Thursday, January 28, 2016

उठो मेरे देश! ( रोहित वेमुला और चेन्नई की तीन छात्राओं की (आत्म)हत्या के विरोध में आने वाले भूकंप की सूचना सड़कों पर उतरे क्रुद्ध छात्रों और बेचैनी से भरे साथियो अपने कामरेड, फ्रेंड, फ़िलॉसफ़र, गाइड प्यारे गोरख की पुण्य तिथि(29 जनवरी) पर उन्हें याद करते हुए उनकी लंबी कविता ‘उठो मेरे देश’ के कुछ अंश और उन्हीं की दो ग़ज़लें आप से साझा कर रहा हूँ।)इंकलाबी कवि गोरख पाण्डेय को उनकी पुण्यतिथि पर वर्तमान सन्दर्भ के साथ याद करता कामरेड रामजी राय का पोस्ट

इंकलाबी कवि गोरख पाण्डेय को उनकी पुण्यतिथि पर वर्तमान सन्दर्भ 

के साथ याद करता कामरेड रामजी राय का पोस्ट

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उठो मेरे देश!
( रोहित वेमुला और चेन्नई की तीन छात्राओं की (आत्म)हत्या के विरोध में आने वाले भूकंप की सूचना सड़कों पर उतरे क्रुद्ध छात्रों और बेचैनी से भरे साथियो अपने कामरेड, फ्रेंड, फ़िलॉसफ़र, गाइड प्यारे गोरख की पुण्य तिथि(29 जनवरी) पर उन्हें याद करते हुए उनकी लंबी कविता ‘उठो मेरे देश’ के कुछ अंश और उन्हीं की दो ग़ज़लें आप से साझा कर रहा हूँ।)
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लेकिन मुझे ग़लतफ़हमी हो गई थी
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इंकार किया पहचानने से उसे
‘नहीं, यह हमारा बेटा नहीं, भाई नहीं मेरा
यह तो घृणित तिलचट्टा है’
और उसे सौंप दिया था
अकेली दारुण मृत्यु को
भूल चुका था----
अपने देश को
हैजे से शहर की हिफ़ाज़त
और सफाई कर
वह घृणित है, अछूत है, मेहतर है
और प्रेम में पलते हैं बेहतर हैं
विष्ठा और संभोग की
प्रदर्शनी में लगे
विदेशी नस्ल के कुत्ते
शोषण और दमन की
विश्वव्यापी मशीन के विरुद्ध
अविराम युद्ध ही है
मेरे देश का सही परिचय
देशद्रोही करार दिया गया उसे----
निर्वासित किया गया अपने घर से
उठो मेरे देश------
अरबों पैरों में बांध कर
तूफ़ान
उठो
धधको बगावत की
लोहू-सी लाल अदम्य
लपटों में। (1974)
ग़ज़लें
1
हम कैसे गुनहगार हैं उनसे न पूछिए
वे अदालतों के पार हैं उनसे न पूछिए
ये जुल्मो सितम उनके और ये अपनी बेबसी
कब तक के रिस्तेदार हैं उनसे न पूछिए
ग़म इश्क के जियादह या कि रोजगार के
ये दिल के सरोकार हैं उनसे न पूछिए
बजने लगी है नगमों में बेसाख्ता जंजीर
किस साज़ के ये तार हैं उनसे न पूछिए
कटती है तो ज़ुबान है बन जाएगी तलवार
सच कितने धारदार हैं उनसे न पूछिए
जीने का कोई इल्म ज़रा खुद तलाशिए
जो मौत के फनकार हैं उनसे न पूछिए
2
टूटे घुटनों से बंद राहों से
वक्त गुजरे है कत्लगाहों से
एक नश्तर चुभा है ख्वाबों में
लहू टपकता है निगाहों से
सरजमीं सब्ज़ मुफलिसी से है
बस्ती आबाद बेपनाहों से
खुदखुशी कर रही हैं उम्मीदें
छत कि चूलों पे लटक बाहों से
कौन ये मुल्क मिल्कियत किसकी
खूनी मंज़र ये किन सलाहों से
हम हैं मजबूर तो करेंगे ही
वरना क्या करना था गुनाहों से
ठहर, ऐ चाके-जिगर बेचैनी
शोले उठने दे सर्द आहों से (कानपुर में चार युवा बहनों द्वारा आत्महत्या करने पर)

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