Saturday, December 26, 2015

महिलाओं की मुक्ति के बिना क्रांति मुमकिन नहीं और क्रांति के बिना महिलाओं की मुक्ति नहीं! जाति के खात्मे की लड़ाई को भी वर्ग संघर्ष का ही हिस्सा मानना जरूरी है! -अनिर्बाण, अनुभव, आश्वथी, उफक, उमर, गोगोल, प्रिय धर्शिनी, बनोज्योत्सना, रेयाज, रुबीना, स्रीरूपा

महिलाओं की मुक्ति के बिना क्रांति मुमकिन नहीं और
क्रांति के बिना महिलाओं की मुक्ति नहीं!


जाति के खात्मे की लड़ाई को भी वर्ग संघर्ष का ही हिस्सा मानना जरूरी है!
 
-अनिर्बाण, अनुभव, आश्वथी, उफक, उमर, गोगोल, 
प्रिय धर्शिनी, बनोज्योत्सना, रेयाज, रुबीना, स्रीरूपा

दुनिया के किसी भी समाज की तरह भारतीय उपमहाद्वीप में भी पितृसत्ता का चरित्र इसकी अपनी ऐतिहासिक खासियतों और उत्पादन के तरीके (मोड ऑफ प्रोडक्शन) के जरिए तय होता है. यहां के समाज में पितृसत्ता की बुनियाद अभी भी मजबूती से ब्राह्मणवादी सामंतवाद पर टिकी हुई है, और इसका साम्राज्यवादी बड़ी पूंजी के साथ गंठजोड़ पितृसत्ता को और मजबूती देता है. यहां तक कि जाति व्यवस्था को कायम रखने में महिलाओं तथा उनकी यौनिकता पर नियंत्रण को लेकर एक सरसरी समझदारी भी इसको उजागर करती है कि कैसे पितृसत्ता के सवाल को प्रभुत्वशाली अर्ध-औपनिवेशिक सामाजिक संबंधों के दायरे से बाहर रख कर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि यही संबंध अलग अलग लिंगों के बीच में गैर बराबर शक्ति संबंधों को तय करते हैं. और इसलिए,  जिस तरह अर्ध औपनिवेशिक भूसंबंधों को ठीक ही वर्ग संघर्ष का हिस्सा माना जाता है, उसी तरह महिलाओं की मुक्ति की लड़ाई और जाति के खात्मे की लड़ाई को भी वर्ग संघर्ष का ही हिस्सा मानना जरूरी है.

जेंडर और पितृसत्ता पर क्रांतिकारी आंदोलन के नजरिए की आलोचना-1

 
सन 2004 में महिला संगठनों और कार्यकर्ताओं द्वारा क्रांतिकारी एजेंडे में महिलाओं के लिए जगह को लेकर क्रांतिकारी आंदोलन की बढ़ती हुई आलोचना के मद्देनजर क्रांतिकारी आंदोलन की ओर से इस मुद्दे पर एक बातचीत की पहल की गई (इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 6 नवंबर, 2004). यह बातचीत जहां रखी गई, वहां दो बैनर लगाए गए थे, जिन पर यह नारा लिखा हुआ था: “मजदूर वर्ग की मुक्ति के बिना औरतों की आजादी नहीं हो सकती.” इसका मतलब यह है कि क्रांति के बिना महिलाओं की मुक्ति नहीं होगी. दूसरे बैनर पर लिखा था “औरतों के बिना क्रांति नहीं”. इन नारों को सरसरी नजर से देखने पर शायद शब्दों में बारीक बदलाव पर नजर न जाए, लेकिन असल में ये नारे ऐसे होने चाहिए थे: “महिलाओं की मुक्ति के बिना क्रांति मुमकिन नहीं” और “क्रांति के बिना महिलाओं की मुक्ति नहीं”. इनमें से कोई भी एक नारा, दूसरे के बिना बेमानी है. क्रांति एक प्रक्रिया है जिसमें पितृसत्ता और उत्पीड़नकारी लैंगिक रिश्तों के खिलाफ लड़ाई समाज के क्रांतिकारी बदलाव का ऐसा हिस्सा है, जिसको अलग नहीं किया जा सकता है. लेकिन हम पाते हैं कि इस सवाल पर क्रांतिकारी आंदोलन का रवैया ऐसा है कि इसने ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझदारी को ही पलट दिया है. यहां क्रांति अपने आप में ही एक मकसद हो गई है, जिसको अगर एकबार हासिल कर लिया गया तो इसके नतीजे में अपने आप ही महिलाओं की मुक्ति हो जाएगी. जबकि इसके उलट, असल में पितृसत्ता, या जाति व्यवस्था, के खिलाफ लड़ाई क्रांति की प्रक्रिया के दौरान हमेशा चलती रहती है और ऐसे संघर्षों के जरिए ही यह बात तय होती है कि क्रांति और उसके बाद आने वाले समाज की शक्ल क्या होगी. लेकिन जब कोई यह कहे कि “क्रांति के बिना महिलाओं की मुक्ति नहीं” और “औरतों के बिना क्रांति नहीं”, तो उसका मतलब यह होता है कि पितृसत्ता एक ऐसा सवाल है जिसपर सिर्फ तभी गौर किया जाएगा, जब एक बार क्रांति हासिल कर ली जाएगी. और जब तक ऐसा नहीं हो जाता, महिला कैडरों से यह उम्मीद की जाती है कि वे एक औरत के रूप में जिस उत्पीड़न का सामना करती हैं, उसके बारे में सवाल उठाने के बजाए इस क्रांति को कामयाब बनाने के लिए अहम भूमिका अदा करें. मानो, उनके द्वारा अपने उत्पीड़न के बारे में सवाल उठाना, सिर्फ ध्यान बंटाने वाली एक चीज हो. मानो यह क्रांति की मौजूदा जरूरतों से सिर्फ एक भटकाव हो. क्रांति के बारे में ऐसी समझदारी इन दोनों संघर्षों को अलग अलग करके देखती है, मानो पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष सामाजिक बदलाव के क्रांतिकारी संघर्ष का हिस्सा न हो.

रोजाना के संघर्ष और क्रांति के व्यापक सवाल के बीच इस गलत और झूठे अलगाव ने जो स्थिति पैदा कर दी है, उसमें ऐसा दिखता है कि दशकों से महिला आंदोलन और कार्यकर्ता द्वारा हिंसा, शादी, तलाक, यौनिकता (सेक्सुअलिटी) वगैरह के बारे में जो सवाल उठाते रहे हैं, उन पर सिर्फ तभी गौर किया जाएगा, जब एक बार क्रांति हासिल कर ली जाए. पिछले तीन बरसों से हम क्रांति के व्यापक सवाल से महिलाओं के सवालों को अलगा कर उन्हें परदे के पीछे धकेले जाने की ठीक इसी समझदारी पर सवाल करते रहे हैं. हमारा संघर्ष एक सामंती-नैतिकतावादी पितृसत्तात्मक समझदारी से है, जो दशकों से महिला आंदोलनों द्वारा उठाए गए विभिन्न सवालों पर गौर करने के बजाए सिर्फ औरतों पर नियंत्रण और संरक्षण (पैट्रनाइज) करने के काम आती है. हम पाते हैं कि यहां क्रांति को एक प्रक्रिया के रूप में देखने के बजाए और इतिहास को इस तरह समझने के बजाए कि विभिन्न संघर्ष इस इतिहास को गढ़ते हैं, इस सवाल को लेकर एक तरह का कामचलाऊ रवैया है, जो मुख्यत: आम समझ (कॉमन सेंस) पर टिका हुआ है. हमारे समाज के संदर्भ में यह आम समझ मुख्यत: सामंती नैतिकता की पैदाइश है. इस समझदारी को लेकर हमारी जो असहमतियां हैं, उनके अहम पहलुओं का एक खाका हमने अपने इस्तीफे में दिया था. इसलिए हम यहां उनमें से कुछ पहलुओं पर विस्तार में चर्चा करने की कोशिश करेंगे और यह बताएंगे कि हमारे ऐसा कहने के पीछे क्या आधार था.

दुनिया के किसी भी समाज की तरह भारतीय उपमहाद्वीप में भी पितृसत्ता का चरित्र इसकी अपनी ऐतिहासिक खासियतों और उत्पादन के तरीके (मोड ऑफ प्रोडक्शन) के जरिए तय होता है. यहां के समाज में पितृसत्ता की बुनियाद अभी भी मजबूती से ब्राह्मणवादी सामंतवाद पर टिकी हुई है, और इसका साम्राज्यवादी बड़ी पूंजी के साथ गंठजोड़ पितृसत्ता को और मजबूती देता है. यहां तक कि जाति व्यवस्था को कायम रखने में महिलाओं तथा उनकी यौनिकता पर नियंत्रण को लेकर एक ऊपरी समझदारी भी इसको उजागर करती है कि कैसे पितृसत्ता के सवाल को प्रभुत्वशाली अर्ध-औपनिवेशिक सामाजिक संबंधों के दायरे से बाहर रख कर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि यही संबंध अलग अलग लिंगों के बीच में गैर बराबर शक्ति संबंधों को तय करते हैं. और इसलिए, जिस तरह अर्ध औपनिवेशिक भूमि संबंधों को ठीक ही वर्ग संघर्ष का हिस्सा माना जाता है, उसी तरह महिलाओं की मुक्ति की लड़ाई और जाति के खात्मे की लड़ाई को भी वर्ग संघर्ष का ही हिस्सा मानना जरूरी है. इतिहास गवाह है कि जाति या पितृसत्ता के ढांचों को हमेशा ही चुनौती मिलती रही है. मार्क्सवाद हमें समाज को गति में देखना सिखाता है. अपनी अंतिम अवस्था से गुजर रहा पूंजीवाद, यानी साम्राज्यवाद के दौर का पूंजीवाद, बाजार के जरिए आजादी या चुनाव के जिन विचारों और मूल्यों को बढ़ावा देता है, उनका असली मतलब कभी भी आजादी या चुनाव की आजादी नहीं होता. इस दशा में आते आते, पूंजी अपना प्रगतिशील और लोकतांत्रिक चरित्र खो चुकी है और सामंतवाद के साथ गठबंधन करके वजूद में है. लेकिन, एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी होने के नाते हमारे लिए यह अहम है कि हम अंतिम अवस्था वाले पूंजीवाद द्वारा परोसे जा रहे बुर्जुआ मूल्य/नैतिकता और जाति तथा पितृसत्ता के ढांचों के खिलाफ संघर्षों से जन्म ले रहे लोकतांत्रिक मूल्यों/नैतिकता के बीच फर्क को अलग अलग करके देखें और समझें. हमारे लिए यह पहचानना जरूरी है कि हमारे समाज के संदर्भ में, हमारी चेतना अकेले सामंती और बुर्जुआ मूल्यों/नैतिकताओं के मेल से ही नहीं बनती है, बल्कि यह विभिन्न संघर्षों से और उनके जरिए पैदा होने वाले जनवादी और प्रगतिशील मूल्यों से भी बनती और विकसित होती है - जैसे कि तेभागा व तेलंगाना के संघर्ष, नक्सलवादी आंदोलन, मजदूर वर्ग के विभिन्न संघर्ष, महिला आंदोलन, दलित आंदोलन, एलजीबीटीआईक्यू आंदोलन, राष्ट्रीयताओं के संघर्ष या फिर विभिन्न व्यक्तियों के संघर्ष आदि. ऐसी अनगिनत मांगें, जिनके बारे में कुछ दशकों पहले तक सोचा तक नहीं जा सकता था, वे आज पैदा हो रही हैं तो सिर्फ इसी वजह से कि उनके लिए इन आंदोलनों ने जगह बनाई. लेकिन क्रांतिकारी आंदोलन में इतिहास के दौरान लैंगिकता और पितृसत्ता के सवालों पर हुए इस विकास को कबूल करने और उनके साथ एक संवाद बनाने में लगातार एक हिचक दिखाई दे रही है, जो दिखाता है कि इस मुद्दे पर इतिहास से आंख मूंद ली गई है और दोतरफा तरीके से संवाद करने के बजाए चीजों को सिर्फ ऊपर से लाकर लागू करने का रुझान दिखाई दे रहा है.

लेनिन ने कहा था कि ‘एक क्रांतिकारी सिद्धांत के बगैर क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता.’ लेकिन लैंगिक पहलू को समझने के लिए इतिहास और सामाजिक संबंधों को लेकर जो समझ की कमी पाई गई है, उसका नतीजा यह है कि क्रांतिकारी आंदोलन यौन हिंसा और पितृसत्तात्मक उत्पीड़न से निबटने के मामलों में तथा इस लड़ाई में दखल देने और अपनी एक जगह बनाने के लिहाज से गलत तरीकों से काम ले रहा है. इसकी मिसाल के लिए हम अलग अलग ऐसे संगठनों के लिखे हुए दस्तावेजों, बयानों या फिर दर्ज किए गए विचारों को पेश करेंगे, जो एक विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद को मानते और क्रांतिकारी राजनीति पर अमल करते हैं. नारी मुक्ति संघ ऐसा ही एक संगठन है, जिसके राजनीतिक अनुभवों, काम-काज और महिलाओं की विभिन्न समस्याओं को लेकर उनके संघर्षों का एक छोटा सा इतिहास रिवॉल्यूशनरी वुमन्स मूवमेंट इन इंडिया नाम की एक किताब में दिया हुआ है. झारखंड में आदिवासी महिलाओं के संघर्षों और विभिन्न मुद्दों पर नारी मुक्ति संघ के हस्तक्षेप का एक छोटा सा ब्योरेवार इतिहास देने के बाद, यौन हिंसा के सवाल पर इसका विश्लेषण इस तरह शुरू होता है: “एनएमएस के इलाकों में यौन उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाओं में कमी आई है. जब भी बलात्कार की घटना होती है, एनएमएस जन अदालत बुलाती है. वह जांच करती है और अगर वह पाती है कि लड़का एक गरीब परिवार से है और टीवी, सिनेमा की साम्राज्यवादी सांस्कृतिक के प्रभाव में आ गया है और अगर वह अपना अपराध कबूल कर लेता है, तो उसे कड़ी चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है.” (रिवॉल्यूशनरी वुमन्स मूवमेंट इन इंडिया, न्यू विस्टास पब्लिकेशंस, पृ.31) यहां भी, यौन हिंसा की वजहें ‘चेतना के दायरे’ में देखी गई हैं, जिसको ‘टीवी, सिनेमा की साम्राज्यवादी संस्कृति’ तय करती है (यह एक ऐसी बात है जो विभिन्न लेखों में आजिज कर देने की हद तक दोहराई गई है). इसका नतीजा सिर्फ यही नहीं है कि बलात्कार के अपराधियों को ‘कड़ी चेतावनी’ देकर छोड़ दिया जाता है, बल्कि यौन हिंसा की वजहों को भी गलत तरीके से समझा जाता है. इस संदर्भ में, साम्राज्यवादी संस्कृति की इतने जोर-शोर से की गई आलोचना खतरनाक तरीके से उस प्रतिक्रियावादी समझदारी के बेहद करीब आ गई है, जो कहती है कि एक बाहरी बुराई (इस मामले में साम्राज्यवादी संस्कृति) हमारे एकसार और आदर्श समाज को भ्रष्ट कर रही है और यौन हिंसा को बढ़ावा दे रही है.

जब मामला शहरों से जुड़ा हो, तब तो महिलाओं के खिलाफ हिंसा को जन्म देने वाली ‘साम्राज्यवादी संस्कृति’ का यह विचार और जोर पकड़ लेता है, क्योंकि ऐसा माना गया है कि इस संस्कृति का असर निम्न-पूंजीपति तबके पर कहीं ज्यादा है. मिसाल के लिए रेवॉल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट द्वारा अक्तूबर 2013 में लाए गए एक हिंदी बयान को देखें, जो तरुण तेजपाल द्वारा एक पत्रकार पर किए गए यौन हमले के बारे में है. शुरू में इसकी निंदा करने के बाद यह बयान निम्नलिखित विश्लेषण पर उतरता है:

“वैश्वीकरण और नवउदारवादी संस्कृति का जिस तेजी से हमारे सामने एक मॉडल खड़ा हुआ है उसे हम कारपोरेट, संसद व विधायिका, मीडिया और साम्राज्यवादी गिरोहों के गठजोड़ में देख सकते हैं। इस गठजोड़ में अहम हिस्सा है महिला को बाजार में ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में उतारना। यह साम्राज्यवादी संस्कृति है जिसका गठजोड़ अपने देश में सामंतवादी ब्राह्मणवादी संस्कृति के साथ हुआ है। मीडिया संस्थानों के मालिकों, प्रबंधकों, संपादकों...में मुनाफे की होड़, संपदा निर्माण और सत्ताशाली होने का लोभ-लालच पत्रकारिता, लोकतंत्र, संस्कृति, आधुनिकता, जीवनशैली आदि आवरण में खतरनाक रूप से ऐसी संस्कृति को पेश कर रहा है जो पूरे समाज और महिला के लिए भयावह स्थिति बना रहा है।”

इस समझदारी ने यौन हिंसा को ताकत और सत्ता के अपराध के रूप में देखने के बजाए, इसे महज सेक्स और लालसा तक सीमित कर दिया है. यौन हिंसा को गैर बराबर सामाजिक रिश्ते में निहित ताकत के अपराध के रूप में देखने वाले यह मांग करेंगे कि घर से लेकर काम की जगहों तक सभी जगहों का जनवादीकरण किया जाए, जबकि ऊपर दिया गया आरडीएफ का विश्लेषण आखिर में औरतों के ऊपर मर्दों के नियंत्रण और संरक्षण को बढ़ावा देता है और अपने ऊपर होने वाले हमलों के लिए खुद औरतों को ही दोष देने की हद तक चला जाता है. इस तरह आरडीएफ के विश्लेषण ने, उन औरतों को एक तरह से खुद अपने पर होने वाली हिंसा के लिए जिम्मेदार बना दिया है, जो अपनी ‘भ्रमित चेतना’ के कारण ‘जीवन शैली/संस्कृति/आधुनिकता/लोकतंत्र’ के नाम पर परोसी जाने वाली चीजों को अपनाती हैं और ‘कॉरपोरेट मीडिया घरानों’ में काम कर रही हैं. हालांकि हम यहां ये भी जोड़ना चाहेंगे, कि यह आलोचना पेश करते हुए हम यह नहीं कह रहे हैं कि साम्राज्यवाद द्वारा परोसी जा रही संस्कृति या उपभोक्तावाद की हिमायत की जाए, बल्कि हम इस बात की तरफ ध्यान दिला रहे हैं कि जब साम्राज्यवादी संस्कृति या उपभोक्तावाद को अधकचरे तरीके से यौन हिंसा के मामलों की व्याख्या करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो यह समस्याजनक हो जाता है.

यह समझदारी कॉमरेड अनुराधा गांधी जैसी वरिष्ठ क्रांतिकारी नेता के लेखन में भी चली आई है. जब उनसे एक इंटरव्यू में शहरी महिलाओं द्वारा झेले जा रहे उत्पीड़न की प्रकृति के बारे में पूछा गया, तो वे जवाब देती हैं कि दूसरी समस्याओं के साथ साथ, “शहरी महिलाओं पर साम्राज्यवादी संस्कृति का असर बहुत ज्यादा है. शहरी महिलाएं न सिर्फ उपभोक्तावाद से प्रेरित हैं, बल्कि इसकी शिकार भी हैं, जो इंसानी मूल्यों के बजाए फैशन और सौंदर्य उत्पादों को ज्यादा अहमियत देती हैं. इस साम्राज्यवादी संस्कृति के नतीजे में, शहरी इलाकों में अत्याचारों और यौन दुर्व्यवहारों की वजह से असुरक्षा का माहौल है.” (स्क्रिप्टिंग द चेंज, पृ.276). दक्षिणपंथी विचारकों और सभी रंगों के संसदीय दलों के नेता यौन हिंसा में इजाफे के लिए टीवी, सिनेमा, फैशन, सौंदर्य उत्पादनों वगैरह पर इल्जाम लगाते हैं, लेकिन जब मौजूदा सामाजिक ढांचे को पूरी तरह से बदलने के लिए लड़ने वाले आंदोलन भी उनसे मिलता जुलता विश्लेषण करें, तब यह भारी चिंता और खतरे का विषय है. इसलिए हमने इस पर सवाल उठाए, और जब भी हमने ऐसे सवाल उठाए, तो यह सुनने में आया कि हमें अनुराधा गांधी जैसी हस्ती पर सवाल करने या आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं है. सवाल है कि यह अधिकार क्यों नहीं है? आखिर वह कौन सी बात है, जो हमें कुछ सवालों और चिंताओं को उठाने से रोकती है, यहां तक कि उन्हें अंदरूनी तौर पर भी नहीं उठाया जा सकता? ऐसे सवाल उठाने पर अगर कोई नाराज होता है, तो यह और कुछ भी नहीं बल्कि मतांधता और पोंगापंथ है. मार्क्सवादी व्यवहार हमेशा ही आलोचनाओं और उन आलोचनाओं के जवाबों से होकर विकसित हुआ है. खुद अनुराधा गांधी भी उन मुट्ठी भर लोगों में से थीं, जिन्होंने जाति के सवाल पर जड़ समझदारी के ऊपर सवाल करना शुरू किया. आखिरकार उनके सवालों ने इस मुद्दे पर मा-ले-मा की समझ को और धारदार ही बनाया. लेकिन यह विडंबना ही है कि जब हमने जेंडर और पितृसत्ता पर उनके कुछ विचारों पर सवाल उठाए तो कुछ लोगों ने कहा कि हमारी ‘सफाई’ होना जरूरी है.

पिछले तीन बरसों में हमने बस इस समस्याग्रस्त समझदारी पर एक बहस की मांग की है. लेकिन इसके बदले में हमने सिर्फ और सिर्फ यही देखा कि हमारे द्वारा उठाए गए सवालों को अवैध घोषित करने के लिए हमें बेईमान करार देने की बार-बार कोशिशें की कईं. लगातार इस बेशर्म निरंकुशता का सामना करते हुए, आखिर में हम 21 नवंबर को अपना इस्तीफा सौंपने पर मजबूर हुए, हालांकि विडंबना यह थी कि हम संगठन की एक्जीक्यूटिव कमेटी (ईसी) और जेनेरल बॉडी दोनों जगहों पर बहुमत में थे. हमारे इस्तीफे के बाद डीएसयू की तथाकथित ईसी एक जवाब लेकर आई. हमारे द्वारा उठाए गए राजनीतिक सवालों और आलोचनाओं पर गौर करने के बजाए, उम्मीद के मुताबिक इस जवाब में भारी लफ्फाजी और तोहमतों (स्लैंडरिंग) की भरमार है. अगर हमारा इरादा किसी को बचाने का था, जैसा कि इस बयान में दावा किया गया है, तो हमारे लिए भारी बहुमत के साथ संगठन में बने रह कर ऐसा करना कहीं आसान था. हमने इसलिए इस्तीफा दिया, क्योंकि हमने यह महसूस किया कि इस संगठन में रहते हुए इस बहस को रचनात्मक रूप से आगे बढ़ाने की कोई जगह और गुंजाइश नहीं बची थी. हमने यह पूरी तरह जानते हुए इस्तीफा दिया कि ऐसा करने के बाद हम पर घिनौने पलटवार होंगे और उससे भी घिनौनी तोहमतों के साथ हमला किया जाएगा. और अगर पिछले महीने भर में डीएसयू के कथित ईसी और जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के रवैए को आधार माना जाए, तो इन्होंने असल में हमें सही साबित किया है. जेंडर और पितृसत्ता पर कोई भी बहस, जो मौजूदा हालात और ढांचे को जस का तस बनाए रखने वाली किसी भी पिछड़ी हुई समझदारी पर सवाल करे और उसे चुनौती दे, उसको हमेशा ही घसीट कर व्यक्तियों पर हमलों में बदल दिया जाता है. और फिर तोहमतें, हमेशा ही इस पितृसत्तात्मक समाज की प्रतिक्रियावादी ताकतों के हाथ का ऐसा हथियार रही हैं, जिसे वे खुद को चुनौती देने और सवाल उठाने वाले लोगों के खिलाफ इस्तेमाल करती हैं. और इस मामले में यह रवैया जेंडर और पितृसत्ता पर आंदोलन की सामंती-नैतिकतावादी समझदारी के साथ साफ-साफ मेल भी खाता है. लेकिन यह शोरशराबा, भारी लफ्फाजी, कानाफूसियों के अभियान, तोहमतें और अलग-अलग लोगों के चरित्र के बारे में कही जा रही बातें उन सवालों को दफना नहीं सकतीं, जो हमने उठाए हैं. और हम अभी भी यह उम्मीद करते हैं कि आखिर में क्रांतिकारी आंदोलन इन अहम सवालों पर गौर करेगा, जो इस समाज के क्रांतिकारी बदलाव और समाज के जनवादीकरण के मकसद के साथ इतने करीबी रूप से जुड़े हुए हैं कि उसका हिस्सा हैं.

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