जनगण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता...। जब तक हम भय, अनाचार, अत्याचार, प्रलोभन भरे छलावों, जाति और संप्रदायों के व्यामोह से निकल कर इनका सामना करने के लिए खड़े नहीं होते, फूट डालो और राज करो की नीति पर चलने वाले, प्रजातंत्र का मुखौटा ओढ़े इन अनैतिक और बर्बर अधिनायकों के चंगुल से नहीं निकल सकते।
TaraChandra Tripathi
शताब्दी के सोलहवें साल के पहली सुबह के सोर (सोच )
बचपन के आरंभिक दिन। गुलामी की जंजीरों में जकड़ा भारत। इन जंजीरों को तोड़ने के लिए आतुर जनगण। विद्यालय की प्रातःकालीन प्रार्थना में ईश्वर से प्रार्थना करते प्राथमिक विद्यालयों के बच्चे - यशस्वी रहें हे प्रभो! हे मुरारे! चिरंजीव राजा व रानी हमारे।
पता नहीं भारतीय संतति कब से यह गीत गा रही थी ?
दूसरी ओर विद्यालय से बाहर निकलते ही बच्चों के समूह गाने लगते थे- कदम-कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा, ये जिन्दगी है कौम की, तू कौम पै लुटाये जा। हम नहीं जानते थे कि आजादी का मतलब क्या है, पर आजादी के लिए जेल जाते युवाओं को देख कर हम भी वन्दे मातरम्, सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा और इनकलाब जिन्दबाद गाने लगे थे। हमारे इस प्रकार के गानों को सुन कर दादा और दादी की पीढ़ी को डर भी लगता था कि कहीं पटवारी पकड़ न ले जाय!
एक दिन इन गानों के स्थान पर एक नया गीत गाया जाने लगा- जनगण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता...। कहा गया अब हम आजाद हो गये हैं और पाठशाला में हर रोज सुबह यह गीत गाया जायेगा।
आजादी आयी। गाँव-गाँव में नया जोश था। अत्याचार और शोषण से मुक्ति की उम्मीद पूरी होने जा रही थी। वह युग भी अभी तक बड़े बूढ़ों की स्मृति में शेष था जब गोरखों के जमाने में रात-दिन खजाने के भार को ढोने के कारण सिर गंजा हो जाता था फिर भी लोग उनके राज्य से बाहर भागने का सामथ्र्य नहीं जुटा पाते थे। कुमाऊनी कविता के प्रथम ज्ञात हस्ताक्षर लोकरत्न पन्त ’गुमानी’ के शब्दों में
दिन दिन खजाना का भार का बोकणा ले शिव-शिव चुलि में का बाल कैकै न एका।
तदपि मुलुक तेरो छोडि़ क्वे लै नि भाजा इति वदति गुमानी धन्य गोर्खालि राजा।
जब तक शब्द के पीछे पड़ने का चस्का नहीं लगा था तब तक आँख बन्द कर इसे गाता रहता था। कार्यक्रमों के और भद्दी से भद्दी फिल्म के समापन में भी। आज भी इस उम्मीद से गाता रहता हूँ कि क्या पता इसे गाते रहने से भारत के भाग्य विधाताओं या उसके शासकों और प्रशासकों की नीयत कुछ सुधर जाय।
इस गीत की जड़ में गया तो पता चला कि विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित यह गीत पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरमदलीय अधिवेशन (कलकत्ता अधिवेशन 27 दिसंबर 1911) के दूसरे दिन जार्ज पंचम के राज्यारोहण समारोह (दरबार) में स्वागत गीत के रूप में गाया गया था। फलतः कतिपय लोगों ने ’भारत भाग्य विधाता’ शब्द को जार्ज पंचम का प्रतीक मान लिया था।
संभवतः इस गीत की रचना और गायन के अवसर पर उठे विवाद से उद्वेलित टैगोर ने अपने मित्र पुलिन बिहारी घोष को एक पत्र में लिखा था कि “उनके एक मित्र ने, जो सम्राट की सेवा में उच्च अधिकारी भी था, सम्राट के सम्मान में एक गीत की रचना का अनुरोध किया था। इस अनुरोध ने मुझे बहुत उद्वेलित और बेचैन किया और मैंने युग-युगान्तर से भारत के भाग्य को बनाने वाले ( ईश्वर ) को संबोधित कर यह गीत लिखा। यह भाग्य विधाता, या भारत की समग्र चेतना को मार्ग दिखाने वाला, कोई भी ’जार्ज’ नहीं हो सकता। मेरा मित्र, भले ही उसका सम्राट के प्रति कितना ही सम्मान क्यों न हो, इतना विवेकहीन नहीं था कि इस बात को समझता न हो।“
मेरे विचार से जैसे वैदिक मंत्रों के बारे में कहा गया है कि उनके अर्थ को जानने की आवश्यकता नहीं है, उनका जो भी फल मिलने वाला होता है वह उनके उच्चारण मात्र से ही मिल जाता है, वही स्थिति हमारे राष्ट्रगान की भी है। वह किस उपलक्ष में लिखा गया, पहली बार कब गाया गया उसका अर्थ क्या है, इस बारे में अधिक सिर खपाने की आवश्यकता नहीं है। वह हमारे राष्ट्रीय सम्मान और गरिमा का प्रतीक है। हमारा आचरण कैसा है इससे जनगण मन का उसी प्रकार कोई संबंध नहीं है जिस प्रकार विवाह की वेदी पर बैठे वर-वधू, और पंडित को मंत्रों के अर्थ से कोई सरोकार नहीं होता।
शास्त्र जो भी कहे, भारत का भाग्य विधाता है कौन?। यदि ईश्वर है, जैसा कि विवाद उठने पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था तो वह केवल भारत का ही नहीं, पूरे विश्व का यहाँ तक कि समस्त ब्रह्मांड का भाग्य विधाता है। फिर भी क्या पता कि उसके विधान में भारत का कोई स्पेशल कोटा हो! मैं दुनिया के बहुत से देशों को नहीं जानता, पर अमरीका, कनाडा, जापान और ब्रिटेन मैं देख आया हूँ। वहाँ उच्च स्तर पर जो कुछ भी हो आम जीवन पर भाग्य विधाताओं के आचरण का कोई असर नहीं है। वहाँ नियम और कानून हैं और लोग उसका पूरी निष्ठा से पालन करते हैं और पालन करवाया भी जाता है।
अपने प्यारे देश में तो कोई काम करे या न करे, कुर्सी पर कुछ का कोई प्रतीक मात्र लटका हो, यहाँ तक कि हमारे माननीय प्रतिनिधि संसद में प्रश्न करने के लिए भी दक्षिणा संकल्प की अपेक्षा रखते हों, उत्कोच में प्राप्त रुपये को खुदा नहीं तो खुदा से कम भी न समझते हों, अपनी गद्दी बचाये रखने और अपने पोतों और पड़पोतों के लिए भी विपुल धनराशि और सत्ता को बनाये रखने के लिए लगातार जनता को किसी न किसी बहाने विभिन्न जाति वर्गो में विभाजित करने में जुटे हों, जहाँ जाति के नाम पर जनता को बरगलाने के लिए, उनके लिए न्यूनतम सुविधाएँ जुटाने के स्थान पर अरबों रुपये की लागत से अंबेदकर पार्क और लोहियापार्क बनाये जा रहे हों, वोट बैंक को बचाये रखने के लिए सिमी जैसी देशद्रोही संस्था को भी अव्यक्त राजनीतिक संरक्षण दिया जा रहा हो, हमारे प्रभु (नेता) करणीय और अकरणीय सभी कामों को करने में लिप्त हों, जनता उत्कोच को चलता है और उत्पीड़न को भाग्य मान कर चल रही हो, प्रशासकों में मनमानी का ’अखंड प्रताप’ हो, जनता समरथ को नहिं दोष गुसाईं और होई है वहै जो राम रचि राखा पर विश्वास करती हो, इस पर भी देश किसी तरह प्रगति के पथ पर सरक रहा हो, तो लगता है कि सचमुच इस देश का भाग्य विधाता भगवान ही है। अब तो सर्वोंच्च न्यायालय( न्यायमूर्ति बी.एन. अग्रवाल और जी.एस. सिंघवी की खंडपीठ) ने भी मान लिया है कि अगर भारत में भगवान भी उतर आयें तो इस देश को बदल नहीं पायेंगे।
दुर्भाग्य से इस देश के तथाकथित भाग्य विधाताओं का आचरण जन्म से ही कंपायमान या लकवाग्रस्त( जामने बटी कामन’, एक कुमाउनी लोकोक्ति ) रहा है। 1937 में कांग्रेस की प्रथम प्रान्तीय सरकारों में खुले भ्रष्टाचार को देखते हुए गांधी ने कहा था कि वे पूरी कांग्रेस को शानदार ढंग से दफनाने के लिए किसी हद तक जाने के को तैयार हैं। पर आजादी के बाद गांधी के चेलों ने उस बूढ़े की बातों को सुनना ही बन्द कर दिया ।
आजादी के बाद नेहरू सच्चे अर्थ में भारतीय जनगण.मन के अधिनायक थे और एक अर्थ में पहले भाग्य विधाता भी। इस देश ने नेहरू को जितना प्यार दिया, उतना शायद ही किसी नेता को मिल सके। वे किसी भी दिशा में देश को ले जा सकते थे। देश को उन्होंने बहुत कुछ दिया भी। दुनिया भर के झगड़ों से उसे दूर रखने के लिए विदेश नीति को गुट निरपेक्षता का मंत्र दिया। भावी भारत का स्वप्न देखते हुए अनेक महान योजनाओं का समारंभ किया, पर कहीं न कहीं अंग्रेजियत के प्रति उनके अतिशय प्रेम और अपने भ्रष्ट साथियों को हर हाल में बचाने की प्रवृत्ति ने जो परंपरा डाली उसका दुष्प्रभाव पीढि़यों तक भारतीय संतति को भोगना पडे़गा। कितने घोटालों की ओर से उन्होंने आँख मूँदी, कितने घोटालों में उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की भी अवमानना की यह छिपा हुआ नहीं है। आजादी के एक साल बाद ही उनके परम मित्र कृष्णा मैनन ने सेना के लिए जीपों की खरीद में घोटाला किया। अनन्तशयनम आयंगर समिति द्वारा न्यायिक जाँच की संस्तुति के बाद भी नेहरू ने इस प्रकरण को बन्द कर, मैनन को मंत्रिमंडल में विना विभाग के मंत्री का पुरस्कार दे दिया। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरो के बारे में सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिकूल टिप्पणी के बारे में प्रतिपक्ष द्वारा मुख्यमंत्री के त्यागपत्र की माँग के संदर्भ में तो नेहरू ने साफ कह दिया कि जब तक मुख्यमंत्री को विधान मंडल के बहुमत का समर्थन प्राप्त है, सर्वोच्च न्यायालय या भगवान भी कहे तो उन्हें हटाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
1950 में ही भारत सरकार द्वारा प्रशासनिक सुधार के लिए संस्तुति देने हेतु नियुक्त ए.डी गोरेवाला ने टिप्पणी की थी कि “सब जानते हैं कि नेहरू मंत्रिमंडल के बहुत से सदस्य भ्रष्ट हैं पर ऐसे मंत्रियों को संरक्षण देने में सरकार ने अपनी सीमा का भी उल्लंघन किया है।“
एक संवेदनशील व्यक्ति की साथियों के भ्रष्टाचार के प्रति नरमी और मनमाने निर्णय के कारण इस देश में भ्रष्टाचार को पनपाने में कम सहयोग नहीं दिया। एक ओर जहाँ वे नये भारत के नवनिर्माण के श्रेष्ठतम सूत्रधार हैं वहीं उनके भावुक और मनमाने निर्णयों ने देश को अनेक जटिल समस्याएँ भी दीं। आज से पचास साल बाद लिखा जाने वाला इतिहास तटस्थ होकर उसकी समीक्षा करेगा, जो वह आज विभिन्न प्रकार के दबावों और प्रतिबद्धताओं के कारण नहीं कर पा रहा है।
यह भी सत्य है कि उनके भ्रष्ट साथियों के अलावा उस जमाने में उनके अनेक महान साथी थे, जो सच्चे अर्थों में देशभक्त और निस्पृह जन सेवक थे। चाहे वह सरकारी साधनों को केवल सरकार के कार्य के लिए ही प्रयोग करने वाले राजर्षि पुरुषोत्तम टंडन हों, या अपने पीछे हजारों रुपये का कर्ज छोड़ कर संसार से विदा लेने वाले भारत सरकार के तत्कालीन खाद्यमंत्री रफी अहमद किदवई या गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री। केवल ये ही लोग नहीं थे अनेक अनाम लोग भी थे जो केवल राष्ट्र के प्रति समर्पित थे तथा निस्वार्थ भाव से ग्राम स्वराज्य के निर्माण में लगे थे।
तब वंशवाद नहीं था। उनके मरने के बाद ही कांग्रेस को विघटन से बचाये रखने के लिए नेहरू वंश के उद्भव के साथ नये सामन्तवाद का उदय हुआ। उनकी पुत्री ने प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष दोनों पदों को अधिगृहीत करते हुए देश में धनशक्ति और निरंकुशता को बढ़ावा दिया। नेहरू अपनी आलोचना सह सकते थे पर उनकी पुत्री के लिए यह असह्य था। उनका अधिनायकी प्रवृत्ति वाला मनचला बेटा, जो असमय कालकवलित हो गया, नेताओं के लिए उनसे भी अधिक शरणीय था। देह और वेश से अत्यंत धवल नेता उनकी चरण पादुकाओं को शिरोधार्य करने में भरत से अपनी तुलना करने में पीछे नहीं थे।
बचपन के आरंभिक दिन। गुलामी की जंजीरों में जकड़ा भारत। इन जंजीरों को तोड़ने के लिए आतुर जनगण। विद्यालय की प्रातःकालीन प्रार्थना में ईश्वर से प्रार्थना करते प्राथमिक विद्यालयों के बच्चे - यशस्वी रहें हे प्रभो! हे मुरारे! चिरंजीव राजा व रानी हमारे।
पता नहीं भारतीय संतति कब से यह गीत गा रही थी ?
दूसरी ओर विद्यालय से बाहर निकलते ही बच्चों के समूह गाने लगते थे- कदम-कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा, ये जिन्दगी है कौम की, तू कौम पै लुटाये जा। हम नहीं जानते थे कि आजादी का मतलब क्या है, पर आजादी के लिए जेल जाते युवाओं को देख कर हम भी वन्दे मातरम्, सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा और इनकलाब जिन्दबाद गाने लगे थे। हमारे इस प्रकार के गानों को सुन कर दादा और दादी की पीढ़ी को डर भी लगता था कि कहीं पटवारी पकड़ न ले जाय!
एक दिन इन गानों के स्थान पर एक नया गीत गाया जाने लगा- जनगण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता...। कहा गया अब हम आजाद हो गये हैं और पाठशाला में हर रोज सुबह यह गीत गाया जायेगा।
आजादी आयी। गाँव-गाँव में नया जोश था। अत्याचार और शोषण से मुक्ति की उम्मीद पूरी होने जा रही थी। वह युग भी अभी तक बड़े बूढ़ों की स्मृति में शेष था जब गोरखों के जमाने में रात-दिन खजाने के भार को ढोने के कारण सिर गंजा हो जाता था फिर भी लोग उनके राज्य से बाहर भागने का सामथ्र्य नहीं जुटा पाते थे। कुमाऊनी कविता के प्रथम ज्ञात हस्ताक्षर लोकरत्न पन्त ’गुमानी’ के शब्दों में
दिन दिन खजाना का भार का बोकणा ले शिव-शिव चुलि में का बाल कैकै न एका।
तदपि मुलुक तेरो छोडि़ क्वे लै नि भाजा इति वदति गुमानी धन्य गोर्खालि राजा।
जब तक शब्द के पीछे पड़ने का चस्का नहीं लगा था तब तक आँख बन्द कर इसे गाता रहता था। कार्यक्रमों के और भद्दी से भद्दी फिल्म के समापन में भी। आज भी इस उम्मीद से गाता रहता हूँ कि क्या पता इसे गाते रहने से भारत के भाग्य विधाताओं या उसके शासकों और प्रशासकों की नीयत कुछ सुधर जाय।
इस गीत की जड़ में गया तो पता चला कि विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित यह गीत पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरमदलीय अधिवेशन (कलकत्ता अधिवेशन 27 दिसंबर 1911) के दूसरे दिन जार्ज पंचम के राज्यारोहण समारोह (दरबार) में स्वागत गीत के रूप में गाया गया था। फलतः कतिपय लोगों ने ’भारत भाग्य विधाता’ शब्द को जार्ज पंचम का प्रतीक मान लिया था।
संभवतः इस गीत की रचना और गायन के अवसर पर उठे विवाद से उद्वेलित टैगोर ने अपने मित्र पुलिन बिहारी घोष को एक पत्र में लिखा था कि “उनके एक मित्र ने, जो सम्राट की सेवा में उच्च अधिकारी भी था, सम्राट के सम्मान में एक गीत की रचना का अनुरोध किया था। इस अनुरोध ने मुझे बहुत उद्वेलित और बेचैन किया और मैंने युग-युगान्तर से भारत के भाग्य को बनाने वाले ( ईश्वर ) को संबोधित कर यह गीत लिखा। यह भाग्य विधाता, या भारत की समग्र चेतना को मार्ग दिखाने वाला, कोई भी ’जार्ज’ नहीं हो सकता। मेरा मित्र, भले ही उसका सम्राट के प्रति कितना ही सम्मान क्यों न हो, इतना विवेकहीन नहीं था कि इस बात को समझता न हो।“
मेरे विचार से जैसे वैदिक मंत्रों के बारे में कहा गया है कि उनके अर्थ को जानने की आवश्यकता नहीं है, उनका जो भी फल मिलने वाला होता है वह उनके उच्चारण मात्र से ही मिल जाता है, वही स्थिति हमारे राष्ट्रगान की भी है। वह किस उपलक्ष में लिखा गया, पहली बार कब गाया गया उसका अर्थ क्या है, इस बारे में अधिक सिर खपाने की आवश्यकता नहीं है। वह हमारे राष्ट्रीय सम्मान और गरिमा का प्रतीक है। हमारा आचरण कैसा है इससे जनगण मन का उसी प्रकार कोई संबंध नहीं है जिस प्रकार विवाह की वेदी पर बैठे वर-वधू, और पंडित को मंत्रों के अर्थ से कोई सरोकार नहीं होता।
शास्त्र जो भी कहे, भारत का भाग्य विधाता है कौन?। यदि ईश्वर है, जैसा कि विवाद उठने पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था तो वह केवल भारत का ही नहीं, पूरे विश्व का यहाँ तक कि समस्त ब्रह्मांड का भाग्य विधाता है। फिर भी क्या पता कि उसके विधान में भारत का कोई स्पेशल कोटा हो! मैं दुनिया के बहुत से देशों को नहीं जानता, पर अमरीका, कनाडा, जापान और ब्रिटेन मैं देख आया हूँ। वहाँ उच्च स्तर पर जो कुछ भी हो आम जीवन पर भाग्य विधाताओं के आचरण का कोई असर नहीं है। वहाँ नियम और कानून हैं और लोग उसका पूरी निष्ठा से पालन करते हैं और पालन करवाया भी जाता है।
अपने प्यारे देश में तो कोई काम करे या न करे, कुर्सी पर कुछ का कोई प्रतीक मात्र लटका हो, यहाँ तक कि हमारे माननीय प्रतिनिधि संसद में प्रश्न करने के लिए भी दक्षिणा संकल्प की अपेक्षा रखते हों, उत्कोच में प्राप्त रुपये को खुदा नहीं तो खुदा से कम भी न समझते हों, अपनी गद्दी बचाये रखने और अपने पोतों और पड़पोतों के लिए भी विपुल धनराशि और सत्ता को बनाये रखने के लिए लगातार जनता को किसी न किसी बहाने विभिन्न जाति वर्गो में विभाजित करने में जुटे हों, जहाँ जाति के नाम पर जनता को बरगलाने के लिए, उनके लिए न्यूनतम सुविधाएँ जुटाने के स्थान पर अरबों रुपये की लागत से अंबेदकर पार्क और लोहियापार्क बनाये जा रहे हों, वोट बैंक को बचाये रखने के लिए सिमी जैसी देशद्रोही संस्था को भी अव्यक्त राजनीतिक संरक्षण दिया जा रहा हो, हमारे प्रभु (नेता) करणीय और अकरणीय सभी कामों को करने में लिप्त हों, जनता उत्कोच को चलता है और उत्पीड़न को भाग्य मान कर चल रही हो, प्रशासकों में मनमानी का ’अखंड प्रताप’ हो, जनता समरथ को नहिं दोष गुसाईं और होई है वहै जो राम रचि राखा पर विश्वास करती हो, इस पर भी देश किसी तरह प्रगति के पथ पर सरक रहा हो, तो लगता है कि सचमुच इस देश का भाग्य विधाता भगवान ही है। अब तो सर्वोंच्च न्यायालय( न्यायमूर्ति बी.एन. अग्रवाल और जी.एस. सिंघवी की खंडपीठ) ने भी मान लिया है कि अगर भारत में भगवान भी उतर आयें तो इस देश को बदल नहीं पायेंगे।
दुर्भाग्य से इस देश के तथाकथित भाग्य विधाताओं का आचरण जन्म से ही कंपायमान या लकवाग्रस्त( जामने बटी कामन’, एक कुमाउनी लोकोक्ति ) रहा है। 1937 में कांग्रेस की प्रथम प्रान्तीय सरकारों में खुले भ्रष्टाचार को देखते हुए गांधी ने कहा था कि वे पूरी कांग्रेस को शानदार ढंग से दफनाने के लिए किसी हद तक जाने के को तैयार हैं। पर आजादी के बाद गांधी के चेलों ने उस बूढ़े की बातों को सुनना ही बन्द कर दिया ।
आजादी के बाद नेहरू सच्चे अर्थ में भारतीय जनगण.मन के अधिनायक थे और एक अर्थ में पहले भाग्य विधाता भी। इस देश ने नेहरू को जितना प्यार दिया, उतना शायद ही किसी नेता को मिल सके। वे किसी भी दिशा में देश को ले जा सकते थे। देश को उन्होंने बहुत कुछ दिया भी। दुनिया भर के झगड़ों से उसे दूर रखने के लिए विदेश नीति को गुट निरपेक्षता का मंत्र दिया। भावी भारत का स्वप्न देखते हुए अनेक महान योजनाओं का समारंभ किया, पर कहीं न कहीं अंग्रेजियत के प्रति उनके अतिशय प्रेम और अपने भ्रष्ट साथियों को हर हाल में बचाने की प्रवृत्ति ने जो परंपरा डाली उसका दुष्प्रभाव पीढि़यों तक भारतीय संतति को भोगना पडे़गा। कितने घोटालों की ओर से उन्होंने आँख मूँदी, कितने घोटालों में उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की भी अवमानना की यह छिपा हुआ नहीं है। आजादी के एक साल बाद ही उनके परम मित्र कृष्णा मैनन ने सेना के लिए जीपों की खरीद में घोटाला किया। अनन्तशयनम आयंगर समिति द्वारा न्यायिक जाँच की संस्तुति के बाद भी नेहरू ने इस प्रकरण को बन्द कर, मैनन को मंत्रिमंडल में विना विभाग के मंत्री का पुरस्कार दे दिया। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरो के बारे में सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिकूल टिप्पणी के बारे में प्रतिपक्ष द्वारा मुख्यमंत्री के त्यागपत्र की माँग के संदर्भ में तो नेहरू ने साफ कह दिया कि जब तक मुख्यमंत्री को विधान मंडल के बहुमत का समर्थन प्राप्त है, सर्वोच्च न्यायालय या भगवान भी कहे तो उन्हें हटाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
1950 में ही भारत सरकार द्वारा प्रशासनिक सुधार के लिए संस्तुति देने हेतु नियुक्त ए.डी गोरेवाला ने टिप्पणी की थी कि “सब जानते हैं कि नेहरू मंत्रिमंडल के बहुत से सदस्य भ्रष्ट हैं पर ऐसे मंत्रियों को संरक्षण देने में सरकार ने अपनी सीमा का भी उल्लंघन किया है।“
एक संवेदनशील व्यक्ति की साथियों के भ्रष्टाचार के प्रति नरमी और मनमाने निर्णय के कारण इस देश में भ्रष्टाचार को पनपाने में कम सहयोग नहीं दिया। एक ओर जहाँ वे नये भारत के नवनिर्माण के श्रेष्ठतम सूत्रधार हैं वहीं उनके भावुक और मनमाने निर्णयों ने देश को अनेक जटिल समस्याएँ भी दीं। आज से पचास साल बाद लिखा जाने वाला इतिहास तटस्थ होकर उसकी समीक्षा करेगा, जो वह आज विभिन्न प्रकार के दबावों और प्रतिबद्धताओं के कारण नहीं कर पा रहा है।
यह भी सत्य है कि उनके भ्रष्ट साथियों के अलावा उस जमाने में उनके अनेक महान साथी थे, जो सच्चे अर्थों में देशभक्त और निस्पृह जन सेवक थे। चाहे वह सरकारी साधनों को केवल सरकार के कार्य के लिए ही प्रयोग करने वाले राजर्षि पुरुषोत्तम टंडन हों, या अपने पीछे हजारों रुपये का कर्ज छोड़ कर संसार से विदा लेने वाले भारत सरकार के तत्कालीन खाद्यमंत्री रफी अहमद किदवई या गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री। केवल ये ही लोग नहीं थे अनेक अनाम लोग भी थे जो केवल राष्ट्र के प्रति समर्पित थे तथा निस्वार्थ भाव से ग्राम स्वराज्य के निर्माण में लगे थे।
तब वंशवाद नहीं था। उनके मरने के बाद ही कांग्रेस को विघटन से बचाये रखने के लिए नेहरू वंश के उद्भव के साथ नये सामन्तवाद का उदय हुआ। उनकी पुत्री ने प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष दोनों पदों को अधिगृहीत करते हुए देश में धनशक्ति और निरंकुशता को बढ़ावा दिया। नेहरू अपनी आलोचना सह सकते थे पर उनकी पुत्री के लिए यह असह्य था। उनका अधिनायकी प्रवृत्ति वाला मनचला बेटा, जो असमय कालकवलित हो गया, नेताओं के लिए उनसे भी अधिक शरणीय था। देह और वेश से अत्यंत धवल नेता उनकी चरण पादुकाओं को शिरोधार्य करने में भरत से अपनी तुलना करने में पीछे नहीं थे।
यह सत्य है कि इन्दिरा गांधी एक शक्तिशाली नेता के रूप में उभरीं। उन्होंने बैंकों के राष्ट्रीयकरण और देशी शासकों के प्रिवीपर्स को समाप्त करने जैसे कठोर कदम उठाये। पाकिस्तान को तोड़कर बांग्लादेश का गठन करवाया लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अपने विरुद्ध दिये गये निर्णय से आक्रोशित होकर उन्होंने न केवल अपनी सत्ता को बचाये रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को भी अपनी जेब में डाल दिया अपितु 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा कर देश के अधिकतर प्रतिपक्षी नेताओं को जेल मंे डाल दिया। यह उनका खुला अधिकनायकवाद था। आपात्काल के दौरान जनता ने जो पीड़ा भोगी, उसका उत्तर उसने 1977 में उनके दल को बुरी तरह से पराजित कर दिया। उनकी तथा उनके पुत्र की जमानत भी नहीं बची।
यही वह मोड़ था जिसने देश के भावी नेताओं की, वोट.बैंक की परवाह किये बिना तटस्थ रूप से कठोर निर्णय लेने की, हिम्मत को ही खत्म कर दिया।
1980 के बाद देश में छोटे क्षेत्रीय दलों के उदय के बाद अस्तित्व रक्षा के लिए अनेक जोड़-तोड़ करने वाले और मात्र गद्दी बचाने के लिए अपने कमंडल से मंडल आयोग के जिन्न को जगा देने वाले वी.पी सिंह और सांसदों को घूस देकर अपने अल्पमत को बहुमत में बदल देने वाले नरसिंह महाराज की कृपा से अपने निहित स्वार्थो के लिए बिक जाने वाले भाग्य विधाताओं (जन प्रतिनिधियों) की बाढ़ सी आ गयी। यहीं से भारत का तेजी से नैतिक अधःपतन शुरू हुआ।
1990 के दशक में बोफोर्स और पनडुब्बी घोटाला, हवाला कांड, चारा घोटाला, जैसे अनेक घोटाले प्रकाश में आये। अनेक मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर इन घोटालों में सम्मिलित होने का आरोप लगा। कुछ बड़े नौकरशाहों पर, जिनमें कुछ पुलिस महानिदेशक और मुख्य सचिव स्तर के पदाधिकारी भी थे, अपने पद के दुरुपयोग के मुकदमे चले। एक के बाद एक तहलका कांड, मुबई स्टाक एक्सचेंज में हुए अनेक कांडों, नगर सहकारी बैक और यूनियन कोआपरेटिव बैंक कांडों, तेलगी स्टांप कांड उभरते चले गये।
वास्तविकता यह है कि नैतिक मूल्यों और तंत्र के बीच संघर्ष ने भारतीय राजनीति को कमजोर कर दिया है। शासन में हावी वर्ग का सामन्ती दृष्टिकोण, किसी भी व्यक्ति की अपने हित के लिए नियम और कानूनों को ताक पर रख देने की क्षमता से उसके सामाजिक स्तर की पहचान के कारण समाज में भ्रष्टाचार को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता। भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ निमग्न अधिकतर नेताओं को व्यापक जन.समर्थन प्राप्त है। पारदर्शिता, संवेदनशीलता, उत्तरदायिता, सुशासन, और सार्वजनिक कार्यो में शुचिता केवल नारों में ही शेष रह गये हैं।
सामान्यतः भ्रष्टाचार का मूल किसी भी देश की नीतियों, नौकरशाही की परंपराओं, राजनीतिक विकास और सामाजिक इतिहास में निहित होता हैं। इनके साथ ही राजनीतिक संरक्षण, अनन्तकाल तक चलने वाली ढीली-ढाली, खर्चीली और संशयग्रस्त न्याय व्यवस्था के कारण समय पर दंड के अभाव के कारण इसमें इतने छिद्र हो गये हैं कि उनसे समर्थ तो दोषमुक्त होकर निकल जाते हैं पर असमर्थ, जिनमें अधिकतर मात्र चाय-पानी की कामना करने वाले दरिद्र या मुट्ठी गरम न कर सकने वाले लोग होते हैं, बिना अपराध प्रायः निर्णय होने तक वर्षों तक कारागारों में सड़ते हैं या गोलोकवासी हो जाते हैं। इसलिए समाज में यह न्यूनतम हानि और परम लाभकारी व्यवसाय माना जाने लगा है।
राजनीति का अपराधीकरण भारत के भाग्य विधाताओं का दूसरा रूप है जिसके प्रताप से पूरे देश में सरकारी तंत्र की सार्थकता समाप्त करने वाले माफिया तंत्र की समानान्तर सरकार चल रही है। ये विधाता अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। विविध हथियार बन्द सेनाएँ, दवा मफिया, तस्कर और आर्थिक दलाल और अनेक नरमेध करने में समर्थ दादा इनमें प्रमुख हैं। राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं स्थानीय स्तर पर भी राजनेता, मंत्री, तंत्री, समाचार और प्रचार के नारद, अन्य तंत्रेतर महाकर्मी इनकी लीला के अधीन हैं। इन में तो कुछ का प्रभाव देश देशान्तरों तक व्याप्त है।
हमारी व्यवस्था का चौथा भाग्य विधाता या मीडिया, दावतों और उपहारों के स्तर के आधार पर समाचारों का निर्धारण करता है। कब किसकी इज्जत उछाल दे कहा नहीं जा सकता।
भारतीय प्रजातंत्र के भाग्य विधाता इन पाँच साला अधिनायकों और उनके राजभृत्यों ने आर्थिक प्रगति, जिसे सही अर्थो में बड़े व्यापारिक घरानों और उच्च मध्यम वर्ग की उत्तरोत्तर वृद्धि कहा जा सकता है, के बावजूद देश की नैतिक दुर्दशा कर दी है। पूरा प्रशासन तंत्र आज अर्द्धचेतना अवस्था में है। भारतीय समाज के एक बड़ा समूह भस्मासुरों (अलगाववादियों) के मकड़जाल में है। अब खतरा बाहर से उतना नहीं है जितना भीतर से है। भारत के भाग्य विधाता बने ये अधिनायक आम जनता की आर्थिक स्थिति सुधारने और उनकी जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी करने के स्थान पर नव सामन्तवाद को बढ़ाने के साथ-साथ सांप्रदायिक और जातीय उन्माद फैलाते हैं।
सच पूछें तो आज भारत सच्चे अर्थों में गणतंत्र है। यहाँ हर प्रभावशाली व्यक्ति गण पालता है। को भारतीय परंपरा में गणों को सदा विघ्नकारी, विविध रूपधारी और संत्रासकारी माना गया है। इसीलिए हर धार्मिक कार्य के आरंभ में उनके अधिपति गणेश की वन्दना की जाती है- निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा। यही नहीं तैत्तरीय संहिता के रुद्रस्तवन (पार्थिव पूजा) के ’नामकः’ मंत्रों में उनके पिता भी, जिन्हें हमारे आज के बहुत से जन नेताओं की तरह रुद्र (भयानक), स्तेनानां और स्तायूनाम पति (चोरों का स्वामी), तस्कराणांपति, मुष्णतांपति ( सैंध लगाने वालों का स्वामी) कहा गया है, महाविनाशक शक्तियों से युक्त हैं। ऐसा माना जाता रहा है कि किसी तरह पटा लिये जाने पर वे भला न भी करें, कम से कम अहित तो नहीं करेंगे। आर्य भी उनके आतंक से भयभीत रहे हैं। उनकी यह चीख पुकार रुद्र मंत्रों में व्याप्त है। इन मंत्रों में वे बार.बार रुद्र से मेरे पुत्रों को मत मार, मेरे पशुओं को मत मार, अपने बाणों की दिशा दूसरी ओर कर ले, अपने सम्मोहन का जाल मत फैला, आदि चिल्लाते हुए मिलते हैं। यही हाल आज हमारे देश की आम जनता का भी है।
वस्तुतः भारतीय राजनीति के इन गणों या तथाकथित भाग्य विधाताओं की शक्ति हमारे भय और भ्रान्तियों मे निहित है। जब तक हम भय, अनाचार, अत्याचार, प्रलोभन भरे छलावों, जाति और संप्रदायों के व्यामोह से निकल कर इनका सामना करने के लिए खड़े नहीं होते, फूट डालो और राज करो की नीति पर चलने वाले, प्रजातंत्र का मुखौटा ओढ़े इन अनैतिक और बर्बर अधिनायकों के चंगुल से नहीं निकल सकते।
यही वह मोड़ था जिसने देश के भावी नेताओं की, वोट.बैंक की परवाह किये बिना तटस्थ रूप से कठोर निर्णय लेने की, हिम्मत को ही खत्म कर दिया।
1980 के बाद देश में छोटे क्षेत्रीय दलों के उदय के बाद अस्तित्व रक्षा के लिए अनेक जोड़-तोड़ करने वाले और मात्र गद्दी बचाने के लिए अपने कमंडल से मंडल आयोग के जिन्न को जगा देने वाले वी.पी सिंह और सांसदों को घूस देकर अपने अल्पमत को बहुमत में बदल देने वाले नरसिंह महाराज की कृपा से अपने निहित स्वार्थो के लिए बिक जाने वाले भाग्य विधाताओं (जन प्रतिनिधियों) की बाढ़ सी आ गयी। यहीं से भारत का तेजी से नैतिक अधःपतन शुरू हुआ।
1990 के दशक में बोफोर्स और पनडुब्बी घोटाला, हवाला कांड, चारा घोटाला, जैसे अनेक घोटाले प्रकाश में आये। अनेक मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर इन घोटालों में सम्मिलित होने का आरोप लगा। कुछ बड़े नौकरशाहों पर, जिनमें कुछ पुलिस महानिदेशक और मुख्य सचिव स्तर के पदाधिकारी भी थे, अपने पद के दुरुपयोग के मुकदमे चले। एक के बाद एक तहलका कांड, मुबई स्टाक एक्सचेंज में हुए अनेक कांडों, नगर सहकारी बैक और यूनियन कोआपरेटिव बैंक कांडों, तेलगी स्टांप कांड उभरते चले गये।
वास्तविकता यह है कि नैतिक मूल्यों और तंत्र के बीच संघर्ष ने भारतीय राजनीति को कमजोर कर दिया है। शासन में हावी वर्ग का सामन्ती दृष्टिकोण, किसी भी व्यक्ति की अपने हित के लिए नियम और कानूनों को ताक पर रख देने की क्षमता से उसके सामाजिक स्तर की पहचान के कारण समाज में भ्रष्टाचार को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता। भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ निमग्न अधिकतर नेताओं को व्यापक जन.समर्थन प्राप्त है। पारदर्शिता, संवेदनशीलता, उत्तरदायिता, सुशासन, और सार्वजनिक कार्यो में शुचिता केवल नारों में ही शेष रह गये हैं।
सामान्यतः भ्रष्टाचार का मूल किसी भी देश की नीतियों, नौकरशाही की परंपराओं, राजनीतिक विकास और सामाजिक इतिहास में निहित होता हैं। इनके साथ ही राजनीतिक संरक्षण, अनन्तकाल तक चलने वाली ढीली-ढाली, खर्चीली और संशयग्रस्त न्याय व्यवस्था के कारण समय पर दंड के अभाव के कारण इसमें इतने छिद्र हो गये हैं कि उनसे समर्थ तो दोषमुक्त होकर निकल जाते हैं पर असमर्थ, जिनमें अधिकतर मात्र चाय-पानी की कामना करने वाले दरिद्र या मुट्ठी गरम न कर सकने वाले लोग होते हैं, बिना अपराध प्रायः निर्णय होने तक वर्षों तक कारागारों में सड़ते हैं या गोलोकवासी हो जाते हैं। इसलिए समाज में यह न्यूनतम हानि और परम लाभकारी व्यवसाय माना जाने लगा है।
राजनीति का अपराधीकरण भारत के भाग्य विधाताओं का दूसरा रूप है जिसके प्रताप से पूरे देश में सरकारी तंत्र की सार्थकता समाप्त करने वाले माफिया तंत्र की समानान्तर सरकार चल रही है। ये विधाता अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। विविध हथियार बन्द सेनाएँ, दवा मफिया, तस्कर और आर्थिक दलाल और अनेक नरमेध करने में समर्थ दादा इनमें प्रमुख हैं। राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं स्थानीय स्तर पर भी राजनेता, मंत्री, तंत्री, समाचार और प्रचार के नारद, अन्य तंत्रेतर महाकर्मी इनकी लीला के अधीन हैं। इन में तो कुछ का प्रभाव देश देशान्तरों तक व्याप्त है।
हमारी व्यवस्था का चौथा भाग्य विधाता या मीडिया, दावतों और उपहारों के स्तर के आधार पर समाचारों का निर्धारण करता है। कब किसकी इज्जत उछाल दे कहा नहीं जा सकता।
भारतीय प्रजातंत्र के भाग्य विधाता इन पाँच साला अधिनायकों और उनके राजभृत्यों ने आर्थिक प्रगति, जिसे सही अर्थो में बड़े व्यापारिक घरानों और उच्च मध्यम वर्ग की उत्तरोत्तर वृद्धि कहा जा सकता है, के बावजूद देश की नैतिक दुर्दशा कर दी है। पूरा प्रशासन तंत्र आज अर्द्धचेतना अवस्था में है। भारतीय समाज के एक बड़ा समूह भस्मासुरों (अलगाववादियों) के मकड़जाल में है। अब खतरा बाहर से उतना नहीं है जितना भीतर से है। भारत के भाग्य विधाता बने ये अधिनायक आम जनता की आर्थिक स्थिति सुधारने और उनकी जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी करने के स्थान पर नव सामन्तवाद को बढ़ाने के साथ-साथ सांप्रदायिक और जातीय उन्माद फैलाते हैं।
सच पूछें तो आज भारत सच्चे अर्थों में गणतंत्र है। यहाँ हर प्रभावशाली व्यक्ति गण पालता है। को भारतीय परंपरा में गणों को सदा विघ्नकारी, विविध रूपधारी और संत्रासकारी माना गया है। इसीलिए हर धार्मिक कार्य के आरंभ में उनके अधिपति गणेश की वन्दना की जाती है- निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा। यही नहीं तैत्तरीय संहिता के रुद्रस्तवन (पार्थिव पूजा) के ’नामकः’ मंत्रों में उनके पिता भी, जिन्हें हमारे आज के बहुत से जन नेताओं की तरह रुद्र (भयानक), स्तेनानां और स्तायूनाम पति (चोरों का स्वामी), तस्कराणांपति, मुष्णतांपति ( सैंध लगाने वालों का स्वामी) कहा गया है, महाविनाशक शक्तियों से युक्त हैं। ऐसा माना जाता रहा है कि किसी तरह पटा लिये जाने पर वे भला न भी करें, कम से कम अहित तो नहीं करेंगे। आर्य भी उनके आतंक से भयभीत रहे हैं। उनकी यह चीख पुकार रुद्र मंत्रों में व्याप्त है। इन मंत्रों में वे बार.बार रुद्र से मेरे पुत्रों को मत मार, मेरे पशुओं को मत मार, अपने बाणों की दिशा दूसरी ओर कर ले, अपने सम्मोहन का जाल मत फैला, आदि चिल्लाते हुए मिलते हैं। यही हाल आज हमारे देश की आम जनता का भी है।
वस्तुतः भारतीय राजनीति के इन गणों या तथाकथित भाग्य विधाताओं की शक्ति हमारे भय और भ्रान्तियों मे निहित है। जब तक हम भय, अनाचार, अत्याचार, प्रलोभन भरे छलावों, जाति और संप्रदायों के व्यामोह से निकल कर इनका सामना करने के लिए खड़े नहीं होते, फूट डालो और राज करो की नीति पर चलने वाले, प्रजातंत्र का मुखौटा ओढ़े इन अनैतिक और बर्बर अधिनायकों के चंगुल से नहीं निकल सकते।
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