TaraChandra Tripathi
अम्बेदकर. उनका जन्म स्थान महू ( मध्यप्रदेश) मोदी जी की यात्रा ने ढोल दमामा दुड़्मुड़ी सहनाई संग भेरि (कबीर) उसे तीर्थ बना दिया. यह हर सभ्यता और समाज का बहुत पुराना तरीका है कि जिस अग्रगामी का अनुसरण न करना हो उसे अवतार बना दो. अम्बेदकर के साथ भी यही हो रहा है. बस केवल नाम जपते रहो, जनता के अधिकार हड़पते रहो. मायावती जी ने जनता के अरबों रुपये लगा कर भव्य अम्बेदकर स्मारक बना दिया. करोड़ों रुपये लगा कर संगमरमर के हाथियों की फौज खड़ी कर दी. बगल में अपने नेता कांशीराम, अपने माता-पिता, और अपनी भी प्रतिमा स्थापित कर दी. बस जो देखे सो निहाल. दलित-अदलित (गरीब) सब बेहाल. अध्यापिका से मायावती और बाबू से उनका भाई अरबपति बन गये. नेताओं का विकास और दालितों का भिखास हो गया. आरक्षण का रस तो उनके सम्पन्न शहरी वर्ग ने ले लिया, झुनझुना उन्हें पकड़ा दिया. जैसे बहुत से किसान नवजात कटरों भूखा मार देते हैं और उन्हीं की खाल में भूसा भर कर भैंस को पगुराते हैं. यही हाल गांधी और अम्बेदकर के नामों का कर दिया गया है.अम्बेद्कर को अवतार मत बना दीजिये, उनके विचारों की अपने युग के हिसाब से समीक्षा कीजिए. ठहराव विचार की मृत्यु का प्रतीक है. मानना और व्यवहार में लाने में बहुत अन्तर होता है. अम्बेदकर को मानने में और उनके विचारों को युगानुरूप आगे बढाने और लागू करने में बहुत फर्क है. सावधान! स्वार्थी नेता उनके नाम को जनता को पगुराने का माध्यम बनाने में लगे हैं.
फिर बुद्ध के वचनों को याद कीजिए ”अप्प दीपो भव’ जहाँ संशय हो वहाँ पूर्वगरह मुक्त हो कर खुद सोचो.
मिस्र के फराउन, मेसोपोटमिया के नरेश और धनाढ्य व्यक्ति जब मरते थे तो स्वर्ग में भी उन की सुख-सुविधा और प्रतिष्टा के लिए उनके शवाधानों में उत्तम वस्त्र, स्वर्णाभूषण, अन्य सम्पदा ही नहीं, उनकी रानियों, रखैलों, सेवक-सेविकाओं और दरबारियों को भी भी दफनाने की परम्परा थी. यह प्रथा मेसोपोटामिया में दीर्घ काल तक विद्यमान रही. जाँच से पता चला के इन शवाधानों के साथ व्यवस्थित ढंग से लिटाये गये शवों में अधिकतर २०-२५ साल के युवकों के शव हैं, जिन्हें सम्भवत: जहर पिला कर मारा गया था. फराओं के साथ जीवित ही दफनाये जाने वालों में केवल उनके सामान्य सेवक ही नहीं सेनापति, अंगरक्षक, राजमहल का निर्माण और अपनी कारीगरी से भव्य रूप प्रदान करने स्थपति, शिल्पी और चित्रकार भी भी होते थे.
एक युग के बाद मिश्र के फराऊनों ने अनुभव किया कि इस प्रथा से कुशल कारीगरों, चित्रकारों और रणनीति के विशेषज्ञों का अभाव होता जा रहा है. फलत: धीरे धीरे यह प्रथा रानियों, सामान्य सेवकों और उनके प्रिय पालतू पशुओं तक सीमित कर दी गयी. और एक समय ऐसा आया कि सेवकों और दरबारियों के प्रतीक स्वरूप खिलोने रखे जाने लगे.
यह प्रथा केवल मध्यपूर्व के देशों में ही नहीं, अन्य देशों, सम्भवत: भारत में भी दीर्घ काल तक प्रचलित रही और पत्नी के पति के साथ सहमरण या जिन्दा जला दिये जाने के रूप में अपवाद रूप से आज भी विद्यमान है.
वाल्मीकि रामायण का समापन राम के साथ उनके समस्त दरबारियों और अयोध्या के गण्यमान्य लोगों के सरयू में विलीन हो जाने (डूब कर आत्महत्या कर लेने) और देवताओं द्वारा उन्हें अपने विमानों में बिठा कर सीधे स्वर्ग ले जाने के वर्णन के साथ होता है. उसमें यह भी उल्लेख है कि इस घटना के बाद अयोध्या उजड़ गयी थी. दीर्घ काल के बाद ऋषभ नामक राजा ने उसे फिर से बसाया. (देखें वाल्मीकि रामायण उत्तरकांड सर्ग ११० अन्तिम दो श्लोक)
माजरा ्यह है कि केवल श्री राम की राजधानी अयोध्या (अवध) ही नहीं उजड़्ती प्राचीन मिस्र की राजधानी और प्रमुख तीर्थ स्थल अब्दुज (अब्दु- और अवध ?) भी उजड़ कर गया की तरह एक तीर्थ बन कर रह जाती है.
विश्व संस्कृति सागर में कौन सी कथा लहर, कौन सी कथा, कौन सी परम्परा कहां उपजी, यह अपने आप में एक वैज्ञानिक की सा ्निरपेक्ष ( आब्जैक्टिव) गहन अध्ययन और पूर्वापर तारतम्य की अपेक्षा रखता है.
अलबत्ता उन महाज्ञानियों के जो अपने पोखर को ही समुद्र समझ कर उन्मत्त हैं और अपने मिथ्या अहंकार के कारण लगातार बार-बार पिटते हुए भी केवल अपने पोखर से बाहर देखने को तैयार नहीं हैं अपितु जो उन्हें पोखर से बाहर देखने की सलाह देता है उसकी भी जान लेने का अवसर ढूँढते रहते हैं.
विश्व गुरु बनाया बुद्ध और उनके घुमक्कड़ चेलों ने जो ७वीं शताब्दी में तिब्बत,मंगोलिया, चीन,, कोरिया होकर जापान ताथा नय देशों में पहुँचे, और हम हिन्दुओं के धर्मशास्त्रियों ने,जिन्होंने समुद्र यात्रा का ही निषेध कर दिया था, वे विश्वगुरु होने का दावा करते हैं.
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