विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के लिए निखिल भारत का अभियान तेज
पूर्वी बंगाल से धार्मिक उत्पीड़न के शिकार भारत आये राजनीतिक शरणार्थियों के खिलाफ रंगभेदी सफाया अभियान
असम में 80 लाख विभाजन पीड़ित हिंदू शरणार्थियों की नागरिकता छीनने के लिए हिंदुत्व के राजकाज में अमानुषिक अल्फाई उत्पीड़न
त्रिपुरा समेत समूचे पूर्वोत्तर में अल्फाई राजकाज का आतंक
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
हस्तक्षेप संवाददाता
कोलकाता।पूर्वी बंगाल भारत के दो राष्ट्रों के सिद्धांत के तहत पहले पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश बना और यह विभाजन आजादी की कीमत है जो सबसे ज्यादा बंगाल और पंजाब ने पहले स्वंत्रतता संग्राम और फिर विभाजन के मध्य चुकाया।इसलिए अखंड भारत के नागरिक पूर्व और पश्चिम पाकिस्तान से आने वाले लोग हर हाल में राजनैतिक शरणार्थी हैं,भुखमरी के शिकार लोग नहीं हैं।असम और पूर्वोत्तर में साठ के दशक से उनका अल्फाई सफाया अभियान जारी हुआ है और विभाजनपीड़ितों के मौजूदा अल्फाई नरसंहार अभियान का मुख्य आधार अब 2003 का काला नागरिकता संशोधन विधेयक कानून है,जिसके तहत असम में गैर असमिया सभी समुदायों के लिए.भारते के दूसरे राज्यों के लोगों के लिए भी अल्फा का एजंडा ही कानून है।
कोलकाता के उपनगर दुर्गानगर में शरणार्थियों की नागरिकता और तमाम दूसरी समस्याओं को लेकर भारत के 22 राज्यों में सक्रिय निखिल भारत उद्वास्तु समन्वय समिति का दो दिवसीय प्रशिक्षण शिविर संपन्न हुआ जिसमें 18 राज्यों के डेलीगेट तेलंगाना लेकर राजस्थान उत्तराखंड यूपी,और दंडकारण्य के मध्य भारत से लेकर असम और पूर्वोत्तर से आये।इस शिविर में शरणार्थी आंदलोन की समीक्षा करते हुए भविष्य के लिए चिंतन मंथन प्रशिक्षण हुआ।मीडिया पर खास चर्चा भी हुई।
इस प्रशिक्षण शिविर में शामिल असम,त्रिपुरा और पूर्वोत्तर की महिलाओं समेत पचास से ज्यादा प्रतिनिधि ने रोंगटे खड़ा करने वाली आपबीती सुनाई है,जो किसी जनसुनवाई में सुनाने की जगह अब भारतीय संविधान और कानून असम और पूर्वोत्तर में कहीं भी लागू न होने और अखंड केसरिया अल्फाई राज की वजह से असंभव है।जहां अल्फा के एजंडे के मुताबिक सिर्फ शरणार्थी ही नहीं,भारत के दूसरे राज्यों से गये लोगों के खिलाफ दंगा फसाद,खून खराबा,आगजनी जैसी वारदातें साठके दशक से जारी है तो अब पूर्वी बंगाल के धथार्मिक उत्पीड़न की वजह से आने वाले राजनीतिक शरणार्थियों के सफाये का नरसंहार अभियान चालू है।निखिल भारत समव्य समिति ने यह सिलसिला हमेशा के लिए बंद करने का ऐलान इस शिविर में किया है।
असम से आये शरणार्थी नेता वेनीमाधव की अगुवाई में प्रतिनिधियों ने सवाल किया है कि असम में केंद्र की सत्ता में शामिल भाजपा की सरकार है जो हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने का वादा करते अघा नहीं रहा है तो असम में उन्हींके राजकाज में अल्फाई सफाया अभियान और हिटलर के तानाशाही यातना शिविर कैसा हिंदुत्व है।
पूर्वी बंगाल से आने वाले इन राजनीतिक शरणार्थियों से विभाजन के बाद से लेकर अब तक भुखमरी के शिकार लोगों के साथ की जाने वाली कृपा और उपेक्षा का आचरण करती रही जिन्हें राजनीतिक विभाजन और बांग्लादेश बनने के बावजूद लगातार धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होते रहने से अब भी भारत आना पड़ रहा है।इन लोगों के साथ राजनीतिक दलों और सरकारों का भेदभाव विशुध रंगभेद है,जो सीधे तौर पर असम में रंगभेदी सफाया अभियान में तब्दील है।
2014 में लोकसभा चुनाव और हाल में हुए विधानसभा चुनावों में बंगाल, असम और पूरे पूर्वोत्तर में सर्वत्र प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी,गृहमंत्री राजनाथ सिंह और भाजपा नेताओं के अलावा असम के मौजूदा मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल और 80 के दशक के आसू अल्फा नेता तक हिंदुत्व के नाम पर वोटबैंक के ध्रूवीकरण के लिए हाल में आये बांग्लादेश के सभी हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने का वादा करते रहे हैं।
बहरहाल बंगाल समेत देशभर के करीब दस करोड़ विभाजनपीड़ित हिंदू शरणार्थियों को वोटबैंक बनाने की गरज से पूर्वी बंगाल से आने वाले हिंदू शरणार्थियों की नागरिकता के लिए लोकसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 भी केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने पेश किया है,जिसे संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया है।
असम के भाजपा राज में विभाजनपीड़ित अस्सी लाख शरणार्थियों के खिलाफ जारी अल्फाई सफाये अभियान से उऩके राजनीतिक कवायद का मतलब साफ जाहिर है,जिसे बंगाल में लोग भले ना समझें,दूसरे राज्यों में भी हो सकता है न समझें,असम और त्रिपुरा समेत पूर्वोत्तर के विभाजनपीड़ित हिंदू शरणार्थी साठ के दशक से अब तक भोगे हुए यथार्थ और ताजा अल्फाई अभियान से खूब समझ रहे हैं और इसबार कोलकाता में आकर दूसरे राज्यों के शरणार्थियों को भी खूब समझा गये हैं।
अगर नागरिकता संशोधन कानून पास करानेके वायदे से भाजपा मुकरी तो शरणार्थियों में उसकी रही सही साख भी अब खत्म होने वाली है।
गौरतलब है कि इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी के राजकाज के दौरान तत्कालीन गृहंमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी के 2003 में बनाये नये नागरिकता कानून में पश्चिम पाकिस्तान से अबभी आने वाले शरणार्थियों की नागरिकता सुनिश्चित के लिए पांच से अधिक बार संशोधन किये गये हैं और जब पूर्वी बंगाल के विबाजन पीड़ितों की नागरिकता देने के लिए एक विधेयक लोकसभा में पेश हुआ भी तो सारे राजनीतिक दल उसे हर हाल में खटाई में डालने के लिए उसी तरह लामबंद है जैसे लोकसभा और विधानसभाओं के महिला आरक्षण के खिलाफ अनंत मोरचाबंदी है।
दूसरी तरफ,असम में बाकायद यहूदियों के लिए बने हिटलर के गैस चैंबर की तरह पूर्वीबंगाल के हिंदू शरणार्थियों को डीटेंसन कैंप में रखने का सिलसिला जारी है।हाल में आनेवाले लोगों की नागरकिता तो भूल ही जायें,जिनको दरअसल वर्क परमिट देकर बंधुआ मजूर बनाने के लिए बांग्लादेशी वैध शरणार्थी का दर्जा देने की तैयारी है ताकि बाद में सरकार बदल जाने पर उनके बांग्लादेशी होने के हलफनामे का इस्तेमाल उन्हें या तो सीमापार खडदेड़ने के लिए या फिर हिटलरी कैंपों में उनके सफाये के लिए किया जा सकें।
असम में संघ परिवार का अल्फाई राजकाज नागरिकता देने के केसरिया वादे के विपरीत हिंदू बंगाली विभाजनपीड़ित धार्मिक उत्त्पीड़न के शिकार राजनीतिक शरणार्थियों का भयंकर उत्पीड़न शुरु कर दिया है और असम समझौते में तय 1971 के आधार वर्ष के बदले अल्फाई राष्ट्रवाद के मुताबिक असम में सौ फीसद आरक्षण मूलनिवासियों को करने के अभियान के तहत गैर असमिया बंगाल, बिहारी, मारवाड़ी, पंजाबी,मुसलमानों समेत तमाम गैरअसमिया समुदायों के सफाये के लिए उल्फा के तय1951 के आधारवर्ष को लागू करके उसके बाद असम में आये भारत के दूसरे राज्यों से आये लोगों के साथ पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ितों के सफाये का फासिस्ट अभियान शुरु कर दिया है। जिसे शायद कतेंद्र सरकार की हररी झंडी भी है।
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