Tuesday, January 5, 2016

सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फैंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।



19वी सदी के प्रारंभ में 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पुणे के ब्राह्मण पेशवा शासन को पराजित किया था तब लार्ड मेकोले का कोई नामोनिशान नहीं था और पौराणिक ब्राह्मण धर्म के प्रचलन की वजह से देश में सिर्फ 2% लोग ही पढेलिखे थे. ओबीसी समुदाय का एक भी सदस्य पढालिखा नहीं था.

1 भी महिला पढीलिखी नहीं थी. ऐसी स्थिति में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पुणे के शासन में प्रारंभ किये स्कुल में ज्योतिबा फुले ने 1847 में अपनी पढाई पूरी की.
महात्मा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को 1846 में घर में पढाया और माता सावित्रीबाई फुले ने 1848 में शिक्षिका का कार्य प्रारंभ किया और देश की प्रथम भारतीय महिला अध्यापिका बनी तथा जिन्दगी के अंत तक शिक्षा के प्रचार-प्रसार और सामाजिक उत्थान के कार्यो में लगी रही थी..

बाद में मेकोले की शिक्षा पध्धति से शिक्षा व्यापक बनी और देश स्वतन्त्र हुवा तब देश में 15% से ज्यादा साक्षरता थी.

माता सावित्रीबाई फुले ने जिस वंचित शोषित समाज के मानवीय अधिकारों के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष किया था. इसीलिए उनके प्रति अपना आभार, सम्मान और उनके योगदान को चिन्हित करने के लिए पिछले दो-तीन दशकों से पूरे भारत में माता सावित्रीबाईफुले के जन्मदिन 3 जनवरी को ‘भारतीय शिक्षा दिवस’ और उनके परिनिर्वाण 10 मार्च को ‘भारतीय महिला दिवस’ के रूप में मनाता आ रहा है.

परिचय
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।

सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक थीं। महात्मा ज्योतिबा को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में माना जाता है। उनको महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। ज्योतिराव, जो बाद में में ज्योतिबा के नाम से जाने गए सावित्रीबाई के संरक्षक, गुरु और समर्थक थे। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछात मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था।

'सामाजिक मुश्किलें

वे स्कूल जाती थीं, तो लोग पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे। आज से 160 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था कितनी सामाजिक मुश्किलों से खोला गया होगा देश में एक अकेला बालिका विद्यालय।

महात्मा फुले द्वारा अपने जीवन काल में किये गये कार्यों में उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई का योगदान काफी महत्वपूर्ण रहा। लेकिन फुले दंपति के कामों का सही लेखा-जोखा नहीं किया गया। भारत के पुरूष प्रधान समाज ने शुरु से ही इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि नारी भी मानव है और पुरुष के समान उसमें भी बुद्धि है एवं उसका भी अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है । उन्नीसवीं सदी में भी नारी गुलाम रहकर सामाजिक व्यवस्था की चक्की में ही पिसती रही । अज्ञानता के अंधकार, कर्मकांड, वर्णभेद, जात-पात, बाल-विवाह, मुंडन तथा सतीप्रथा आदि कुप्रथाओं से सम्पूर्ण नारी जाति ही व्यथित थी। पंडित व धर्मगुरू भी यही कहते थे, कि नारी पिता, भाई, पति व बेटे के सहारे बिना जी नहीं सकती। मनु स्मृति ने तो मानो नारी जाति के आस्तित्व को ही नष्ट कर दिया था। मनु ने देववाणी के रूप में नारी को पुरूष की कामवासना पूर्ति का एक साधन मात्र बताकर पूरी नारी जाति के सम्मान का हनन करने का ही काम किया। हिंदू-धर्म में नारी की जितनी अवहेलना हुई उतनी कहीं नहीं हुई। हालांकि सब धर्मों में नारी का सम्बंध केवल पापों से ही जोड़ा गया। उस समय नैतिकता का व सास्ंकृतिक मूल्यों का पतन हो रहा था। हर कुकर्म को धर्म के आवरण से ढक दिया जाता था। हिंदू शास्त्रों के अनुसार नारी और शुद्र को विद्या का अधिकार नहीं था और कहा जाता था कि अगर नारी को शिक्षा मिल जायेगी तो वह कुमार्ग पर चलेगी, जिससे घर का सुख-चैन नष्ट हो जायेगा। ब्राह्मण समाज व अन्य उच्चकुलीन समाज में सतीप्रथा से जुड़े ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें अपनी जान बचाने के लिये सती की जाने वाली स्त्री अगर आग के बाहर कूदी तो निर्दयता से उसे उठा कर वापिस अग्नि के हवाले कर दिया जाता था। अंततः अंग्रेज़ों द्वारा सतीप्रथा पर रोक लगाई गई। इसी तरह से ब्राह्मण समाज में बाल-विधवाओं के सिर मुंडवा दिये जाते थे और अपने ही रिश्तेदारों की वासना की शिकार स्त्री के गर्भवती होने पर उसे आत्महत्या तक करने के लिये मजबूर किया जाता था। उसी समय महात्मा फुले ने समाज की रूढ़ीवादी परम्पराओं से लोहा लेते हुये कन्या विद्यालय खोले।
महानायिका
सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फैंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।

विद्यालय की स्थापना
1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया, वह भी पुणे जैसे शहर में। महानायिका

सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फैंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।

निधन
10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीज़ों की सेवा करती थीं। एक प्लेग के छूत से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण इनको भी छूत लग गया। और इसी कारण से उनकी मृत्यु हुई


No comments:

Post a Comment