नई विश्व व्यवस्था बनाने की तैयारी में है इजराइल,साझेदार संघ परिवार
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पलाश विश्वास
भारत अमेरिका भले बन नहीं पाया हो,अमिरीकी उपनिवेश मुकम्मल बन गया है।विडंबना यह है कि वह अमेरिका अब गहरे संकट में है और डालर से नत्थी भारतीय अर्थव्यवस्था का अंजाम क्या होगा,अगर अमेरिका की पहल पर तृतीय विश्वयुद्ध शुरु हो गया,इस पर हमने सोचा नहीं है।अमेरिका इजराइल के शिकंजे में है।ट्रंप और हिलेरी दोनों इजराइल के उम्मीदवार हैं और जो भी जीते,जीत इजराइल की है और हार अमेरिकी गणतंत्र की है।जीत रंगभेद की है।नतीजा महान अमेरिका का पतन है।इजराइल की तैयारी नई विश्व व्यवस्था बनाने की है और संघ परिवार उसका सच्चा साझेदार है।इसके नतीजे क्या क्या हो सकते हैं,इस पर अभी से सोच लीजिये।
मसलन अभी टाटा संस का जो संकट है,वह अध्ययन और शोध का मामला है। टाटा मोटर्स का कारोबार इस मुक्त बाजार में जैसा बेड़ा गर्क हुआ कि नैनो झटके से टाटा का अंदर महल जिस तरह बेपर्दा हो गया है,उससे साफ जाहिर है कि चुनिंदा एकाध कंपनियों की दलाली का कारोबार भले मुक्तबाजार में आसमान की बुलंदियां छू लें, बाकी सभी भारतीय घरानों, कंपनियों, मंझौले और छोटे उद्योगों और व्यवसाइयों का बंटाधार है।खुदरा बाजार तो अब सिरे से बेदखल है और उत्पादन प्रणाली ठप है।
ग्लोबल कंपनियों को खुला बाजार के बहाने भारत में कारोबार का न्यौता देने से भारतीय बाजार से बेदखल होने लगी है देशी कंपनियां।सेक्टर दर सेक्टर यही हाल है।टाटा का किस्सा टाटा समूह का निजी संकट नहीं है।इस संकट के मायने बुहत गहरे हैं।घाव किसी एक को लगा है,यह समझकर बाकी लोग अपना ही जख्म चाटने लगे हैं।
सेवा क्षेत्र के दम पर अर्थव्यवस्था को फर्जी आंकड़ों और तथ्यों के सहारे पटरी पर रखना बेहद मुश्किल है।
टाटा के संकट से उद्योग और कारोबार जगत को खतरे की घंटी सुनायी नहीं पड़ी तो आगे चाहे ट्रंप जीते या फिर मैडम हिलेरी तृतीय विश्व युद्ध हो गया और डालर खतरे में हुआ तो कयामत ही आने वाली है।
इस बीच भारत के प्रधानमंत्री ने परंपरागत भारतीय विदेशनीति और राजनय को तिलांजलि देखकर एक तीर से दो निशाने साधन का करतब जो किया है,वह भी कम हैरत अंगेज नहीं है।इसे उनकी मंकी बात समझ लेना ऐतिहासिक भूल होगी।तेलअबीब और नागपुर के मुख्यालयों में नाभिनाल का संबंध है।अमेरिकी चुनाव में दोनों मुख्य उम्मीदवार ट्रंप और हिलेरी के पीछे तेल अबीब है।तेलअबीब के दोनों हाथों में लड्डू है।उस लड़्डू के हिस्से की दावेदारी का यह नजारा है,ऐसा समझना भी गलत होगा।
अब कोई गधा भी इतना नासमझ नहीं होगा कि इजराइल के सर्जिकल हमलों का असल मतलब क्या है।इजराइल कहां हमला करता है और किनकेखिलाफ हमला करता है।एक झटके से फलीस्तीन पर दशकों से होरहे हमलों को भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने जायज बता दिया है,जिसे भारत हमेशा नाजायज बताता रहा है।भारत की गुटनिरपेक्ष राजनय का मुख्य फोकस फलस्तीन को बारत का समर्थन है और फलीस्तीनी जनता पर इजराइली हमलों का विरोध भी है।
भारत की इसी गुट निरपेक्ष राजनय की वजह से पाकिस्तान खुद को कितना ही इस्लामी साबित करें,अरब देशों में से किसी ने अब तक भारत के खिलाफ पाकिस्तान का साथ नहीं दिया है।पाकिस्तान तो पहले से घिरा हुआ है तो इजराइलके पक्ष में फलीस्तीन की खिलाफत करके अरब देशों को पाकिस्तान के पाले में धकेलने का इस राजनयिक सर्जिकल स्ट्राइक का आशय बहुत खास है।
जाहिर सी बात है कि खिचड़ी कुछ और ही पक रही है।
तेलअबीब और नागपुर का यह टांका नई विश्व्यवस्था पर काबिज होने की तैयारी है।अमेरिका का अवसान देर सवेर हुआ तो विश्वव्यवस्था भी नई होगी और इस गलतफहमी में न रहे कि रुश को सोवियत संघ है और पुतिन कोई लेनिन।रूस पर भी दक्षिणपंथी नस्लवाद का शिकंजा है।रूस हो या न हो,नई विश्वव्यवस्था बनाने की तैयारी में है इजराइल और उसका साझेदार संघ परिवार है,जो ग्लोबल हिंदुत्व को नई विश्वव्यवस्था की एकमात्र आस्था बनाने पर आमादा है।
गुजरात नरसंहार के वक्त किसी ने नहीं सोचा था कि उस मामले में अभियुक्त इतना पाक साफ निकल जायेगा कि वही देश का प्रधानमंत्री होगा।लगभग यही परिदृश्य अमेरिका में है।ट्रंप के हक में गोलबंदी फिर तेलअबीब और नागपुर का हानीमून है।जैसे 2103 में भी मोदी के प्रधानमंत्रित्व का ख्वाब किसी को नही आया,वैसे ही मीडिया और विश्व जनमत को धता बताने वाले घनघोर रंगभेदी ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने की आशंका अब भी लोकतांत्रिक ताकतों को नहीं है।
फासिज्म की चाल इसीतरह होती है कि कब मौत की तरह घात लगाकर वह देस काल परिस्थिति पर काबिज हो जाये,उसका अंदाजा कभी नहीं लगता।
जगजाहिर है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्वव्यवस्था पर अमेरिका काबिज है।खाड़ी युद्ध से ही मध्यएशिया का युद्धस्थल हिंद महासागर में स्थांनातरित करने की कवायद शुरु हो चुकी थी।क्योंकि तेल अमेरिका के पास कम नहीं है।फालतू तेल और जलभंडार मध्यएशिया से लूटने की उनकी रणनीति जो है सो है,उनका असल मकसद दक्षिण एशिया के अकूत प्राकृतिक संसाधन हैं और तेजी से पनप रहे दक्षिण एसिया के उपभोक्ता बाजार उनके खास निसाने पर है।युद्धक अर्थव्यवस्था के लिए यह हथियारों का सबसे बड़ा बाजार भी है।
जेपी के आंदोलन को समर्थन के जरिये राजा रजवाड़ों की स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ के विलय से बनी जनता पार्टी के आपातकाल के अवसान के बाद से अबतक दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी संग पिरवार समेत तमाम अमेरिका परस्त तत्वों ने भारत को अमेरिका बनाने की कोशिश में इस महादेश को सीमाओं के आर पार अमेरिकी उपनिवेश बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
इंदिरा गांधी के अवसान के बाद कांग्रेस पर भी उन्हीं तत्वों का वर्चस्व हो गया है।शुरुआत 1977 की ऐतिहासिक हार के बाद 1980 में सत्ता में इंदिरा की वापसी के बाद इंदिराम्मा और संघ सरसंचालक देवरस की एकात्मता से हुई जिसे सिखों के नरसंहार के जरिये संघ समर्थन से भारी बहुमत के साथ सत्ता में पहुंचने के बाद 1984 में प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने अयोध्या के विवादित मंदिर मस्जिद धर्मस्थल का ताला खोलकर अंजाम तक पहुंचाया।
फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बहाने वाम और संघ दोनों के समर्थन से बनी वीपी सिंह के राजकाज के दौरान मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद मंडल के खिलाफ कमंडल हाथों में लेकर जो आरक्षण विरोधी आंदोलन चालू हुआ, उसीके नतीजतन भगवान श्रीराम का रावणवध कार्यक्रम फिर शुरु हो गया।
इसी सिलसिले में भारत में सोवियत संघ के विघटन के बाद वाम राजनीति का हाशिये पर चला जाना भी बहुत प्रासंगिक है।
सोवियत समर्थक वाम राजनीति ने आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी का साथ दिया तो आपातकाल का अंत होते न होते आपातकाल के तुरंत बाद सत्ता की राजनीति में दक्षिणपंथ वापंथ एकाकार हो गया।सोवियत समर्थक धड़ा हालाकिं 1977 के बाद भी गाय और बछड़े की तरह उस इंदिराम्मा से जुड़ा रहा जो सत्ता में वापसी के लिए गुपचुप संघ परिवार के हिंदुत्व की लाइन पकड़ चुकी थी।बंगाल में सत्तामें भागेदारी की मलाई खाने के लिए सोवियत समर्थक फिर माकपाई मोर्चे में भी शामिल हो गये।
इंदिरा के अवसान के बाद राजीव गांधी के राजकाज के पीछे भाजपा की परवाह किये बिना संघ परिवार का हाथ रहा है।लेकिन वाम राजनीति की कोई दिशा बनी नहीं।तीन राज्यों की सत्ता की राजनीति में उलझकर खत्म होती गयी वामपंथी विचारधारा और पूरा देश दक्षिणपंथी अमेरिकापरस्ती के शिकंजे में फंसता गया।
1989 में मंडल आयोग के बहाने वीपी की सरकार गिराकर फिर बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार के जरिये संघ परिवार का प्रत्यक्ष राजकाज की बुनियाद बन गयी।डा.मनमोहन सिंह के ऩवउदारवादी अवतार से भारत के मुक्त बाजार बनते जाने के नरसिम्हाकाल और मनमोहक समय के अंतराल में भारतीय राजनीति से वाम का सफाया हो गया तो मुख्ट राजनीति के कांग्रेस केंद्रित और भाजपाकेंद्रित दोनों धड़े अमेरिकापरस्त हो गये।सरकार चाहे जिस किसी की हो,राजकाज वाशिंगटन का जारी रहा है।राजनीति चाहे जो रही हो,आर्थिक नीतियां अमेरिकी हितों के मुताबिक बनती बिगड़ती रही है।संसद में बहुमत हो या नहीं,सारे कायदे कानून सुधार के समाजवादी नारों के साथ अर्थव्यवस्था को बंटाधार करने के लिए सर्वदलीय सहमति से बनते बिगड़ते रहे और राजनीति धार्मिक ध्रूवीकरण की हो गयी।
सत्तर के दशक से जारी धार्मिक ध्रूवीकरण का परिणाम यह अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद है जो अंततः मुक्तबाजार का कार्यक्रम है।जिसका भारतीय वामपंथ ने किसी बी स्तर पर कोई विरोध नहीं किया तो अंततः फासिज्म का यह कारोबार निर्विरोध सर्वदलीय सहमति से फलता फूलता रह गया है और नतीजतन राजनीति भी अब कारपोरेट है और ग्रामप्रधान भी अब करोडों में खेलता है।इस पेशेवर राजनीति से विचारधारा या जनप्रतिबतिबद्धता की उम्मीद करने से बेहतर है मर जाना।भारतीय किसान थोक दरों पर खुदकशी करके यही साबित कर रहे हैं।
अब लगता है कि घटना क्रम जिस तेजी से बदलने लगा है और अर्थव्यवस्था का जिस तेजी से बंटाधार होने लगा है,किसानों और आम मर्द औरतों के अलावा उद्योग और कारोबार जगत के वातानुकूलित लोगों के लिए भी आखिरी विकल्प वही है।
इसी सिलसिले में बहुत कास बात यह है कि अब संघ परिवार देश जीतने के बाद दुनिया जीतने के फिराक में है।इसी वजह से नागपुर और तेल अबीब का यह नायाब गठबंधन है तो ट्रंप के समर्थन में ग्लोबल हिंदुत्व की जय जयकार है।
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