Saturday, April 2, 2016

क्या अयोध्या के नरेश माने जाने वाले रामचन्द्र, जीवन भर विरोध और संघर्ष झेलता वह महानायक, जिनके तथाकथित पौराणिक आवास स्थल पर ही मन्दिर का निर्माण एक राजनीतिक रंग लेकर हठ, विरोध, साम्प्रदायिक तनाव, और एक दल विशेष की राजनीतिक पूँजी बन गया है, क्या ब्रह्मा विष्णु, शिव की तरह केवल एक पौराणिक मिथक हैं ? क्या, (जैसा कि भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत अपने प्रतिवेदन में अंकित किया है,) साहित्यिक आख्यानों के अलावा दाशरथि राम के अस्तित्व का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है. क्यों कोई भी आधिकारिक पुरातत्वविद राम के अस्तित्व को कवि कल्पना से अधिक महत्व नहीं देता?

ताराचंद्र त्रिपाठी
क्या अयोध्या के नरेश माने जाने वाले रामचन्द्र, जीवन भर विरोध और संघर्ष झेलता वह महानायक, जिनके तथाकथित पौराणिक आवास स्थल पर ही मन्दिर का निर्माण एक राजनीतिक रंग लेकर हठ, विरोध, साम्प्रदायिक तनाव, और एक दल विशेष की राजनीतिक पूँजी बन गया है, क्या ब्रह्मा विष्णु, शिव की तरह केवल एक पौराणिक मिथक हैं ? क्या, (जैसा कि भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत अपने प्रतिवेदन में अंकित किया है,) साहित्यिक आख्यानों के अलावा दाशरथि राम के अस्तित्व का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है. क्यों कोई भी आधिकारिक पुरातत्वविद राम के अस्तित्व को कवि कल्पना से अधिक महत्व नहीं देता?
लोक परंपरा के अध्येता के रूप में मेरा मन राम को काल्पनिक पात्र मानने को तैयार नहीं होता. यह हो सकता है राम उत्तराखंड के न्याय देवता राजा ग्वेल की तरह एक सामान्य राजा रहे हों जिनका आख्यान भी एक छोटी सी गाथा से आरम्भ हो कर लोक कल्पना के पंखों का सहारे उसी प्रकार अनेक रातों तक चलने वाली जागर गाथाओं में रूपान्तरित हो गया हो, जैसे कौरवों और पांडवों के बीच उत्तराधिकार के पारिवारिक संघर्ष की कथा जय से आरम्भ हो कर भारत और अन्तत: महाभारत बन गयी ?
जिसकी कथा, केवल भारत के एक समुदाय में ही नहीं, दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों और विभिन्न समुदायों, विभिन्न जातियों और जन जातियों के लोकगीतों और गाथाओं में लोक प्रिय तीन सौ पाठान्तरों के साथ हों विद्यमान हों, केवल एक मिथक या आधार रहित लोक कल्पना मात्र हो, सहसा विश्वास नहीं होता. यह हो सकता है कि यह महानायक कहीं और जन्मा हो और उसकी कथा एशिया के एक कोने से दूसरे कोने तक लगातार चलने वाले व्यापारिक सार्थवाहों की यादों के साथ पूरे महाद्वीप में व्याप्त हो गयी हो और विभिन्न प्रजातियों ने अपनी स्थानीय लोक रंग और नये आख्यानों से जोड़ कर एक नयी कथा का रूप दे दिया हो? .
जब हम विश्व के इतिहास का अनुशीलन करते हैं तो राम के नाम से मिलता जुलता एक ऐसा उदार, कला प्रेमी, युद्धरत होते हुए भी युद्ध की अपेक्षा शान्ति को प्रश्रय देने वाला एक ऐसा नरेश सामने आता है, जिसने पूर्ववर्ती राजवंश द्वारा समाज में प्रचलित धार्मिक मान्यताओं में मनमाने फेरबदल को दूर कर अपने देश के प्राचीन धर्म की पुनर्स्थापना की और जिसे पुरोहितों ने उसके तैतीसवें वर्ष में आयोजित एक धार्मिक अनुष्ठान में ईश्वर का अवतार घोषित कर दिया था. तब से दीर्घ काल तक उसके देशवासी उसे भगवान के रूपमें पूजग्ते रहे.
यह नरेश १२७९ ई.पू. में १४ वर्ष की अवस्था में युवराज घोषित किया गया, अपनी आरम्भिक युवावस्था में गद्दी पर बैठा और १२१३ ई.पू. में अपनी मृत्यु तक लगभग ६६ वर्ष अपने देश पर राज्य करता रहा. न केवल उसने अपने देश को समृद्धि और सुरक्षा प्रदान की, नगरों, एवं भव्य कलाकृतियों का निर्माण किया, अपनी पुरानी राजधानी अभ्यदौस के साथ ही एक नयी भव्य राजधानी का निर्माण किया जो उसके नाम से ही जानी जाती रही. उसने शत्रुता रखने वाले पड़ोसी देशों पर न केवल विजय प्राप्त की अपितु ऐसी संधियाँ कीं जो आज भी राजनीतिक सह अस्तित्व का एक मिसाल मानी जाती हैं.
यह नरेश था मिस्र के उन्नीसवें राजवंश का तीसरा नरेश रामासिस द्वितीय.
यह भी निर्विवाद है कि " विश्व के किसी भी देश या समुदाय की संस्कृति के सारे उपादान केवल उसके और उसके ही नहीं होते. उनमें उन तमाम समुदायों की सांस्कृतिक परम्पराओं का योगदान होता है.अभिप्राय और विचार भूखंडों और सागरों को पार करते हुए, उसी प्रकार संचरण करते हैं, जैसे यान करते हैं. प्रगैतिहासिक मिस्र की छोटी सी सुदूर दुनिया अपने लिए तांबा सुमेरिया के बाजाफ़्रों से खरीदती थी.और मोहनजोदड़ो की मुहरें ऊर और कीश में बिकती थीं, अरारात और तारसुस से कारवां समर्रा येरूसलाम और थीबीज पहुँचते थे और ऐन्तियोक और दमिश्क से चलने वाले कारवाँ घाटियों से गुजरते हुए सूसा और एकबताना पार करते, हिन्दुकुश कीपर्वत शृंखलाओं और चोटियों को पार करते हुए पाटलिपुत्र तथा उज्जैन तक पहुंचते थे. जल प्रलय की वह कहानी--वह घटना (जो लियोनार्ड वुली द्वारा की गयी खुदाई से पता चला) सुमेरिया में हुई थी, असीरिया के राजा असुर बनीपाल के पुस्तकालय की मिट्टी की पकी हुई पट्टिकाओं में अंकित गिलगिमेश महाकाव्य तक ही सीमित नहीं रही, शीघ्र ही विभिन्न रूपों में समस्त सभ्य संसार के साहित्यों का अंग बन गयी. और निप्पुर का उपनिपिश्तुम, बाबुल का जियसद्दू, हिब्रू के हजरत नूह, बाइबिल के नोवा और भारतीय आर्यों के मनु के रूप में अवतरित हुआ. सिन्धु घाटी के नन्दी ने मिस्र के एपिस बैल का रूप लिया और बाबुल का चक्कर काटते हुए हुए वह निनेवेह में वह असुर नरेशों के महलों के रक्षकों के रूप में पंखधारी पुंगव बना. अपादान के स्तम्भों उसकी मानवमुखी आकृति ने दाढ़ी उगा ली और अन्तत: वह अशोक के चक्र के ऊपर आ विराजा. मिस्र के स्तम्भों पर खुदे पुरालेख बाबुल और असुरिया के निवासियों तक पहुँचे और पार्सिपोलिस के स्तम्भों और बेहिस्तून के स्मारकों से गुजरते हुए उन्होंने अशोक कालीन विस्मयकारी स्तम्भ विकसित किये." (भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्रोत, भूमिका भाग )
जन प्रवाह के साथ-साथ कथाएं और परम्पराएं कहाँ से कहाँ पहुंच जाती हैं. फिर कौन अपना कौन पराया. एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो. जब मिलिगे तब एक वरन भे, सुरसरि नाम परो. यही विश्व संस्कृति है.


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