Thursday, February 25, 2016

वैशाली की नगरवधू आचार्य चतुरसेन

वैशाली की नगरवधू

आचार्य चतुरसेन

20.95

 
प्रकाशक : राजपाल एंड सन्सप्रकाशित वर्ष : 2010
आईएसबीएन : 9788170282822पृष्ठ :447
आवरण : सजिल्दपुस्तक क्रमांक : 1477
 

प्रस्तुत है बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास....

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘वैशाली की नगरवधू’ एक क्लासिक उपन्यास है जिसकी गणना हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में की जाती है। इस उपन्यास के संबंध में इसके आचार्य चतुरसेन जी ने कहा था :
‘‘मैं अब तक की सीमा सारी रचनाओं को रद्द करता हूँ और ‘वैशाली की नगरवधू’ को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूँ।’’ इसमें भारतीय जीवन का एक जीता-जागता चित्र अंकित हैं। उपन्यास का मुख्य चरित्र स्वाभिमान और दर्प की साक्षात मूर्ति, लोक-सुन्दरी अम्बपाली, जिसे बलात् वेश्या घोषित कर दिया गया था, और जो आधी शताब्दी तक अपने युग के समस्त भारत के सम्पूर्ण राजनीतिक और सामाजिक जीवन का केन्द्र-बिन्दु बनी रही।

प्रवचन

अपने जीवन के पूर्वाह्न में-सन् 1909 में, जब भाग्य रुपयों से भरी थैलियां मेरे हाथों में पकड़ना चाहता था-मैंने कलम पकड़ी। इस बात को आज 40 वर्ष बीत रहे हैं। इस बीच मैंने छोटी-बड़ी लगभग 84 पुस्तकें विविध विषयों पर लिखीं, अथच दस हज़ार से अधिक पृष्ठ विविध सामयिक पत्रिकाओं में लिखे। इस साहित्य-साधना से मैंने पाया कुछ भी नहीं, खोया बहुत-कुछ, कहना चाहिए, सब कुछ-धन, वैभव आराम और शान्ति। इतना ही नहीं, यौवन और सम्मान भी। इतना मूल्य चुकाकर निरन्तर चालीस वर्षों की अर्जित अपनी सम्पूर्ण साहित्य-सम्पदा को मैं आज प्रसन्नता से रद्द करता हूं; और यह घोषणा करता हूं-कि आज मैं अपनी यह पहली कृति विनयांजलि-सहित आपको भेंट कर रहा हूं।
यह सत्य है कि यह उपन्यास है। परन्तु इससे अधिक सत्य यह है कि य़ह एक गम्भीर रहस्यपूर्ण संकेत है, जो उस काले पर्दे के प्रति है, जिसकी ओट में आर्यों के धर्म, साहित्य, राजसत्ता और संस्कृति की पराजय और मिश्रित जातियों की प्रगतिशील संस्कृति की विजय सहस्राब्दियों से छिपी हुई है, जिसे संभवत: किसी इतिहासकार ने आंख उघाड़कर देखा नहीं है।

मैंने जो चालीस वर्षों से तन-मन-धन से साधित अपनी अमूल्य साहित्य-सम्पदा को प्रसन्नता से रद्द करके इस रचना को अपनी पहली रचना घोषित किया है, सो यह इस रचना के प्रति मात्र मेरी व्यक्तिगत निष्ठा है; परन्तु इस रचना पर गर्व करने का मेरा कोई अधिकार नहीं है। मैं केवल आपसे एक अनुरोध करता हूं, कि इस रचना को पढ़ते समय उपन्यास के कथानक से पृथक किसी निगूढ़ तत्त्व को ढूंढ़ निकालने में आप सजग रहें। संभव है, आपको वह सत्य मिल जाए, जिसकी खोज में मुझे आर्य, बोद्ध जैन, और हिन्दुओं के साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन दस वर्ष करना पड़ा है।

ज्ञानधाम   दिल्ली-शाहदरा
1-1-49

-चतुरसेन

प्रवेश


मुजफ्फरपुर से पश्चिम की ओर जो पक्की सड़क जाती है-उस पर मुजफ्फरपुर से लगभग अठारह मील दूर ‘वैसोढ़’ नामक एक बिल्कुल छोटा-सा गांव है। उसमें अब तीस-चालीस घर भूमिहार ब्राह्मणों के और कुछ गिनती के घर क्षत्रियों के बच रहे हैं। गांव के चारों ओर कोसों तक खंडहर, टीले और पुरानी टूटी-फूटी मूर्तियां ढेर की ढेर मिलती हैं, जो इस बात की याद दिलाती है कि कभी यहां कोई बड़ा भारी समृद्ध नगर बसा रहा होगा।

वास्तव में वहां, अब से कई हजार वर्ष पूर्व एक विशाल नगर बसा था। आजकल जिसे गण्डक कहते हैं, उन दिनों उसका नाम ‘सिही’ था। आज यह नदी यद्यपि इस गांव में कई कोस उत्तर की ओर हटकर बह रही है; किन्तु उन दिनों यह दक्षिण की ओर इस वैभवशालिनी नगरी के चरणों को चूमती हुई दिधिवारा के निकट गंगा में मिल गई थी। इस विशाल नगरी का नाम वैशाली था। यह नगरी अति समृद्ध थी। उसमें 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार, 7777 आराम और 7777 पुष्करिणियां थीं। धन-जन से परिपूर्ण यह नगरी तब अपनी शोभा की समता नहीं रखती थी।

यह लिच्छवियों के वज्जी संघ की राजधानी थी। विदेह राज्य टूटकर यह वज्जी संघ बना था। इस संघ में विदेह, लिच्छवि, क्षात्रिक, वज्जी, उग्र, भोद, इक्ष्वाकु और कौरव ये आठ कुल सम्मिलित थे, जो अष्टकुल कहलाते थे। इनमें प्रथम चार प्रधान थे। विदेहों की राजधानी मिथिला, लिच्छवियों की वैशाली, क्षात्रिकों की कुण्डपुर और वज्जियों की कोल्लाग थी। वैशाली पूरे संघ की राजधानी थी। अष्टकुल के संयुक्त लिच्छवियों का यह संघव्रात्य संकरों का संघ था और इनका यह गणतंत्र पूर्वी भारत में तब एकमात्र आदर्श और सामर्थ्यवान् संघ था, जो प्रतापी मगध साम्राज्य की उस समय की सबसे बड़ी राजनैतिक और सामरिक बाधा थी।

नगरी के चारों ओर काठ का तिहरा कोट था, जिसमें स्थान-स्थान पर गोपुर और प्रवेश-द्वार बने हुए थे। गोपुर बहुत ऊंचे थे और उन पर खड़े होकर मीलों तक देखा जा सकता था। प्रहरीगण हाथों में पीतल के तूर्य ले इन्हीं पर खड़े पहरा दिया करते थे। आवश्यकता होते ही वे उन्हें बजाकर नगर को सावधान कर देते और प्रतिहार तुरन्त नगर-रक्षकों को संकेत कर देते। इसके बाद आनन-फानन सैनिक हलचल नगर के प्रकोष्ठों में दीखने लगती थी। सहस्रों भीमकाय योद्धा लोह-वर्म पहने, शस्त्र, सज्जित, धनुष-बाण के लिए, खड्ग चमकाते, चंचल घोड़ों को दौड़ाते प्राचीर के बाहरी भाग में आ जुटते थे।
वज्जी संघ का शासन एक राज-परिषद् करती थी, जिसका चुनाव हर सातवें वर्ष उसी अष्टकुल में से होता था। निर्वाचित सदस्य परिषद् में एकत्र होकर वज्जी-चैत्यों, वज्जी-संस्थाओं और राज-व्यवस्था का पालन करते थे। शिल्पियों और सेट्ठियों के नगर में पृथक संघ थे। शिल्पियों के संघ श्रेणी कहलाते थे और प्रत्येक श्रेणी का संचालन उसका जेट्ठक करता था। जल, थल और अट्टवी के नियमाकों की श्रेणियां पृथक थीं। नगर में श्रेणियों में कार्यालय और निवास पृथक्-पृथक् थे। बाहरी वस्तुओं का क्रय-विक्रय भी हट्टियों में हुआ करता था। परन्तु श्रेणियों का मान अन्तरायण में बिकता था। सेट्ठियों के संघ निगम कहाते थे। सब निगमों का प्रधान नगरसेट्ठि कहाता था और उसकी पद-मर्यादा राजनैतिक और औद्योगिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती थी।

वत्स, कोसल, काशी और मगध साम्राज्य से घिरा रहने तथा श्रावस्ती से राजगृह के मार्ग पर अवस्थित रहने के कारण यह स्वतन्त्र नागरिकों का नगर उन दिनों व्यापारिक और राजनैतिक संघर्षो का केन्द्र बना हुआ था। देश-देश के व्यापारी, जौहरी, शिल्पकार और यात्री लोगों से यह नगर सदा परिपूर्ण रहता था। ‘श्रेष्ठिचत्वर’ में, जो यहां का प्रधान बाजार था, जौहरियों की बड़ी-बड़ी कोठियां थीं, जिनकी व्यापारिक शाखाएं समस्त उत्तराखण्ड से दक्षिणापथ तक फैली हुई थीं। सुदूर पतित्थान से माहिष्मती, उज्जैन, गोनर्द, विदिशा, कौशाम्बी और साकेत होकर पहाड़ की तराई के रास्ते सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, हस्तिग्राम और भण्डग्राम के मार्ग से बड़े-बड़े सार्थवाह वैशाली से व्यापार स्थापित किए हुए थे। पूर्व में पश्चिम का रास्ता नदियों द्वारा था। गंगा से सहजाति और यमुना में कौशाम्बी-पर्यन्त नीवें चलती रहती थीं। वैशाली से मिथिला के रास्ते गान्धार को, राजगृह के रास्ते सोवीर को, तथा भरुकच्छ के रास्ते बर्मा को और पतित्थान के रास्ते बेबिलोन तथा चीन तक भी भारी-भारी सार्ववाह जल और थल पर चलते रहते थे। ताम्रपर्णी, सवर्णद्वीप, यवद्वीप आदि सुदूर-पूर्व के द्वीपों का यातायात चम्पा होकर था।

श्रेष्ठिचत्वर में बड़े-बड़े दूकानदार स्वच्छ परिधान धारण किए, पान की गिलौरियां कल्लों में दबाए, हंस-हंसकर ग्राहकों से लेन-देन करते थे। जौहरी पन्ना, लाल, मूंगा, मोती, पुखराज, हीरा और अन्य रत्नों की परीक्षा तथा लेन-देन में व्यस्त रहते थे। निपुण कारीगर अनपढ़ रत्नों को शान पर चढ़ाते, स्वर्णभरणों को रंगीनरत्नों से जड़ते और रेशम की डोरियों में मोती गूंथते थे। गन्धी लोग केसर के थैले हिलाते, चन्दन के तेल में गन्ध मिलाकर इत्र बनाते थे, जिनका नागरिक खुला उपयोग करते थे। रेशम और बहुमूल्य महीन मलमल के व्यापारियों की दूकान पर बेबीलोन और फारस के व्यापारी लम्बे-लम्बे लबादे पहने भीड़ की भीड़ पड़े रहते थे। नगर की गलियां संकरी और तंग थीं, और उनमें गगनचुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी थीं, जिनके अंधेरे और विशाल तहखानों में धनकुबेरों की अतुल सम्पदा और स्वर्ण-रत्न भरे पड़े रहते थे।

संध्या के समय सुन्दर वाहनों, रथों, घोड़ों, हाथियों और पालकियों पर नागरिक नगर के बाहर सैर करने राजपथ पर आ निकलते थे। इधर-उधर हाथी झूमते बढ़ा करते थे और उनके अधिपति रत्नाभरणों से सज्जित अपने दासों तथा शरीर-रक्षकों से घिरे चला करते थे।


2



दिन निकलने में अभी देर थी। पूर्व की ओर प्रकाश की आभा दिखाई पड़ रही थी। उसमें वैशाली के राजप्रासादों के सवर्ण-कलशों की धूमिल स्वर्णकान्ति बड़ी प्रभावोत्पादक दीख पड़ रही थी। मार्ग में अभी अँधेरा था। राजा प्रसाद के मुख्य तोरण पर अभी प्रकाश दिखा रहा था। पार्श्व का रक्षागृहों में प्रहरी और प्रतिहार पड़े सो रहे थे। तोरण के बीचोंबीच एक दीर्घकाय मनुष्य भाले पर टेक दिए ऊंघ रहा था।

धीरे-धीरे दिन का प्रकाश फैलने लगा। राजकर्मचारी और नागरिक इधर-उधर आने-जाने लगे। किसी-किसी हर्म्य से मृदुल तंतुवाद्य की झंकार के साथ किसी आरोह-अवरोह की कोमल तान सुनाई पड़ने लगी। प्रतिहारों का एक नया दल तोरण पर आ पहुँचा। उसके नायक ने आगे बढ़कर भाले के सहारे खड़े ऊंघते मनुष्य को पुकारकर कहा-‘सावन्त महानामन्, सावधान हो जाओ और घर जाकर विश्राम करों।’ महानामन् ने सजग होकर अपने दीर्घकाय शरीर का और भी विस्तार करके एक जोर की अंगडाई ली और ‘तुम्हारा कल्याण हो नायक’, कहकर वह अपना भाला पृथ्वी पर टेकता हुआ तृतीय तोरण की ओर बढ़ गया।

सप्तभूमि राजप्रसाद के पश्चिम की ओर प्रासाद के पश्चिम की ओर प्रासाद का उपवन था, जिसकी देख-रेख नायक महानामन् के ही सुपुर्द थी। यहीं वह अपनी प्रौढ़ा पत्नी के साथ अड़तीस वर्ष से अकेला एकरस आंधी-पानी सर्दी-गर्मी में रहकर गण की सेवा करता था।

अभी भी वह नींद में ऊंघता हुआ झूम-झूमकर चला जा रहा था। अभी प्रभात का प्रकाश धूमिल था। उसने आगे बढ़कर, आम्रकुञ्ज में आम्रवृक्ष के नीचे, एक श्वेत वस्तु पड़ी रहने का भान किया। निकट जाकर देखो, एक नवजात शिशु स्वच्छ वस्त्र में लिपटा हुआ अपना अंगूठा चूस रहा है। आश्चर्यचकित होकर महानामन् ने शिशु को उठा लिया। देखा-कन्या है। उसने कन्या को उठाकर हृदय से लगाया और अपनी स्त्री को वह कन्या देकर कहा-देखो, आज इस प्रकार हमारे जीवन की एक पुरानी साध मिटी।
और वह किसी आम्र-कानन में उस एकाकी दम्पति की आँखों के आगे शशि-किरण की भांति बढ़ने लगी। उसका नाम रखा गया ‘अम्बपाली’, उसी आम्रवृक्ष की स्मृति में, जहां से उसे पाया गया था।

3


ग्यारह बरस बाद ! वैशाली के उत्तर-पश्चिम पचीस-तीस कोस पर अवस्थित एक छोटे-से ग्राम में एक वृद्ध अपने घर के द्वार पर प्रात: काल के समय दातुन कर रहा था। पैरों की आहट सुनकर उसने पीछे की ओर देखा। चम्पक-पुष्प की कली के समान ग्यारह वर्ष की एक अति सुन्दर बालिका, जिसके घुंघराले बाल हवा में लहरा रहे थे, दौड़ती हुई बाहर आई, और वृद्ध को देखकर उससे लिपटने के लिए लपकी, किन्तु पैर फिसलने से गिर गई। गिरकर रोने लगी। वृद्ध ने दातुन फेंक, दौड़कर बालिका को उठाया, उसकी धूल झाड़ी और उसे हृदय से लगा लिया। बालिका ने रोते-रोते कहा-‘बाबा, देखा है तुमने रोहण का वह कंचुक ? वह कहता है, तेरे पास नहीं है ऐसा। वैशाली की सभी लड़कियां वैसा ही कंचुक पहनती हैं, मैं भी वैसा ही कंचुक लूंगी बाबा !’
वृद्ध की आँखों में पानी और होठों पर हास्य आया। उसने कहा- ‘अच्छा, अच्छा मैं तुझे वैशाली से वैसा ही कंचुक मंगा दूंगा बेटी !’

‘पर बाबा, तुम्हारे पास दम्म कहां हैं ? वैसा बढ़िया चमकीला कंछुक छ: दम्म में आता है, जानते हो ?’
‘हां, हां, जानता हूं।’
वृद्ध की भूकुटि कुंचित और ललाट पर चिन्ता की रेखा पड़ गई। वृद्ध की पत्नी को मरे आठ साल बीत चुके थे। उसके बाद कन्या की परिचर्या में बाधा पड़ती देख सावन्त महामानम् राजसेवा त्यागकर अपने ग्राम में आ कन्या की सेवा-शुश्रूषा में अबाध रूप से लगे रहते थे। अम्बपाली को उन्होंने इस भांति पाला था जैसे पक्षी चुग्गा देकर अपने शिशु को पालता है। अब उनकी छोटी-सी कमाई की क्षुद्र-पूंजी यत्न से खर्च करने पर भी समार्त हो गई थी। यहां तक कि पत्नी की क्षुद्र पूंजी यत्न से खर्च करने पर भी समाप्त हो गई थी। यहां तक कि पत्नी की स्मृतिरूप जो दो-चार आभरण थे, वे भी एक-एक करके उसकी उदर-गुहा में न पहुंच चुके थे ! अब आज जैसे उसने देखा-उसके प्राणों की पुतली यह बालिका जीवन में आगे बढ़ रही है, उसकी अभिलाषाएँ जागृत हो रही हैं और भी जाग्रत होंगी। यही सोचकर वृद्ध महानामन् चिन्तित हो उठे। किन्तु उन्होंने हंसकर तड़ातड़ तीन-चार चुम्बन बालिका के लिए और गोद से उतारकर कहा- ‘वैसा ही बुढ़िया कंचुक ला दूंगा बेटी !’

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