कोई विकल्प नहीं है वैज्ञानिक सोच का
कोई रास्ता बचा नहीं
तमसोमाज्योतिर्गमय का
असहिष्णुताविरोधी आंदोलन के खिलाफ लामबंदी तेज।
तो क्या भारत के राष्ट्रपति झूठ बोल रहे हैं और ये तमाम लोग यही महाभियोग उनके खिलाफ दर्ज कराने के अभियान में जुट रहे हैं.यह हम जैसे अपढ़ और अधपढ़ की समझ से बाहर है।
असहिष्णुता की बहस में कूदे राजन, परस्पर सम्मान का किया आह्वान
शायद भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन भी झूठ बोल रहे हैं और हमें उनकी नौकरी की परवाह हो रही है।
शारदा मामला रफा दफा,बिना सबूत गिरफ्तारी के लिए आदालत ने सीबीआई को फटकार लगायी और मंत्री मदन मित्र को मिल गयी जमानत।मतलब भी बूझ लें।
पलाश विश्वास
Indira Gandhi "I will serve my country till my last"
https://www.youtube.com/watch?v=56_rFuGh8aQ
दिल्ली कूड़ा कूड़ा है लेकिन सफाईकर्मियों की चिंता किसी को नहीं है क्योंकि स्वच्छता के दुश्मन है सफाईकर्मी,ऐसी सोच है।
इसीतरह छोटा राजन की गिरफ्तारी या आत्मसमर्पणके बाद सबसे बड़ी खबर अदालतसे मदन मित्र की जमानत है।अब तक उन्हें क्यों लगभग सालभर में इन कानूनी दलीलों के बावजूद जमानत नहीं मिली ,यह रहस्य शायद ही खुले।सीबीआई को अदालतसे बिना सबूत उन्हें गिरफ्तार करने के लिए फटकार भी मिली है और वह बचीखुची साख बचाने को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटायेगी। अब सवाल है कि सांसद कुणाल घोष को क्यों जमानत नहीं मिल रही है।जाहिर है कि हम इसका जवाब नहीं जानते।
बिहार का जनादेश अभी आया नहीं है और जमीन से खबरें आ रही हैं कि धर्म वहां संकट में है।गोमांस और गोरक्षा आंदोलन के बावजूद हिंदुत्व के एजंडे को बहुमत मिल भी जायेगा या नहीं,ईवीएम बतायेगा।
जाहिर है कि अगले चुनाव यूपी और बंगाल में भी होंगे।जहां अग्नि परीक्षा है।धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण और जाति युद्ध से समीकरण किसके पक्ष में जायेगा, यह कहना बेहद मुश्किल है।
इससे निबटने की तैयारी जोरों पर है।
वामपक्ष बंगाल में मदन मित्र की रिहाई पर धूल चाटने को मजबूर होगा कि नहीं,हम नहीं कह सकते।
जाति का गणित बंगाल में चलेगा नहीं।लेकिन धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण की हर चंद कोशिश जारी है।
इस ध्रवीकरण से वैज्ञानिक सोच,प्रगति,धर्मनिरपेक्षता और गणतंत्र का क्या हाल होने वाला है,यह बहुत जल्द मालूम होगा 2016 में।विधानसभा चुनावों में कि जमीन में कितने गहरे पैठ पाये हैं वामदल और वामपंथी कायर्कर्ता और नेता।
फायदे में होंगे मोदी और दीदी।कहां क्या पक रहा है, हम नहीं जानते।लेकिन शारदा फर्जीवाड़ा अब कोई मुद्दा नहीं है और मामला रफा दफा है।
मदन मित्र अब भी मंत्री हैं और मुकुल राय की वैशाखी से बंगाल में राजनीति होगी नहीं।दीदी और अपराजेय हो गयी हैं तो समझ लीजिये कि गिरफ्तारी और रिहाई का असल खेल क्या है।किसकी मेहरबानी है यह दरअसल बूझ भी लीजिये।
आज सुबह से हमारे तमाम ईमेल आईडी डीएक्टिव है और प्रोफेशनल नेटवर्क से भी हम तड़ी पार हैं।
हमराे पीसी पर निगरानी इतनी बड़ी तकनीकी भूल कि सुबह हम इंदिरा गांधी का अंतिम भाषण खोज नहीं पाये।किसी तरह अमलेंदु को आलेख के साथ वीडियो लगाकर बेज दिये।
अब हम यङ भी नहीं जानते कि इस मेल का क्या होगा।फिर भी लिक रहे हैं कि कोई सूरत शायद आपसे संवाद की बन जाये।
बहरहाल,आज शाम को प्रकाशित बांग्ला सांध्य दैनिक सत्ययुग के मुताबिक असहिष्णुता के खिलाफ एक हजार से ज्यादा वैज्ञानिकों ने एक ज्ञापन में दस्तखत कर दिये।
नेट पर बांग्लाअपडेट ज्यादातर बांग्लादेश से मिलते हैं।बाकी अगले दिन अखबार छपने पर डिजिटल संस्करण में प्रकशित होते हैं।
सत्ययुग का डिजिटल संस्करण नहीं है।
बांग्ला में अन्यत्र यह खबर मिली नहीं है।
हिंदी में भी नहीं है।
अंग्रेजी में प्रमुखता से खबर है कि पुरस्कार लौटाने के आंदोलन के खिलाफ सात नवंबर को देशभर के वैज्ञानिक और साहित्यकार और कलाकार राष्ट्रपति को सरकार की असहिष्णुता आंदोलन के खिलाफ सत्ता की सहिष्णुता के पक्ष में ज्ञापन सौपेंगे।ये लोग कौन है,इवेंट के बाद ब्यौरा मिलेगा।
Finance minister Arun Jaitley has termed "rabid anti-BJP elements" the growing number of protesters returning their awards to register their dissent against the alleged increase in intolerance in the country, setting the stage for a larger clash ahead of a counter-protest being planned at Rashtrapati Bhavan on November 7.
A number of "nationalist minded" artists, film personalities and writers plan to lead a campaign called 'Jawab Do' to question those who have chosen to return their awards now, organisers of the counter-protest said.
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खोजबीन में दुनियाभर में विज्ञान की सबसे प्रतिष्टित नेचर पत्रिका में भारतीयवैज्ञानिकों की बगावत के बारे में छपी एक रपट मिली है,जिसे हम साझा कर रहे हैं।
दूसरे तमाम लोगों के मुकाबले वैज्ञानिक बिना कुछ बोले अपना काम करते रहते हैं और राजनीतिक पचड़े से अपने को अलग रखते हैं।जिन वैज्ञानिकों ने विरोध जताया,वे संख्या में उतने भारी न भी हो,तो उनके विरोध का आशय गंभीर है।यह समझ वैज्ञानिक दृष्टि से ही बन सकती है।
अंधियारे का कारोबार करने वालों के दिलोदिमाग में घृणा की सुनामी के अलावा और क्या क्या हैं,हमारे लिए फिलहाल कहना मुश्किल है।इतना साफ जाहिर हैं कि ये वैज्ञानिक किसी भी कोण से राजनीतिक प्राणी नहीं हैं और उनका आशय भी राजनीतिक नहीं है औरन उनका विरोध राजनीतिक है,जो नस्ली रंगभेद की मनुस्मृति सत्ता दावा कर रही है।
हमारे तमाम अर्थशास्त्री खामोश हैं।
आदरणीय अमर्त्य सेन जो सबसे पहले प्रधानमंत्री पद पर आर्थिक सुधारों के नये ईश्वर के राज्याभिषेक के खिलाफ बोले वे भी न जाने क्यों सन्नाटा बुने हुए हैं और हम नहीं जानते कि हमारे अति आदरणीय आइकनों में से कौन कौन असिहुष्णुता को सहिष्णुता बताने के लिए राष्ट्रपति भवन तक जायेंगे।
इसमें एक दृष्टिकटु सौंदर्यबोध सामने आ रहा है,वे राष्ट्रपति को बताने जा रहे हैं कि सत्ता सहिष्णुता की है,असहिष्णुता की कतई नहीं और विरोध करने वाले देश के विकास के विरुद्ध हैं।
शायद वे इन लोगों को बजरंगियों की तरह राष्ट्रविरोधी,पाकिस्तान की औलाद वगैरह वगैरह न कहें।दृष्टिकटु यह है कि राष्ट्रपति ने एकबार नहीं,बार बार असहिष्णुता के खिलाफ भारत सरकार को चेतावनी दी है।
तो क्या भारत के राष्ट्रपति झूढ बोल रहे हैं और ये तमाम लोग यही महाभियोग उनके खिलाफ दर्ज कराने के अभियान में जुट रहे हैं.यह हम जैसे अपढ़ और अधपढ़ की समझ से बाहर है।
ताजा खबरों के मुताबिक अर्थशास्त्र की खामोशी तोड़ते हुए देश में बढ़ती असहिष्णुता पर चल रही बहस को आगे बढ़ाते हुए भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कहा कि विचारों के लिये माहौल बेहतर बनाने के वास्ते सहिष्णुता तथा परस्पर सम्मान जरूरी है और किसी समूह विशेष को शारीरिक क्षति पहुंचाने या अपमानजनक शब्द कहने की अनुमति नहीं होनी चाहिए।
शायद भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन भी झूठ बोल रहे हैं और हमें उनकी नौकरी की परवाह हो रही है।
राजन ने कहा कि भारत की विचार विमर्श की परंपरा और सवाल उठाने की मुक्त भावना आर्थिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि हरेक सत्ता और परंपरा को चुनौती देने को प्रोत्साहन देने से सत्ता में होने के कारण किसी खास विचार या विचारधारा को थोपने की संभावना खारिज नहीं रहेगी।
दादरी में एक व्यक्ति को पीट-पीट कर मार डालने और इसके बाद हुई हिंसा की घटनाओं के मद्देनजर बढ़ती असहिष्णुता की पृष्ठभूमि में राजन ने यह भी कहा कि सवाल खड़ा करने और चुनौती देने के अधिकार की रक्षा भारत की वृद्धि के लिए आवश्यक है। उन्होंने कहा ‘सहिष्णुता का अर्थ है किसी विचार के प्रति इतना भी असुरक्षित नहीं हों कि कोई उसे चुनौती न दे दे। यह कुछ हद तक अनासक्त होना है जो परिपक्व विमर्श के लिए बेहद आवश्यक है।’
अपने पूर्व संस्थान आईआईटी दिल्ली में दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुये राजन ने कहा ‘आखिरकार, ऐसे दुर्लभ मामलों में जहां विचार किसी समूह के मूल चरित्र से गहरे जुड़े हों वहां सम्मान की जरूरत है और ऐसे मामलों में चुनौती देते समय हमें अतिरिक्त सावधानी बरतनी होती है।’ उन्होंने कहा कि सहिष्णुता से विचार-विमर्श में आने वाला रोष खत्म किया जा सकता है और सम्मान भी बना रह सकता है।
भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने राजन के भाषण पर टिप्पणी करते हुए ट्विटर पर कहा, ‘उन्हें रिजर्व बैंक जाकर अपना काम करना चाहिए। उन्हें बुजुर्गों की तरह नहीं बोलना चाहिए।’ पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने कहा कि क्या अब भी भाजपा यही कहेगी कि प्रणब मुखर्जी और रघुराम राजन का असहिष्णुता के खिलाफ आज का भाषण भी ‘कृत्रिम विरोध’ था।
भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा, ‘हम उनके बयान का स्वागत करते हैं। सहिष्णुता है, इसीलिए हम प्रगति कर रहे हैं।’ राजन ने अमेरिका की मिसाल देते हुए कहा कि वहां राष्ट्रीय झंडे को जलाने से वैसी प्रतिक्रिया नहीं होती क्योंकि समाज समय के साथ इसके प्रति सहिष्णु हो गया और अब इसका उपयोग किसी को झटका देने के लिये नहीं किया जाता।
उन्होंने कहा, ‘कुल मिलाकर यदि समूह की भावना ज्यादा सहिष्णु हो जाती है और इसे असानी से चोट नहीं पहुंचाई जा सकती तो आप चोट पहुंचाने का जो प्रयास करेंगे वह खत्म हो जायेगा।’ उन्होंने महात्मा गांधी को उद्धृत करते हुए कहा ‘आचार-व्यवहार परस्पर सहिष्णुता का स्वर्णिम नियम है क्योंकि हम सभी एक जैसा नहीं सोचेंगे और हम सत्य को टुकड़ों में तथा अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं।’
রায় শোনার পর প্রথম কী করেন মদন মিত্র?
Indian scientists join protests over killings of prominent secularists
National science academies decry religious intolerance and government's perceived embrace of superstition.
30 October 2015
Sanjeev Verma/Hindustan Times via Getty Images
Leading Indian scientists have voiced concerns during the past week over religious intolerance and the killings of three noted advocates of rational thinking.
The action is an unusual occurrence in a country where scientists rarely step out of their research domains to comment on social or political issues. It follows an outcry by leading writers, who since September have been returning their national awards in protest against what they see as the government's failure to curb religious intolerance in India.
Anti-superstition activist Narendra Dabholkar was killed in 2013, communist politician Govind Panasare in February of this year and literature scholar Malleshappa Kalburgi in August. All three killings have been blamed on members of extreme right-wing Hindu groups. The killing of Kalburgi triggered the protests from the writers, which intensified early this month after a mob in a town near New Delhi killed a Muslim man who was rumoured to have slaughtered a cow (Hinduism considers cows to be sacred animals).
On 22 October, a group of scientists followed up the writers' protest by launching an online petition to India's president, Pranab Mukherjee, protesting against the killings. It gathered 268 signatories.
The petition was followed on 27 October by a statement from the Inter-Academy Panel on Ethics in Science, a body set up by the Indian National Science Academy, New Delhi; the Indian Academy of Sciences, Bangalore; and the National Academy of Sciences, Allahabad. The statement pointed out that the Indian constitution mandated that “its citizens abide by and uphold reason and scientific temper”.
“Yet,” it continued, ”we note with sadness and growing anxiety several of [sic] statements and actions which run counter to this constitutional requirement of every citizen of India,” and which should be “nipped in the bud”.
Indira Nath, a member of the panel and an immunologist at the Indian National Science Academy in New Delhi, says that the panel wants to: “bring back rationality and scientific thinking to the mainstream. It is an apolitical statement and not directed against the government of the day.”
A day later, more than 100 scientists from leading Indian science institutes, including national award winners, three fellows of the UK Royal Society and a foreign associate of the US National Academy of Sciences, signed a second statement expressing deep concern over the “climate of intolerance and the ways in which science and reason are being eroded in the country”. The scientists lamented what they called “active promotion of irrational and sectarian thought by important functionaries of the government”.
Irrational thought
Thiagarajan Jayaraman, who is chair of the Centre for Science, Technology and Society at the Tata Institute of Social Sciences in Mumbai and a lead signatory on the second statement, mentioned the example of a statement made by Prime Minister Narendra Modi in October 2014. Modi said that the Hindu elephant-headed deity Ganesha was an example of knowledge of transplantation in ancient India, and that the birth of some mythological characters in the ancient Indian text Mahabharatareflected knowledge of advanced genetics and stem cells.
Naresh Dadhich, a physicist at the Inter-University Centre for Astronomy and Astrophysics in Pune, India, and one of the petitioners to the Indian president, says that “the government has failed to check or discourage the anti-rational environment”.
All three advocates who were killed were “widely regarded by the scientific community as part of efforts to promote science among the public”, Jayaraman adds.
Pushpa Mittra Bhargava, former director of the Centre for Cellular and Molecular Biology, says that he plans to return a national award in protest. “Science is about reason and rationality. If three rationalists can be killed, scientists too can be killed.”
On 29 October, a group of Indian historians joined the fray by releasing their own statement protesting against religious superstition. Groups of artists and sociologists have also issued similar statements.
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