जो अंदेशा था, वही हुआ। बजट में शब्द ही शब्द भरे हैं, आंकड़े ढके-छिपे हैं। साफ-साफ पता नहीं चला कि सरकार ने खेती-किसानी पर ज्यादा गौर किया या उद्योग-व्यापार पर। इस बात का सबूत यह है कि सरकारी दावा भी संतुलित बजट के प्रचार का है। हालांकि कुछ दिनों से माहौल बनाया जा रहा था कि इस बार सरकार का ध्यान गांव, किसान और गरीबी पर होगा, और बजट देखकर यह बात भी सिर्फ कथनी साबित हुई। करनी में उद्योग-व्यापार बचाने पर ही ध्यान लगा दिखा। सरकार को संतुलित बजट का प्रचार करना पड़ा। ऐसे प्रचार के चक्कर में अब अंदेशा है कि मझोले तबके वाला उद्योग जगत भी मुंह फुलाकर बैठेगा। उनके निवेशक बजट भाषण के बीच में ही शेयर बेचने पर उतारू हो गए थे। वह तो बजट के सरकारी पक्ष वाले विश्लेषकों ने शेयर बाजार को जमीन से उपर उठाया। इधर किसान को तो बजट समझ में आने की कोई स्थिति है ही नहीं। वह तो सिर्फ अपने कर्जो की माफी के इंतजार में था।
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