गुजरात से राह बनती नजर आ रही है लेकिन अकेले दलित आंदोलन से हालात बदलने वाले नहीं हैं।
सबसे पहले यह मान लें कि हम हड़प्पा और मोहनजोदोड़ो के वंशज हैं और हम आज भी हारे नहीं है क्योंकि कोई भी हार निर्णायक नहीं होती।यूनान में आदिविद्रोही स्पार्टकस और उनके लाखों अनुयायियों की हार और एथेंस की सड़कों पर उनकी लाशें टांगने के बावजूद वे लाशें ही जिंदा होकर गुलामी की प्रथा हर देश काल परिस्थिति में खत्म करने के लिए लड़ती रहीं तो आज दुनियाभर में लोकतंत्र है और रंगभेद सिर्फ अमेरिका और भारत में है।
भारत में इस रंगभेद की वजह ब्राह्मणवाद है और उसके खिलाफ लड़ाई फिर वही हड़प्पा और मोहनजोदोड़ो की लड़ाई है।
पलाश विश्वास
हम लगातार आपको बंगाल में बदलती हवा का ताजा रुख बता रहे हैं।आज बंगाल में टाइम्स ग्रुप के लोकप्रिय बांग्ला दैनिक एई समय के रविवासरीय में पहली बार बंगाल के दलित आंदोलन के सिलसिले में अंबेडकर की नये भारत के निर्माण में उनकी निर्णायक भूमिका की सिलसिलेवार चर्चा की गयी है और साफ तौर पर खुलासा किया गया है कि बंगाल और भारत के दलित आंदोलन के इतिहास की हत्या कैसे होती रही है। कैसे भारतीय संविधान के रचालकार का वोटबैंक एटीएम बतौर इस्तेमाल करते हुए सत्तावर्ग ने उनकी विचारधारा और उनके आंदोलन के उलट हिंदू राष्ट्र का निर्माण किया।
अंबेडकर हत्या का यह अभूतपूर्व खुलासा अनिवार्य पाठ है।
इस लोकप्रिय अखबार छपा कांटेट दोहराने की जरुरत नहीं है।लाखों की प्रसार संख्या वाले इसअखबार की प्रतियां जब इस विषय पर कतई चर्चा निषेध के परिवेश में आम लोगं के हाथों में जायेगा तो समझ लीजिये कि इसके क्या नतीजे होंगे।बंगाल में फिर बेहद व्यापक परिवर्तन की हवा बनने लगी है।अंबेडकर पर और बंगाल के दलित आंदोलन पर एकमुश्त फोकस इसीका सबूत है।
दलित आंदोलन बंगाल में कतई फिर न हो,शरणार्थी आंदोलन भी न हो, भारत विभाजन से लेकर मरीचझांपी हत्याकांड और फिर 2003 की नागरिकता संशोधन कानून के खुल्ला खेल फर्रूखाबादी का मतलब कुल यही रहा है कि भारत विभाजन के बलि भारत में अंबेडकर के उत्थान और उन्हें संविधानसभा तक भेजने वाले समुदायों का सफाया ताकि भविष्य में भारत में फिर बहुजन समाज का निर्माण हो न सके जो बंगाल महाराष्ट्र और पंजाब को केंद्रित दलित किसान आदिवासी आंदोलन की वजह से भारत विभाजन के पहले तक लगातार बनता रहा है और सत्तावर्ग के हिंदुत्व ने इस बहुजनसमाज की हत्या के लिए भारत का विभाजन कर दिया और बंगाल के बहुजनों के नरसंहार का सिलिसिला बना दिया।
सबसे पहले यह मान लें कि हम हड़प्पा और मोहनजोदोड़ो के वंशज हैं और हम आज भी हारे नहीं है क्योंकि कोई भी हार निर्णायक नहीं होती।यूनान में आदिविद्रोही स्पार्टकस और उनके लाखों अनुयायियों की हार और एथेंस की सड़कों पर उनकी लाशें टांगने के बावजूद वे लाशें ही जिंदा होकर गुलामी की प्रथा हर देश काल परिस्थिति में खत्म करने के लिए लड़ती रहीं तो आज दुनियाभर में लोकतंत्र है और रंगभेद सिर्फ अमेरिका और भारत में है।
भारत में इस रंगभेद की वजह ब्राह्मणवाद है और उसके खिलाफ लड़ाई फिर वही हड़प्पा और मोहनजोदोड़ो की लड़ाई है।इसीलिए रंगभेद के खिलाफ फिर फिर मनुस्मृति दहन अनिवार्य है और आजादी के लिए ब्राह्मणवाद का अंत भी अनिवार्य है।
हम शुरु से मानते रहे हैं कि 1947 में दरअसल भारत का विभाजन हुआ नहीं है।विभाजन हुआ है हड़प्पा और मोहनजोदोड़ो की सभ्यता का।उस निर्णायक क्षण में हम मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा की फिर हार गये और सिंधु घाटी की सभ्यता से बेदखल हो गये और राजनीतक सीमाओं की बात करें तो ब्रिटिश भारत का भूगोल इस खंडित अखंड देशे से कहीं बड़ा अफगानिस्तान से लेकर म्यामार तक विस्तृत था तो यह विस्तार दक्षिण अफ्रीका की जनसंख्या को भी छूता था।
भारत में जाहिर है कि हड़प्पा और मोहनजोदोड़ो में हमारे पुरखे विदेशी हमलावरों से हारे नहीं थे और आज भी हर आदिवासी घर में उस सभ्यता का कालचक्र मौजूद हैं और आदिवासियों की संस्कृति आज भी सिंधु घाटी की सभ्यता है।बाकी समुदायों का ब्राह्मणीकरण का इतिहास भारत का इतिहास मनुस्मृति शासन अखंड है,जिसका एकाधिकार,रंगभेदी वर्चस्व भी सन 1947 में भारत विभाजन का कारण और परिणाम दोनों हैं।
भारतीय इतिहास लोकतांत्रिक विरासत को वैशाली के गणराज्यों से आजतक वांच लें,भारतीय लोक संस्कृति और धर्म कर्म को बारीकी से जांच लें,फिर गौतम बुद्ध के बाद राजतंत्र का इतिहास देख लें,बु्द्धमय भारत के अवसान के बावजूद राजकाज और राजधर्म से लेकर आम नागरिकों का धर्म कर्म और जीवन कुल मिलाकर धम्म का अनुशीलन रहा है और तथाकथित वैदिकी साहित्य के अलावा मनुस्मृति अनुशान का कोई ऐतिहासिक आधार लेकिन नहीं है,जो आजादी के पहले से रंगभेदी वर्चस्ववादियों की जमींदारी में भारत को बदलने की साजिश बतौर बंगाल की सरजमीं पर हिंदुत्व और इस्लाम की धर्मोन्मादी दो राष्ट्रों के आत्मघाती सिद्धांत के तहत भारत के राजनैतिक विभाजन का कारण और परिणाम दोनों है और सही मायने में भारत में विशुध हिंदू राष्ट्र का इतिहास भी उतना ही है तो रंगभेदी मनुस्मृति का शासन भी वहीं है।
गुजरात के ऊना में आजादी के ऐलान से कुछ बड़ा नतीजा निकालने की उम्मीद तब तक कृपया न करें जबतक कि हम हजारों वर्षों से जारी आदिवासियों और किसानों के स्वंत्रतता संग्राम की निरंतरता से इस आंदोलन को जोड़कर शासक वर्ग का तख्ता पलट का चाकचौबंद इंतजाम न कर लें।
बंगाल आर्यावर्त के बाहर का भूगोल रहा है हमेशा और बुद्धमय भारत का आखिरी द्वीप भी रहा है बंगाल जहां पांचसौ साल पहले चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव धर्म के जरिये हिंदुत्व की नींव पड़ी तो पाल वंश के अवसान के बाद सेनवंश के दौरान ब्राह्मणवादी राजकाज शुरु हुआ लेकिन तभी से साधु संत पीर फकीर बाउल और अंततः ब्रह्मसमाज आंदोलनों की वजह से बंगाल कभी ब्राह्मणवाद का उपनिवेश बना नहीं।रवींद्र का बारत तीर्थ और रामकृष्ण परमहंस विवेकानंद का नरनारायण इसी जीवन दर्शन का अविभाज्य अंग है जो भारती कीलोक परंपरा और इतिहास की निरंतरता है।
उस उपनिवेश की कोई संभावना भारत विभाजन के बिना असंभव था और इसीलिए हिंदुत्ववादी जमींदार राजनेताओं ने बंगालर के साथ भारत का विभाजन कर दिया और जिन्ना का जिन्न भी उन्होंने खड़ा कर दिया अपने धतकरम की जिम्मेदारी धर्मांतरित मुसलमानों पर थोंपने और आजाद भारत में मुसलमानों को दोयम दर्जे का विभाजनकारी अपरराधी जीवन जीने को मजबूर करने की रणनीति के तहत।
इस इतिहास की हम बार बार चर्चा करते रहे हैं और भारत विभाजन के बारे में बार बार लिखते भी रहे हैं।इसे सिलसिले वार दोहराने की जरुरत नहीं है।
हम ऊना में दलितों की आजादी के ऐलान के गंतव्य के मुहूर्त पर आपको याद दिलाना चाहते हैं कि भारत में अंग्रेजी हुकूमत की नींव बंगाल में पलाशी के मैदान में पड़ी तो अब समझ लीजिये कि यह खंडित बंगाल मुकम्मल पलाशी का मैदान है।आजादी की लड़ाई पलाशी में हार के बाद शुरु हो गयी थी।किसानों और आदिवासियों ने गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए लगातार विद्रोह का सिलसिला जारी रखा जो आझ भी जारी है,दलित आंदोलन उस परंपरा से जुड़े बिना दलित आंदोलन हो ही नही सकता।
बंगाल में दलित आंदोलन की शुरुआत कवि जयदेव की बाउल पंरपरा से,ईश्वर और दैवी अस्तित्व देवमंडल के निषेध के साथ सेनवंश के हिंदुत्व राजकाज के खिलाफ शुरु हो गया था जो भारतभर में संत कवियों के सामंती व्यवस्था के किलाफ स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा था तो पहले यह मान लीजिये कि दलित आंदोलन की शुरुआत संत कबीर ने 14 वीं सदी में कर दी थी।
दलितआंदलन के जनक भारत में संत कबीरदास है.दलित विमर्श का प्रस्थानबिंदू फिर कबीर के दोहे हैं।
उनका यह निरीश्वर वाद धम्म और पंचशील का अनुशीलन है तो नवजागरण में ब्रह्मसमाज भी निरीश्वरवादी है जो नवैदिकी कर्मकांड और पुरोहिती ब्राह्मणवाद का निषेध है।
ब्रह्मसमाज के आंदोलन का दीर्घकालीन प्रभाव है लेकिन नवजागरण के मसीहावृंद ने आदिवासी किसान विद्रोह का साथ नहीं दिया क्योंकि उनमें से ज्यादातर खुद प्रजा उत्पीड़क जमींदर थे।हम इसका खुलासा भी बार बार करते रहे हैं।
भूमि सुधार के एजंडे के साथ नीलविद्रोह के जयघोष से जो मतुआ आंदोलन हरिचांद ठाकुर ने वैदिकी कर्म कांड और ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरु किया,उसीके तहत पूरा बंगाल दलित आंदोलन का सबसे बड़ा केंद्र बना और महाराषट्र, पंजाब, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गुजरात और समूचे उत्तर भारत के दलित आंदोलनों,किसान और आदिवासी आंदोलनों से सर्वभारतीय बहुजन समाज की स्थापना हो गयी।
भारत का विभाजन दरअसल बहुजन समाज का विध्वंस है और इसके सबूत विभाजनपीड़ित बंगाल के दलित शरणार्थी भारत में आज भी बेनागरिक हैं और उनके कोई नागरिक मानवाधिकार नहीं है।खासतौर पर बंगाल और असम उनके लिए यातनाशिविर में तब्दील हैं जबकि वे बहुजनसमाज के अगवा लड़ाका होने की कीमत अदा कर रहे हैं।शरणार्थी आंदोलन भी दलित आंदोलन का मोर्चा है उसीतरह जैसे कि किसानों,मजदूरों और आदिवासियों के तमाम आंदोलन।
गुजरात से राह बनती नजर आ रही है लेकिन अकेले दलित आंदोलन से हालात बदलने वाले नहीं हैं।
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