इधर दिल्ली के बाहर के कई मित्रों से बात तो ऐसा लगा कि उन्हें जेएनयू को लेकर चल रहे हंगामे के बारे में आधी-अधूरी और भ्रामक जानकारी है। अधिकांश लोग यह मान बैठे हैं तो 9 फरवरी को एक लेफ्ट छात्र संगठन की ओर से कार्यक्रम हुआ, जिसमें जेएनयू छात्र संगठन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उनके साथियों ने 'भारत मुर्दाबाद', 'पाकिस्तान जिंदाबाद', 'भारत को बर्बाद करेंगे' और 'कश्मीर को आजादी दो' जैसे नारे लगाए।
तथ्य यह नहीं है।
घटनाक्रम इस प्रकार हुआ :
- एक लेफ्ट छात्र संगठन का सदस्यत रहे कुछ छात्र-छात्राओं ने एक पोस्टर जारी किया, जिसमें 'ब्राह्मणवादी सामूहिक चेतना' को संतुष्ट करने के लिए अफजल गुरू और मकबूल भटट की 'न्यायिक हत्या' के विरोध मेंं 'सांस्कृतिक संध्या' के आयोजन की सूचना दी गयी। (अटैच पोस्टर देखें)। पोस्टर में यह भी कहा गया कि वे कश्मीरी लोगों के संघर्ष में साथ् हैं तथा उन्हें 'आत्म् निर्णय' का अधिकार मिलना चाहिए। यह आयोजन 9 फरवरी को जेएनयू के साबरमती ढाबा ग्राऊंड में शाम पांच बजे रखा गया। आयोजन में मुख्य रूप से कविता पाठ होना था तथा गीत गाये जाने थे।
- एक लेफ्ट छात्र संगठन का सदस्यत रहे कुछ छात्र-छात्राओं ने एक पोस्टर जारी किया, जिसमें 'ब्राह्मणवादी सामूहिक चेतना' को संतुष्ट करने के लिए अफजल गुरू और मकबूल भटट की 'न्यायिक हत्या' के विरोध मेंं 'सांस्कृतिक संध्या' के आयोजन की सूचना दी गयी। (अटैच पोस्टर देखें)। पोस्टर में यह भी कहा गया कि वे कश्मीरी लोगों के संघर्ष में साथ् हैं तथा उन्हें 'आत्म् निर्णय' का अधिकार मिलना चाहिए। यह आयोजन 9 फरवरी को जेएनयू के साबरमती ढाबा ग्राऊंड में शाम पांच बजे रखा गया। आयोजन में मुख्य रूप से कविता पाठ होना था तथा गीत गाये जाने थे।
- इस आयोजन के खिलाफ एबीवीपी ने कुलपति को शिकायत की तथा आयोजन के समय उसका विरोध करने के लिए उसके लगभग 100 छात्र पहुंच गये। इस बीच कुछ धक्का मुक्की भी हुई। लेकिन कार्यक्रम चलता रहा।
- इसी समय 5-6 लडके मुंह पर रूमाल बांधे आए (जिनके बारे में कहा जा रहा है कि वे जेएनयू के ही कशमीरी छात्र थे) और उन्होंने इस आयोजन से थोडी दूर पर एक अंधेरे कोने में नारा लगाय 'गो इंडिया, गो बैक', 'कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी, भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी'। शब्दश: यही नारे थे। ये नारे वे तीन चार बार ही बोल पाए कि आयोजकों ने उन्हें रोक दिया गया। 'भारत मुर्दाबाद' और 'पाकिस्तान मुर्दाबाद' जैसा कोई नारा वहां मौजूद किसी व्यक्ति ने सुनने का दावा नहीं किया है। हां, इधर एक विडियो जरूर सामने आया है,जिसके बारे में कहा जा रहा है कि एवीवीपी के लोगों ने खुद ही ये नारे शायद आयोजन वाले ग्राऊंड के किसी दूसरे कोने पर जाकर खुद ही लगाए। 'कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा' वाला नारा शायद किसी और आयोजन का है। वैसे भी उस नारे का आश्य यह रहा है कि इन हत्याओं से क्या हासिल होगा, हालात बदलने होंगे। मुसलमान युवाओं को उस दिशा में जाने से रोकना होगा। उनका घेटोकरण बंद करना होगा।
- उपरोक्त् कार्यक्रम के बाद एवीबीपी ने इसके खिलाफ वसंत कुंज थाने में एक शिकायत उसी दिन (9 फरवरी को ही) की। अगले दिन वे भाजापा सांसद महेश गिरी से मिले। महेश गिरी ने 11 फरवरी को इसके खिलाफ एक शिकायत दी, जिसके आधार पर पुलिस ने एफआईआर दर्ज की।
- इसी बीच 10 फरवरी को एबीवीपी छात्रों द्वारा उपरोक्त आयोजन में विध्न पैदा करने तथा 'गुंडागर्दी' करने के खिलाफ भी एक सभा हुई, जिसमें कन्हेैया ने भाषण दिया तथा 'आजादी' वाला नारा लगाया। यह नारा क्या है, इसे भी शायद कई लोग नहीं जानते। यह एक गीतनुमा नारा है, जो काफी देर तक चलता है तथा जेएनयू के विद्यार्थी अपने लगभग सभी आयोजनों में इसे लगाते है। इस लंंबे, बेहद आकर्ष्क और मानवीयता से भरपूर नारे को इस प्रकार लिखित शब्दों में व्यक्त् करना बडा कठिन है। उसके आस्वाद को आप सुनकर ही ग्रहण कर सकते हैं। उसका एक विडियो लिंक नीचे कमेंट में दे रहा हूं। इस नारे में 'पितृसत्ता से आजादी' की बात है, 'शादी करने और न करने की आजादी' की मांग, 'जीविका चुनने की आजादी' की मांग है, 'सामंतवाद से आजादी' की मांग है, 'गरीबी से आजादी' की बात है, 'जातिवाद से आजादी' का संकल्प है। 'यौन हिंसा से आजादी', 'मेट्रो में आजादी', 'बसों में आजादी', 'सडकों पर आजादी' 'पूंजीवाद से आजादी', 'जीने की आजादी', 'मनुवाद से आजादी', 'खाने की आजादी'..'हम लड के लेंगे आजादी'.. अंत में इस नारे में आता है कि सभी ओर आजादी की मांग उठ रही है। बिहार से, उडीसा से बंगाल से, कशमीर से, केरल से - सभी जगहों से आजादी की मांग है। यह 'अलागाववादी' नारा कतई नहीं है। इसमें सिर्फ और सिर्फ मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता और गरिमा को सुदृढ करने की अपील है। इस नारा न सिर्फ सभी के हृदयों को छूने वाला बलिक इसके बडे गहरे दार्शनिक अर्थ भी हैं। टीवी पर जिस तरह इस नारे के सिर्फ एक हिस्से को दिखाया, उसे पीत पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों को दर्ज किया जाना चाहिए।
- इसी बीच 10 फरवरी को एबीवीपी छात्रों द्वारा उपरोक्त आयोजन में विध्न पैदा करने तथा 'गुंडागर्दी' करने के खिलाफ भी एक सभा हुई, जिसमें कन्हेैया ने भाषण दिया तथा 'आजादी' वाला नारा लगाया। यह नारा क्या है, इसे भी शायद कई लोग नहीं जानते। यह एक गीतनुमा नारा है, जो काफी देर तक चलता है तथा जेएनयू के विद्यार्थी अपने लगभग सभी आयोजनों में इसे लगाते है। इस लंंबे, बेहद आकर्ष्क और मानवीयता से भरपूर नारे को इस प्रकार लिखित शब्दों में व्यक्त् करना बडा कठिन है। उसके आस्वाद को आप सुनकर ही ग्रहण कर सकते हैं। उसका एक विडियो लिंक नीचे कमेंट में दे रहा हूं। इस नारे में 'पितृसत्ता से आजादी' की बात है, 'शादी करने और न करने की आजादी' की मांग, 'जीविका चुनने की आजादी' की मांग है, 'सामंतवाद से आजादी' की मांग है, 'गरीबी से आजादी' की बात है, 'जातिवाद से आजादी' का संकल्प है। 'यौन हिंसा से आजादी', 'मेट्रो में आजादी', 'बसों में आजादी', 'सडकों पर आजादी' 'पूंजीवाद से आजादी', 'जीने की आजादी', 'मनुवाद से आजादी', 'खाने की आजादी'..'हम लड के लेंगे आजादी'.. अंत में इस नारे में आता है कि सभी ओर आजादी की मांग उठ रही है। बिहार से, उडीसा से बंगाल से, कशमीर से, केरल से - सभी जगहों से आजादी की मांग है। यह 'अलागाववादी' नारा कतई नहीं है। इसमें सिर्फ और सिर्फ मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता और गरिमा को सुदृढ करने की अपील है। इस नारा न सिर्फ सभी के हृदयों को छूने वाला बलिक इसके बडे गहरे दार्शनिक अर्थ भी हैं। टीवी पर जिस तरह इस नारे के सिर्फ एक हिस्से को दिखाया, उसे पीत पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों को दर्ज किया जाना चाहिए।
- अब जरा इस लडाई में लगे छात्र छात्राओं की सामाजिक पृष्ठभूमि भी जान लें। पुलिस इस केस में 20 छात्रों की खोज कर रही है। इस लिस्ट में सबसे ऊपर नाम उमर नाम के किसी लडके का है। जाहिर है उमर मुसलमान हैं। उनका संबंध कशमीर से भी है। शायद उनका पैतृक घ्र वहीं हैं। जिस कन्हैया (जेएनयूएसयू अध्यक्ष) को पुलिस ने गिरफ्तार किया है, वे बिहार के हैं तथा एक निम्न मध्यवर्गीय भूमिहार परिवार से संबंध रखते हैं। एक और लडकी है, जो बंगाल के ब्राह्मण परिवार से है। लिस्ट में शेष नामों में कम से कम 70 फीसदी गैर द्विज हिंदू हैं। यानी, दलित या पिछडे, अति पिछडे। पुलिस की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर नाम 'फूले बिरसा आम्बेडकर स्टूडेंट एसियोशियन' के तीन छात्रों का है। वे तीनों हीं कैंपस में पिछडा, आदिवासी और दलित राजनीतिक का नेतृत्व करने वाले बडे प्रखर लोग हैं। इस सामाजिक पृष्ठभूमि से आपको यह समझने में आसानी हो जाएगी कि यह लडाई 'सांप्रदायिक' तो कतई नहीं है। न ही कोई 'ब्रह्मणों' की आपसी लडाई है, या वेमुला के पक्ष में हो रहे विरोध प्रदर्श्नाें को भटकाने के लिए कोई 'संघी-कम्युनिस्ट मैच फिक्सिंग' है, जैसा कि कुछ लोग शायद अज्ञानतावश कह रहे हैं। आप वेमूला के लिए दिल्ली में हुए विभिन्न प्रदर्शनों के विडियो देखिए, इन लोगों के चेहरे उसकी अग्रिम पंक्तियों में नारा लगाते हुए दिखेंगे।
- यह दमन इसलिए शुरू हुआ है क्योंकि ज्ञान के क्षेत्र में ये वंचित तबके कुछ ज्यादा ही आने लगे हैं। जेएनयू में नामांकन के लिए जो 'आरक्षण मॉडल' है, वह देश के लिए भी एक आदर्श् हो सकता है। वंचित तबकों और महिलाओं को इस मॉडल से दुगना फायदा मिला है। पढाई पर होने वाले खर्च के मामले में बेहद सस्ती यह युनिवर्सिटी अाार्थिक रूप से कमजोर तबकों को एक सशक्त कंधा उपलब्ध करवाती है। 2006 के बाद से अन्य पिछडा वर्ग (ओबीसी) के लिए लागू हुए आरक्षण के बाद से तो इस युनिवर्सिटी में वंचित तबकों के छात्र-छात्राओं की संख्या कम से कम 55 फीसदी पहुंच गयी है, जो लगातार बढती ही जा रही है। और ये सिर्फ 'आए' नहीं हैं। वे अब हस्तक्षेप कर रहे हैं और सिर के बल खडे विमर्शोा को उनकी सही दिशा रहे हैं। वे अब तक आकादमिक क्षेत्र के लिए अछूते रहे नये अनुभवों और विचारों के साथ आए हैं, जिसका असर यह हुआ है कि मानविकी विष्यों की ठस हो चला शोध क्षेत्र एक नयी उर्जा से भर उठा है। किसी विभाग में इन दिनों हो रहे शोधों की सूची देख लीजिए। आपको पता लग जाएगा कि समेकित रूप से अपना एक इतिहास और दर्शन रच रहे हैं।
बहरहाल, यह स्पष्ट होना चाहिए कि कथित रूप से 'अलगाववादी' नारे न आयोजकों ने लगाए, न ही कनहैया ने। और रही बात अफजल गुरू पर कार्यक्रम करने की, तो इन जटिल मुद्दो पर अगर जेएनयू में चर्चा नहीं होगी तो कहां होगी? हमारी न्याय प्रणाली ऐसी है जिसमें कोर्ट अपने फैसले मेें ही यह लिख देता है कि वह यह फांसी की सजा महज 'आतंकवाद के विरोध में देश की सामूहिक चेतना को संतुष्ट' करने के लिए सुना रहा है, तो क्या यह चर्चा का विष्य नही होना चाहिए कि ऐसी विकृत 'सामूहिक चेतना' का निर्माण कैसे हो रहा है। हमें यह भी चर्चा करनी चाहिए कि वे कौन से लोग हैं जो आतंकवाद जैसी क्रूरतम कारवाई को धर्म की आड देते हैं, लेकिन हमें इस चर्चा से भी परहेज नहीं करना चाहिए खून का बदले खून मांगना एक एक बर्बर मनोविकृति है, इसे एक आधुनिक राष्ट्र में कानून का जामा नहीं पहनाना चाहिए।
इन कठिन सवालों को उठाना हर देशभक्त का काम होना चाहिए।
जेएनयू के विद्यार्थी यही कर रहे थे।
जेएनयू के विद्यार्थी यही कर रहे थे।
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