Saturday, December 12, 2015

सर्वे भवन्तु सुखिन:. भारतीय संस्कृति का यह आदर्श वाक्य भले ही बड़ा आकर्षक लगे, पर व्यवहार में यह यथास्थिति का समर्थन करता है और अधिक से अधिक अभावग्रस्तों पर दया को प्रश्रय देता है. कारण जीने के संसाधन सीमित हैं. हर देश में उन का सामाजिक वितरण असमान है. एक वर्ग के पास संसधनों की बहुलता है. तो बहुसंख्य लोग संसाधनों के अभाव से जूझ रहे होते हैं. इन अभावग्रस्त लोगों को उनकी न्यू्नतम आवश्यकताओं के हिसाब से भी संसाधन जुटाने के लिए, संसाधन बहुल वर्ग के संसाधनों में कटौती करनी होगी, और इस से उस वर्ग को असंतोष या दुख होगा.

TaraChandra Tripathi
https://www.youtube.com/watch?v=QaAmgnmCKAc


सर्वे भवन्तु सुखिन:. भारतीय संस्कृति का यह आदर्श वाक्य भले ही बड़ा आकर्षक लगे, पर व्यवहार में यह यथास्थिति का समर्थन करता है और अधिक से अधिक अभावग्रस्तों पर दया को प्रश्रय देता है. कारण जीने के संसाधन सीमित हैं. हर देश में उन का सामाजिक वितरण असमान है. एक वर्ग के पास संसधनों की बहुलता है. तो बहुसंख्य लोग संसाधनों के अभाव से जूझ रहे होते हैं. इन अभावग्रस्त लोगों को उनकी न्यू्नतम आवश्यकताओं के हिसाब से भी संसाधन जुटाने के लिए, संसाधन बहुल वर्ग के संसाधनों में कटौती करनी होगी, और इस से उस वर्ग को असंतोष या दुख होगा.
किसी भी प्रकार का परिवर्तन सब के लिए सुखदायी हो ही नहीं सकता. यथास्थिति की भीतर भी उबाल आते रह्ते हैं. शायद इन सब तथ्यों पर चिन्तन करते हुए बुद्ध ने सर्वे के स्थान पर बहुजन को प्रतिस्थापित किया था. देश के आर्थिक संसाधनों की कुंडली मार कर बैठे वर्ग के संसाधनों की कटौती किये बिना, बहुजन या आम आदमी के जीवन स्तर को सुधारा ही नहीं जा सकता.
और सुविधा भोगी वर्ग के भीतर बैठा सूच्यग्रं न दास्यामि बिना युद्धेन केशव: वाला दुर्योधन बिना महाभारत के यह होने देगा ऐसा नहीं लगता.
दिल्ली में प्रदूषण को कम करने के प्रयासों की मीडिया में छाई आलोचना को ही देख लीजिए. पर्यावरण में व्याप्त हलाहल स्वीकार है, रोगी होना स्वीकार है, अल्प मृत्यु स्वीकार है, पर आम आदमी से ऊपर के स्तर की सुविधाओं में कटौती स्वीकार नहीं है. जन हित की किसी भी योजना में सैंध कैसे लगायी जाय, कहीं महान परंपराओं के दम्भ से लबालब हम भारतीयों की सब से बड़ी विरासत तो नहीं है?

No comments:

Post a Comment