Thursday, April 28, 2016

Urmilesh Urmil वे JNU के खिलाफ इस कदर हाथ धोकर क्यों पड़े हैं? हाल के वषों॓ में JNU के छात्रों की संख्या ही नहीं बढ़ी है, उनकी सामाजिक आथि॓क पृष्ठभूमि भी बदली है. बहुत सामान्य पृष्ठभूमि के दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदाय के युवा भी यहां एम. फिल्-पीएच. डी. के लिये आने लगे हैं. कैम्पस का स्वरूप और चरित्र यहां वैसे भी हमेशा से अखिल भारतीय रहा है. किसी एक क्षेत्र विशेष का वच॓स्व कभी नहीं रहा. यहां से निकलने वाले छात्र अपनी प्रतिभा और कौशल के चलते पूरे देश की सामूहिक चेतना को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. सांप्रदायिक-संघी-ब्राह्मणवाद के खिलाफ बीते डेढ़ दो बरसों के दौरान वैचारिक स्तर पर सबसे मुखर प्रतिरोध जिन कुछ कैम्पसों में सबसे ज्यादा हुआ, उनमें JNU सबसे आगे रहा. पहले भी यह विश्वविद्यालय वाम रूझान वाले माहौल के कारण 'परिवार' की आंख में गड़ता रहा है. समाज विज्ञान के क्षेत्र में यहां का अध्ययन अध्यापन सेक्युलर लोकतांत्रिक मूल्यों और विचारों को ताकत देता रहा है. यही कारण है कि वे सत्ता में आने के बाद अब इस कैम्पस को बर्बाद करने पर तुले हैं. BHU आदि की तरह इसे भी वे अपना अड्डा बनाना चाहते हैं. पर JNU जूझने के मूड में आ गया है. अपने वजूद को बचाने के लिये उसे समाज की अन्य लोकतांत्रिक शक्तियों से मिलकर वृहत्तर लड़ाई का हिस्सा बनना ही पड़ेगा. दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदायों और सवण॓ समाज के प्रगतिशील तबकों को भी समझना होगा कि JNU के छात्रों का प्रतिरोध वास्तविक अथो॓ में बहुजन प्रतिरोध का ही हिस्सा है.


वे JNU के खिलाफ इस कदर हाथ धोकर क्यों पड़े हैं? हाल के वषों॓ में JNU के छात्रों की संख्या ही नहीं बढ़ी है, उनकी सामाजिक आथि॓क पृष्ठभूमि भी बदली है. बहुत सामान्य पृष्ठभूमि के दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदाय के युवा भी यहां एम. फिल्-पीएच. डी. के लिये आने लगे हैं. कैम्पस का स्वरूप और चरित्र यहां वैसे भी हमेशा से अखिल भारतीय रहा है. किसी एक क्षेत्र विशेष का वच॓स्व कभी नहीं रहा. यहां से निकलने वाले छात्र अपनी प्रतिभा और कौशल के चलते पूरे देश की सामूहिक चेतना को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. सांप्रदायिक-संघी-ब्राह्मणवाद के खिलाफ बीते डेढ़ दो बरसों के दौरान वैचारिक स्तर पर सबसे मुखर प्रतिरोध जिन कुछ कैम्पसों में सबसे ज्यादा हुआ, उनमें JNU सबसे आगे रहा. पहले भी यह विश्वविद्यालय वाम रूझान वाले माहौल के कारण 'परिवार' की आंख में गड़ता रहा है. समाज विज्ञान के क्षेत्र में यहां का अध्ययन अध्यापन सेक्युलर लोकतांत्रिक मूल्यों और विचारों को ताकत देता रहा है. यही कारण है कि वे सत्ता में आने के बाद अब इस कैम्पस को बर्बाद करने पर तुले हैं. BHU आदि की तरह इसे भी वे अपना अड्डा बनाना चाहते हैं. पर JNU जूझने के मूड में आ गया है. अपने वजूद को बचाने के लिये उसे समाज की अन्य लोकतांत्रिक शक्तियों से मिलकर वृहत्तर लड़ाई का हिस्सा बनना ही पड़ेगा. दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदायों और सवण॓ समाज के प्रगतिशील तबकों को भी समझना होगा कि JNU के छात्रों का प्रतिरोध वास्तविक अथो॓ में बहुजन प्रतिरोध का ही हिस्सा है.

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