Thursday, January 7, 2016

सामाजिक न्याय की अवधारणा पर खतरे

सामाजिक न्याय की अवधारणा पर खतरे

Updated on TuesdayTaken at Dwarka, Delhi
जो लोग सोचते-समझते हैं तथा एक बेहतर समाज का स्वप्न देखते हैं, उन्हें भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा पर पिछले कुछ वर्षों से मंडरा रहे खतरों ने चिंतित कर रखा है। ये खतरे सामाजिक न्याय के विरोधियों के ओर से भी हैं, और आंतरिक भी। सबसे बडा खतरा इस अवधारणा के संकुचन का है। सामाजिक न्याय का अर्थ है, उन सभी व्यक्तियों को न्याय उपलब्ध करवाना, जिन्हें किसी भी प्रकार के वर्चस्व के कारण अन्याय का सामना करना पड रहा है। यह अन्याय चाहे वर्ण अथवा नस्ल आधारित हो, पेशा आधारित, लिंग आधारित, धन आधारित, भौगोलिक क्षेत्र पर आधारित, धर्म आधारित, संस्कृति आधारित, परंपरा आधारित, भाषा आधारित, अथवा शारीरिक संरचना पर ही आधारित क्यों न हो। सामाजिक न्याय अपने मूल रूप में विशेषाधिकार आधारित योग्यतावाद के विरूद्ध एक निरंतर युद्ध है। मानवतावाद और करूणा इस यु़द्ध के स्थायी भाव हैं तथा जीवन के हर क्षेत्र में सभी को समान अवसर की उपलब्धता के लिए संघर्ष व सामाजिक विविधता का सिद्धांत, इस युद्ध के शस्त्र और अस्त्र।

लेकिन आज सामाजिक न्याय की राजनीति का अर्थ वंचित तबकों से आने वाले कुछ लोगों का चुनाव जीत जाना माना जाने लगा है। व्यवस्थागत स्तर पर इसे सरकारी नौकरियों और निम्न गुणवत्ता वाली शिक्षा देने वाले ठस्स सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण तक सीमित कर दिया गया है। अधिक से अधिक कुछ लोग निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण की मांग करते हैं। इसे ही 'सामाजिक न्याय' की लडाई का अंतिम छोर मान लिया गया है।

सामाजिक न्याय का यह अर्थ प्रचलित होना कि- यह वंचित तबकों को मात्र कुछ डिग्रियां दिलाने अथवा सरकारी-निजी क्षेत्र में नौकर बनने के लिए है- अपने आप में ही इस अवधारणा के लि बहुत बडा खतरा है। सामाजिक न्याय का सपना तो सभी प्रकार के भेदभाव से रहित समाज का सपना है। इस अर्थ में यह बुद्ध, ईसा, कबीर और मार्क्‍स के भावों का विस्तार है। इस भाव के संकुचन के लिए इस लडाई को लडने वाले भी जिम्मेवार हैं, लेकिन वास्तव में भारतीय समाज की वचर्स्‍ववादी शक्तियां भी यही चाहती हैं कि यह लडाई इसी संकुचित रूप में रहे तथा उनके अधीन विभिन्न प्रकोष्ठों में चलती रहे।

इसे भारतीय राजनीति के एक उदाहरण से समझ सकते हैं। भारत में सामाजिक न्याय का संघर्ष मुख्य रूप से द्विजों और शूद्रों-अतिशूद्रों-आदिवासियों के बीच है। द्विज अल्पसंख्यक हैं जबकि शुद्र-अतिशूद्र-आदिवासी बहुसंख्यक। देश के लोकतंत्र पर राज करने वाली दोनों प्रमुख पार्टियां -कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी- अपने संगठन में ओबीसी प्रकोष्ठ, दलित प्रकोष्ठ, आदिवासी प्रकोष्ठ आदिरखती हैं। यह बहुजन तबकों के संघर्षों को एक प्रकार से कोष्ठकों में बंद करने का तरीका है। जब ये बहुजन समुदाय उनके प्रकोष्ठों में बंद हो जाते हैं तो स्वत: ही अल्पसंख्यक द्विज भारतीय राजनीति की मुख्यधारा बन जाते हैं। बहुजनों का काम सिर्फ इतना रह जाता है कि वे संसद, मंत्रीमंडल में अपने समुदाय के प्रतिनिधियों तथा प्रधानमंत्री कार्यालय और अन्य प्रमुख सत्ता संस्थानों में अपने समुदायों के अधिकारियों की घटती-बढती संख्या की गिनती करते रहें! भारतीय राजनीति ने इस वचर्स्‍व को बनाए रखने के लिए 'अल्पसंख्यक' शब्द के अर्थ को ही भ्रामक बना दिया है। आज भारतीय राजनीति में इसका प्रचलित अर्थ है मुसलमान। मुसलमानों के लिए सभी पार्टियों में अलग प्रकोष्ठ होते हैं। देश में 13.4 फीसदी आबादी की हिस्सेदारी रखने वाले मुसलमान वास्तविक अल्पसंख्यक नहीं हैं, वोटों की संख्या की दृष्टि से तो कतई नहीं। अगर मुसलमान अल्पसंख्यक हैं तो बहुसंख्यक कौन है? कोई कह सकता है कि हिंदू बहुसंख्यक हैं। तो फिर हिंदुओं के लिए दलित प्रकोष्ठ और ओबीसी प्रकोष्ठ क्यों हैं? लोकतंत्र में यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि बहुसंख्यक कौन है। यही कारण है कि मुसलमानों का पसमांदा तबका तथा दलित, बहुजन और आदिवासी तथा अन्य वास्तविक अल्पसंख्यक ईसाई (2.3 प्रतिशत) और बौद्ध (0.8 प्रतिशत) को मिलाकर जिस 'बहुजन' की अवधारणा तैयार होती है, उसे तोडने के लिए भारत का प्रभु वर्ग इस प्रकार की तिकडमें राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर अपनाता है।

दूसरी ओर, बहुसंख्यकवाद और समाजिक न्याय एक दूसरे के एकदम विपरीत हैं। इसलिए बहुजनवाद और बहुसंख्यकवाद के बीच के फर्क को भी समझना चाहिए। 'बहुजन' शब्द बुद्ध के सूत्र वाक्य 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' से आया है। बहुजनवाद का अर्थ हैं, जो अधिकतम लोगों के हित के लिए हो। वर्चस्व स्थापित करने की इच्छुक अल्पसंख्यक शक्तियों का निषेध इसमें समाहित है। बहुजनवाद का अर्थ है, सभी फलें, फूलें, खिलें, कोई किसी पर वचर्स्‍व स्थापित न करे। जबकि बहुसंख्यकवाद का अर्थ है बहुसंख्यक लोगों का अल्पसंख्यकों पर आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक वर्चस्व व उनकी संस्कृति का हरण।

हिंदुत्व की राजनीति अपने मूल रूप में यही करने की कोशिश करती है। हालांकि हिंदुस्तान में वास्तव में हिंदुत्ववाद से अधिक मजबूत ब्राह़मणवाद की राजनीति रही है, जो वास्तविक में अल्पसंख्यकवाद है, न कि बहुसंख्यकवाद। सामाजिक न्याय की अवधारणा को इन दोंनों अतियों से हमें बचाना होगा तथा इसे उस अंतिम समुदाय और अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाना होगा, जिसे किसी भी कारण से वंचना झेलनी पडी है।

आरक्षण निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण है ।यह सामाजिक प्रतिनिधित्व को प्रदर्शित करने के लिए एक आवश्यक उपकरण है। वास्तविकता यह भी है क राज्य की ओर से भारत के बहुजन तबकों को जो एकमात्र चीज आज तक मिली है, वह 'आरक्षण' ही है। इसके अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सत्ता के केंद्रो में उनकी कोई भागीदारी है ही कहां?

विश्व के सबसे अमीर लोगों की सूची में भारतीयों की संख्या निरंतर बढती जा रही है। इस प्रकार की सूचियां पिछडे कई वर्षों से समाचार-माध्यमों की सुखियां बन रही हैं। उन खरबपतियों की तो छोडिए, भारत के सबसे अमीर सैंकडों लोगों की सूची में भी न कोई ओबीसी है, न कोई दलित, न कोई आदिवासी, न कोई पसमांदा मुसलमान। हो सकता है आपको इस संदर्भ में दलित चैंबर ऑफ कामर्स (डिक्की) से जुडे उद्योगपतियों की याद आए। जाति आधारित प्रताडना के बावजूद सफल हुए उन उद्योगपतियों का हौसला काबिले तारीफ है, लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत के जिन अमीर लोगों की सूचियां समय-समय पर जारी होती रहती है, उनके सामने डिक्की से जुडे उदय़ोगपतियों की आर्थिक हैसियत कुछ भी नहीं है। वहां तो वे पहाड के नीचे खडे उंट की तरह ही दिखेंगे।

उदाहरण के लिए हम यह विचार करें कि आखिर क्या कारण है कि राजनीतिक रूप से कुछ महत्‍वपूर्ण जीतों के बावजूद आज तक, कम से कम उत्तर भारत में, बहुजन समुदाय के किसी व्यक्ति के पास कोई अखबार या टीवी चैनल नहीं है, जिसे 'मुख्यधारा' का कहा जा सके?यह एक बडा सवाल है, जिसका सीधा सा उत्तर है कि उत्तर भारत के बहुजन समुदायों के किसी व्यक्ति की आर्थिक हैसियत इतनी नही हैं, जितना उन मुख्यधारा के अखबारों, टीवी चैनलों का मुकाबला करने लायक एक नया अखबार या टीवी चैनल खडा करने के लिए होनी चाहिए। इस संदर्भ में इसका या उसका नाम लेना व्यर्थ की बातें हैं। मीडिया मेनोपॉली के इस समय में एक नये समाचार-माध्यम समूह की स्थापना करना, एक नये साम्राज्य की स्थापना करना है, उसके लिए जितना धन चाहिए, उतना सिर्फ उन्हीं के पास है, जो भारत के सबसे अमीर 100-150 लोगों की सूची में हैं। और उस सूची में कोई बहुजन नहीं है।

बहरहाल, सामाजिक न्याय का उद्देश्य निश्चित रूप से न तो बहुजन तबकों को नौकरियों तक सीमित रखना है, न अरबपति पैदा करना ही। लेकिन इस मामाले में हमें भारत में 'बहुजन डायवर्सिटी मिशन' के संस्थापक एचएल दुसाध जी सहमत होना होगा कि सत्ता के सभी केंद्रो और सभी प्रकार के संसाधनों के मालिकाना हक में सामाजिक-विविधता ही सामाजिक न्याय का एकमात्र कारगर उपाय है। आरक्षण उस दिशा में चलने के लिए जरूरी आरंभिक कदम भर है। लेकिन आवश्यक यह है कि हम पहली मंजिल पर ही न रूक जाएं बल्कि आगे के रास्तों पर भी नजर रखें।

फारवर्ड प्रेस का यह अंक 'सामाजिक न्याय' के विभिन्न आयामों पर विमर्श की दिशा में एक शुरूआत है। अगले अंकों में भी हम इसविषय पर सामग्री प्रकाशित करेंगे तथा सामाजिक न्याय की अवधारणा को और विस्तार देने की कोशिश करेंगे।

-प्रमोद रंजन

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