Monday, February 29, 2016

मालविका हरिओम मेरे अपने, बेहद अपने JNU को याद करते हुए.....


Malvika Hariom to Ganga Dhaba
11 hrs
मेरे अपने, बेहद अपने JNU को याद करते हुए.....
चाय की चुस्की आधी रात
प्यार मुहब्बत की वो बात
चट्टानों पर बीच बहस में
फूको, मार्क्स, दरीदा साथ
नर्म उजाला, भीनी खुश्बू
हाथों से मस होते हाथ
इक मीठी सिहरन दे जाते
हवा सुरीली, उड़ते पात
तन्हाई में साथ निभाते
झींगुर,जुगनू और बरसात
सूनी आँखों में फिर खिलते
हँसते, रोते, गाते ख्व़ाब
झाड़ी, जंगल, झुरमुट भीतर
एक नया अद्भुत संसार
बातें वही, मिटाओ जड़ से
भेदभाव और अत्याचार
ज़ात-पात की गहरी खाई
इनमें गिर मत जाना यार
खो मत जाना सजा हुआ है
नफ़रत, हिंसा का बाज़ार
सीखा यही, पढ़ो, पहचानो
दुनिया के रंगों का सार
सिर्फ़ पढ़ाई जीत सरीखी
उसके हारे से सब हार
'गंगा ढाबे' की वो रौनक
आलू बोंडा नरम-नरम
नाम परांठा आलू का
जिसमें आलू रहता था कम
चटनी और समोसे का हर वक़्त
सभी भरते थे दम
'कीचा' में खाने को अक्सर
पैसा पड़ जाता था कम
कैंटीन के इडली-डोसे ने
आख़िर तक साथ दिया
'मेज़बान' में रोज़ नहीं जा पाते
ये वाजिब था ग़म
'के.सी.' में बेबात टहलना
'टेफ्ला' में सुनना गाने
'पार्थ सारथी' के टीलों पर
इसके उसके अफ़साने
छह सौ पंद्रह के जलवे थे
कई प्रेम परवान चढ़े
आते-जाते बिना टिकट
दीवाने कंडक्टर से लड़े
खुली सड़क पर चाहे बैठो
घंटों, खुल के बात करो
चाहे ख़ुद की बात करो या
फिर ज़िक्रे हालात करो
हाथ में झोला पैर में चप्पल
होंठों पर मुस्कान थी
आँखों में कुछ ख़्वाब अनूठे
बस इतनी पहचान थी
देश हमारा करे तरक्की
दिल की यही पुकार थी
शिक्षा सबको मिले बराबर
बस इतनी दरकार थी
यहाँ-वहाँ पोस्टर चिपकाते
खूब बहस करते और गाते
इक-दूजे से खूब झगड़ते
फिर इक-दूजे में मिल जाते
वही पुराने मंज़र अब रह
रहकर पास बुलाते हैं
कहते हैं ये नए किस्म के
मौसम बड़े सताते हैं
आज भी हमको ईद और होली
मिलकर साथ मनानी है
रंगों में खो जाना है और
सेवईं भी खानी हैं
जाने कैसा दौर है जाने
कैसे कैसे नाते हैं
ये कैसी है घड़ी सभी
इक-दूजे से डर जाते हैं
आज भी मैं हूँ वही वो जिसने
तुममे ख़ुद को रोप दिया
तुमने सौ इल्जामों का यह
सहरा मुझपर थोप दिया
एक अडिग इतिहास हूँ
पीढ़ी आएगी और जाएगी
मेरी नीयत सिर्फ़ इल्म
यह बात दूर तक जाएगी
मेरे फूलों की खुश्बू का
आलम मुझसे पूछ कभी
मैं मिट्टी हो जाऊँगा
ये साँस-साँस हो जाएगी.........
मैं मिट्टी हो जाऊँगा
ये साँस-साँस हो जाएगी...................
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मालविका हरिओम

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