नागरिक का वर्तमान अंक : फरवरी 16-29 फरवरी, 2016 (वर्ष -19, अंक - 04)

9 फरवरी को जवाहर लाल नेहरू वि.वि. में अफजल गुरू की फांसी के ऊपर आयोजित कार्यक्रम ने देशभक्ति व देशद्रोह की बहस को एक बार फिर सतह पर ला दिया है। इस आयोजन में अफजल की फांसी का विरोध किया गया साथ ही कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार के संघर्ष का समर्थन किया गया। बस इसी को हवाला बनाकर भाजपाई नेता व संघी संगठन इस कृत्य को देशद्रोह करार देने के अभियान में जुट गये। इस हेतु आयोजकों पर देशद्रोह की धारा 124 ए के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया और जेएनयू के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार भी कर लिया गया। बातों को तोड़ते-मरोड़ते हुए संघी नेता यह तक कहने लगे कि आयोजन में पाकिस्तान जिन्दाबाद से लेकर देश को तोड़ने के नारे लगाये गये।
रोहित वेमुला प्रकरण पर छात्रों के विरोध से घिरी सरकार को इस मसले के जरिये विरोध कर रहे छात्रों पर हमलावर हो मुद्दे को बदलने का मौका मिल गया। इसी वक्त हेडली के इस बयान कि इशरत जहां लश्कर की आतंकी थी, ने उन्हें इशरत जहां के फर्जी एनकाउंटर का विरोध करने वालों पर हमलावर होने का मौका दे दिया।
संघ व भाजपाई नेताओं के अनुसार चूूंकि अफजल को फांसी सुप्रीम कोर्ट ने दी थी इसलिए फांसी का विरोध देशद्रोह है। कश्मीर को देश का संविधान भारत का अभिन्न अंग घोषित करता है इसलिए कश्मीर के आत्मनिर्णय की मांग का समर्थन देशद्रोह है। इससे आगे बढ़कर पाक जिन्दाबाद के नारे लगाना बहुत बड़ा देश विरोधी काम है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि आयोजन में ऐसे कोई नारे लगे भी थे या नहीं।
अगर संघ व भाजपा की इसी परिभाषा पर चला जाये तो संघ व भाजपा को खुद ही अनगिनत बार देशद्रोही ठहराया जा सकता है। गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त करार देने, उनकी जयंती मनाने का काम हिन्दू महासभा के नेता जब तब करते रहे हैं। देश के संविधान में स्पष्टतया धर्मनिरपेक्ष भारत का जिक्र होने के बावजूद संघ देश को खुलेआम हिंदू राष्ट्र करार देता रहा है। संघी व भाजपाई नेताओं की कई तस्वीरेें हिन्दुत्व के आतंकियों असीमानन्द आदि के साथ में सामने आती रही है। अफजल की फांसी का विरोध करने वाली पीडीपी के साथ कश्मीर में भाजपा गठबंधन कर सरकार बनाती रही है। इन सबके साथ संघ व भाजपा कबके देशद्रोही करार दिये जाने चाहिए थे।
जहां तक भारतीय संविधान व कानून की बात है तो यह इस बात का थोड़ा जनवाद देश के नागरिकों को देता है कि वे संविधान, कानून, सरकार की नीतियों-अदालतों के फैसलों का विरोध कर सकें। हां कानून इस सबको तभी अपराध मानता रहा है जब ये सब किसी हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अशांति फैलाने के लिए भड़काने के लिए किया गया है। इस तरह वैचारिक असहमति व उस पर बहस को कानून इजाजत देता रहा है।
इसीलिए देश की अदालतें पूर्व में ऐसे मामलों में आरोपियों को बरी करती रही हैं। केदारनाथ सिंह के केस में सुप्रीम कोर्ट के 5 न्यायधीशों की बेंच ने निर्णय दिया कि राजद्रोहात्मक भाषण व अभिव्यक्तियां केवल तभी सजा के योग्य होंगी जब ये किसी हिंसा को भड़काने या अशांति फैलाने के काम करती हों। इसी तरह इंद्रा दास बनाम स्टेट आॅफ असम व अरूप भुवन बनाम स्टेट आफ असम में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि केवल गैर कानूनी कृत्यों को उकसाने वाले भाषण ही सजा के हकदार होंगे। श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार मामले में मशहूर 66 ए हटाने के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने ‘वकालत’ और ‘उकसाने’ के बीच अंतर करते हुए केवल ‘उकसाने’ को ही सजा के दायरे में माना।
स्पष्ट है कि भारतीय कानून जो सीमित जनवाद भारतीय नागरिकों को देता रहा है उसमें असहमति का अधिकार रखना कानूनन जुर्म नहीं है। हां असहमति का हिंसक उपायों द्वारा हासिल करना जरूर जुर्म माना गया है। इसी तरह बलवन्त सिंह बनाम स्टेट आफ पंजाब के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने देश द्रोह के मामले को रद्द करते हुए खालिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाने वालों को बरी कर दिया।
भारत में हमें कानून द्वारा हासिल जनवाद निश्चय ही बेहद सीमित व कटा छंटा है। ढेरों मौकों पर न्यायालय इसकी मनमानी व्याख्या भी करते रहे हैं। पर यह इतना अधिकार हमको देता है कि हम इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा सकें, क्रांति का प्रचार कर सकें, राजसत्ता को पलटने की बातें कर सकें। हां! हथियारों द्वारा हिंसा कर उद्देश्य प्राप्ति को यहां अपराध करार दिया जाता है।
अब संघी लाॅबी अभी तक चले आ रहे इस सीमित जनवाद को छीन लेना चाहती है। वह नई परिभाषा गढ़ना चाहती है जिसमें राज्य, कानून, न्यायालय, सरकार का जुबानी विरोध भी अपराध मान लिया जाए। हां बस वह यह भूल जाती है कि उसके खुद के नेता खुद यह अपराध सैकड़ों बार तब हर रोज करते हैं जब वे खुद संविधान की धज्जियां उड़ा कर साम्प्रदायिक विचार, हिंदू राष्ट्र की बातें फैलाते रहते हैं। अगर कानूनी बहस से इतर देशभक्ति व देशद्रोह पर राजनैतिक नजरिये से निगाह डाली जाये तो यह तथ्य सामने आता है कि देशभक्ति का पैमाना भी समाज विकास के सापेक्ष बदलता रहा है। सामान्य शब्दों में कहा जाय तो देश समाज को आगे ले जाने की वकालत, प्रगतिशील दिशा में ले जाने का संघर्ष देशभक्ति माना जा सकता है और इसे रोकने के प्रयास इसके उलट माने जा सकते हैं। पर स्वयं देशभक्ति भी वर्गों में बंटे समाज में दोनों वर्गों के लिए अलग-अलग यहां तक कि परस्पर विरोधी भी हो सकती है।
जब देश साम्राज्यवादियों का गुलाम था तो साम्राज्यवाद विरोध व साम्राज्यवाद से मुक्ति यानी आजादी का संघर्ष देश की जनता के लिए देशभक्ति थी पर कानून व खुद साम्राज्यवादियों की निगाह में यह देशद्रोह था। यहां यह याद रखने की बात है कि संघ परिवार ने आजादी के संघर्ष में भूमिका निभाने के बजाय अंग्रेजों का साथ दे इस संघर्ष को कमजोर करने में भूमिका निभायी। यहां तक कि इसके लोगों ने गद्दारी तक का परिचय दिया।
जब देश आजाद हो गया और सत्ता पर पूंजीपति वर्ग व भूस्वामी वर्ग का कब्जा हो गया तो देश की मेहनतकश जनता व शासकों के हित अलग-अलग हो गये। चूंकि साम्राज्यवादी हस्तक्षेप अभी भी बरकरार था इसीलिए जनता के लिए देशभक्ति साम्राज्यवाद विरोध के साथ देशी पूंजीवाद के विरोध और बराबरी वाले समाजवादी समाज के संघर्ष के रूप में सामने आयी। इसके साथ ही भारतीय शासकों ने तमाम उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं का क्रूर दमन किया इसीलिए वहां की जनता के लिए देशभक्ति इस दमन के खिलाफ भारतीय शासकों से लड़ने के रूप में ही परिभाषित की जा सकती है।
पर जनता के उलट शासकों के लिए यह सब देशभक्ति नहीं बल्कि देश के खिलाफ था। उनके हित साम्राज्यवादियों से सांठ-गांठ में थे, उनके हित सामंती पितृसत्तात्मक मूल्यों से सांठ-गांठ में थे इसलिए उन्होंने इसे ही देशभक्ति घोषित कर दिया। शासकों के लिए गणतंत्र दिवस पर ओबामा, फ्रांसुआ ओलां को बुलाना देशभक्ति है पर जनता के लिए यही अपमान का सबब है।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राष्ट्र व राष्ट्रवाद एक ऐतिहासिक दौर में पूंजीपति वर्ग के हितों में उत्पन्न हुए थे। बाद में गुलाम देशों में इस राष्ट्रवाद ने सामन्तवाद-साम्रज्यवाद विरोध व आजादी के संघर्ष में भूमिका निभायी। चूंकि इस दौरान पूंजीपति वर्ग व मेहनतकश जनता के हित साम्राज्यवाद के खिलाफ लक्षित थे इसलिए यह राष्ट्रवाद प्रगतिशील था। पर जब देश आजाद हो गया और पूंजीपति वर्ग सत्तासीन हो गया व उसने साम्राज्यवाद के साथ सामंती मूल्यों से गठजोड़ कर लिया व जनता के हितों के खिलाफ हो गया तब यह राष्ट्रवाद प्रगतिशील भूमिका खो प्रतिक्रियावादी अंधराष्ट्रवाद में तब्दील हो गया। यह मजदूरों-मेहनतकशों के हितों के खिलाफ, उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं के संघर्षों को कुचलने, पड़ोसी छोटे देशों पर धौंसपट्टी का जरिया बन गया। आज हमारे देश के शासक व संघी सरकार इसी अंधराष्ट्रवाद का इस्तेमाल कर जनता के जनवादी स्पेस को सिकोड़ रहे हैं।
मजदूर वर्ग अंतर्राष्ट्रीयतावादी होता है वह सभी देशों के मजदूरों के समान हित होने के तथ्य को सामने लाता है। वह दुनिया के मजदूरो एक हो का नारा लगाता है। परन्तु जिस हद तक अभी राष्ट्र राज्य कायम है उस हद तक वह अपने पूंजीवादी शासकों के अंधराष्ट्रवाद से उलट बल्कि उसके खिलाफ, साम्राज्यवाद के खिलाफ जनता के हितों, उसके अधिकारों के संघर्ष में भूमिका निभा अपनी देशभक्ति का परिचय देता है।
इसलिए स्पष्ट है कि पूंजीपतियों की सरकार चला रही भाजपा सरकार व इसके नेता कहीं से देशभक्त नहीं हैं। देशभक्त अपने हकों की आवाज उठा इनके खिलाफ लड़ रहा मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता है। फासीवादी सरकार जनता के इस संघर्ष से डरती है और अपने पूंजीवादी लोकतंत्र में जनता को मिले सीमित जनवाद को भी छीन वह जनता के संघर्ष को कुचलना चाहती है। जे.एन.यू. में अफजल के मसले पर भी वह यही कर रही है इसीलिए इसका विरोध जरूरी है।
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देशभक्ति बनाम देशद्रोह
रोहित वेमुला प्रकरण पर छात्रों के विरोध से घिरी सरकार को इस मसले के जरिये विरोध कर रहे छात्रों पर हमलावर हो मुद्दे को बदलने का मौका मिल गया। इसी वक्त हेडली के इस बयान कि इशरत जहां लश्कर की आतंकी थी, ने उन्हें इशरत जहां के फर्जी एनकाउंटर का विरोध करने वालों पर हमलावर होने का मौका दे दिया।
संघ व भाजपाई नेताओं के अनुसार चूूंकि अफजल को फांसी सुप्रीम कोर्ट ने दी थी इसलिए फांसी का विरोध देशद्रोह है। कश्मीर को देश का संविधान भारत का अभिन्न अंग घोषित करता है इसलिए कश्मीर के आत्मनिर्णय की मांग का समर्थन देशद्रोह है। इससे आगे बढ़कर पाक जिन्दाबाद के नारे लगाना बहुत बड़ा देश विरोधी काम है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि आयोजन में ऐसे कोई नारे लगे भी थे या नहीं।
अगर संघ व भाजपा की इसी परिभाषा पर चला जाये तो संघ व भाजपा को खुद ही अनगिनत बार देशद्रोही ठहराया जा सकता है। गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त करार देने, उनकी जयंती मनाने का काम हिन्दू महासभा के नेता जब तब करते रहे हैं। देश के संविधान में स्पष्टतया धर्मनिरपेक्ष भारत का जिक्र होने के बावजूद संघ देश को खुलेआम हिंदू राष्ट्र करार देता रहा है। संघी व भाजपाई नेताओं की कई तस्वीरेें हिन्दुत्व के आतंकियों असीमानन्द आदि के साथ में सामने आती रही है। अफजल की फांसी का विरोध करने वाली पीडीपी के साथ कश्मीर में भाजपा गठबंधन कर सरकार बनाती रही है। इन सबके साथ संघ व भाजपा कबके देशद्रोही करार दिये जाने चाहिए थे।
जहां तक भारतीय संविधान व कानून की बात है तो यह इस बात का थोड़ा जनवाद देश के नागरिकों को देता है कि वे संविधान, कानून, सरकार की नीतियों-अदालतों के फैसलों का विरोध कर सकें। हां कानून इस सबको तभी अपराध मानता रहा है जब ये सब किसी हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अशांति फैलाने के लिए भड़काने के लिए किया गया है। इस तरह वैचारिक असहमति व उस पर बहस को कानून इजाजत देता रहा है।
इसीलिए देश की अदालतें पूर्व में ऐसे मामलों में आरोपियों को बरी करती रही हैं। केदारनाथ सिंह के केस में सुप्रीम कोर्ट के 5 न्यायधीशों की बेंच ने निर्णय दिया कि राजद्रोहात्मक भाषण व अभिव्यक्तियां केवल तभी सजा के योग्य होंगी जब ये किसी हिंसा को भड़काने या अशांति फैलाने के काम करती हों। इसी तरह इंद्रा दास बनाम स्टेट आॅफ असम व अरूप भुवन बनाम स्टेट आफ असम में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि केवल गैर कानूनी कृत्यों को उकसाने वाले भाषण ही सजा के हकदार होंगे। श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार मामले में मशहूर 66 ए हटाने के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने ‘वकालत’ और ‘उकसाने’ के बीच अंतर करते हुए केवल ‘उकसाने’ को ही सजा के दायरे में माना।
स्पष्ट है कि भारतीय कानून जो सीमित जनवाद भारतीय नागरिकों को देता रहा है उसमें असहमति का अधिकार रखना कानूनन जुर्म नहीं है। हां असहमति का हिंसक उपायों द्वारा हासिल करना जरूर जुर्म माना गया है। इसी तरह बलवन्त सिंह बनाम स्टेट आफ पंजाब के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने देश द्रोह के मामले को रद्द करते हुए खालिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाने वालों को बरी कर दिया।
भारत में हमें कानून द्वारा हासिल जनवाद निश्चय ही बेहद सीमित व कटा छंटा है। ढेरों मौकों पर न्यायालय इसकी मनमानी व्याख्या भी करते रहे हैं। पर यह इतना अधिकार हमको देता है कि हम इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा सकें, क्रांति का प्रचार कर सकें, राजसत्ता को पलटने की बातें कर सकें। हां! हथियारों द्वारा हिंसा कर उद्देश्य प्राप्ति को यहां अपराध करार दिया जाता है।
अब संघी लाॅबी अभी तक चले आ रहे इस सीमित जनवाद को छीन लेना चाहती है। वह नई परिभाषा गढ़ना चाहती है जिसमें राज्य, कानून, न्यायालय, सरकार का जुबानी विरोध भी अपराध मान लिया जाए। हां बस वह यह भूल जाती है कि उसके खुद के नेता खुद यह अपराध सैकड़ों बार तब हर रोज करते हैं जब वे खुद संविधान की धज्जियां उड़ा कर साम्प्रदायिक विचार, हिंदू राष्ट्र की बातें फैलाते रहते हैं। अगर कानूनी बहस से इतर देशभक्ति व देशद्रोह पर राजनैतिक नजरिये से निगाह डाली जाये तो यह तथ्य सामने आता है कि देशभक्ति का पैमाना भी समाज विकास के सापेक्ष बदलता रहा है। सामान्य शब्दों में कहा जाय तो देश समाज को आगे ले जाने की वकालत, प्रगतिशील दिशा में ले जाने का संघर्ष देशभक्ति माना जा सकता है और इसे रोकने के प्रयास इसके उलट माने जा सकते हैं। पर स्वयं देशभक्ति भी वर्गों में बंटे समाज में दोनों वर्गों के लिए अलग-अलग यहां तक कि परस्पर विरोधी भी हो सकती है।
जब देश साम्राज्यवादियों का गुलाम था तो साम्राज्यवाद विरोध व साम्राज्यवाद से मुक्ति यानी आजादी का संघर्ष देश की जनता के लिए देशभक्ति थी पर कानून व खुद साम्राज्यवादियों की निगाह में यह देशद्रोह था। यहां यह याद रखने की बात है कि संघ परिवार ने आजादी के संघर्ष में भूमिका निभाने के बजाय अंग्रेजों का साथ दे इस संघर्ष को कमजोर करने में भूमिका निभायी। यहां तक कि इसके लोगों ने गद्दारी तक का परिचय दिया।
जब देश आजाद हो गया और सत्ता पर पूंजीपति वर्ग व भूस्वामी वर्ग का कब्जा हो गया तो देश की मेहनतकश जनता व शासकों के हित अलग-अलग हो गये। चूंकि साम्राज्यवादी हस्तक्षेप अभी भी बरकरार था इसीलिए जनता के लिए देशभक्ति साम्राज्यवाद विरोध के साथ देशी पूंजीवाद के विरोध और बराबरी वाले समाजवादी समाज के संघर्ष के रूप में सामने आयी। इसके साथ ही भारतीय शासकों ने तमाम उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं का क्रूर दमन किया इसीलिए वहां की जनता के लिए देशभक्ति इस दमन के खिलाफ भारतीय शासकों से लड़ने के रूप में ही परिभाषित की जा सकती है।
पर जनता के उलट शासकों के लिए यह सब देशभक्ति नहीं बल्कि देश के खिलाफ था। उनके हित साम्राज्यवादियों से सांठ-गांठ में थे, उनके हित सामंती पितृसत्तात्मक मूल्यों से सांठ-गांठ में थे इसलिए उन्होंने इसे ही देशभक्ति घोषित कर दिया। शासकों के लिए गणतंत्र दिवस पर ओबामा, फ्रांसुआ ओलां को बुलाना देशभक्ति है पर जनता के लिए यही अपमान का सबब है।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राष्ट्र व राष्ट्रवाद एक ऐतिहासिक दौर में पूंजीपति वर्ग के हितों में उत्पन्न हुए थे। बाद में गुलाम देशों में इस राष्ट्रवाद ने सामन्तवाद-साम्रज्यवाद विरोध व आजादी के संघर्ष में भूमिका निभायी। चूंकि इस दौरान पूंजीपति वर्ग व मेहनतकश जनता के हित साम्राज्यवाद के खिलाफ लक्षित थे इसलिए यह राष्ट्रवाद प्रगतिशील था। पर जब देश आजाद हो गया और पूंजीपति वर्ग सत्तासीन हो गया व उसने साम्राज्यवाद के साथ सामंती मूल्यों से गठजोड़ कर लिया व जनता के हितों के खिलाफ हो गया तब यह राष्ट्रवाद प्रगतिशील भूमिका खो प्रतिक्रियावादी अंधराष्ट्रवाद में तब्दील हो गया। यह मजदूरों-मेहनतकशों के हितों के खिलाफ, उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं के संघर्षों को कुचलने, पड़ोसी छोटे देशों पर धौंसपट्टी का जरिया बन गया। आज हमारे देश के शासक व संघी सरकार इसी अंधराष्ट्रवाद का इस्तेमाल कर जनता के जनवादी स्पेस को सिकोड़ रहे हैं।
मजदूर वर्ग अंतर्राष्ट्रीयतावादी होता है वह सभी देशों के मजदूरों के समान हित होने के तथ्य को सामने लाता है। वह दुनिया के मजदूरो एक हो का नारा लगाता है। परन्तु जिस हद तक अभी राष्ट्र राज्य कायम है उस हद तक वह अपने पूंजीवादी शासकों के अंधराष्ट्रवाद से उलट बल्कि उसके खिलाफ, साम्राज्यवाद के खिलाफ जनता के हितों, उसके अधिकारों के संघर्ष में भूमिका निभा अपनी देशभक्ति का परिचय देता है।
इसलिए स्पष्ट है कि पूंजीपतियों की सरकार चला रही भाजपा सरकार व इसके नेता कहीं से देशभक्त नहीं हैं। देशभक्त अपने हकों की आवाज उठा इनके खिलाफ लड़ रहा मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता है। फासीवादी सरकार जनता के इस संघर्ष से डरती है और अपने पूंजीवादी लोकतंत्र में जनता को मिले सीमित जनवाद को भी छीन वह जनता के संघर्ष को कुचलना चाहती है। जे.एन.यू. में अफजल के मसले पर भी वह यही कर रही है इसीलिए इसका विरोध जरूरी है।
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