business associate, Ajmani, (A.K. Hangal) who respects Mirza and tries to help him. Despite growing troubles, the family is briefly buoyed by Sikander's graduation from college.
Amina and her family have almost given up on her marrying Kazim after Halim breaks his promise to return soon from Pakistan. Kazim returns on his own, and reveals that his father had become opposed to his marrying Amina, preferring that he marry the daughter of a Pakistani politician. Having received a scholarship from the Government of Pakistan to study in Canada, Kazim desires to marry Amina before he leaves, but before the marriage can take place, he is arrested by police and repatriated to Pakistan for travelling without a passport and not registering at the police station, as is required of all citizens of Pakistan. Amina is heart-broken, and finally accepts Shamshad's courtship. Sikander undergoes a long string of unsuccessful job interviews, where the interviewers repeatedly suggest that he would have better luck in Pakistan. Sikander and his group of friends become disillusioned and start an agitation against unemployment and discrimination, but Salim prohibits Sikander from taking part. Despite his political connections, Salim Mirza's brother-in-law ends up in debt over shady business practices and decides to flee to Pakistan. Amina again faces the prospect of losing her lover, but Shamshad promises to return and not leave her like Kazim. Salim Mirza's reluctance to modernise and cultivate ties with the newly formed shoemakers union results in his business not receiving patronage and consequently failing. Disillusioned, his son Baqar decides to migrate to Pakistan with his son and wife. Salim's aged mother suffers a stroke, and through his friend, Salim is able to bring his mother to her beloved house for a final visit, where she dies. While Salim is travelling in a horse-drawn carriage, the carriage driver, a Muslim, gets into an accident and a squabble with other locals. The situation deteriorates into a riot, and Salim is hit by a stone and suffers injuries. With his business and elder son gone, Salim begins to work as a humble shoemaker to make a living. Shamshad's mother returns from Pakistan for a visit, leading Amina and her mother to think that Shamshad would also come soon and their marriage would take place. However, Shamshad's mother merely takes advantage of Salim Mirza's connections to release some of her husband's money, and reveals that Shamshad's marriage has been arranged with the daughter of a well-connected Pakistani family. Shattered with this second betrayal, Amina commits suicide, which devastates the whole family.
Amidst these problems, Salim Mirza is investigated by the police on charges of espionage over his sending plans of their former property to his brother in Karachi, Pakistan. Although acquitted by the court, Mirza is shunned in public and faces a humiliating whisper campaign. Mirza's long aversion to leaving India finally breaks down and he decides in anger to leave for Pakistan. Sikander opposes the idea, arguing that they should not run away from India, but fight against the odds for the betterment of the whole nation, but Salim decides to leave anyway. However, as the family is travelling towards the railway station, they encounter a large crowd of protestors marching against unemployment and discrimination, which Sikander had planned to join. Sikander's friends call out to him, and Salim encourages him to join the protestors. Instructing the carriage driver to take his wife back to their house, and the film ends as Salim Mirza himself joins the protest, ending his isolation from the new reality.

Cast[edit]

Production[edit]

The film was based on an unpublished short story by writer-screenwriter Ismat Chughtai and later adapted by Kaifi Azmiand Shama Zaidi.[6] Chugtai narrated the story to Sathyu and his wife Zaidi, deriving from the struggles of her own relatives during the Partition before some of them migrated for Pakistan. While developing the screenplay, poet-lyricist Azmi added his own experiences of Agra and the local leather industry. Later, he also wrote in the dialogues.[7]
The film was shot in location in the city of Agra, with scenes of Fatehpur Sikri as well. Due to repeated local protests owing to its controversial theme, a fake second unit with unloaded cameras were sent to various locations to divert attention from film's actual locations. As the film's commercial producers had early on backed out fearing public and governmental backlash, and 'Film Finance Corporation' (FFC), now National Film Development Corporation (NFDC), stepped in later with a funding of Rs 250,000. Sathyu borrowed the rest 750,000 of the budget from friends.[8][9] The film was co-produced and shot by Ishan Arya, who after making ad film made his feature film debut, using an Arriflex camera, loaned by Homi Sethna, Sathyu's friend. As Sathyu couldn't afford recording equipment, the film was shot silent, and the location sounds and voices were dubbed in post-production. Shama Zaidi also doubled up as the costume and production designer.[9]
Sathyu had long been associated with leftist Indian People's Theatre Association (IPTA), thus most roles in the film were played by stage actors from IPTA troupes in Delhi, Mumbai and Agra. The role of family patriarch, Salim Mirza was played by Balraj Sahni, also known to Sathyu through IPTA, and for whom this was to be his last important film role, and according to many his finest performance.[10] The role his wife was play by Shaukat Azmi, wife of film's writer Kaifi Azmi, and also associated with IPTA. Farooq Shaikh, a law student in Mumbai, till then had done small roles in IPTA plays, made his film debut with the role of Salim Mirza.[9] The role of Balraj Sahni's mother was first offered to noted singer Begum Akhtar which she refused,[11] later Badar Begum played the role. The locale of Mirza mansion was an old haveli of R S Lal Mathur in Peepal Mandi who helped the whole unit throughout the shooting. Mathur helped Sathyu find Badar Begum in a city brothel. Badar Begum was then in her 70s and almost blind due to cataract. However, when she was sixteen years old, she ran away to Bombay to work in Hindi films, but soon ran out of money and only managed to get work as an extra in a Wadia Movietone film. She used the money to return to Agra, eventually ended up in the red-light area of the city and ran a brothel in the area. Her voice was later dubbed in by actress Dina Pathak.[7][9] Film's lead, Balraj Sahni however died the day after he finished dubbing for the film.[12] The soundtrack included a qawwali "Maula Salim Chishti" by Aziz Ahmed Khan Warsi, ofWarsi Brothers.[13]

Themes and allusions[edit]

The title alludes to the scorching winds of communalism, political bigotry and intolerance, that blew away humanity and conscience from across North-India in the years after the partition of India in 1947, and especially after the assassination of Mahatma Gandhi to the which the film opens. In its prologue, poet Kaifi Azmi narrates a couplet summing up the theme, "Geeta ki koi sunta na Koran ki sunta, hairan sa eemaan vahan bhi tha yahan bhi" (Nobody listens to Gita or Quran, shocked conscience was here as well as there.)[6] Just like his ageing mother is reluctant to leave the ancestral haveli where she came a young bride, her son Salim Mirza, the protagonist is also holding on to his faith in new India. Despite the fact, his shoe manufacturing business is suffering in the new communally charged environment, and the family had to sell off their haveli to move into a rented house. Yet, he struggles to keep his faith in secularism and idealism alive, along with his optimistic son.[6]

Release and reception[edit]

Prior to its release the film was held by Central Board of India, for eight months, fearing communal unrest, but film's director persisted and showed it to government officials, leaders and journalists. Finally the film was released to both critical and commercial success.[14]
The film first opened at two theatres Sagar and Sangeeth in Bangalore. Positive response at these theatres paved way for a subsequent nationwide release.[15]The Indian premiere was held at Regal Cinema in Colaba, Mumbai in April 1974. However, prior to this Bal Thackeray, head of Shiva Sena had threatened to burn down the cinema, if the premier was allowed, calling it 'pro-Muslim' and 'anti-India' film. On the day of the premiere, Thackeray was persuaded to attend a special screening of the film in the afternoon, and allowed the film to be screened. Subsequently, the film had a limited pan-India release.[12][16] Ironically, in the 1974 National Film Awards, it was awarded the Nargis Dutt Award for Best Feature Film on National Integration.
Today it is noted for its sensitive handling of the controversial issue, dealt with in only a few Indian films,[1] like Kartar Singh(1959) (Pakistani film),[17] Manmohan Desai's Chhalia (1960), Yash Chopra's Dharmputra (1961), Govind Nihalani's Tamas(1986), Pamela Rooks' Train to Pakistan (1998), Manoj Punj's Shaheed-e-Mohabbat Boota Singh (1999) and Chandra Prakash Dwivedi's Pinjar (2003).

Restoration and re-release[edit]

In 2009, a privately funded restoration work of the film started at Cameo Studios in Pune.[18] Subsequently, the restoration budget climbed to over Rs 10 million, and restoration work was done by Filmlab, Mumbai and the sound quality enhancement by Deluxe Laboratories in Los Angeles, US.[9] The restoration process, which included restoration of original soundtrack took over three years to complete and the print was re-released on 14 November 2014 across 70 screens in eight metro cities in India.[19][13]

Awards[edit]

Academy Awards[edit]

Cannes Film Festival[edit]

National Film Awards[edit]

Filmfare Awards[edit]

Bibliography[edit]

See also[edit]

References[edit]

External links[edit]


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