Thursday, April 28, 2016

कितना जानते हैं हम अपने पुरखों के बारे में ? Laxman Singh Bisht Batrohi

कितना जानते हैं हम अपने पुरखों के बारे में ?
Laxman Singh Bisht Batrohi 
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यह चित्र मेरे सम्मान समारोह का है... 29 नवम्बर, 2011 का. अवसर था देहरादून में हिंदी के प्रख्यात प्रगतिवादी कथाकार रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' (1911-1997) के जन्मशताब्दी वर्ष के आयोजन का. चित्र में हिंदी कथा-साहित्य के दो दिग्गज लेखक राधाकृष्ण कुकरेती (1935-2015) (बाएं) और विद्यासागर नौटियाल (1933-2012) (दाएं) पहाड़ी जी की स्मृति को प्रणाम कर रहे हैं.
उस दिन चूँकि मुझे श्री रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' फाउंडेशन के द्वारा 'पहाड़ी सम्मान- 2011' प्रदान किया गया था, इसलिए संयोग से बीच में मैं आ गया था. मेरे बाईं ओर फाउंडेशन के संरक्षक डॉ. उमाशंकर थपलियाल 'समदर्शी' खड़े हैं.
नयी पीढ़ी के कम लोग इस बात को जानते होंगे कि हिंदी में प्रगतिवादी आन्दोलन की मुख्यधारा के जो शीर्षस्थ कथाकार थे, पहाड़ी जी का नाम उनमें पहली पंक्ति के लेखकों में लिया जाता है. वह अपने दौर के ऐसे लेखक थे जिन्होंने कभी विचारधारा से समझौता नहीं किया और आखिरी समय तक कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर बने रहे. कई बार जेल गए लेकिन अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. हिंदी में इस दौर को 'प्रेमचंदोत्तर कथा साहित्य' के नाम से जाना जाता है, जिसके बाकी चर्चित कथाकार थे, अज्ञेय, जैनेन्द्र कुमार, इलाचंद्र जोशी और यशपाल.
श्रीनगर (गढ़वाल) के ग्राम डांग में जन्मे पहाड़ी जी हिंदी और गढ़वाली में समान रूप से लिखते थे. उन्हें उनके प्रशंसक 'गढ़वाल का गोर्की' के नाम से जानते हैं. मुख्य रूप से एक कथाकार पहाड़ी जी की पहली कहानी 1926 में कलकत्ता से प्रकाशित मासिक 'सरोज' में प्रकाशित हुई. ख्यातिप्राप्त अंग्रेजी दैनिक 'स्टेट्समैन', 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' और 'अमृत बाज़ार पत्रिका' के वह चर्चित संवाददाता रहे हैं.
उत्तराखंड के ग्रामीण, खासकर जनजातीय जन-जीवन पर लिखने वाले वह पहले कथाकार हैं. उनसे पहले सुमित्रानंदन पन्त और चन्द्रकुंवर बर्त्वाल ने पहाड़ी जीवन पर कवितायेँ अवश्य लिखी हैं, लेकिन कथा-साहित्य में यहाँ के जीवन के चित्र उकेरने वाले वह सबसे पहले लेखक हैं. 1926 से 1948 तक वह क्रांतिकारियों के संपर्क में रहे और कुछ समय भूमिगत रहकर भी उनकी मदद की.
पहाड़ी जी के चर्चित कहानी-संग्रह हैं - अधूरा चित्र (1942), बया का घोंसला (1944), सफ़र (1945), नया रास्ता (1946), मौली (1946),छाया में (1947), शेषनाग की थाती (1948), कैदी और बुलबुल (1951), पहाड़ी की प्रेम कहानियां (1976) बड़े भेजी(1945) आदि. प्रमुख उपन्यास हैं 'निर्देशक' (1944), 'सराय' (1946) और 'चलचित्र (1948). तीनों उपन्यास बम्बई में फिल्मों के लिए लिखे गए.
सबसे ताज्जुब की बात यह है कि छोटे और अ-महत्वपूर्ण लेखकों को लेकर नेट में जानकारियां और चित्र मौजूद हैं, पहाड़ी जी जैसे बड़े लेखक का एक भी चित्र उपलब्ध नहीं है, न उनके नाम से कोई साईट उपलब्ध है.
इस सन्दर्भ में उत्तराखंड की युवा पीढ़ी को पहल करनी चाहिए.

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