पूरा जनवरी का महीना बीत गया. एक बूँद वर्षा नहीं हुई. वसन्त पंचमी सिर्फ दस दिन दूर है. ऐसा इससे पहले न जाने कब हुआ था, याद नहीं. कहीं कोई चर्चा नहीं, चिंता नहीं. शायद मैं अकेला इस चिंता को ढो रहा हूँ. रोज़ सुबह आसमान को ताकता हूँ, फिर निराश हो जाता हूँ. अखबार पढ़ता हूँ तो उसमें 'फील गुड' वाली ही ख़बरें होती हैं.
हल्द्वानी में एक जगह जिक्र छेड़ा. एक सज्जन बोले, "छोड़िये साहब, आप क्यों जान हलाकान किये जा रहे हैं. यह हल्द्वानी है. सारे पहाड़ से लोग भाग-भाग कर यहाँ आ रहे हैं. मॉल और मल्टीप्लेक्स खुल रहे हैं. लोग पैसा गिन रहे हैं. नये-नये मोबाइल और कारें खरीद रहे हैं. इस बारे में सोचने की किसे फुर्सत है? पानी नहीं मिलेगा तो जल संस्थान का घेराव कर देंगे."
निसर्ग से कितनी दूर चली गयी है हमारे शहरों की जिन्दगी ?
हल्द्वानी में एक जगह जिक्र छेड़ा. एक सज्जन बोले, "छोड़िये साहब, आप क्यों जान हलाकान किये जा रहे हैं. यह हल्द्वानी है. सारे पहाड़ से लोग भाग-भाग कर यहाँ आ रहे हैं. मॉल और मल्टीप्लेक्स खुल रहे हैं. लोग पैसा गिन रहे हैं. नये-नये मोबाइल और कारें खरीद रहे हैं. इस बारे में सोचने की किसे फुर्सत है? पानी नहीं मिलेगा तो जल संस्थान का घेराव कर देंगे."
निसर्ग से कितनी दूर चली गयी है हमारे शहरों की जिन्दगी ?
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