Thursday, August 4, 2016

महाश्वेता देवी की याद Mangalesh Dabral

महाश्वेता देवी की याद
Mangalesh Dabral
लगभग अस्सी साल पहले प्रेमचंद ने कहा था कि ‘ साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल होता है.’ हमारे समय में अगर किसी एक साहित्यकार पर यह कथन लागू होता है तो वे महाश्वेता देवी थीं. उनके जीवन और लेखन के बीच कोई फांक नहीं थी और अपने काम से उन्होंने यह बताया कि तीसरी दुनिया और खासकर भारत जैसे विकासशील देश में एक सच्चे लेखक की भूमिका कैसी होनी चाहिए और उसे किस तरह उस समाज से जुड़ना चाहिए जिसके बारे में वह लिख रहा है. यह अकारण नहीं है कि वे एक बड़ी लेखिका होने के साथ उतनी ही बड़ी एक्टिविस्ट भी थीं, आदिवासियों के बीच घुल-मिल गयी थीं और राजनीतिक मसलों पर भी इतनी मुखर थीं जितना उनका कोई समकालीन लेखक नहीं था. उन्होंने नब्बे वर्ष की भरपूर उम्र में संसार से विदा ली, लेकिन पुरुलिया के वे खरिया और लोधा शबर और झारखण्ड और गुजरात के वे आदिवासी अपने को बहुत विपन्न महसूस कर रहे होंगे जिनके मानवीय सम्मान और अधिकारों के लिए वे जीवन भर संघर्ष करती रहीं. इनमें ज़्यादातर वे जनजातियाँ थीं जिन्हें अंग्रेज़ी हुकूमत ने ‘ज़रायमपेशा’’ घोषित किया था.
महाश्वेता देवी चौदह जनवरी १९२६ को ढाका के एक संस्कृति-समृद्ध परिवार में जन्मी थीं. पिता मनीष घटक कल्लोल आन्दोलन के प्रमुख कवि और उपन्यासकार थे और ‘वर्तिका’ नामक पत्रिका का सम्पादन करते थे, मां धरित्री देवी भी लेखिका थीं और चाचा ऋत्विक घटक बाद मेदेश के बड़े फिल्मकार बने. उनका विवाह भी बिजन भट्टाचार्य से हुआ जो अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी और इप्टा के सक्रिय सदस्य थे और बंगाल के अकाल पर लिखा उनका नाटक ‘नवान्न’ बहुत लोकप्रिय हुआ था. शांति निकेतन से पढी हुई महाश्वेता आजीवन प्रतिबद्देह वामपंथी राजनीति से जुडी रहीं हालाँकि उनकी जीवनदृष्टि पार्टीगत वामपंथ से बहुत आगे और व्यापक थी और गलत लगने पर उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टियों की नीतियों का विरोध भी किया.
अपनी कई कृतियों में महाश्वेता ने ऐसे ज्वलंत विषयों को चित्रित किया जो उससे पहले कभी साहित्य का हिस्सा नहीं बने थे. उनका उपन्यास ‘ हज़ार चौरासी की मां’ (जिस पर गोविन्द निहालानी की फिल्म बहुत चर्चित हुई) अगर पहली बार नक्सलबाड़ी विद्रोह में मारे गए निर्दोष नौजवान की मां का हृदय -विदारक दस्तावेज़ है तो ‘ जंगल के दावेदार’ में पहली बार बिरसा मुंडा के ऐतिहासिक मुक्ति-संघर्ष को उजागर करता है. इसी तरह उनकी ‘स्तनदायिनी’ और ‘द्रौपदी’ को स्त्री-विमर्श की पहली कहानियाँ माना जा सकता है. आदिवासी समाज को अपने लेखन का केंद्र बनाकर महाश्वेता देवी ने बांग्ला उपन्यास के पारंपरिक, ग्रामीण, लोकपरक, पारिवारिक और रूमानी स्वरूप को भी बदल दिया और उसे नए भूगोलों की ओर ले गयीं.
आदिवासी जीवन की ओर आकर्षित होने के बारे में एक बातचीत के दौरान महाश्वेता देवी ने इस लेखक से कहा था कि ‘आदिवासी कभी संचय या संग्रह नहीं करता. उसे अगर एक मछली की ज़रुरत है तो वह दो मछलियाँ नहीं मारता. वह निजी संपत्ति बनाने में यकीन नहीं रखता. इसीलिये उसका जीवन एक आदर्श जीवन है.’ महाश्वेता का अपना जीवन भी ऐसा ही था. उन्होंने कभी संचय नहीं किया. हालाँकि उन्हें साहित्य अकादेमी से लेकर ज्ञानपीठ, मैगसेसे समेत अनेकबड़े पुरस्कार मिले, पद्मविभूषण जैसा अलंकरण भी प्राप्त हुआ , लेकिन ज़्यादातर धनराशि उन्होंने आदिम जातियों और गुजरात की हिंसा में मारे गए लोगों के विकास और पुनर्वास में खर्च कर दी और ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा किराए के मामूली घर में गुज़ार दिया. आदिवासियों के बीच वे महाअरण्य की मां थीं और पाठकों के लिए एक ऐसी महान शख्सियत, जिनकी रचनाओं ने देश ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारतीय साहित्य को विलक्षण पहचान दी.

No comments:

Post a Comment