Let me speak human!All about humanity,Green and rights to sustain the Nature.It is live.
Monday, February 22, 2016
Shambhunath Shukla पिछले 35 साल से दिल्ली में हूं। जाहिर है कि जाटों की रीति-नीति से खूब वाकिफ हूं। जाटों की जातीय एकता अद्भुत है और उनकी जातीय पंचायत का हुकम हर विश्वास से बढ़कर, भगवान से भी। हालांकि जाट अंधविश्वासी नहीं होते काहिल और कामचोर भी नहीं। अपने वायदे के पक्के होते हैं। आर्य समाज आंदोलन से जुडऩे के कारण उनमें शिक्षा का प्रचार-प्रसार खूब है। वे अपने समतुल्य अन्य जातियों की तरह अनपढ़ नहीं रहे और इसका श्रेय उनके नेता और समाज सुधारक सर छोटूराम को मिलना चाहिए। यह ठीक है कि वे सरकारी नौकरियों में खूब हैं पर किस तरह की नौकरियों में! सिर्फ बस ड्राइवर व कंडक्टर तथा सिपाही या दरोगा के रूप में। उसके ऊपर के पद पर वे नहीं हैं। वे खाते-पीते किसान हैं, मोटा खाते हैं और मोटा पहनते हैं पर हैं सरसब्ज मगर वे उन जगहों पर नहीं हैं जहां आज उनके समतुल्य किसान जातियां पहुंच गई हैं। आज आईएएस-आईपीएस जैसी अखिल भारतीय सेवाओं में यादव हैं, कुर्मी हैं और गूजर हैं पर जाट नहीं हैं और इसका मलाल उन्हें है। पर वे कोर्ट और संविधान का सम्मान करते हैं इसलिए उन्होंने कभी आंदोलन नहीं किया और न ही सड़क पर उतरे। लेकिन हरयाणा की खट्टर सरकार ने उन्हें अलग-थलग करने के मकसद से जिस तरह का जाट विरोधी अभियान चलाया उससे उनके अंदर गुस्सा भर रहा था। वह गुस्सा फूटता ही। मुझे दुख है कि यह गुस्सा अराजक हो गया। हो सकता है कि अराजकता कुछ और लोगों ने फैलाई हो। जब जेएनयू में अराजकता बाहरी छात्र आकर फैला सकते हैं और पुलिस से लेकर नेता तक व प्रोफेसर से लेकर शिक्षक तक यही कह रहे हैं तो ऐसा भी तो हो सकता है कि जाटों को भी जानबूझ कर बदनाम किया गया हो। मैं जितने भी जाटों को जानता हूं वे अभद्र नहीं हैं और बहुत हद तक शांत और शालीन हैं। पर हिंदी फिल्मों ने उनकी छवि खराब कर रखी है इसलिए फिल्मों के कथानक के आधार पर धारणा नहीं बनाएं।
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