शहीदे आजम भगतसिंह और बाबासाहेब के विचारों और मिशन को साथ लेकर चलने की नई पीढ़ी की इसी कोशिश में आर्थिक सामाजिक राजनैतिक समानता की मंजिलों की दिशाएं हैं और यह सिलसिला जारी रहा तो हम वे मंजिलें हासिल कर ही लेंगे।
बाबासाहेब की 125 वीं जयंती पर हम नई पीढ़ी की नई सोच को ही अंबेडकर मिशन और आंदोलन की सही दिशा मानते हैं।
पलाश विश्वास


हम सच्चे अंबेडकर अनुयायियों से माफी मांगते हैं क्योंकि यदा कदा हम बाबासाहेब के अधूरे मिशन की चर्चा करते हुए अंबेडकरी आंदोलन की दशा और दिशा पर चर्चा के दौरान उन मसीहा वृंद और संगठनों की अच्छी खासी खबर लेने में परहेज नहीं करते,जिनसे किसी न किसी रुप में वे जुड़े हैं और उन्होंने ऐसे मसीहा वृंद या संगठनों की सेवा में तन मन धन,हुनर ,समय और श्रम न्यौच्छावर किया है।
हमें सत्ता की राजनीति से कुछ लेना देना नहीं है और नही पाखंडियों के पाखंड से।
हमें अंबेडकरके असल अनुयायियों से कोई शिकायत नहीं है और न हमें उनके समर्पण,प्रतिबद्धता और त्याग पर कोई संदेह है और हमें उम्मीद हैं कि वे ही बदलाव के हीरावल दस्ता बनेंगे देर सवेर बशर्ते कि वे अंबेजकरी आंदोलन को समय की चुनौतियों के मुकाबले प्रासंगिक और देश व्यापी विश्वव्यापी बनाने के लिए तैयार हों।
बशर्ते कि अंध अनुयायी के बजाय देश के कोने कोने में उत्पीड़ित आम जनता का नेतृत्व करने के लिए आग का दरिया तैरकर निकलने की हिम्मत करते हों ।
सत्ता के रंगभेदी धर्मोन्मादी तंत्र मंत्र यंत्र के मुकाबले खड़ा होने का विवेक और साहस की इसव्कत सबसे ज्यादा दरकार है।
इसबार लेकिन देश दुनिया में अंबेडकर जयंती सिर्फ रस्म अदायगी नहीं रही।मसलन चंद्रपुर में भीमपुत्रियों की मोटर साईकिल रैली ने अलग से अंबेडकरी महिलाओं की बढ़ती सक्रियता को साबित किया है तो भीम यात्रा में बाबासाहेब के विचारों के प्रचार प्रसार के साथ बाबासाहेब के मिशन पर फोकस किया गया।
इससे बड़ी बात यह हुई कि अंबेडकर से अलर्जी रखने वाले मीडिया में भी बाबासाहेब के विचारों और आंदलन पर अच्छा खासा संवाद हुआ और बहुजनों के अलावा सवर्णों में भी अंबेडकर के मिशन की चर्चा हुई।
अभूतपूर्व संकट की घड़ी है और सत्ता के साथ साथ सत्तावर्ग निरंकुश है,जिनका मुकाबला अकेला कोई कर ही नहीं सकता और अकेले इस हत्यारे समय में कोई जी भी नहीं सकता।
हमें मनुष्यता और प्रकृति के हक में धर्मोन्मादी इस रंगभेदी ग्लोबल मुक्त बाजार के खिलाफ हम हाल में एकजुट होना है और वक्त की इसमांग को नजरअंदाज करने वाले बाबासाहेब के अनुयायी हो नहीं सकते क्योंकि एकता का हर प्रयास भारत में मनुस्मृति के राजकाज को मजबूत करता है।
सत्तावर्ग के लोग बढ़ चढ़कर बाबासाहेब के सपनों को पूरा करने का वायदा करते हुए बहुसंख्य जनगण के जनसंहार को तेज करने का अश्वमेध जारी रखा है और देश दुनिया में मनुस्मृति का झंडा फहराने की कोशिशें भी तेज कर दी है,बाबसाहेब को ईश्वर बनाकर उनके मिशन को खत्म करने की तैयारियां भी जोरों पर हैं।
उनका पाखंड बेमिसाल है।
मुंह पर राम राम बगल में छुरियां हैं।
जाति व्यवस्था को बहाल रखना ही उनकी रणनीति है और मनुस्मृति मुकम्मल अर्थशास्त्र है जो मुक्त बाजार के हत्यारों का सबसे बड़ा हथियार है औरयही ब्राह्मणवाद है।
जन्मजात कोई जैसे अछूत नहीं होता वैसे ही हमें समझना होगा कि जनमजात कोई सवर्ण और ब्राह्मण नहीं होता।स्वभाव चरित्र और आचरण से भी अछूत ब्राह्मण हो सकता है।
ब्राह्मण भी दूसरे जन्म के बाद यानी जनेऊ धारण करके सत्ता तंत्र के प्रति प्रतिबद्धता और वैदिकी कर्म कांड में दीक्षित होने के बाद किसी को ब्राह्मण मानता है तो इस देश में जनेउ पहनाकर अछूतों तक को ब्राह्मण और नकली गर्भ के स्वर्ण कलश में आदिवासियों तकको राजपूत बनाने का इतिहास है।
जाति को वैधता देने वाले तंत्र और जाति को मजबूत करने वाले हर मंत्र और हर यंत्र के खिलाफ गोलबंद करके जाति उन्मूलन की मंजिल हासिल किये बिना एक फीसद सत्तावर्ग के अलावा जाति धर्म निर्विशेष हर स्त्री या पुरुष के लिए अखंड गुलामी है।
अगर हम बाबासाहेब की बात करते हैं और उनके मिशन के प्रति समर्पित है तो सबसे पहले जाति तोड़कर समाज और देश को जोडने के लिए हमारी प्रतिबद्धता होनी चाहिए।
अखंड मनुस्मृति और जाति व्यवस्था के दिनोंदिन उत्पादनप्रणाली और उत्पादन संबंधों के ध्वंस,पूंजी के वर्चस्व औरकर्यशक्ति की ताकत के कारण मजबूत होते रहने के बावजूद देश के विश्वविद्यालयों,शैक्षणिक और तकनीकी संस्थानों में व्यापकपैमाने पर आजादी के इतने साल बाद न सिर्फ मनुस्मृति, रंगभेदी भेदभाव,ब्राह्मणवाद,मनुवाद और संघवाद के खिलाफ नारे लगे,बल्कि मनुस्मृति दहन भी जोर शोर से हुआ।
जैसे दक्षिण पंथी सामंतवाद के गढ़ दिल्ली विश्वविद्यालय में आज ही बाबासाहेब की जयंती पर मनुस्मृति जलायी गयी।यह जेएनयू और हैदराबाद,जादवपुर और इलाहाबाद,विश्वभारती के छात्र आंदोलन से किसी मायने में कम नहीं हैं और हमारे बच्चे भविष्य के लिए रोज मुक्ति का रास्ता प्रशस्त कर रहे हैं,यह उसका सबूत है।
रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद अंबेडकरी आंदोलन अब जनजागरण में बदल गया है और छात्र युवा जाति उन्मूलन के बाबासाहेब के एजंडे को आगे ले जाने के लिए देशभर में आंदोलन कर रहे हैं।दमन उत्पीड़न के बावजूद वह आंदोलन जारी है और उसमें नारे भी वे ही हैं और फोकस भी वही है।
बंगाल में मनुस्मृति के खिलाफ आजादी के बाद मतुआ आंदोलन की विरासत के बावजूद कोई आंदोलन तो हुआ ही नहीं है,बल्कि संत फकीर बाउल बौद्धमय विरासत के बावजूद यहां हिंदुत्वकरण की प्रक्रिया बाकी देश के मुकाबले ज्यादा चाकचौबंद है।लेकिन बंगाल के तमाम विश्वविद्यालयों,आईआईएम और आीआईटी में मनुस्मृति के खिलाफ क्रांति का बिगुल छात्र औरयुवा बजा रहे हैं और यह बदलाव के लिए सबसे बड़ा शुभमुहूर्त है।इसे टाला नहीं जा सकता।
हमें सत्तर के दशक से आजतक कैंपस में बाबासाहेब की तस्वीरें लेकर सभी समुदायों के छात्रो युवाओं की तमाम दीवारों को तोड़कर ऐसी ऐतिहासिक बेमिसाल गोलबंदी देखने को नहीं मिली,जिसमें आम जनता और मेहनतकशों और स्त्रियों के हक में पितृसत्ता के विरुद्ध लड़ाई का संकल्प बहुत ठोस है।
इस आंदोलन में पहली बार आदिवासी स्वर भी बहुत प्रमुख दिख रहा है और कश्मीर से लेकर मणिपुर,हिमालय से लेकर दंडकारण्य तक नागरिकों के नागरकि अधिकारों और मानवाधिकारों पर सत्ता के दमनतंत्र की अभूतपूर्व असहिष्णु सक्रियता के बावजूद खुलकर चर्चा हो रही है।
देश के लोकतंत्र और अखंडता के लिए इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता जबकि बाबासाहेब की विचारधारा को अस्मिताओं के आर पार सभी नागरिकों के समान अधिकार और समान अवसर, सामाजिक न्याय,कानून के राज से लेकर आर्थिक मुद्दों तक को बिना राजनीति,सत्ता और दमन के पूरे सैन्यतंत्र की परवाह किये बिना छात्र और युवा जोड़ रहे हैं।जबकि मनुस्मृति विश्वविद्यालयों में सलवा जुडु़म आजमाते हुए आफस्पा लागू करकेउनसे कश्मीर,मणिपुर और दंडकारण्य की तरह निपटना चाहती है।
बंगाल में फासिज्म के खिलाफ गोलबंद सारी ताकतों नें जादवपुर विश्वविद्यालयको बंद कराने की साजिश का सड़क पर मुकाबला किया जबकि जेएनयू को बंद कराने की साजिशें अभी भी जारी हैं।
आईआईटी और आईआईएम की फीस एक झटके से दोगुणी करक दी गयी है।शोध छात्रवृत्ति बंद है और छात्रों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा सिर्प इसलिए चलाया जा रहा है कि वे देश भर में धर्म और जाति,भाषा और क्षेत्र के दायरे तोड़कर बाबासाहेब के मिशन के मुताबिक मनुस्मृति का अंत चाहते हैं।
हमारे ये बच्चे सिर्फ अच्छी नौकरी, बेहतर हैसियत या सत्ता में बागेदारी की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं बल्कि वे विश्वविद्यालय के कैंप से बाहर संसद भवन से लेकर जंतर मंतर के सामने तक भगाना से लेकर खैरांजलि और रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के खिलाफ न्याय चाहते हैं और सभी क्षेत्रों,सभी राज्यों में रहने वाले सभी नागरिकों के नागरिक और मानवाधिकार,उनकी स्वतंत्रता की मांग करते हैं।उनका आंदोलन उनके हितों का आंदोलन नहीं है।देश बेचनेवालों,देस के टुकड़े करने वाले सत्ता वर्ग के खिलाफ समता और न्याय की लड़ाई वे लड़ रहे हैं।
अंबेडकर के सच्चे अनुयायियों को उनके साथ खड़ा होना चाहिए।
आप हमें चाहे अंबेडकरी मानें या अंबेडकरविरोधी हम उन्ही की लड़ाई में उनके साथ हैं और यही हमारा अंबेडकर मिशन है।
सत्ता के बजरंगी बनकर दलित पिछड़ा ओबीसी मुसलमान और स्त्री होकर जो सत्ता की मलाई और मुनाफा वसूली का हिस्सा बटोर रहे हैं,उनका अंबेडकर और अंबेडकर के मिशन से कुछ बी लेना देना नहीं है,यह हम डंके की चोट पर बाबुलंद कहना चाहते हैं।
हम कहना चाहते हैं कि ऐसे तमाम स्त्री पुरुष दरअसल ब्राह्मण है क्योंकि वे ही ब्राह्मणवाद को मजबूत कर रहे हैं और मनुस्मृति के वे ही सिपाहसालार हैं जो जात बेचकर खा रहे हैं,ओढ़ रहे हैं और इस देसके किसानों,मेहनतकशों और बहुजनों की व्यापक एकता का रास्ते में हर किस्म की बाधा बनाये हुए है ताकि वे मजे में रहें।
हमने सत्तर के दशक से रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या से पहले सत्ता पक्ष हो या विपक्ष,मीडिया हो या कैंपस,सर्वत्र मनुस्मृति के खिलाफ इतनी व्यारपक लामबंदी और इस सिलसिले में इस गोलबंदी की नींव बनते बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के मिशन,उनकी विचारधारा को कभी देखा नहीं है।
बहुजनों की राजनीति और जीवन के हरक्षेत्र में उनकी भागेदारी के विरुद्ध जो लोग हैं,वे भी मुक्तबाजार के धर्मोन्मादी समय में बाबासाहेब को एक आलोकस्तंभ की तरह देखते हुए अंधियारा के कारोबार और मध्ययुगीन बर्बर प्रतिक्रियावादी इतिहास और विज्ञानविरोधी मुनाफीवसूली की ताकतों के खिलाफ लड़ने का एकमात्र रास्ता मानरहे हैं।
यह अजीब संजोग है कि परस्परविरोधी विचारधाराओं और देशी विदेशी हितों के प्रति प्रतिबद्ध तमाम समुदायों और नागरिकों की राजनीति बिना अंबेडकर के चल ही नहीं सकती।
यह जितना अच्छा है,उससे ज्यादा खतरनाक है कि कहीं अंबेडकर के कंधों पर राकेट लांचर लगाकर बहुजनों के खात्मे का उपक्रम भी यह हो सकता है।
इसी सिलसिले में अंबेडकरी मिशन को स्वतंत्रता संग्राम की क्रातिकारी विरासत से बाबासाहेब के मिशन को जोड़ने की जो पहल हुई है,उससे इस देश में समता और न्याय,कानून के राज,पर्यावरण और जल जंगल जमीन,किसानों और मेहनतकशों,स्त्रियों के हक हकूक के लिए लड़ाई तेज होने के आसार है।
निजीकरण उदारीकरण ग्लोबीकरण के युद्ध और गृहयुद्ध के धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के खिलाफ सर्वजनहिताय बौद्धमय भारत और उसके पंचशील,शांति और अहिंसा,प्रेम और भ्रातृत्व,साझा चुल्हे की विरासत,सहिष्णुता और बहुलता के लिए भारत की क्रांतिकारी विरासत से,शहीदे आजम भगतसिंह और बाबासाहेब के विचारों और मिशन को साथ लेकर चलने की नई पीढ़ी की इसी कोशिश में आर्थिक सामाजिक राजनैतिक समानता की मंजिलों की दिशाएं हैं और यह सिलसिला जारी रहा तो हम वे मंजिलें हासिल कर ही लेंगे।
बाबासाहेब की 125 वीं जयंती पर हम नई पीढ़ी की नई सोच को ही अंबेडकर मिशन और आंदोलन की सही दिशा मानते हैं।
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