Tuesday, August 16, 2016

TaraChandra Tripathi जिसे हम लोग धर्म कहते हैं, वह सदा से आम आदमी की आवाज को दबाने, अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों को अपनी नियति मानने, तथाकथित धर्म की आड़ में दलित और नारी पर तरह- तरह के अंकुश लगाने और सत्ताधीश की मनमानी को उचित ठहराने का माध्यम रहा है.

जिसे हम लोग धर्म कहते हैं, वह सदा से आम आदमी की आवाज को दबाने, अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों को अपनी नियति मानने, तथाकथित धर्म की आड़ में दलित और नारी पर तरह- तरह के अंकुश लगाने और सत्ताधीश की मनमानी को उचित ठहराने का माध्यम रहा है. जो जुए में अपनी पत्नी को दाँव में लगा दे, छोटे भाई की विवाहिता पर एकाधिकार कर ले, वह धर्मराज और जो छिप कर प्रहार करे, अग्नि परीक्षा में निर्दोष सिद्ध हुई और गर्भ की चरम अवस्था में पहुँची पत्नी को घर से निकाल दे और एक ब्राह्मणों के निर्देश पर भगवान की आराधना में लगे द्लित का वध करे, वह मर्यादा पुरुषोत्तम. जय हो!
हमारे ऋषियों ने तो ऐसे धर्म की कल्पना भी नहीं की थी. उनकी कल्पना में तो धर्म था : जो व्यवहार तुम्हें अपने लिए बुरा लगता है, वैसा व्यवहार दूसरों के साथ मत करो (श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चापि अवधार्यतां, आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत - व्यास ने कहा धर्म के सार को सुनो और सुन कर उसे समझो, जो व्यवहार तुम्हें अपने लिए बुरा लगता है, वैसा व्यवहार दूसरों के साथ मत करो )
. शायद, फिर भी लोगों की समझ में नहीं आया. दूसरे ऋषि के पास गये और पूछा व्यास जी तो यह कहते हैं , आपकी धर्म के बारे में क्या राय है ? ऋषि ने उत्तर दिया, यदि व्यास जी द्वारा धर्म की परिभाषा से संतुष्ट नहीं हो तो, यह समझ लो कि जिस आचरण से अपना और दूसरों का भला हो और मोक्ष की प्राप्ति हो वही धर्म है.( यतोभ्युदय निश्रेयस सिद्धि, स धर्म:इति निश्चय:)
समाज के ठेकेदारों को लगा कि धर्म की इन दोनों परिभाषाओं से तो उनकी मनमानी चलने से रही. उन्होंने सोचा कि इन स्वतन्त्र चिन्तकों की जगह अपने दरबारी पंडितों से क्यों न पूछें ? पंडितों ने कहा राजन! धर्म के स्वरूप के बारे में अलग अलग मत है. सबसे व्यावहारिक तो यह है कि जैसा समाज के प्रतिष्ठित लोग, ग्राम- प्रधान से लेकर राजा तक और गाँव के साहूकार से लेकर बड़े पूँजीपति तक जैसा आचरण करें, वैसा ही आचरण करना धर्म है. ( वेदा विभिन्ना, स्मृतियो विभिन्ना, नास्तिर्मुनिर्यस्य मतं न भिन्नं. धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गत: स पन्था)
फिर समस्या उठी कि सत्तासीन और धनाधीश तो अक्सर मनमानी करते हैं. यदि सामान्य जन भी उनका अनुकरण करने लगें तो? धर्म के संविधान में एक और संशोधन किया गया. सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाण अन्त:करण प्रवृत्तय: ( समाज के हाइ प्रोफाइल लोग, यदि उन्हें अपने किसी कार्य या आचरण के औचित्य के बारे में सन्देह हो तो जैसा उनका मन कहे, वैसा आचरण विहित है.)
पहले की दो परिभाषाओं में तो आजादी नहीं थी. तीसरी में भी डोमीनियन स्टेटस जैसा ही था. पूर्ण स्वाधीनता चौथे संशोधन से ही आयी. जय भारत !

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