सर कलम कर दो लब आजाद रहेंगे! हिटलर के राजकाज में भी संस्कृतिकर्मी प्रतिरोध के मोर्चे पर लामबंद थे
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Abhishek Srivastava
लेखक अनिवार्यत: एक अकेला प्राणी होता है। बेहद अकेला। कोई उसकी बात समझ जाए, यह उसके जीवन का सबसे बड़ा सुख होता है। कोई उसका लिखा न समझ पाए, यही उसका सबसे बड़ा दुख होता है। उसके लिखे में जनता और जनता की राजनीति का समावेश होना उसकी अभिव्यक्ति का अगला संस्तर है। जब समाज लेखक की कद्र नहीं करता, तो इस संस्तर में मिलावट आ जाती है। महत्वाकांक्षाएं जन्म ले लेती हैं। फिर वह बैसाखी खोजता है। ऐसे में संस्थाएं बैसाखी का काम करती हैं। एक बार संस्थाओं से मान्यता मिलने के बाद अधिकतरमामलों में फिर यह होता है कि लेखक की पहचान संस्थाओं के साथ उसके रिश्ते, पुरस्कार, कार्यक्रमों में संलग्नता और अभिनंदनों से होने लगती है। एक ऐसा मोड़ आता है जब लेखक को अपनी जनता की ज़रूरत वास्तव में नहीं रह जाती है। जनता उसके कंटेंट में भले बची रहे, लेकिन वह संस्थाओं के लिए एक शिल्प से ज्यादा नहीं रह जाती। ऐसे लेखक कम हैं- बेहद कम, जो अकेले रहकर भी, जनता से तिरस्कृत होते हुए भी, जनता की राजनीति पर आस्था बनाए रखते हुए उसके लिए लिखते रहते हैं।
हमने जैसे भी लेखक पैदा किए हैं, उन्हें जैसा भी सम्मान या अपमान दिया है, उस लिहाज से देखें तो पुरस्कार लौटाने के बाद हमारा हर लेखक दोबारा अकेला हो गया है। और ज्यादा अकेला। निरीह। वल्नरेबल। संस्था की बैसाखी उससे छिन गयी है। सोचिए, एनडीटीवी के बगैर रवीश कुमार, जनसत्ता के बगैर ओम थानवी, संस्कृति मंत्रालय के बगैर अशोक वाजपेयी, विश्वविद्यालयों के बगैर नामवर सिंह, सरकारी समितियों के बगैर विष्णु खरे आखिर क्या चीज़ हैं? एक लेखक के लिए संस्थाओं से जुड़ाव इसीलिए इतनी अहम चीज़ है कि लेखक सब कुछ लौटा देगा, संस्थाओं से रंजिश मोल नहीं लेगा। ऐसा करना उसका आखिरी औज़ार होगा।
आप समझ रहे हैं न? नामवरजी या विष्णु खरे को भले लगे कि साहित्य अकादमी जैसा पुरस्कार लौटाना सुर्खियां बटोरने के लिए है, लेकिन अपना लेखक तो आखिर और कमज़ोर हुआ है न ऐसा कर के? क्या आप जानते हैं कि जिंदगी भर नौकरी करने वाले मंगलेशजी फिलहाल बेरोज़गार हैं? क्या आपको पता है कि उदय प्रकाश मुद्दतों से बेरोज़गार हैं और फ्रीलांसिंग के बल पर जी रहे हैं? ये इनकी अपनी ताकत है कि इन्हें किसी के पास मांगने नहीं जाना पड़ता, लेकिन इससे उनकी पुरस्कार वापसी की कार्रवाई को आप कठघरे में खड़ा नहीं कर सकते। अपने लेखकों को एक बार दिल खोलकर पढि़ए। दोबारा पढि़ए। ज़रा दिल से। फिर उसकी ओर नज़र भर के देखिए। हिंदी की तुच्छ दुनिया में पुरस्कार लौटाने वाला लेखक वाकई सबसे निरीह है। उसने टेंडर नहीं भरा था क्रांति का। आप जबरन उस पर पिले पड़े हैं! अपनी सोचिए। ये मत कहिए कि आपके पास लौटाने को है ही क्या? ये मत कहिए कि लेखक प्रचार का भूखा है। यह अपने पावन मार्क्सवादी आलस्य के बचाव में दिया गया आपका बेईमान तर्क है। जिसके पास जैसी सामर्थ्य है, वैसा प्रतिरोध करे। दूसरे के घर में ढेला न मारे। हम सबके घर कांच के हैं और हम इंसान हैं, व्हेल मछली नहीं, कि जिन्हें सतह पर आकर सामूहिक खुदकुशी का शौक हो। हे हिंदी के पाठक, अपने लेखकों पर रहम कर! कुछ नहीं तो अपने बच्चों का ही खयाल कर। उनके लिए ही अपने लेखकों को बचा ले!
https://youtu.be/I-ST7ysPnxc
अछूत रवींद्रनाथ का दलित विमर्श
Out caste Tagore Poetry is all about Universal Brotherhood which makes India the greatest ever Ocean which merges so many streams of Humanity!
आप हमारा गला भले काट दो,सर कलम कर दो लब आजाद रहेंगे! क्योंकि हिटलर के राजकाज में भी जर्मनी के संस्कृतिकर्मी भी प्रतिरोध के मोर्चे पर लामबंद सर कटवाने को तैयार थे।जो भी सर कटवाने को हमारे कारवां में शामिल होने को तैयार हैं,अपने मोर्चे पर उनका स्वागत है।स्वागत है।
प्रोफेसर चमनलाल ने भी लौटाया साहित्य अकादमी से मिला अनुवाद पुरस्कार #SahityaAkademiAward
असम के प्रख्यात साहित्यकार बोर्गोहैन भी लौटाएंगे साहित्य अकादेमी पुरस्कार #SahityaAkademiAward
https://youtu.be/OxH3xyFacco
Why do I quote Nabarun Bhattacharya so often?
এই মৃত্যু উপত্যকা আমার দেশ নয়!
এই মৃত্যু উপত্যকা আমার দেশ নয়!Nabarun Da declared it in seventies!
Bengal has no courage to raise voice against the fascist racist HIT LIST or the governance of Fascism,I am afraid to speak out.Rest of India follows Nabarunda in creativity as creativity is all about the acts activated to sustain humanity and nature.Reactionaries have taken over the world and Bengal remains the colony!
Palash Biswas
https://youtu.be/OxH3xyFacco
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