रौ ठेकुवा ठीक
ताराचंद्र त्रिपाठी
एक आदमी ने अपने पुत्र का नाम ठ्योक रखा. ठ्योक बेचारा हिन्दी की कक्षा में क्या आया ठेकुवा हो गया. लोगों ने पूछा कि भाषाओं में इतने सुन्दर नाम होते हुए भी उसने अपने पुत्र का ऐसा नाम क्यों रखा. ठयोक, ( दही जमाने का काठ का बर्तन) शक्ल का न सूरत का. यह भी कोई फिगर हुई. गौर करें तो भगवती चरण वर्मा की कहानी प्रायश्चित्त के पंडित परमसुख चौबे याद आते हैं. कद 4 फीट 4 इंच और तौंद का घेरा 52 इंच .
आदमी हाजिर जबाब था उसने एक दोहा सुना दिया:
अमरसींग जी मर गये, धनपति माँगे भीख ।
लछमी दर दर भटकती तुई ठेकुवा ठीक ।।
नामों की सार्थकता पर यह बहस बहुत पुरानी है. पुराणों में एक कथा है. एक थी मदालसा. राजा ऋतुध्वज की रानी. राजा और रानी में शायद बच्चों के नामों पर बहस हुई होगी. लगता है बहस होते-होते ठन भी गयी होगी. पहले तीन बेटों के नाम राजा ने छाँट- छाँट कर रखे - विक्रान्त, सुबाहु और रिपुदमन. तीनों परम पराक्रम को व्यक्त करने वाले नाम, पर मदालसा ने उन्हें वह परिवेश दिया कि तीनों संसार को असार मानते हुए सन्यासी हो गये. हार मान कर राजा ने चौथे बेटे का नाम रखने के लिए मदालसा से अनुरोध किया. मदालसा ने नाम रखा अलर्क. अलर्क या कुत्तों को होने वाला पागलपन का रोग. यही अलर्क बाद में राजा बना जिसका उल्लेख हरिवंशपुराण में भी है.
एक ओर युग-युगान्तरों से यह धारणा चलती रही है कि नाम में क्या रखा है, पर नाम है कि उनके मानक निर्धारण करने में मनुस्मृतिकार से लेकर अनेक न्यूमरोलौजिस्ट तक निरंतर अपना दिमाग खपाते रहे है। मनुस्मृतिकार ने वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से नामकरण के मानक निर्धारित किये तो न्यूमरोलौजिस्टों ने संख्याओं के विशिष्ट प्रभावों पर लंबे चौड़े सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए जन्म तिथि और नाम में अंग्रेजी वर्णों की दी गयी संख्याओं के साम्य पर जोर दिया, पर नाम है कि वे इन सीमाओं को मानने में प्रायः आनकानी करते रहे हैं. उनके निर्धारण में परंपरा और प्रयोग युगपत चलते रहते हैं. पुरोहित जी जब भी नाम रखते हैं, वह नक्षत्रों के अनुसार और यजमान की सामाजिक स्थिति पर विचार कर रखते हैं। और सामान्य परिवार उन नामों को यथावत स्वीकार कर लेते हैं, पर जैसे-जैसे सम्पन्नता और सोच और फुर्सत बढ़ती है बच्चों के नामों में भी भी इसका असर दिखायी देने लगता है।
आदमी हाजिर जबाब था उसने एक दोहा सुना दिया:
अमरसींग जी मर गये, धनपति माँगे भीख ।
लछमी दर दर भटकती तुई ठेकुवा ठीक ।।
नामों की सार्थकता पर यह बहस बहुत पुरानी है. पुराणों में एक कथा है. एक थी मदालसा. राजा ऋतुध्वज की रानी. राजा और रानी में शायद बच्चों के नामों पर बहस हुई होगी. लगता है बहस होते-होते ठन भी गयी होगी. पहले तीन बेटों के नाम राजा ने छाँट- छाँट कर रखे - विक्रान्त, सुबाहु और रिपुदमन. तीनों परम पराक्रम को व्यक्त करने वाले नाम, पर मदालसा ने उन्हें वह परिवेश दिया कि तीनों संसार को असार मानते हुए सन्यासी हो गये. हार मान कर राजा ने चौथे बेटे का नाम रखने के लिए मदालसा से अनुरोध किया. मदालसा ने नाम रखा अलर्क. अलर्क या कुत्तों को होने वाला पागलपन का रोग. यही अलर्क बाद में राजा बना जिसका उल्लेख हरिवंशपुराण में भी है.
एक ओर युग-युगान्तरों से यह धारणा चलती रही है कि नाम में क्या रखा है, पर नाम है कि उनके मानक निर्धारण करने में मनुस्मृतिकार से लेकर अनेक न्यूमरोलौजिस्ट तक निरंतर अपना दिमाग खपाते रहे है। मनुस्मृतिकार ने वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से नामकरण के मानक निर्धारित किये तो न्यूमरोलौजिस्टों ने संख्याओं के विशिष्ट प्रभावों पर लंबे चौड़े सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए जन्म तिथि और नाम में अंग्रेजी वर्णों की दी गयी संख्याओं के साम्य पर जोर दिया, पर नाम है कि वे इन सीमाओं को मानने में प्रायः आनकानी करते रहे हैं. उनके निर्धारण में परंपरा और प्रयोग युगपत चलते रहते हैं. पुरोहित जी जब भी नाम रखते हैं, वह नक्षत्रों के अनुसार और यजमान की सामाजिक स्थिति पर विचार कर रखते हैं। और सामान्य परिवार उन नामों को यथावत स्वीकार कर लेते हैं, पर जैसे-जैसे सम्पन्नता और सोच और फुर्सत बढ़ती है बच्चों के नामों में भी भी इसका असर दिखायी देने लगता है।
यह आज की बात नहीं है. हर समाज में हजारों साल से यह प्रवृत्ति चलती आयी है. उदाहरण के लिए राम कथा में चारों भाइयों के नाम करण को ही देख लीजिए. पुरोहित थे वशिष्ठ। यजमान थे दस हार्सपावर के रथ पर ( दस घोड़ों के रथ पर ) सवार होकर चलने वाले राजा दशरथ. राजा के चार बेटे हुए. राजा ने पुरोहित जी से कहा इनके नाम रखें. बेटे राजा के थे किसी गरीब यजमान के नहीं कि उनके नाम चेपड़सिंह या थेपड़ सिंह रख दें. बुढ़ापे मे पैदा हुए थे. गरीब आदमी के बेटे होते तो त्रेपनसिंह या अठावनसिंह रख देते. पंडित जी ने सोच सोच कर नाम रखे और उन नामों का अर्थ भी बताया। सोच थी पहला बेटा राजा होगा तो उसे प्रजा को शान्ति और आश्रय देने वाला होना चाहिए -इसलिए नाम रखा गया राम. दूसरा बेटा राजा तो होगा नहीं पर राजा का भाई है, इस लिए उससे प्रजा के भरण पोषण की कामना की. नाम रखा भरत. तीसरे बेटे से राज्य की रक्षा की कामना की अतः नाम रखा - शत्रुघ्न. ( जाके सुमिरन से रिपु नासा ना सत्रुहन नाम प्रकाशा) और चौथे बेटे के लिए पंडित जी की सोच कुछ बन नहीं पायी कह दिया यह तो सारे सुलक्षणों की खान है. इसके क्या कहने . नाम रख दिया लक्ष्मण।
जो आनंद सिंधु सुख रासी। सीकर ते त्रैलोक्य सुपासी।
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक विश्रामा।
विस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।
जाके सुमिरन से रिपु नासा। नाम सत्रुहन वेद प्रकासा।
लच्छनधाम राम प्रिय, सकल जगत आधार।
गुरु वसिष्ट तेहिं राखा लछिमन नाम उदार। दोहा 197
जो आनंद सिंधु सुख रासी। सीकर ते त्रैलोक्य सुपासी।
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक विश्रामा।
विस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।
जाके सुमिरन से रिपु नासा। नाम सत्रुहन वेद प्रकासा।
लच्छनधाम राम प्रिय, सकल जगत आधार।
गुरु वसिष्ट तेहिं राखा लछिमन नाम उदार। दोहा 197
नाम अपने आप में समाज द्वारा चिपकाया हुआ पहचान पत्र है. इस पहचान में जितनी प्रयोगधर्मिता गाँव घरों में देखी जाती है उतनी शायद शहरों में भी नहीं. गावों में हम समाज के जितने अभिन्न अंग होते हैं उतने शहरों में नहीं. शहरों में निर्वैयक्तिकता आ जाती है, पर गाँव में हर एक को स्पष्ट पहचान देने का प्रयास किया जाता है. गाँव व्यक्ति के नाम के साथ उसकी दैहिक स्थिति, उसके स्वभाव, उसके निवास के मुहल्ले, व्यवसाय, और उसके विशिष्ट कार्य को नाम के साथ जोड़ दिया जाता है. मेरे गाँव में ही एक नाम वाले अनेक व्यक्तियों में विशिष्ट पहचान के लिए डुन पितांबर, काण पितांबर, रतनु लंब, बचु मरि, कर्मु चिपला, गोपाल भिल्ल, कउ भैरबी, जैसे नाम उनकी दैहिक स्थिति के साथ जोड़ कर रखे गये हैं, तो गाँजा पीकर सुन्न होकर लेट जाने वाले लोगों के लिए सुन्न मथुरी, टुन्न मोहन जैसे अनेक नाम सामने आते हैं। इसी प्रकार गाँव में पहली बार गांधी जी का प्रचार करने और खादी पहनने वाले का नाम ही गाँधि मथुरी, सीता का अभिनय करने वाले का नाम सीता रमेश, राम का अभिनय करने वाले का नाम राम पितांबर, कलकत्ता से वापस आकर गाँव में कत्थक नृत्य दिखाने के कारण हिरु कत्थक जैसे विशिष्ट पहचान संकेत लोगों के नामों के साथ जुड़े हैं. इनके अलावा निवास स्थान या मुहल्ले का नाम जोड़ कर भी व्यक्तियों की पहचान निर्धारित की जाती है। उर्दू शायरों के नामों में तो यह परंपरा बहुत पुरानी है. यह सब एक ही नाम वाले अनेक लोगों के साथ स्पष्ट पहचान के लिए किया जाता है.
आजादी से पहले आम भारतीय अपनी स्थिति के प्रति अधिक जागरूक नहीं था और न उसके पास इतनी फुर्सत ही थी कि वह बच्चों के नामों के बारे में अधिक सोच सके. बच्चों की न केवल संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती थी अपितु उनका भविष्य भी अपने परिवार के व्यवसाय से जुड़ा था, अत: पंडित जी ने जो नाम रख दिया, वही मान्य था. अधिक से अधिक जिस परिवार में पहले कुछ बच्चे जीवित नहीं रह पाते थे, उनके नाम रखने में सावधानी बरती जाती थी और उनके राशिनाम और संबोधन नाम अलग-अलग होते थे. यह स्थिति पूरे भारत में हर समाज में थी। (मध्यहिमालय के जनों में प्रचलित मान्यताओं के समान ही तमिलनाडु में भी यदि किसी महिला के आरंभिक दो बच्चे जीवित न रहें तो तीसरे बच्चे का नाम ऐसा रखा जाता है ताकि वह बुरी नजर और अकाल मृत्यु से बच सके यथा कुमाऊँ में जोगादत्त (जोगी,) भिखारी, बच्चीनाथ, अमरनाथ, तमिलनाडु में कुप्पुस्वामी ( कुप्प -गँवार), पक्किरी (फकीर), पिचाइ (भिखारी) कुप्पाम्मल (गँवारन) आदि।)
जैसे जैसे शिक्षा का प्रसार हुआ, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में बदलाव आया नामकरण में भी प्रयोग धर्मिता बल पकड़ने लगी। बच्चों के नामों के बारे में अनेक प्रकार के प्रयोग सामने आने लगे। यहाँ कुछ नामों की बानगी दी जा सकती है।
बंगलौर में मेरे एक परिचित हैं। सेवा निवृत्ति के बाद बंगलौर में पधारे हैं। पहले योजना विभाग में काम करते थे। उनके चार बच्चे हैं। नाम रखे हैं - योजना, निवेश, उद्योग प्रगति। गनीमत है पाँचवीं सन्तान नहीं हुई। नहीं तो उसका नाम रखने में मन ही मन भाई साहब के मन में भ्रष्टाचार शब्द अवश्य कौंधता। इसी प्रकार जीवनबीमा निगम में कार्यरत एक व्यक्ति ने तीन बच्चों के नाम जीवन, बीमा, निगम रखे हैं।
आस्था और लगाव के कारण भी बहुत से नामों का विन्यास होता हैं। सुमित्राननदन पन्त के बड़े भाई देवीदत्त पन्त ने अपने दो पुत्रों के नाम लेनिन और गोर्की के नाम पर रखे थे, तो पन्त जी कविताओं के प्रति समर्पित हिन्दी की एक अध्यापिका ने अपने बच्चों के नाम उनकी कविताओं के नाम पर रखे पल्लव और गुंजन।
मेरे एक परिचित हैं जो जीवन भर मर्चेन्ट नेवी में रहे। इस सेवा का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने अपने घर का नाम अर्णव ही नहीं रखा अपितु अपने बच्चों के नाम भी समुद्र से ही संबंधित रखे। बेला या समुद्र का किनारा और मृगांक या चन्द्रमा जो समुद्र मंथन से निकले 14 रत्नों में एक है। संयोग वश पत्नी का नाम भी समुद्र से ही संबंधित है। केवल उनके अपने नाम का समुद्र से कोई संबंध नहीं है।
मेरे एक मित्र हैं. उनकी छः पुत्रियाँ और एक पुत्र हैं. पुत्र सबसे छोटा है. पहली पुत्री हुई. घर में जैसे उजाला हो गया. नाम रखा रश्मि। दूसरी हुई नाम रखा अर्चना. सोचा पार्वती जी से से प्रार्थना करूँ, तो तीसरी का नाम अपर्णा रख दिया. फिर भी भगवान नहीं पसीजे. चौथी का नाम रखा आराधना. आराधना निष्फल हो गयी. मन की मन में ही रह गयी. पाँचवीं का नाम रखा आकांक्षा. आकांक्षा भी सफल नहीं हुई. लगातार पुत्रियों के जन्म को अपनी नियति मानते हुए अगली पुत्री का नाम रखा नियति. जब पुत्रियों को अपनी नियति मान लिया जो भगवान को दया आयी . पुत्र हुआ. नाम रखा अमित विक्रम. यह नाम उसका था या उसके पिता के अमित विक्रम का, पता नहीं!
कुछ साल पहले तक महिलाओं के नामों में उनके प्रति सामाजिक उपेक्षा परिलक्षित होती थी। यदि पंडित जी की कृपा से नाम कुछ ठीक-ठाक भी रख दिया जाता तो नाम के उच्चारण और संबोधन में उली’ अवश्य जोड़ दिया जाता था। जैसे चंपा का चंफुली, बसन्ती का बसुली, माधवी का मधुली आदि आदि. विवाह के बाद तो ससुराल में यह नाम भी विलुप्त हो जाता था. वह पहले अमुक की घरवाली और बाद में अमुक की माता मात्र रह जाती थी , जैसे उसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व न हो.
चन्दनसिंह डाँगी की पुस्तक उत्तराखंड की प्रतिभाएँ’ से महिलाओं के नामों की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण दिये जा सकते हैं:
आजादी से पहले आम भारतीय अपनी स्थिति के प्रति अधिक जागरूक नहीं था और न उसके पास इतनी फुर्सत ही थी कि वह बच्चों के नामों के बारे में अधिक सोच सके. बच्चों की न केवल संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती थी अपितु उनका भविष्य भी अपने परिवार के व्यवसाय से जुड़ा था, अत: पंडित जी ने जो नाम रख दिया, वही मान्य था. अधिक से अधिक जिस परिवार में पहले कुछ बच्चे जीवित नहीं रह पाते थे, उनके नाम रखने में सावधानी बरती जाती थी और उनके राशिनाम और संबोधन नाम अलग-अलग होते थे. यह स्थिति पूरे भारत में हर समाज में थी। (मध्यहिमालय के जनों में प्रचलित मान्यताओं के समान ही तमिलनाडु में भी यदि किसी महिला के आरंभिक दो बच्चे जीवित न रहें तो तीसरे बच्चे का नाम ऐसा रखा जाता है ताकि वह बुरी नजर और अकाल मृत्यु से बच सके यथा कुमाऊँ में जोगादत्त (जोगी,) भिखारी, बच्चीनाथ, अमरनाथ, तमिलनाडु में कुप्पुस्वामी ( कुप्प -गँवार), पक्किरी (फकीर), पिचाइ (भिखारी) कुप्पाम्मल (गँवारन) आदि।)
जैसे जैसे शिक्षा का प्रसार हुआ, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में बदलाव आया नामकरण में भी प्रयोग धर्मिता बल पकड़ने लगी। बच्चों के नामों के बारे में अनेक प्रकार के प्रयोग सामने आने लगे। यहाँ कुछ नामों की बानगी दी जा सकती है।
बंगलौर में मेरे एक परिचित हैं। सेवा निवृत्ति के बाद बंगलौर में पधारे हैं। पहले योजना विभाग में काम करते थे। उनके चार बच्चे हैं। नाम रखे हैं - योजना, निवेश, उद्योग प्रगति। गनीमत है पाँचवीं सन्तान नहीं हुई। नहीं तो उसका नाम रखने में मन ही मन भाई साहब के मन में भ्रष्टाचार शब्द अवश्य कौंधता। इसी प्रकार जीवनबीमा निगम में कार्यरत एक व्यक्ति ने तीन बच्चों के नाम जीवन, बीमा, निगम रखे हैं।
आस्था और लगाव के कारण भी बहुत से नामों का विन्यास होता हैं। सुमित्राननदन पन्त के बड़े भाई देवीदत्त पन्त ने अपने दो पुत्रों के नाम लेनिन और गोर्की के नाम पर रखे थे, तो पन्त जी कविताओं के प्रति समर्पित हिन्दी की एक अध्यापिका ने अपने बच्चों के नाम उनकी कविताओं के नाम पर रखे पल्लव और गुंजन।
मेरे एक परिचित हैं जो जीवन भर मर्चेन्ट नेवी में रहे। इस सेवा का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने अपने घर का नाम अर्णव ही नहीं रखा अपितु अपने बच्चों के नाम भी समुद्र से ही संबंधित रखे। बेला या समुद्र का किनारा और मृगांक या चन्द्रमा जो समुद्र मंथन से निकले 14 रत्नों में एक है। संयोग वश पत्नी का नाम भी समुद्र से ही संबंधित है। केवल उनके अपने नाम का समुद्र से कोई संबंध नहीं है।
मेरे एक मित्र हैं. उनकी छः पुत्रियाँ और एक पुत्र हैं. पुत्र सबसे छोटा है. पहली पुत्री हुई. घर में जैसे उजाला हो गया. नाम रखा रश्मि। दूसरी हुई नाम रखा अर्चना. सोचा पार्वती जी से से प्रार्थना करूँ, तो तीसरी का नाम अपर्णा रख दिया. फिर भी भगवान नहीं पसीजे. चौथी का नाम रखा आराधना. आराधना निष्फल हो गयी. मन की मन में ही रह गयी. पाँचवीं का नाम रखा आकांक्षा. आकांक्षा भी सफल नहीं हुई. लगातार पुत्रियों के जन्म को अपनी नियति मानते हुए अगली पुत्री का नाम रखा नियति. जब पुत्रियों को अपनी नियति मान लिया जो भगवान को दया आयी . पुत्र हुआ. नाम रखा अमित विक्रम. यह नाम उसका था या उसके पिता के अमित विक्रम का, पता नहीं!
कुछ साल पहले तक महिलाओं के नामों में उनके प्रति सामाजिक उपेक्षा परिलक्षित होती थी। यदि पंडित जी की कृपा से नाम कुछ ठीक-ठाक भी रख दिया जाता तो नाम के उच्चारण और संबोधन में उली’ अवश्य जोड़ दिया जाता था। जैसे चंपा का चंफुली, बसन्ती का बसुली, माधवी का मधुली आदि आदि. विवाह के बाद तो ससुराल में यह नाम भी विलुप्त हो जाता था. वह पहले अमुक की घरवाली और बाद में अमुक की माता मात्र रह जाती थी , जैसे उसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व न हो.
चन्दनसिंह डाँगी की पुस्तक उत्तराखंड की प्रतिभाएँ’ से महिलाओं के नामों की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण दिये जा सकते हैं:
माता का नाम ज्ञात नहीं
बी.डी.पांडे. आइ सी एस अल्मोड़ा भूतपूर्व राज्यपाल
सच्चिदानन्द पैन्यूली टिहरी “ सांसद
भगवती प्रसाद पांडे, बागेश्वर आइ.ए.एस.
टी.सी पन्त खूँट अल्मोड़ा आयकर आयुक्त
किशोर धामी मड़, पिथौरागढ़ वायुसेना अधिकारी
ओमप्रकाश कुकरेती उदयपुर पौड़ी प्रतिष्ठित साहित्यकार
महावीर प्रसाद गैरोला टिहरी “ कलाकार
झूसिया दमाई बैतड़ी “ लोक गायक
महिलाओं के विचित्र नाम : घुतुरी देवी दिगोली, अल्मोड़़ा, फतरी देवी टिहरी गढ़वाल, घुसेड़ी देवी, बौणीदेवी, जोशीमठ चिपको आन्दोलन
दिगारीदेवी ( डिकार) डीडीहाट
पौराणिक आधार पर : रुद्रीदेवी रुद्रप्रयाग, देवमती, रामचन्द्री , महेशी देवी चमोली चंडी प्रसाद भट्ट,गणेशीदेवी, कादंबरी डिमरी,मन्दोदरी डिमरी
उपेक्षा बोधक “उली“ युक्त :बिजुली देवी अल्मोड़ा रूपसिंह भाकुनी,उदुली देवी अल्मोड़ा जसवन्तसिंह बिष्ट,जसुली देवी मड़मानले नारायणसिंह धामी,बिसुली बरसायत हरीदत्त पन्त,धनुली देवी अल्मोड़ा,हिरुली देवी अल्मोड़ा
कुछ शिक्षित परिवारों में
पूर्णा देवी टिहरी सुन्दरलाल बहुगुणा,पदी देवी ,धारचूला चन्द्रप्रभा ऐतवाल,भामासिंह टिहरी जोगेन्द्रसिंह कंडारी,अमरा देवी रुद्रप्रयाग
सूरमा देवी पौड़ी कुवरसिंह नेगी, समुद्रा देवी पौड़ी उमरावसिंह नेगी
पवित्रता देवी पौड़ी चन्द्रमोहन बहुगुणा,विधाता देवी पौड़ी के.पी.नौटियाल
नई सभ्यता से प्रभावित परिवारों में
परिधि धस्माना चमोली,
हिमाद्रिजा भट्ट, देवप्रयाग,परिमार्जन नेगी चमोली,
कुछ विचित्र पुरुष नाम दरजी सिह चमोली, थेपड़सिंह चमोली बौणी देवी के पिता
सच्चिदानन्द पैन्यूली टिहरी “ सांसद
भगवती प्रसाद पांडे, बागेश्वर आइ.ए.एस.
टी.सी पन्त खूँट अल्मोड़ा आयकर आयुक्त
किशोर धामी मड़, पिथौरागढ़ वायुसेना अधिकारी
ओमप्रकाश कुकरेती उदयपुर पौड़ी प्रतिष्ठित साहित्यकार
महावीर प्रसाद गैरोला टिहरी “ कलाकार
झूसिया दमाई बैतड़ी “ लोक गायक
महिलाओं के विचित्र नाम : घुतुरी देवी दिगोली, अल्मोड़़ा, फतरी देवी टिहरी गढ़वाल, घुसेड़ी देवी, बौणीदेवी, जोशीमठ चिपको आन्दोलन
दिगारीदेवी ( डिकार) डीडीहाट
पौराणिक आधार पर : रुद्रीदेवी रुद्रप्रयाग, देवमती, रामचन्द्री , महेशी देवी चमोली चंडी प्रसाद भट्ट,गणेशीदेवी, कादंबरी डिमरी,मन्दोदरी डिमरी
उपेक्षा बोधक “उली“ युक्त :बिजुली देवी अल्मोड़ा रूपसिंह भाकुनी,उदुली देवी अल्मोड़ा जसवन्तसिंह बिष्ट,जसुली देवी मड़मानले नारायणसिंह धामी,बिसुली बरसायत हरीदत्त पन्त,धनुली देवी अल्मोड़ा,हिरुली देवी अल्मोड़ा
कुछ शिक्षित परिवारों में
पूर्णा देवी टिहरी सुन्दरलाल बहुगुणा,पदी देवी ,धारचूला चन्द्रप्रभा ऐतवाल,भामासिंह टिहरी जोगेन्द्रसिंह कंडारी,अमरा देवी रुद्रप्रयाग
सूरमा देवी पौड़ी कुवरसिंह नेगी, समुद्रा देवी पौड़ी उमरावसिंह नेगी
पवित्रता देवी पौड़ी चन्द्रमोहन बहुगुणा,विधाता देवी पौड़ी के.पी.नौटियाल
नई सभ्यता से प्रभावित परिवारों में
परिधि धस्माना चमोली,
हिमाद्रिजा भट्ट, देवप्रयाग,परिमार्जन नेगी चमोली,
कुछ विचित्र पुरुष नाम दरजी सिह चमोली, थेपड़सिंह चमोली बौणी देवी के पिता
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