काश ये वही रहे होते!बटरोही
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कुमाऊँ से साहित्य के दो बड़े नाम शैलेश मटियानी और शेरदा 'अनपढ़'...
अपनी सांस्कृतिक जड़ों को साहित्य में उकेरने की क्षमता रखने वाले इन रचनाकारों की तुलना के लिए भारतीय साहित्य में बिरले ही उदाहरण होंगे.
अपनी सांस्कृतिक जड़ों को साहित्य में उकेरने की क्षमता रखने वाले इन रचनाकारों की तुलना के लिए भारतीय साहित्य में बिरले ही उदाहरण होंगे.
शैलेश मटियानी
हिंदी साहित्य में जब पहली बार शैलेश मटियानी ने 'मुख सरोवर के हंस' नाम से अपना लोकगाथात्मक आख्यान लिखा, हिंदी के पाठकों का पहली बार इस सीमान्त हिमालयी संस्कृति से परिचय हुआ. अब तक जिस इलाके को बनवासी प्रकृतिपुत्रों के भोले-भाले इलाके के रूप में जाना जाता था, पता चला कि वहां पेड़-पौधे, हवा-पानी और बर्फ और चट्टानें ही नहीं है, जीते-जागते आदमी की धडकनें और उनके सपने भी मौजूद हैं. यह इलाका मुख्यधारा की सेवा-सुश्रुषा के लिए ही नहीं है, यहाँ की अपनी भी सांस्कृतिक पहचान है.
अपनी इसी सोच को ध्यान में रहते हुए मैंने 1972 में आगरा विश्वविद्यालय के एमए के पाठ्यक्रम में स्वीकृत कहानी संग्रह 'हिंदी कहानी : पंद्रह पगचिह्न' में उनकी कहानी 'प्रेतमुक्ति' संकलित की. उन दिनों आगरा विवि उत्तर भारत का एकमात्र सम्बद्ध विवि था, इसलिए एक विशाल पाठक वर्ग के साथ उनका परिचय हुआ. इसी चर्चा की वजह से देश-विदेश के अनेक विवि में उनके साहित्य पर शोधकार्य होने लगा. एक प्रगतिशील कथाकार के रूप में उनकी विस्तार से चर्चा होने लगी. हालाँकि वे किसी विचारधारा के पक्षपाती नहीं थे, फिर भी उनका पाठकवर्ग उनके प्रगतिशील और रूढ़ि-विरोधी चरित्रों के कारण उन्हें वामपंथी मानते थे.
कौन जानता था कि घनघोर तर्कवादी इस लेखक का अंत इतनी विडम्बनाओं से भरा होगा. आखिरी दिनों में वे जिस तरह भाजपाई कर्मकांड के साथ जुड़ गए थे, उनके असंख्य पाठकों को उससे कितनी तकलीफ हुई थी, इसे नब्बे के दशक में उन पर चली चर्चाओं को पढ़कर समझा जा सकता है.
आखिर क्यों किया उन्होंने ऐसा... हिंदी की मुख्यधारा की साहित्य-परंपरा का हिस्सा न बन पाने के कारण, हिंदी के चर्चित लेखकों को मुँह चिढाने के कारण, आर्थिक असुरक्षा की वजह से, भारत के सत्ताधारी बड़े नेताओं के साथ परिचय के बाद अपनी भी हैसियत जताने के कारण... या फिर तात्कालिक लाभ की आशा में !
फिर भी जो कुछ हुआ, अच्छा नहीं हुआ.
अपनी इसी सोच को ध्यान में रहते हुए मैंने 1972 में आगरा विश्वविद्यालय के एमए के पाठ्यक्रम में स्वीकृत कहानी संग्रह 'हिंदी कहानी : पंद्रह पगचिह्न' में उनकी कहानी 'प्रेतमुक्ति' संकलित की. उन दिनों आगरा विवि उत्तर भारत का एकमात्र सम्बद्ध विवि था, इसलिए एक विशाल पाठक वर्ग के साथ उनका परिचय हुआ. इसी चर्चा की वजह से देश-विदेश के अनेक विवि में उनके साहित्य पर शोधकार्य होने लगा. एक प्रगतिशील कथाकार के रूप में उनकी विस्तार से चर्चा होने लगी. हालाँकि वे किसी विचारधारा के पक्षपाती नहीं थे, फिर भी उनका पाठकवर्ग उनके प्रगतिशील और रूढ़ि-विरोधी चरित्रों के कारण उन्हें वामपंथी मानते थे.
कौन जानता था कि घनघोर तर्कवादी इस लेखक का अंत इतनी विडम्बनाओं से भरा होगा. आखिरी दिनों में वे जिस तरह भाजपाई कर्मकांड के साथ जुड़ गए थे, उनके असंख्य पाठकों को उससे कितनी तकलीफ हुई थी, इसे नब्बे के दशक में उन पर चली चर्चाओं को पढ़कर समझा जा सकता है.
आखिर क्यों किया उन्होंने ऐसा... हिंदी की मुख्यधारा की साहित्य-परंपरा का हिस्सा न बन पाने के कारण, हिंदी के चर्चित लेखकों को मुँह चिढाने के कारण, आर्थिक असुरक्षा की वजह से, भारत के सत्ताधारी बड़े नेताओं के साथ परिचय के बाद अपनी भी हैसियत जताने के कारण... या फिर तात्कालिक लाभ की आशा में !
फिर भी जो कुछ हुआ, अच्छा नहीं हुआ.
शेरदा अनपढ़
शेरदा 'अनपढ़' के पहले संग्रह 'मेरि लटिपटि' को पढने के बाद मुझे लगा था कि कुमाउनी कविता में पहली बार भारतीय मुख्यधारा की कविता की सार्थक परंपरा का रचनात्मक प्रवेश हुआ है. खासकर 'को छै तू' और 'मुर्दक बयान' जैसी कविताओं को पढ़कर. मुझे इस बात का भरोसा हो चला था कि कुमाऊनी कविता को संसार की किसी भी संपन्न भाषा की कविता की बराबरी में रखा जा सकता है. 'मेरि लटिपटि' की भूमिका में मैंने इस बात को लेकर विस्तार से चर्चा की थी. इसी आधार पर मैंने कुमाऊनी कविता को एमए के पाठ्यक्रम में रखा और बानगी के रूप में शेरदा के कविता संग्रह 'मेरि लटिपटि' को पाठ्य-पुस्तक तय किया.
लेकिन मेरे देखते-देखते ही शेरदा की कुछ हलकी कविताओं पर कवि-सम्मलनों में ठहाके लगने लगे और उनकी देखा-देखी अनेक गंभीर कविताओं में भी ठहाके लगने शुरू हो गए. यह भी मेरे देखते ही हुआ कि शेरदा अपनी कविताओं का पाठ करते हुए खुद ही ठहाके लगाने लगे और ये अपेक्षा करने लगे कि उनकी कविताओं के इस हलके पाठ को ही स्वीकार किया जाये. मैं ऐतराज करता तो वह बुरा मानने लगे और कवि-सम्मेलन के आयोजकों के द्वारा भी उनकी इसी हास्यकवि की छवि को दुहराया जाने लगा.
शेरदा देखते-देखते हास्यकवि हो गए और कुमाऊनी की एक समृद्ध कविता-परंपरा जन्म लेने से पहले ही अपनी विसंगतियों की शिकार हो गयी.
इसे ही कहते हैं असमय प्रसिद्धि और चर्चा के अभिशाप.
दुर्भाग्य से यह प्रवृत्ति इन दिनों भी कुछ रचनाकारों में दिखाई दे रही है. अगर अपने पुरखे लेखकों की सीमाओं से सीख नहीं ग्रहण की गयी तो हम भविष्य में और भी अपनी बड़ी संभावनाओं से वंचित हो जायेंगे.
लेकिन मेरे देखते-देखते ही शेरदा की कुछ हलकी कविताओं पर कवि-सम्मलनों में ठहाके लगने लगे और उनकी देखा-देखी अनेक गंभीर कविताओं में भी ठहाके लगने शुरू हो गए. यह भी मेरे देखते ही हुआ कि शेरदा अपनी कविताओं का पाठ करते हुए खुद ही ठहाके लगाने लगे और ये अपेक्षा करने लगे कि उनकी कविताओं के इस हलके पाठ को ही स्वीकार किया जाये. मैं ऐतराज करता तो वह बुरा मानने लगे और कवि-सम्मेलन के आयोजकों के द्वारा भी उनकी इसी हास्यकवि की छवि को दुहराया जाने लगा.
शेरदा देखते-देखते हास्यकवि हो गए और कुमाऊनी की एक समृद्ध कविता-परंपरा जन्म लेने से पहले ही अपनी विसंगतियों की शिकार हो गयी.
इसे ही कहते हैं असमय प्रसिद्धि और चर्चा के अभिशाप.
दुर्भाग्य से यह प्रवृत्ति इन दिनों भी कुछ रचनाकारों में दिखाई दे रही है. अगर अपने पुरखे लेखकों की सीमाओं से सीख नहीं ग्रहण की गयी तो हम भविष्य में और भी अपनी बड़ी संभावनाओं से वंचित हो जायेंगे.
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