Wednesday, August 3, 2016

आज़ाद दिलों की साजिश-दूसरी किस्त: अरुंधति रॉय

"हमारे लंपट राष्ट्रवादियों को यह समझ में आता नहीं दिख रहा है कि वे जितना इस खोखली नारेबाजी पर जोर देते हैं, जितना वे लोगों “भारत माता की जय!” कहने को मजबूर करते हैं और यह ऐलान करते हैं कि “कश्मीर भारत का एक अभिन्न हिस्सा है” वे उतने ही खोखले लगते हैं. हमारे गले में ठूंस कर भरा जा रहा यह राष्ट्रवाद हमारे अपने देश से प्यार करने के बजाए एक दूसरे देश – पाकिस्तान – से नफरत करने के बारे में है. इसका रिश्ता अपनी जमीन और इसके लोगों से प्यार करने के बजाए, इलाके को सुरक्षित बनाने से ज्यादा है. विरोधाभासी रूप से, जिन लोगों को राष्ट्र-विरोधी कह कर बदनाम किया जा रहा है, वही लोग हैं जो नदियों की मौत और जंगलों के खत्म होते जाने के बारे में बातें करते हैं. ये वही लोग हैं जो हमारी जमीन को जहरीला बनाए जाने और गिरते हुए पानी के स्तर को लेकर फिक्रमंद हैं. दूसरी तरफ “राष्ट्रवादी” खनन करने, बांध बनाने, जंगलों की पूरी तरह कटाई, पहाड़ों को उड़ाने और बेचने की बातें करते हैं. उनके कायदे में, खनिजों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को थाली में परोस कर बेचना देशभक्ति का काम है. उन्होंने झंडे का निजीकरण कर दिया है और भोंपू छीन कर अपने हाथ में ले लिया है" 

आज़ाद दिलों की साजिश-दूसरी किस्त: अरुंधति रॉय


रोहिथ वेमुला की खुदकुशी, जेएनयू पर होने वाले हमले, गाय के नाम पर हत्याओं के मौजूदा राजनीतिक हालात पर टिप्पणी करता हुआ अरुंधति रॉय का यह लेख अंग्रेजी पत्रिका कारवां के मई अंक में छपा था. इस लंबे लेख को दो किस्तों में पोस्ट किया जा रहा है. पेश है दूसरी और आखिरी किस्त. पहली किस्त यहां पढ़ें. अनुवाद - रेयाज उल हक
 

तभी, लगभग अचानक ही, जब उम्मीदें कमजोर पड़ रही थीं, एक गैरमामूली बात की शुरुआत हुई. संसद में भाजपा की भारी बहुमत की वजह से विपक्ष के सिमट जाने के बावजूद, बल्कि शायद इसी वजह से, एक नए तरह का प्रतिरोध चलन में आया.. जो कुछ भी चल रहा था, उसपर आम लोगों ने चिंता जाहिर करना शुरू कर दिया था. इस जज्बे ने जल्दी ही मजबूत होकर एक जिद्दी पलटवार का रूप ले लिया. अखलाक की पीट-पीट कर हत्या और कलबुर्गी और पानसरे और तर्कवादी और लेखक नरेंद्र दाभोलकर की 2013 में पुणे में हुई हत्या के विरोध में एक एक कर अनेक जाने-माने लेखकों, फिल्मकारों ने खुद को मिले अपने विभिन्न राष्ट्रीय पुरस्कारों को लौटाना शुरू किया. 2015 का अंत आते आते दर्जनों लोग ऐसा कर चुके थे. पुरस्कारों का लौटाया जाना - पुरस्कार वापसी विडंबनापूर्ण तरीके से घर वापसी का हवाला है – कलाकारों और बुद्धिजीवियों द्वारा एक बिना किसी योजना के, खुद ब खुद पैदा हुआ और तब भी एक गहरा राजनीतिक कदम था, जो किसी खास समूह से नहीं जुड़े थे या किसी खास विचारधारा को नहीं मानते थे, या यहां तक कि ज्यादातर चीजों के बारे में एक दूसरे से सहमत भी नहीं थे. इसमें ताकत थी, यह अभूतपूर्व था, जिसकी शायद इतिहास में कोई मिसाल नहीं थी. यह एक फौरी सियासत थी.

पुरस्कार वापसी को अंतरराष्ट्रीय प्रेस में व्यापक तौर पर जगह मिली. ठीक-ठीक इस वजह से कि यह खुद ब खुद पैदा हुआ था और इसे किसी साजिश का रंग नहीं दिया जा सकता था, इसने सरकार को गुस्सा दिला दिया.

मानो इतना ही काफी न हो, करीब उन्हीं दिनों नवंबर 2015 में भाजपा को एक और भारी चुनावी हार का सामना करना पड़ा. इस बार यह हार बिहार में चालाक, पुराने चलन के दो राजनेताओं नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के हाथों हुई. लालू संघ परिवार के लिए एक जाबांज दुश्मन हैं और 1990 में वो उन कुछेक राजनेताओं में से थे, जिन्होंने यह हिम्मत दिखाई थी कि जब आडवाणी की रथ यात्रा बिहार से गुजर रही थी तो उन्होंने आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया था. बिहार चुनाव हारना मोदी के लिए निजी और राजनीतिक अपमान दोनों ही था, जिन्होंने वहां कई हफ्तों तक प्रचार किया था. फौरन भाजपा ने अपने विरोधियों और “राष्ट्र-विरोधी” बुद्धिजीवियों के बीच में किसी तरह की सांठ-गांठ का आरोप लगाया.

एक ऐसी पार्टी के बतौर जो सोशल मीडिया पर ट्रॉल करने वालों की तो भरमार कर सकती है, लेकिन जिसके लिए एक असली चिंतक पैदा करना मुश्किल है, इस अपमानजनक झटके ने बौद्धिक गतिविधियों के प्रति उसके सहज विरोध को और तीखा ही किया. हमारे मौजूदा शासकों ने कभी भी असहमति को ही महज कुचलना नहीं चाहा. उसके निशाने पर खुद चिंतन और – समझदारी – रही है. यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि हमारी सामूहिक समझदारियों पर किए जाने वाले हमलों का मुख्य निशाना भारत के कुछ बेहतरीन विश्वविद्यालय रहे हैं.
 

समस्या के पहले संकेत तब आए जब मई 2015 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) चेन्नई के प्रशासन ने आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल (एपीएससी) कहे जाने वाले एक छात्र संगठन की “मान्यता रद्द” कर दी. इसके सदस्य आंबेडकरी दलित हैं, जो हिंदुत्व की राजनीतिक के तीखे आलोचक हैं और साथ में नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के भी, और उस तेज कॉरपोरेटीकरण और निजीकरण के भी खिलाफ हैं जो उच्च शिक्षा को गरीबों की पहुंच से दूर कर रही है. एपीएससी पर पाबंदी लगाने वाले आदेश में संगठन को दलित और आदिवासी छात्रों को “भटकाने” की कोशिश करने और “उन्हें केंद्र सरकार के खिलाफ विरोध करके उकसाने” और “प्रधानमंत्री और हिंदुओं” के खिलाफ नफरत पैदा करने का आरोप लगाया गया था. आखिर महज कुछ दर्जन सदस्यों वाला एक छोटा सा छात्र संगठन इतना बड़ा खतरा कैसे बन जाएगा? इसलिए क्योंकि जाति, पूंजीवाद और सांप्रदायिकता में रिश्ते देखते हुए, एपीएससी एक ऐसे इलाके में जा रहा था जहां जाने पर पाबंदी है – एक ऐसा इलाका जहां दक्षिण अफ्रीकी रंगभेद विरोधी कार्यकर्ता स्टीव बीको और संयुक्त राज्य के नागरिक अधिकार नेता मार्टिन लूथर किंग ने कदम रखे थे और इसकी कीमत उन्होंने अपनी जान देकर चुकाई थी. मान्यता रद्द किए जाने के नतीजे में सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन हुए और फौरन इस आदेश को वापस ले लिया गया, लेकिन एपीएससी को परेशान किया जाना जारी रहा और इसकी गतिविधियों में गंभीरता से रुकावटें डाली जाती रहीं.

अगला टकराव भारत के सबसे जाने-माने फिल्म स्कूल पुणे स्थित भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) में हुआ जहां भाजपा और आरएसएस के छुटभैयों को संस्थान की प्रशासनिक परिषद में नियुक्त किया गया. इन “गणमान्य लोगों” में एक हाल तक आरएसएस के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) का राज्य अध्यक्ष था. दूसरा एक ऐसा फिल्म निर्माता था जिसने नरेन्द्र मोदी: अ टेल ऑफ एक्स्ट्राऑर्डिनरी लीडरशिप नाम से एक डॉक्युमेंटरी फिल्म बनाई थी. गजेंद्र चौहान नाम का एक अभिनेता परिषद का अध्यक्ष बनाया गया. इस पद के लिए उसकी योग्यता, भाजपा का वफादार होने के अलावा, महाभारत के टीवी संस्करण में युद्धिष्ठिर के रूप में उसका औसत से खराब अभिनय था. (उसके बाकी के अभिनय कैरियर के बारे में जितना कम कहा जाए उतना बेहतर. आप उसे यूट्यूब पर देख सकते हैं.)

यह मांग करते हुए छात्र हड़ताल पर चले गए कि उन्हें बताया जाए कि किस बिना पर उन पर एक चेयरमैन को थोप दिया गया है, जिसके पास इस पद के लिए कोई भी योग्यता नहीं है. उन्होंने चौहान को उस पद से हटाए जाने की मांग की. उनका असली डर ये था कि अपने दल-बल को काउंसिल में भर कर सरकार एक तख्तापलट कर रही है, और एफटीआईआई के निजीकरण की तैयारी (एक बार फिर) कर रही है और इसे एक और ऐसा संस्थान बनाने जा रही है जो खास तौर से धनी और विशेषाधिकार वालों के लिए ही होगा.

हड़ताल 140 दिनों तक चली. छात्रों पर कैंपस के बाहर से आए हिंदुत्व कार्यकर्ताओं द्वारा हमले किए गए, लेकिन उन्हें देश भर से मजदूर संघों, सिविल-सोसायटी समूहों, फिल्मकारों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, और साथी छात्रों का समर्थन मिला. सरकार ने पीछे हटने से इन्कार कर दिया. आखिरकार हड़ताल वापस ले ली गई, लेकिन चिंता बस एक बड़े रंगमंच की ओर बढ़ चली.

अब कई बरस हो रहे हैं, हैदराबाद विश्वविद्यालय खास कर दलित राजनीति के इर्द-गिर्द एक बेहद सक्रिय जगह रही है. आंबेडकर स्टूडेंट्स असोसिएशन (एएसए) कैंपस में सक्रिय अनेक छात्र संगठनों में से एक है. आंबेडकरियों के एक संगठन के रूप में, चेन्नई के एपीएससी की तरह ही, एएसए कुछ गंभीर और विचलित करने वाले सवाल उठा रहा था. और स्वाभाविक वजहों से कैंपस में इसका मुख्य विरोधी एबीवीपी था, जो आरएसएस के आंख-कान के रूप में उभर रहा है और इसके उकसावेबाज मुल्क के लगभग हर कैंपस में मौजूद हैं. अगस्त में जब एएसए ने फांसी की सजा पर आंबेडकर के नजरिए का हवाला देते हुए याकूब मेमन को फांसी दिए जाने का विरोध किया – मेमन मुंबई में शिवसेना द्वारा मुसलमानों के कत्लेआम के बाद 1993 के सिलसिलेवार धमाकों में दोषी ठहराए गए थे – तो एबीवीपी ने उन्हें “राष्ट्र-विरोधी” कह कर प्रचारित किया. इसके बाद कैंपस में एएसए द्वारा प्रदर्शित की गई डॉक्यूमेंटरी फिल्म मुजफ्फरनगर बाकी है पर दोनों समूहों के बीच सीधे टकराव के बाद, पांच छात्रों – सभी दलित और सभी एएसए के सदस्य – को निलंबित कर दिया गया और उनसे होस्टल छोड़ने को कहा गया. दलित नौजवानों का मुसलमान समुदाय के साथ रिश्ते बनाना एक ऐसी बात नहीं थी, जिसकी इजाजत, अगर उसके वश में हो तो, संघ परिवार, देने जा रहा था. 


ये पहली पीढ़ी के छात्र थे, जिनके मां-बाप ने अपनी पूरी जिंदगी पसीना बहाया ताकि वे इतने पैसे जुटा सकें कि उनके बच्चों को शिक्षा मिल पाए. मध्य वर्ग के लोगों के लिए, जो अपने बच्चों की शिक्षा को यकीनी मानकर चलते हैं, यह कल्पना करना मुश्किल है कि इतनी मशक्कत से जुटाई गई उम्मीदों का इस बेरहमी के साथ दम घोंट दिए जाने का क्या मतलब होता है.

उन पांच निलंबित छात्रों में से एक, एक पीएचडी अध्येता रोहिथ वेमुला भी थे. वे एक गरीब अकेली मां के बेटे थे और उनके पास अपने स्कॉलरशिप के अलावा गुजर करने का कोई और जरिया नहीं था. हताशा की हालत में धकेल दिए जाने के बाद 17 जनवरी 2016 को उन्होंने फांसी लगा ली. उन्होंने अपने पीछे गैरमामूली ताकत वाला और मार्मिक सुसाइड नोट छोड़ा कि – जैसा एक महान साहित्य को होना चाहिए – उनके शब्दों ने जमा होते हुए गुस्से के बारूद में आग लगा दी. रोहिथ ने लिखा था,

मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था. विज्ञान का एक लेखक, कार्ल सेगान की तरह.

मैंने विज्ञान, सितारों, प्रकृति को प्यार किया था, लेकिन तब मैंने इंसानों से भी प्यार किया, बिना यह जाने कि इंसान बहुत पहले प्रकृति से दूर जा चुके हैं. हमारे जज्बात किसी और के दिए हुए हैं. हमारा प्यार बनावटी है. हमारे विश्वास में पूर्वाग्रह हैं. हमारी मौलिकता सिर्फ बनावटी कला के जरिए ही आंकी जाती है. बिना चोट खाए किसी को प्यार करना करीब-करीब नामुमकिन है.

एक इंसान की कीमत उसकी फौरी पहचान और सबसे नजदीकी संभावना में समेट दी गई है. एक वोट में. एक संख्या में. एक चीज में. आदमी को कभी भी इस तरह नहीं लिया जाता कि वह सोचता भी है. कि वह सितारों से बनी हुई एक चमकदार चीज है. हरेक क्षेत्र में, अध्ययन में, सड़कों पर, राजनीति में और जिंदगी और मौत में.

इस तरह की चिट्ठी मैं पहली बार लिख रहा हूं. पहली बार यह आखिरी खत. माफ कीजिएगा अगर मैं अपनी बातें समझा पाने में नाकाम रहा.

शायद इस पूरे दौरान इस दुनिया को समझने में मैं गलत था. प्यार को, दर्द को, जिंदगी और मौत को समझने में. ...मेरा जन्म एक जानलेवा हादसा था. मैं कभी भी अपने बचपन के अकेलेपन से उबर नहीं पाऊंगा. अपने अतीत का एक नाचीज बच्चा.

इसकी कल्पना करें. हम एक ऐसी संस्कृति में रहते हैं जो रोहिथ वेमुला जैसे एक शख्स को अलग-थलग कर देती है और उससे अछूत की तरह बरताव करती है. एक संस्कृति जो उसको खामोश कर देती है और उनके जैसे दिमाग को अपना अंत करने पर मजबूर कर देती है. रोहिथ एक दलित थे, एक आंबेडकरी, एक मार्क्सवादी (जिसका भारतीय वाम से मोहभंग हो गया था), विज्ञान का छात्र, लेखक बनने की उम्मीद लिए हुए एक नौजवान और एक मंजा हुआ राजनीतिक कार्यकर्ता. लेकिन इन सभी पहचानों के पार, वो हम सभी की तरह, एक अनोखे इंसान थे, जिनके पास खुशी और दर्द की अपनी अनोखी दुनिया थी. हम शायद कभी नहीं जान पाएं कि एक राज़ बन गई उनकी आखिरी उदासी क्या थी, जिसने उन्हें अपनी जान ले लेने पर मजबूर कर दिया. शायद बात इतनी ही थी. हमें उनकी इस आखिरी अलविदा की चिट्ठी से ही सब्र करना चाहिए.

जो चीजें इसे क्रांतिकारी बनाती हैं, हो सकता है कि वो फौरी तौर पर दिखाई न दें. उनके साथ जो कुछ किया गया था, उसके बावजूद, इस चिट्ठी में दर्द है, पीड़ित होने का भाव नहीं है. हालांकि हम उनके बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वो हमें बताती है कि वह अपनी पहचान और अपनी राजनीति के बारे में कितने उग्र थे, लेकिन उन्होंने खुद को खांचों में बंधने और दूसरों की दी हुई पहचानों से खुद को परिभाषित करने से इन्कार कर दिया. सदियों पुराने एक उत्पीड़न और सांस्कृतिक सांचे में ढाले जाने के दर्द से गुजरते हुए, रोहिथ ने खुद को एक बड़ा बनने, सितारा बनने का सपना देखने, एक समान इंसान के बतौर प्यार किए जाने का अधिकार, जैसा कि सभी मर्दों और औरतों को होना चाहिए,खुद को दिया था- बल्कि मशक्कत से हासिल किया था. 


रोहिथ उन अनेक दलित छात्रों में से बस सबसे हाल के शख्स थे, जो हर साल अपनी जिंदगियों का अंत कर लेते हैं. उनकी कहानी में देश भर के विश्वविद्यालयों के हजारों दलितों की गूंज मिलती है, जो जाति व्यवस्था की मध्यकालीन कड़वे अनुभवों और अलगावों, भेदभाव और नाइंसाफियों की यातनाओं को सहते हैं, जो सबसे आधुनिक विश्वविद्यालय कैंपसों, भारत के अग्रणी मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में, उनके होस्टलों में, कैंटीनों में और लेक्चर रूमों में भी उनका पीछा करती हैं. (कुल दलित छात्रों में से करीब आधों का स्कूल मैट्रिक तक आने से पहले ही छूट जाता है. ग्रेजुएट होने वाली दलित आबादी 3 फीसदी से कम है.) उन्होंने रोहिथ वेमुला की खुदकुशी को उसी रूप में लिया जो कि वह थी – एक संस्थागत हत्या के रूप में. उनकी खुदकुशी – और इसे भी कहा जाना चाहिए कि उनके शब्दों की ताकत – ने लोगों को ठहर जाने और सोचने को मजबूर किया. इसने उन्हें जाति व्यवस्था के रूप में जानी जाने वाली उस आपराधिक व्यवस्था बंदोबस्त पर गुस्सा करने लिए मजबूर किया, जो आधुनिक भारतीय समाज को आज भी चलाने वाला वह पुराना इंजन है.

वेमुला की खुदकुशी से पैदा हुई नाराजगी, अब तक हाशिए पर रही, रेडिकल राजनीतिक नजरिए का एक विद्रोही पल था और है. इसने आंबेडकरियों, आंबेडकरी मार्क्सवादियों और वाम दलों और सामाजिक आंदोलनों के एक गठबंधन को एक साथ कदम मिलाते हुए देखा. इस बात से चौकन्नी हुई भाजपा इसे नाकाम करने के लिए बढ़ी, कि अगर इस एकजुटता को मजबूत होने की इजाजत दी गई तो यह उसके लिए एक गंभीर खतरे में बदल सकती है. उसने ढीला-ढाले, अपमानजनक तरीके से यह दावा किया कि रोहिथ वेमुला दलित नहीं थे, और ऐसा कहते हुए उसने अपने पांवों पर ही कुल्हाड़ी मार ली. इससे पार्टी की जो हालत हुई उसमें वो औंधे मुंह गिरती हुई दिखी (और हकीकत में अभी भी ऐसा मुमकिन है).

अब लोगों का ध्यान भटकाया जाना था. एक दूसरा संकट एकदम अभी चाहिए था. बंदूक की नली हिली. निशाना पहले ही लगाया जा चुका था.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) को लंबे समय से “वामपंथ के गढ़” के रूप में जाना जाता रहा है. यह जेएनयू आरएसएस की साप्ताहिक पत्रिका पांचजन्य के नवंबर 2015 अंक की आवरण कथा के केंद्र में था. इसमें जेएनयू को नक्सलवादियों का अड्डा बताया गया था, एक “बड़ा राष्ट्र-विरोधी गिरोह जिसका मकसद भारत के टुकड़े-टुकड़े करना है.” नक्सलवादी, संघ परिवार के लिए काफी समय से मुश्किल बने रहे हैं – लिखे हुए सिद्धांतों में दुश्मन नंबर तीन. लेकिन अभी, स्वाभाविक रूप से उनके पास एक और ज्यादा चिंताजनक दुश्मन भी था.

पिछले कुछ बरसों में जेएनयू में छात्रों की आबादी की बनावट नाटकीय रूप से बदली है. दलित, आदिवासी और अनेक जातियों और उपजातियों, जो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के नाम से जानी जाने वाली श्रेणी में आती हैं, वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले वे छात्र अब एक छोटे अल्पसंख्यक समूह नहीं रहे, उनकी आबादी कुल छात्रों की आबादी का करीब आधा हो गई है. इसने कैंपस की राजनीति को गहराई तक बदल दिया है. संघ परिवार को जेएनयू कैंपस में वामपंथ की मौजूदगी से भी ज्यादा जो बात परेशान करती है वो शायद इन तबकों के छात्रों की बढ़ती हुई आवाजें हैं. वे ज्यादातर आंबेडकर, आदिवासी नायक बिरसा मुंडा, जो ब्रिटिशों के खिलाफ लड़े और 1900 में जेल में मर गए और रेडिकल चिंतक और सुधारक जोतिराव फुले, जो एक शूद्र थे और खुद को माली कहते थे, के विचारों को मानने वाले हैं. फुले ने 1873 में छपी अपनी मशहूर किताब गुलामगीरी में हिंदू धर्म को सबसे प्रभावशाली तरीके से नकारा था, बल्कि असल में उसकी आलोचना की थी. अपने ज्यादातर लेखन और कविताओं में फुले ने यह दिखाने के लिए हिंदू मिथकों की बखिया उधेड़ी कि कैसे वो असल में इतिहास पर आधारित कहानियां हैं और कैसे वे एक स्थानीय, द्रविड़ संस्कृति पर एक आर्य विजय के विचार का गुणगान करती हैं. फुले लिखते हैं कि कैसे द्रविड़ों को बुराई का प्रतीक बना दिया गया और उन्हें असुरों में बदल दिया गया, जबकि विजेता आर्यों को महान बना कर उन्हें देवत्व दे दिया गया. असल में वे हिंदू धर्म को एक औपनिवेशिक दास्तान के रूप में दिखाते हैं.


2012 में दलितों और ओबीसी छात्रों के एक संगठन ने जेएनयू में एक आयोजन शुरू किया, जिसे वे महिषासुर शहादत दिवस कहते हैं. हिंदुओं का मानना है कि महिषासुर एक मिथकीय आधा-इंसान आधा-राक्षस जीव है जिसे देवी दुर्गा ने एक युद्ध में हराया था – इस जीत का उत्सव हर साल दुर्गा पूजा के दौरान मनाया जाता है. इन युवा बुद्धिजीवियों ने कहा कि महिषासुर असल में द्रविड़ राजा थे, जिन्हें पश्चिम बंगाल और झारखंड और दूसरी जगहों की असुर, संथाल, गोंड और भील जनजातियां प्यार करती थीं. छात्रों ने ऐलान किया कि जिस दिन महिषासुर की शहादत हुई थी, उस दिन वे उत्सव मनाने के बजाए शोक मनाएंगे. एक दूसरे समूह ने, जो खुद को “न्यू मटेरियलिस्ट” कहता है, महिषासुर शहादत दिवस पर एक “फ्री फूड फेस्टिवल” का आयोजन शुरू किया, जहां यह कहते हुए इसने गोमांस और सूअर का मांस परोसा कि ये भारत की उत्पीड़ित जातियों और जनजातियों का परंपरागत भोजन था.

ओबीसी से भारत की आबादी की बहुसंख्या बनती है और हरेक बड़े राजनीतिक दल के लिए वो बहुत ही अहम हैं. इसी वजह से मोदी ने अपने 2014 के चुनावी अभियान में इस तथ्य का प्रचार किया कि वो एक ओबीसी हैं. (ज्यादातर लोग “मोदी” को एक बनिया उपनाम मानते हैं.) परंपरागत रूप से प्रभुत्वशाली जातियां दलितों को उनकी हद में रखने के लिए ओबीसी को अपने वफादार सेवक के रूप में इस्तेमाल करती आई हैं. (ठीक जिस तरह दलितों को मुसलमानों पर हमलों के लिए मोहरों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है और आदिवासियों को दलितों के खिलाफ खड़ा किया जाता है- जैसा कि 2008 में कांधमाल में किया गया था.) ओबीसी के एक तबके का हिंदू धर्म की कतार से अलग होने के संकेत ने उस बेहद संवेदनशील व्यवस्था को हरकत में ला दिया था, जो आरएसएस को पहले ही चेतावनी दे देती है.

मानो इतनी परेशानियां काफी नहीं हों, कुछ नौजवान कम्युनिस्टों – जिन्हें भारत की बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों की पिछली गलतियां समझ में आती दिखने लगी थीं – और बिरसा मुंडा, आंबेडकर और फुले के अनुयायियों के बीच एक शुरुआती संवाद शुरू हुआ (या शायद यह एक बहस थी जिससे संवाद शुरू होता). इन समूहों का इतिहास विवादों से भरा रहा है और उनके पास एक दूसरे को लेकर एहतियात बरतने की बहुत सारी वजहें मौजूद थीं. पर जब तक ये अलग-थलग समूह एक दूसरे के विरोधी बने रहते हैं, वो संघ परिवार के लिए कोई असली चुनौती नहीं बनते.

आरएसएस ने पहचान लिया कि जेएनयू में जो चल रहा था अगर उसे रोका नहीं गया, तो एक दिन वह हिंदुत्व के बुनियादी उसूलों और राजनीति के लिए एक बौद्धिक खतरा पेश करेगा. साथ ही, यह उसके वजूद के लिए ही खतरा बन जाएगा. इसकी वजह क्या है? क्योंकि ऐसा कोई भी गठबंधन, भले ही यह धारणा के ही स्तर पर हो, एक एकता के बिखराव की संभावना पेश करता है, यह एक किस्म से हिंदुत्व परियोजना की इंजीनियरिंग को उलट देने वाली चीज है. यह जातियों के एकदम अलग गठबंधन ब्राह्मणवाद की जगह दलित-बहुजनवाद की कल्पना करता है, जो जमीनी स्तर से बनना शुरू होगा, न कि ऊपर से इसको बने-बनाए तरीके से थोप कर लागू किया जाएगा. एक मजबूत आंदोलन जो समकालीन है और फिर भी जिसकी जड़ें भारत के मौलिक सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में गहरे तक समाई हुई हैं, जिसके सितारों की दुनिया में आंबेडकर, जोतिराव फुले, सावित्रीबाई फुले, पेरियार, अय्यनकली, बिरसा मुंडा, भगत सिंह, मार्क्स और लेनिन जैसे शख्स हैं. एक ऐसा आंदोलन जो पितृसत्ता, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद को चुनौती देता है, जो एक जाति-हीन और वर्ग-हीन समाज के सपने देखता है, जिसके कवि जनता के कवि होंगे और जिनमें कबीर, तुकाराम, रविदास, पाश, गदर, लाल सिंह दिल और फैज़ शामिल होंगे. उस अर्थ में आदिवासियों-दलितों-बहुजनों का एक आंदोलन, जिसकी हिमायत दलित पैंथर्स ने की थी (जिन्होंने 1970 के दशक में दलितों का मतलब “अनुसूचित जातियां और जनजातियां, नव-बौद्ध, मेहनतकश जनता, बेजमीन और गरीब किसान, औरतें और वे लोग जिन्हें राजनीतिक, आर्थिक और धर्म के नाम पर शोषित किया जाता है” बताया था.) एक आंदोलन जिसके कॉमरेडों में विशेषाधिकार वाली जातियों के वे लोग भी शामिल होंगे जो अब अपने विशेषाधिकार पर दावा नहीं करना चाहते. आध्यात्मिक रूप से इतना उदार एक आंदोलन जिसमें वे सभी आ सकें जो इंसाफ में यकीन रखते हैं, चाहे उनकी जाति और धर्म कुछ भी हो.

हैरानी की बात नहीं है कि पांचजन्य की कहानी में कहा गया था कि जेएनयू एक ऐसा संस्थान है जहां “मासूम हिंदू युवकों को, जो हिंदू समाज का एक अभिन्न अंग हैं, वर्ण व्यवस्था के बारे में गलत तथ्य बता कर लुभाया जाता है.” यह असल में भारत का “बिखराव” नहीं है, जिसके लिए आरएसएस चिंतित था. यह हिंदुत्व का बिखराव था. और किसी नई राजनीतिक पार्टी के जरिए नहीं, बल्कि एक नई तरह की सोच के जरिए. अगर ये सारी चीजें औपचारिक राजनीतिक गठबंधन पर टिकी होतीं तो इसके नेताओं को मार दिया गया होता या उन्हें जेल में डाल दिया गया होता. या सीधे-सीधे उन्हें बेशुमार स्वामियों, सूफियों, मौलानाओं और दूसरे नीम-हकीमों की तरह खरीद लिया गया होता. लेकिन आप एक विचार के साथ क्या कर सकते हैं, जो आपके आसपास धुएं की तरह तैरने लगता है?

आप उठते हैं और उसके स्रोत को फूंक कर बुझा देते हैं. 


लड़ाइयों के मोर्चे इससे ज्यादा साफ-साफ नहीं खींचे जा सकते थे. यह लड़ाई बराबरी का सपने देखने वालों और संस्थागत गैर बराबरी में यकीन रखने वालों के बीच होनी थी. रोहिथ वेमुला की खुदकुशी ने जेएनयू में शुरू हुए संवाद को ज्यादा अहम, ज्यादा फौरी और बहुत वास्तविक बना दिया. और शायद यही उस हमले की तारीख को भी करीब लेआया, जिसका होना पहले से ही तय था.

घात लगा कर हमला उस पुराने जिद्दी भूत को लेकर किया गया, जो पीछा दफा होने का नाम ही नहीं लेता. वो इसे भगाने की जितनी बड़ी कोशिश करते हैं, वो अपनी गिरफ्त उतनी ही मजबूत बना लेता है और उनका पीछा नहीं छोड़ता.

मोहम्मद अफजल गुरु की तीसरी बरसी 9 फरवरी को पड़ी. हालांकि भारतीय संसद पर 2001 के हमले में अफजल पर सीधी भागीदारी का आरोप नहीं था, लेकिन उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय ने साजिश का हिस्सेदार होने के लिए तीन आजीवन कारावास और दो फांसियों की सजा सुनाई थी. अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को कायम रखा और वह मशहूर बात कही थी, “साजिश के ज्यादातर मामलों की तरह आपराधिक साजिश के लिए कोई सीधा सबूत हो भी सकता है और नहीं भी. ...घटना ने, जिसका नतीजा भारी क्षति में हुआ, पूरे राष्ट्र को हिला दिया था और अपराधी को फांसी की सजा दी जाए सिर्फ तभी समाज का सामूहिक विवेक संतुष्ट होगा.”

संसद पर हमले, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और अफजल की अचानक ही चुपचाप दी गई फांसी को लेकर विवाद किसी भी लिहाज से नया नहीं है. इस पर विद्वानों, पत्रकारों, वकीलों और लेखकों (मेरे समेत) की अनेक किताबें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं. हममें से कुछ लोग यह मानते हैं कि हमले को लेकर गंभीर सवाल थे, जिनके जवाब अभी भी बाकी हैं और यह भी कि अफजल को फंसाया गया था और उसे एक निष्पक्ष सुनवाई नहीं हासिल हुई. दूसरे कुछ लोगों का मानना है कि उनको दी गई फांसी इंसाफ की नाकामी थी.

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद अफजल अनेक बरसों तक तिहाड़ जेल की एकांत कैद में रहे. उन बरसों के दौरान सत्ता से बाहर रही भाजपा बार-बार और आक्रामक तरीके से मांग करती रही थी कि फांसी दिए जाने का इंतजार करने वालों की कतार में से उन्हें खींच कर निकाल लिया जाए और फांसी दे दी जाए. यह मुद्दा इसके चुनावों अभियानों का केंद्रीय हिस्सा बना. इसका नारा था: देश अभी शर्मिंदा है, अफजल अभी भी जिंदा है.

जब 2014 के आम चुनाव करीब आए, इधर घोटालों के सिलसिलों से कमजोर होने और उधरहोड़ वाले राष्ट्रवाद के मुकाबले में भाजपा से दब जाने, जिसमें हारना कांग्रेस के नसीब में ही है, इन सबसे डरी हुई कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने एक सुबह अफजल को उनकी कोठरी से निकाला और आनन-फानन में उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया. उनके परिवार को आखिरी मुलाकात की इजाजत देना तो दूर, उन्हें इसकी जानकारी तक नहीं दी गई. इस डर से कि उनकी कब्र एक स्मारक बन जाएगी और कश्मीर में संघर्ष के लिए एक राजनीतिक गोलबंदियों का एक प्रतीक बन जाएगी, उन्हें तिहाड़ जेल के भीतर ही 1984 में फांसी चढ़ाए गए कश्मीरी अलगाववादी नायक मकबूल भट्ट की बगल में दफना दिया गया. (2008 से 2012 तक कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के गृह मंत्री रहे पी. चिदंबरम अब कहते हैं कि अफजल के मामले पर “शायद सही तरीके से फैसला नहीं हुआ था.” जब मैं क्लास चार में हुआ करती थी, हम एक कहावत कहते थे: सॉरी कहने से मुर्दे जिंदा नहीं होते.)

तब से हर साल अफजल गुरु की बरसी पर कश्मीर घाटी विरोध में बंद रहती है. कश्मीरी राष्ट्रवादियों को छोड़ दीजिए, यहां तक कि मुख्यधारा की भारत समर्थकपीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी भी, जो अभी जम्मू और कश्मीर राज्य में भाजपा के साथ गठबंधन की साझीदार है, अफजल के अवशेषों को उनके परिवार को सौंपने की मांग करती रही हैताकि उन्हें उचित तरीके से दफनाए जा सके.

तीसरी बरसी के कुछ दिन पहले जेएनयू कैंपस में एक नोटिस लगाया गया जिसमें छात्रों को “अगेन्स्ट द ब्राह्मैनिकल ‘कलेक्टिव कन्साइन्स,’ अगेन्स्ट द ज्युडिशियल किलिंग ऑफ अफजल गुरु एंड मकबूल भट्ट” (“ब्राह्मणवादी ‘सामूहिक विवेक’ के खिलाफ और अफजल गुरु और मकबूल भट की न्यायिक हत्या के खिलाफ”) और “इन सॉलिडेरिटी विद द स्ट्रगल ऑफ कश्मीरी पीपुल फॉर देअर डेमोक्रेटिक राइट टू सेल्फ-डिटरमिनेशन” (“कश्मीरी अवाम के आत्म-निर्णय के जनवादी अधिकार के लिए उनके संघर्ष के साथ एकजुटता में”) एक सांस्कृतिक संध्या के लिए बुलाया गया था.

पहली बार नहीं था कि जेएनयू के छात्र इन मुद्दों पर चर्चा करने के लिए मिल रहे थे. बस इसी बार 9 फरवरी की बरसी रोहिथ वेमुला की खुदकुशी के तीन हफ्तों के बाद पड़ रही थी. माहौल राजनीतिक रूप से सरगर्म था. एक बार फिर एबीवीपी मोहरा था. इसने विश्वविद्यालय पदाधिकारियों से शिकायत की, और फिर दिल्ली पुलिस को उस काम में दखल देने के लिए बुलाया, जिसे वे “राष्ट्र-विरोधी गतिविधि” कह रहे थे. जीटीवी की एक कैमरा टीम आयोजन को रेकॉर्ड करने के लिए पहुंची. जी के उस प्रसारण की पहली खेप में छात्रों के दो समूहों को जेएनयू कैंपस में एक दूसरे के साथ भिड़ते हुए, नारे लगाते दिखाया गया था. एबीवीपी के “भारत माता की जय” के जवाब में छात्रों के एक दूसरे समूह ने, जिनमें से ज्यादातर कश्मीरी थे और उनमें से कुछ ने मुंह ढंक रखे थे, उन नारों को दोहराना शुरू किया जिसे कश्मीर में हररोज हरेक नुक्कड़ प्रदर्शनों और हरेक मिलिटेंट के जनाजे में दोहराया जाता है:

हम क्या चाहते?
आजादी!
छीन के लेंगे-
आजादी!

कुछ कम जाने-पहचाने नारे भी थे:

बंदूक के दम पे!
आजादी!
कश्मीर की आजादी तक, भारत की बरबादी तक
जंग लड़ेंगे! जंग लड़ेंगे!

और:

पाकिस्तान जिंदाबाद!

जीटीवी के फुटेज में यह साफ नहीं था कि असल में नारे लगाने वाले छात्र कौन थे. यकीनन, इससे दर्शक उत्तेजित हुए, लेकिन लोगों को कश्मीर मुद्दे पर भड़काना या उन्हें अनजान छात्रों पर, जो कश्मीरियों जैसे दिख रहे थे, उत्तेजित करना मुद्दा नहीं था और इससे मकसद हल नहीं हो सकता था. खास कर तब नहीं जब जम्मू और कश्मीर में नई सरकार बनाने के लिए पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ चल रही बातचीत में बुरे दौर से गुजर रही थी. (उस मुश्किल को बाद में हल कर लिया गया.) जेएनयू पर घात लगा कर किए गए हमले में कश्मीर महज एक पलीता था. असली निशाना तो जेएनयू की छवि थी, जिसे बदनाम करना था (और है) ताकि इसे आखिरकार बंद किया जा सके.

इसे हल करना आसान था. उस झड़प की आवाजों को एक दूसरी मीटिंग के वीडियो में डाल दिया गया जो दो दिनों के बाद हुई. यह वो मीटिंग थी जिसे जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने संबोधित किया था. कन्हैया ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन से जुड़े हैं, जो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया का छात्र संगठन है. उस मीटिंग में “आजादी!” की टेक तो वही थी, बस लगाए जाने वाले नारे बिल्कुल अलग थे. उन्होंने गरीबी से, जाति से, पूंजीवाद से, मनुस्मृति से, ब्राह्मणवाद से आजादी की मांग की. जले पर नमक की यह एक और खेप थी.

हेरफेर करके बनाया हुआ यह फर्जी वीडियो बड़े न्यूज चैनलों जीटीवी, टाइम्स नाऊ और न्यूज एक्स द्वारा दसियों लाख लोगों को दिखाया गया. यह शर्मनाक, गैरपेशेवर और संभावित रूप से आपराधिक काम था. इन प्रसारणों ने एक पागलपन को जन्म दिया. पहले कन्हैया कुमार और फिर दो हफ्तों के बाद मीटिंग आयोजित करने के आरोपी दो और छात्रों, वामपंथी डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन के पूर्व सदस्य उमर खालिद और अनिर्बाण भट्टाचार्य को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए. दिल्ली भर में इन छात्रों के सिरों पर इनाम का ऐलान करते पोस्टर लगे. एक में तो कन्हैया कुमार की जीभ के लिए भी नकद इनाम की पेशकश थी.

जीटीवी के फुटेज में असल में नारे लगाते दिख रहे कश्मीरी छात्रों की पहचान नहीं हो पाई. लेकिन वे बस वही कर रहे थे जो कश्मीर में हर रोज हजारों लोग करते हैं. क्या दिल्ली और श्रीनगर के लिए नारों के दो अलग-अलग पैमाने हो सकते हैं? शायद आप इससे सहमत होंगे, अगर आप कई कश्मीरियों की तरह यह दलील रखें कि पूरा कश्मीर ही एक बहुत बड़ा जेल है और आप पहले से ही कैद में रह रहे लोगों को गिरफ्तार नहीं कर सकते. जो भी हो, क्या इन छात्रों के नारों ने सचमुच में इस ताकतवर, परमाणु हथियारों से लैस हिंदू राष्ट्र को एक जानलेवा चोट पहुंचाई थी?

मामला और भी बेढंगी शक्ल अख्तियार करता रहा. एक पैरोडी ट्विटर अकाउंट (“Hafeez Muhamad Saeed”) पर एक चुटकुले के आधार पर गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने ऐलान कर दिया कि जेएनयू में हुए विरोध प्रदर्शन को लश्कर-ए-तैयबा के मुखिया और भारत के लिए ओसामा बिन लादेन के समकक्ष हाफिज सईद का समर्थन हासिल था. टीवी चैनलों ने कहना शुरू कर दिया कि उमर खालिद, जो खुद को मार्क्सवादी-लेनिनवादी कहते हैं, जैश-ए-मुहम्मद का आतंकवादी है. (इस बार पुख्ता सबूत यह था कि उनका नाम उमर था.)

मानव संसाधन विकास की निरंकुश मंत्री स्मृति ईरानी ने, जो उच्च शिक्षा की प्रभारी हैं, कहा कि राष्ट्र भारत माता का अपमान बर्दाश्त नहीं करेगा. गोरखपुर से भाजपा के सांसद भगवाधारी योगी आदित्यनाथ ने कहा कि “जेएनयू शिक्षा पर एक कलंक बन गया है,” और यह भी कि “राष्ट्र हित में इसे बंद कर दिया जाना चाहिए.” भगवान के एक और स्वयंभू सेवक भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने, ये भी भगवाधारी हैं, छात्रों को “गद्दार” कहा और कहा कि उन्हें “जेल में डालने के बजाए फांसी पर लटका देना चाहिए या पुलिस की गोली से मार दिया जाना चाहिए.” राजस्थान में भाजपा के एक विधायक और बेजोड़ अनुभववादी ज्ञानदेव आहूजा ने दुनिया को यह ज्ञान देने की कृपा की कि “जेएनयू कैंपस में रोज सिगरेट के 10,000 और बीड़ी के 4,000 टुकड़े रोज पाए जाते हैं. मांसाहार करनेवालों द्वारा हड्डियों के 50,000 छोटे-बड़े टुकड़ों का जूठन छोड़ा जाता है. वे मांस भकोसते हैं...ये राष्ट्र-द्रोही. चिप्स और नमकीनों के 2,000 रैपर पाए जाते हैं और इस्तेमाल किए हुए 3,000 कंडोम भी – हमारी बहन-बेटियों के साथ वे कैसे बुरे काम करते हैं. और 500 इस्तेमाल किए गए गर्भरोधी इन्जेक्शन भी पाए जाते हैं.” दूसरे शब्दों में, जेएनयू के छात्र मांसखोर, चिप्स कुतरनेवाले, सिगरेट पीने वाले, बीयर गटकने वाले, सेक्स के लती राष्ट्र-द्रोही थे. (क्या यह इतना खौफनाक लगता है?)

प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं कहा.

दूसरी तरफ जेएनयू और हैदराबाद विवि के छात्रों के पास कहने के लिए बहुत कुछ था. इन कैंपसों के विरोध प्रदर्शन सड़कों तक फैल गए और फिर देश के दूसरे हिस्सों के विश्वविद्यालयों तक में फैल गए. दिल्ली में जिस दिन कन्हैया कुमार को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना था, अदालतें जंग का मैदान बन गईं. लगातार दो दिनों तक एक बहुत बड़े राष्ट्रीय झंडे के तले पनाह लिए वकीलों के एक समूह ने, जो खुलेआम भाजपा से अपने रिश्ते की डींग हांक रहा था, छात्रों, प्रोफेसरों, पत्रकारों और आखिरकार कन्हैया कुमार को अदालत परिसर के भीतर पीटा. उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मामले की तफ्तीश करने के लिए फौरी तौर पर बनाई गई वरिष्ठ वकीलों की एक कमेटी को भी धमकियां दीं और उसके साथ गाली-गलौज की. पुलिस खड़ी देखती रही. दिल्ली पुलिस के मुखिया ने इसे छोटी-मोटी घटना कहा. वकीलों ने प्रेस में बड़ी संतुष्टि के साथ बताया कि कैसे उन्होंने कन्हैया को “खूब पीटा” और उसे “भारत माता की जय” कहने पर मजबूर किया. कुछ दिनों के लिए ऐसा लगा मानो इस मुल्क की हरेक बची हुई संस्था पागलपन के इस हमले के सामने लाचार है.


अब आरएसएस ने ऐलान कर दिया था कि जो “भारत माता की जय!” कहने से इन्कार करता है, वो एक राष्ट्र-विरोधी है. योग और स्वस्थ-भोजन के कारोबारी बाबा रामदेव ने ऐलान किया कि अगर यह गैर कानूनी नहीं होता तो ऐसा नहीं कहने वालों का वे सिर काट लेते.

इन लोगों ने आंबेडकर का क्या किया होता? 1931 में, कांग्रेस की अपनी तीखी आलोचना के बारे में – जिसे स्वतंत्र मातृभूमि के लिए पार्टी के संघर्ष की आलोचना के रूप में देखा गया था - गांधी द्वारा पूछे जाने पर आंबेडकर ने कहा था, “गांधी-जी, मेरी कोई मातृभूमि नहीं है. अछूत कहलाने वाला कोई भी इस देश पर गर्व नहीं करेगा.” क्या उन्होंने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाया होता? (दूसरी तरफ, जिस आंबेडकर ने हिंदू धर्म को “आतंक की सचमुच एक भट्ठी” कहा था उनकी तस्वीरों पर संघ परिवार द्वारा फूलमाला चढ़ाना, और यह कहना कि कि वे हिंदू राष्ट्र के संस्थापक महापुरुषों में से हैं, शायद राजद्रोह की तोहमत से भी बुरी सजा है.)
 

भाजपा और इसके मीडिया साझीदारों ने लोगों को चुप कराने की जो एक दूसरी तरकीब निकाली वो एक अजीबोगरीब झूठी तुलना है – बहादुर सैनिक बनाम बुरे राष्ट्र-विरोधी. फरवरी में, ठीक उन्हीं दिनों जब जेएनयू संकट अपने चरम पर था, सियाचिन ग्लेशियर में एक तूफान ने दस सैनिकों की जान ले ली, जिनकी लाशें फौजी तरीके से अंतिम संस्कारों के लिए जहाजों से ले आई गईं. रात-दिन चीखते हुए टीवी एंकरों और उनके स्टूडियो में आए मेहमानों ने उन मरे हुए लोगों के मुंह में अपनी बातें ठूंसीं और अपनी घटिया विचारधाराएं उन बेजान लाशों पर रोपीं जो बोल नहीं सकती थीं. बेशक उन्होंने इस बात का जिक्र नहीं किया कि ज्यादातर भारतीय सैनिक गुजर-बसर के लिए आमदनी की तलाश करने वाले गरीब लोग हैं. (आप कभी भी देशभक्त अमीर लोगों को मोर्चे पर तैनात किए जाने की गुहार लगाते हुए नहीं सुनेंगे, जहां उन्हें और उनके बच्चों को आम सैनिकों की तरह सेवाएं देने पर मजबूर होना पड़ेगा.)

वे अपने देखनेवालों को यह बताना भी भूल गए कि सैनिकों को सिर्फ सियाचिन ग्लेशियर और भारत की सरहदों पर ही तैनात नहीं किया जाता. कि 1947 में आजादी के बाद से एक भी ऐसा दिन नहीं बीता है, जब भारतीय सेना और दूसरे सुरक्षा बलों को भारतीय सीमाओं के भीतर उन लोगों के खिलाफ वहां तैनात किया जाता रहा है जो उनके “अपने” लोग होते हैं – कश्मीर, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, असम, जूनागढ़, हैदराबाद, गोवा, पंजाब, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में और अब छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड में.

इन जगहों पर संघर्षों में हजारों लोगों ने अपनी जान गंवाई है. इनसे भी ज्यादा तादाद में लोगों को यातनाएं दी गईं है, उनमें से कई जीवन भर के लिए अपाहिज हो गए. कश्मीर में सामूहिक बलात्कारों के प्रामाणिक मामले हैं, जिनमें आरोपितों को आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट की ढाल मिली हुई है, मानो बलात्कार जंग का एक ऐसा हिस्सा हो जिससे बचा नहीं जा सकता. बिना कोई सवाल किए सैनिक-पूजा पर यह आक्रामक जोर, जिसमें खुद को “उदारवादी” कहने वाले लोग भी शामिल हैं, एक बीमार, खतरनाक खेल है जिसका सपना एक उन्मादी कुलीनतंत्र देखता है. इससे न सैनिकों का भला होता है और न ही नागरिकों का. और अगर आप भारत की मौजूदा सीमाओं के भीतर उन जगहों की फेहरिश्त पर एक बारीक नजर डालें जहां सुरक्षा बल तैनात किए जाते रहे हैं तो एक गैरमामूली तथ्य उभर कर सामने आता है – उन इलाकों में आबादी मुख्यत: मुसलमान, ईसाई, आदिवासी, सिख और दलित है. हमें जिसका हुक्म मानते हुए बिना सोचे सलामी दागने को कहा जा रहा है, वो अनिवार्य रूप से एक प्रभुत्वशाली सवर्ण हिंदू राज्य है, जो अपने इलाकों को फौजी ताकत के बूते पर ठोक-पीट कर एकजुट रखता है.

इसकी जगह अगर हममें से कुछ लोग एक ऐसा समाज बनाने का सपना देखें, जिससे लोग जुड़ने की ख्वाहिश रखें, तो क्या हो? क्या हो अगर हममें से कुछ लोग एक ऐसे समाज में रहने का सपना देखें जिसका हिस्सा बनने के लिए लोग मजबूर न किए जाएं? क्या हो अगर हममें से कुछ लोगों के औपनिवेशिक, साम्राज्यवादी सपने न हों? क्या हो अगर इसकी जगह हममें से कुछ का सपना इंसाफ का हो? क्या यह एक आपराधिक काम है?

तो असल में झंडे लहराने और छाती पीटने वाली इस नए जुनून का मतलब क्या है? यह क्या छुपाने की कोशिश कर रही है? हमेशा की वही चीजें: एक डूबती हुई अर्थव्यवस्था और चुनावी वादों से एक भयानक धोखेबाजी जो भाजपा ने भोली-भाली जनता और अपने कॉरपोरेट थैलीशाहों से की थी. अपने चुनावी अभियान के दौरान मोदी ने मोमबत्ती के दोनों सिरों को धधका दिया था. उन्होंने फूहड़ तरीके से गरीब गांवावालों से वादा किया था कि जब वे सता में आ जाएंगे तो उनके बैंक खातों में जादू की करतब से 15 लाख रुपए आ जाएंगे. वो अमीर भारतीयों द्वारा चोरी से टैक्स बचाने के लिए विदेश ले जाए गए अरबों रुपयों के गैरकानूनी धन को देश में लाकर गरीबों में बांटने वाले हैं. उसमें से कितना अवैध धन वापस लाया गया? बहुत ज्यादा नहीं. उनमें से कितने का फिर से बंटवारा हुआ? करीब जीरो दशमलव जीरो जीरो, सारे आंकड़े रुपए में हैं. इस बीच कॉरपोरेशन बड़ी बेसब्री से नए भूमि अधिग्रहण अधिनियम की राह देख रहे थे, जो कारोबारियों के लिए गांव वालों से जमीन लेना आसान बनाएगी. यह विधेयक ऊपरी सदन में पास नहीं हो सका. देहाती इलाकों में खेती का संकट गहरा गया है. जबकि बड़े कारोबारों के हजारों करोड़ रुपए के कर्जे माफ कर दिए गए, कर्जे के चक्र में फंसे हजारों छोटे किसान – जिनके कर्जे कभी भी माफ नहीं होंगे – आत्महत्याएं करते जा रहे हैं. 2015 में अकेले महाराष्ट्र राज्य में 3,200 से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की है. उनकी खुदकुशियां भी संस्थागत हत्याओं का एक रूप हैं, जैसी रोहिथ वेमुला की थी.

अपने बेलगाम चुनावी वादों की जगह नई सरकार के पास देने के लिए उसी किस्म की चीजें हैं जो भगवा शेयर बाजार में अमूमन होती हैं: एक अच्छे गुजर-बसर की उम्मीद में पैसे खर्च कीजिए और हर वक्त के हीस्टीरिया वाली एक रोमांचक जिंदगी घर ले आइए. एक ऐसी जिंदगी जिसमें आप अपने पड़ोसी से नफरत करने को आजाद हैं और अगर हालात सचमुच बुरे हो जाएं और अगर आप सचमुच चाह लें तो अपने दोस्तों के साथ मिल कर आप उनकी जान ले लेने तक उन्हें पीट सकते हैं.

जेएनयू में खड़े किए गए संकट ने बड़ी कामयाबी के साथ एक अजीब सी त्रासदी पर से हमारा ध्यान हटा दिया, जो इस देश के सबसे असुरक्षित लोगों के सामने आ पड़ी है. बस्तर, छत्तीसगढ़ में खनिजों के लिए जंग फिर से छेड़ी जा रही है. ऑपरेशन ग्रीन हंट मोटे तौर पर नाकाम रहा था, जो पिछली सरकार द्वारा जंगल को इसके तकलीफदेह बाशिंदों से खाली कराने की एक कोशिश थी ताकि उसे खनिज और बुनियादी ढांचे वाली कंपनियों के हाथों सौंपा जा सके. सरकार द्वारा इस इलाके को लेकर निजी कंपनियों के साथ किए गए सैकड़ों करारनामों में से अनेक जमीन पर नहीं उतर पाए हैं. दुनिया के सबसे गरीब लोगों में से एक बस्तर की जनता ने कई बरसों से सबसे धनी कॉरपोरेशनों की राह रोक रखी है. अब फिर से, अब तक अनाम ऑपरेशन ग्रीन हंट दो की तैयारियां चल रही हैं, हजारों आदिवासी फिर से जेल में हैं, जिनमें से ज्यादातर पर माओवादी होने का आरोप है.

जंगल को सभी गवाहों से खाली कराया जा रहा है – पत्रकार, कार्यकर्ता, वकील और अकादमीशियन. जो कोई भी राज्य-बनाम-“माओवादी आतंकवादी” के इस साफ-सुथरे खाके को गंदा करेगा वो भारी खतरे में है. असाधारण आदिवासी स्कूल शिक्षिका और कार्यकर्ता सोनी सोरी पर, जो 2011 में जेल में डाल दी गईं लेकिन जो 2014 में छूटने के बाद सीधे अपने संगठन के काम में लग गईं, हाल ही में हमला हुआ और उनके चेहरे पर एक ऐसी चीज फेंक दी गई, जिसने उनकी चमड़ी जला दी. इसके बाद वो बस्तर में एक बार फिर अपने काम पर लौट गई हैं. एक जले हुए चेहरे के साथ. महिला वकीलों का एक छोटा सा समूह जगदलपुर लीगल एड ग्रुप, जो कैद किए गए आदिवासियों को कानूनी सहायता मुहैया कराता था, और मालिनी सुब्रमण्यम को, जिनकी बस्तर से खोज-बीन करती रिपोर्टें स्थानीय पुलिस के लिए शर्मिंदगी का स्रोत बनी थीं, बेदखल कर दिया गया और उन्हें जगह छोड़ कर चले जाने को मजबूर कर दिया गया. बस्तर के पहले आदिवासी पत्रकार लिंगाराम कोडोपी को, जिनको खौफनाक यातनाएं दी गईं और तीन बरसों तक जेल में रखा गया, अब धमकियां मिल रही हैं और उन्होंने हताशा में घोषणा की है कि अगर उन्हें धमकाया जाना बंद नहीं हुआ तो वे खुदकुशी कर लेंगे. चार दूसरे स्थानीय पत्रकारों को झूठे आरोपों में गिरफ्तार कर लिया गया है, इसमें एक वो पत्रकार भी शामिल है जिसने व्हाट्सएप पर पुलिस के खिलाफ टिप्पणियां पोस्ट की थीं. एक शोधकर्ता बेला भाटिया जिस गांव में रहती हैं, वहां एक भीड़ उनके खिलाफ नारे लगाते हुए आई और उनके मकानमालिक को धमकाया. अर्धसैनिक टुकड़ियां और हत्यारे दस्तों ने बेधड़क फिर से गांवों पर हमले और लोगों को आतंकित करना शुरू कर दिया है, उन्हें अपने घरों को छोड़ कर जंगल में भाग जाने पर मजबूर कर रहे हैं जैसा कि उन्होंने ऑपरेशन ग्रीन हंट एक के दौरान किया था. बलात्कार, छेड़छाड़, लूट और डाके के खौफनाक ब्योरे रिस-रिस कर आ रहे हैं. भारतीय वायु सेना ने हेलीकॉप्टरों से हवा से जमीन पर फायरिंगी का “अभ्यास” शुरू कर दिया है.

जो कोई भी कॉरपोरेटों द्वारा आदिवासियों की जमीन पर कब्जे की आलोचना करता है उसे प्रतिबंधित माओवादियों का “हमदर्द” एक राष्ट्र-विरोधी कहा जाता है. हमदर्दी एक अपराध भी है. टीवी स्टूडियो में आए जो मेहमान बहस में थोड़ी-बहुत समझदारी लाने की कोशिश करते हैं, उन्हें चिल्ला-चिल्ला कर चुप करा दिया जाता है और राष्ट्र के प्रति अपनी वफादारी दिखाने को मजबूर किया जाता है. यह उन लोगों के खिलाफ एक जंग है, जिनके पास मुश्किल से उतना होता है कि वे दिन में एक बार पेट भर सकें. इसके तहत राष्ट्रप्रेम की कौन सी खास किस्म आ सकती है? हमसे ठीक-ठीक किस चीज के लिए गर्व करने की उम्मीद की जाती है?


हमारे लंपट राष्ट्रवादियों को यह समझ में आता नहीं दिख रहा है कि वे जितना इस खोखली नारेबाजी पर जोर देते हैं, जितना वे लोगों “भारत माता की जय!” कहने को मजबूर करते हैं और यह ऐलान करते हैं कि “कश्मीर भारत का एक अभिन्न हिस्सा है” वे उतने ही खोखले लगते हैं. हमारे गले में ठूंस कर भरा जा रहा यह राष्ट्रवाद हमारे अपने देश से प्यार करने के बजाए एक दूसरे देश – पाकिस्तान – से नफरत करने के बारे में है. इसका रिश्ता अपनी जमीन और इसके लोगों से प्यार करने के बजाए, इलाके को सुरक्षित बनाने से ज्यादा है. विरोधाभासी रूप से, जिन लोगों को राष्ट्र-विरोधी कह कर बदनाम किया जा रहा है, वही लोग हैं जो नदियों की मौत और जंगलों के खत्म होते जाने के बारे में बातें करते हैं. ये वही लोग हैं जो हमारी जमीन को जहरीला बनाए जाने और गिरते हुए पानी के स्तर को लेकर फिक्रमंद हैं. दूसरी तरफ “राष्ट्रवादी” खनन करने, बांध बनाने, जंगलों की पूरी तरह कटाई, पहाड़ों को उड़ाने और बेचने की बातें करते हैं. उनके कायदे में, खनिजों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को थाली में परोस कर बेचना देशभक्ति का काम है. उन्होंने झंडे का निजीकरण कर दिया है और भोंपू छीन कर अपने हाथ में ले लिया है.

गिरफ्तार किए गए तीनों जेएनयू छात्र अंतरिम जमानत पर बाहर हैं. कन्हैया कुमार के मामले में उच्च न्यायालय के जज का जमानत आदेश राहत पहुंचाने से ज्यादा आशंकाओं की वजह बना: “जब भी एक अंग में कुछ संक्रमण फैल जाता है, तो मुंह के जरिए कुछ एंटीबायोटिक्स देकर और अगर यह काम न करे तो इलाज के दूसरे तरीकों से इसे ठीक करने की कोशिश होती है. कभी-कभी इसको कुछ सर्जिकल इलाज की जरूरत भी होती है. लेकिन अगर संक्रमण के नतीजे में अंग का संक्रमण बढ़ कर गैंग्रीन बन गया हो तो उस अंग को काट कर अलग कर देना ही अकेला इलाज है.” 
अंग को काट कर हटा देना? इससे उनका क्या मतलब हो सकता था?
छूटने के फौरन बाद कन्हैया जेएनयू कैंपस में आए और हजारों छात्रों के हुजूम के सामने वह भाषण दिया, जो अब मशहूर हो चुका है. इससे फर्क नहीं पड़ता कि उन्होंने जो कहा, उसकी हर बात से आप राजी हैं या नहीं. मैं नहीं थी. लेकिन जिस जज्बे के साथ उन्होंने वो बातें कहीं, वो जादुई था. उसने खौफ और उदासी की उस चादर को तार-तार कर दिया, जो हम सब पर कोहरे की तरह छा गई थी. रातोरात, कन्हैया और उनके गुस्ताख दर्शक दसियों लाख लोगों के दुलारे बन गए. यही बात बाकी दोनों छात्रों उमर खालिद और अनिर्बाण भट्टाचार्य के साथ भी हुई. अब दुनिया भर के लोगों ने उस नारे को सुन लिया था, जिसे भाजपा खामोश करना चाहती थी: “जय भीम! लाल सलाम!”

और इस पुकार के साथ रोहिथ वेमुला का जज्बा और जेएनयू का जज्बा एक साथ आ मिला. यह एक नाजुक और बारीक एकजुटता थी, जिसका अंत मुमकिन है कि दुखद हो– अगर यह अंत अब तक न हो चुकी हो – और जिसमें मुख्यधारा के राजनीतिक दल, एनजीओ और इसके अपने भीतरी विरोधाभास अपने हाथ आजमाएंगे. जाहिर है कि “वामपंथ” और “आंबेडकरी” और “ओबीसी लोग” अपने आप में एकसार दर्जे नहीं हैं. लेकिन अगर मोटे तौर पर भी कहा जाए तो मौजूदा वामपंथ ज्यादातर सिद्धांत के मामले में जाति को लेकर अस्पष्ट रहा है और इसकी तरफ से आंखें मूंद कर उसने इस अस्पष्टता को कायम रखा है. (इसे कहा जाना चाहिए कि इसका एक गैरमामूली अपवाद दिवंगत अनुराधा गांधी का लेखन है.) इसका मतलब यह हुआ कि वाम की तरफ झुकाव रखने वाले अनेक दलित और ओबीसी लोगों को कड़वे अनुभव का सामना करना पड़ा और अब उन्होंने खुद को अलग कर लेने का फैसला कर लिया है और इस तरह अनजाने में ही वो उन जातीय बंटवारों को गहरा बना रहे हैं और उस व्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं जो किसी भी तरह की एकजुटता की संभावनाओं को खत्म करते हुए खुद को कायम रखती है.

ये सारे जख्म सताएंगे, हम एक दूसरे को चीर-फाड़ कर तार-तार कर देंगे, दलीलें और आरोप पागल कर देने वाले तरीकों से उछाले जाएंगे. लेकिन इस पल के बीत जाने के बाद भी, हिंदुत्व के एजेंटों के साथ इस टकराव से पैदा हुए रेडिकल विचारों का हमेशा के लिए खत्म हो जाना नामुमकिन है. वो बने रहेंगे और बढ़ते रहेंगे. उन्हें बढ़ना ही चाहिए, क्योंकि वे ही हमारी अकेली उम्मीद हैं.


“आजादी!” की टेक के असली मतलब, उसकी असली राजनीति पर बहस शुरू भी हो चुकी है. क्या कन्हैया ने यह नारा कश्मीरियों से लिया है? हां, उन्होंने लिया है. (और कश्मीरियों ने इसे कहां से लिया है? शायद नारीवादियों से या फ्रांसीसी क्रांति से.) क्या नारे को कमजोर किया जा रहा है? जहां तक उन लोगों की बात है जो इसे कश्मीर में लगाते हैं तो यकीनन ही इसे कमजोर किया जा रहा है. क्या इसे गहराई दी जा रही है? हां, यह भी किया जा रहा है. क्योंकि पितृसत्ता से, पूंजीवाद से और ब्राह्मणवाद से आजादी के लिए लड़ना राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के लिए संघर्ष जितना ही रेडिकल है.

शायद जब हम आजादी के सच्चे, गहरे मतलब पर बहस कर रहे हैं, तो देश की सरजमीन पर पिछले कुछ महीनों में होने वाली घटनाओं से हैरान होने वाले लोग खुद से यह पूछें कि जब दूसरी जगहों में कहीं बदतर चीजें घट रही हैं, वे इन सबसे जुदा इतने शांत कैसे बने रहे? क्यों जहां हमारे विश्वविद्यालयों के कैंपसों में आजादी की मांग करना हमारे लिए ठीक है, जबकि कश्मीर, नागालैंड और मणिपुर में आम लोगों की जिंदगियों पर फौज की निगरानी है और उनके ट्रैफिक जाम को चालू कराने का काम भी एके 47 लिए हुए वर्दीधारी लोग करते हैं? ज्यादातर भारतीयों के लिए एक अकेली गर्मी के मौसम के दौरान कश्मीर की सड़कों पर 112 नौजवानों की हत्याओं को कबूल कर लेना क्यों आसान है? क्यों हम कन्हैया और रोहिथ वेमुला की इतनी फिक्र करते हैं, लेकिन शाइस्ता हमीद और दानिश फारूक जैसे छात्रों की इतनी कम चिंता करते हैं जो उससे ठीक एक दिन पहले कश्मीर में गोलियों से मार दिए गए थे, जिस दिन जेएनयू को बदनाम करने का अभियान शुरू किया गया था? “आजादी” एक बहुत बड़ा शब्द है और खूबसूरत भी. हमें अपने जेहन को इसमें बसा लेना चाहिए, न कि बस इससे खेलना चाहिए. मेरा मतलब इस कदर महान होने से नहीं है जिसमें हम सभी एक दूसरे की लड़ाइयों को कदम से कदम मिलाते हुए लड़ें और एक दूसरे के दर्द को एकसमान गहराई के साथ महसूस करें. कहना सिर्फ यह है कि अगर हम आजादी के लिए एक दूसरे की तड़प को नहीं पहचानते, अगर हम नाइंसाफियों को नहीं पहचानते जबकि वे हमारी आंखों से आंखें मिला कर देख रही हैं, तो हम नैतिक पतन के चोर गड्ढे में एक साथ ही गिरेंगे.

भाजपा की मेहनत का फल यह है कि छात्र, बुद्धिजीवी और यहां तक कि मुख्यधारा के मीडिया के हिस्सों ने भी देख लिया है कि कैसे नफरत का इसका घोषणा पत्र हमें अलग-अलग बांट रहा है. थोड़ा-थोड़ा करके लोग इसके मुकाबले में खड़े होने लगे हैं. अफजल का भूत दूसरे विश्वविद्यालयों के कैंपसों में भी घूमने लगा है.

जैसा कि ऐसी घटनाओं के बाद अक्सर होता है, इसमें शामिल हरेक शख्स जीत का दावा कर सकता है और आम तौर पर करता है. भाजपा का ऐसा अनुमान लगाती दिख रही है कि मतदाताओं का “राष्ट्रवादियों” और “राष्ट्र-विरोधियों” में ध्रुवीकरण कामयाब रहा है और यह इसके लिए भारी राजनीतिक फायदे लेकर आया है. पछतावे के किसी संकेत से कहीं दूर, इसने सारे लगाम ढीले छोड़ दिए हैं.

कन्हैया, उमर और अनिर्बाण की जिंदगियां संघ परिवार के आला कमान से तारीफ चाहने वाले बदमाश हत्यारों की ओर से सचमुच के खतरे में हैं. एफटीआईआई के पैंतीस छात्रों (हरेक पांच में से एक) पर आपराधिक मुकदमा दर्ज है. वे जमानत पर छूटे हैं, लेकिन उन्हें पुलिस को नियमित रूप से रिपोर्ट करना होता है. हैदराबाद विवि में भारी नफरत के केंद्र रहे वीसी अप्पा राव पोडिले, जो जनवरी में छुट्टी पर चले गए थे और जिन पर रोहिथ को खुदकुशी की तरफ धकेलने वाले हालात पैदा करने के जिम्मेदार होने का आरोप लगाते हुए एक केस दर्ज किया गया था, फिर से कैंपस में नमूदार हुए. इसने छात्रों को आक्रोशित कर दिया. जब उन्होंने विरोध जताया, पुलिस ने कैंपस पर धावा बोला, उन्हें बेरहमी से पीटा और 25 छात्रों और दो फैकल्टी सदस्यों को गिरफ्तार करके कई दिनों तक कैद रखा. पुलिस ने कैंपस की घेरेबंदी कर रखी है – विडंबना देखिए कि ऐसा तेलंगाना राज्य की पुलिस कर रही है जिसे बनाने के लिए कैंपस के बेशुमार छात्रों ने इतनी लंबी और इतनी मुश्किल लड़ाई लड़ी. हैदराबाद विवि के गिरफ्तार छात्रों के ऊपर भी अब गंभीर मामले दर्ज कर दिए गए हैं. उन्हें वकीलों और उनका भुगतान करने के लिए पैसों की जरूरत है. आखिर में अगर वे छूट भी जाते हैं, तो इस भारी उत्पीड़न से उनकी जिंदगियां तबाह हो सकती हैं.

यह सिर्फ छात्रों का मामला ही नहीं है. पूरे देश में वकील, कार्यकर्ता, लेखक, फिल्मकार – जो कोई भी सरकार की आलोचना करता है - गिरफ्तार किया जा रहा है, जेल में डाला जा रहा है या फिर फर्जी कानूनी मुकदमों में उलझा दिया जा रहा है. जब हम राज्य चुनावों की ओर - खास कर 2017 में उत्तर प्रदेश के मुकाबले - और 2019 के आम चुनावों की तरफ बढ़ रहे हैं तो हम गंभीर मुश्किलों, और हर किस्म की मुश्किलों की उम्मीद कर सकते हैं. हमें छल-कपट से भरे रहस्यमय आतंकी हमलों की आशंका करनी चाहिए या शायद उसकी, जिसे आशावादी तरीके से पाकिस्तान से एक “सीमित जंग” कहा जा रहा है. आगरा में 29 फरवरी को एक आम सभा में मुसलमानों को “आखिरी लड़ाई” की चेतावनी दी गई. 5000 लोगों की एक बड़ी, उत्तेजित भीड़ ने नारा लगाया: “जिस हिंदू का खून न खौले, खून नहीं वो पानी है.” आनेवाले बरसों में चुनावों में चाहे कोई भी जीते, एक बार खून में मिल जाने के बाद क्या इस जहर को कभी उतारा जा सकेगा? क्या कोई समाज अपने ताने-बाने के इस कदर रेशा-रेशा होकर उधड़ जाने के बाद उसकी मरम्मत कर पाएगा?

अभी जो हो रहा है वह असल में अव्यवस्था पैदा करने की एक व्यवस्थित कोशिश है, यह ऐसे हालात पर पहुंचने की एक कोशिश है जहां भारतीय संविधान में निहित नागरिक अधिकारों को निलंबित किया जा सके. आरएसएस ने कभी भी संविधान को कबूल नहीं किया. अब आखिरकार इसने खुद को ऐसी जगह पर पहुंचा दिया है, जहां उसको भटका देने की ताकत इसके पास है. यह एक मौके का इंतजार कर रही है. मुमकिन है कि हम एक तख्तापलट के गवाह बनें – जो फौजी तख्तापलट न होने के बावजूद एक तख्तापलट होगा. बस यह शायद समय की ही बात है कि भारत आधिकारिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र नहीं रहेगा. हो सकता है कि हम खुद को पीछे मुड़ कर हेरफेर वाले फर्जी वीडियो और पैरोडी ट्विटर हैंडलों वाले उस दौर को हसरत के साथ देखते हुए पाएं.

हमारे जंगल सैनिकों से भरे हैं और विश्वविद्यालय पुलिस से. उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए जारी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नए दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि कैंपसों की चहारदीवारियां ऊंची हों, जिनके ऊपर कंटीले तारों की बाड़ लगी हो, प्रवेश द्वारों पर हथियारबंद गार्ड हों, पुलिस थाने हों, बायोमीटरिक टेस्ट हों और सेक्योरिटी कैमरे हों. स्मृति ईरानी ने फरमान जारी किया है कि सभी सार्वजनिक विश्विविद्यालयों को 207 फुट ऊंचे खंभों पर राष्ट्रीय झंडा फहराना होगा ताकि छात्र उनकी “पूजा” कर सकें. (ठेके किसको मिलेंगे?) उन्होंने छात्रों के मन में देशभक्ति भरने के लिए सेना को ले आने की योजना का ऐलान भी किया है.

कश्मीर में अंदाजन पांच लाख फौजियों की मौजूदगी ने इसे यकीनी बनाया है कि कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बना दिया जाए, चाहे इसे कश्मीर के लोग चाहें या न चाहें. लेकिन अब मुख्य भूमि पर सैनिकों और कंटीले तारों और जबरन लागू की गई झंडा-पूजा के साथ ऐसा दिखता जा रहा है कि भारत कश्मीर का एक अभिन्न अंग बनता जा रहा है.

देशों के प्रतीकों के रूप में झंडे, ताकतवर और गौर किए जाने लायक चीज हैं. लेकिन रोहिथ वेमुला जैसों का क्या, जिनकी कल्पनाएं देशों के विचार से भी हजारों बरस पहले तक जाती हैं? धरती 4.5 अरब वर्ष पुरानी है. इस पर इंसान सबसे पहले 200,000 वर्ष पहले अस्तित्व में आए. जिसे हम “इंसानी सभ्यता” कहते हैं, वो महज कुछ हजार वर्ष पुरानी है. अपनी मौजूदा सरहदों के साथ एक देश के रूप में भारत 80 से भी कम साल पुराना है. यह साफ है कि हमें थोड़े नजरिए की जरूरत है.

झंडे की पूजा? मेरी रूह या तो इतनी आधुनिक है या फिर इतनी पुरानी कि वो ऐसा नहीं कर सकेगी.

मुझे नहीं पता कि वह आधुनिक है या पुरानी.

शायद वो दोनों ही है.

(द एंड ऑफ इमेजिनेशन: कलेक्टेड एस्सेज़ 1998-2004 की भूमिका से लिया गया. यह किताब हेमार्केट बुक्स से प्रकाशित होने वाली है.)

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