Sunday, September 11, 2016

जेएनयू की जीत में बाप्सा की भूमिका पर भी गौर करें! बहुजनों के इसी वर्गीय ध्रूवीकरण से वामपक्ष को मिलेगी फासिज्म के खिलाफ लड़ने की जमीन! पलाश विश्वास

जेएनयू की जीत में बाप्सा की भूमिका पर भी गौर करें!
बहुजनों के इसी वर्गीय ध्रूवीकरण से वामपक्ष को मिलेगी फासिज्म के खिलाफ लड़ने की जमीन!
पलाश विश्वास
दोस्तों,जेएनयू सारा भारतवर्ष नहीं है।जेएनयू सलवा जुड़ुम के शिकंजे में छटफटाता आदिवासी भूगोल या मुक्तबाजार में रोजमर्रे की जिंदगी में नर्क जी रहे भूख का भूगोल,या सैन्य तंत्र में तब्दील राष्ट्र के निरंकुश फासिज्म के राजकाज में गोलियों से छलनी कश्मीर या इरोम शर्मिला का मणिपुर या रेडियोएक्टिव बना दिये गये समुद्रतट या सिंगुर प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के मुताबिक जबरन बेदखल किसानों का जंल जंगल जमीन या मोहनतकशों के कटे हुए हाथ पांव,कर्मचारियों की छंटनी का महादेश या युवाओं के सपनों,या कब्रिस्तान में तब्दील चाय बागान या अरण्य या जख्मी हिमालय जैसा कुछ नहीं है और न वह औपनिवेशिक सामंती युद्धस्थल में तब्दील जमीदारियों और रियासतों  का जमावड़ा यह समूचा उपमहादेश है और न यह अनार्य हड़प्पा मोहनजोदाड़ो की सिंधु सभ्यता है,न रेशम पथ है और ने फिनलैंड डेनमार्क नार्वे तक विस्तृत द्रविड़  राष्ट्रीयता का बचा खुचा तमिलनाडु है।
जेएनयू में एकजुट वाम पक्ष की जीत में हम फासिज्म की हार देख रहे हैं या फिर संस्थागत ब्राह्मणधर्म का अवसान समझ रहे हैं,जेएनयू का महिमा मंडन कर रहे हैं तो समझ लीजिये कि आने वाले वक्त सत्तावर्ग की विचारधारा और उसके अश्वमेधी नरसंहारी राजधर्म के अश्वमेधी अभियान के खिलाफ निःशस्त्र हम सभी अकेले द्वीपों में अपने अपने चक्रव्यूह में कैद अनिवार्य आत्मध्वंस से बेखबर लोग हैं,जिन्हें सामाजिक यथार्थ के समूचे परिदृश्य के बारे में कुछ भी अता पता नहीं है।
हम जेएनयू को तथागत गौतम बुद्ध का बोधगया समझने की खुशफहमी में है।
जेएनयू में जीते तो उसी भारत की राजधानी में दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदुत्व का केसरिया झंडा लालकिले के वारिसान की जीत का जश्न है और कश्मीर में ईद लहूलुहान है।शिक्षा का केसरियाकरण अभी रुका नहीं है और न युवा सपनों का कत्लेआम अभी थमा है।बेरोजगारी और दिशाहीनता,नशाखोरी और अराजकता में फंसे देश को यौवन के लिए वसंत अभी बहुत दूर है तो यह फिर वंसत का वज्र निनाद भी नहीं है।
थोड़ा थमकर दोस्तों,वामपक्ष अभी जमीन से जुड़ा ही नहीं है।हम जश्न क्या मनाने लगे हैं,क्यों? समता और न्याय अभी संविधान की प्रस्तावना तक सीमित लक्ष्य है और हकीकत की जमीन पर उसका कहीं अता पता नहीं है।सामाजिक क्रांति सिर्फ नारा है जैसे गरीबी हटाओ या समाजवाद का नारा,हम अभी सामाजिक क्रांति की जमीन भी बना नहीं सके हैं।हम जश्न क्या मनाने लगे हैं,क्यों?
भूमि सुधार और बहुजन समाज का आधार क्षेत्र बंगाल अभी केसरिया है तो बशेश्वर का लिंगायत और हरिचांद गुरुचांद ठाकुर का मतुआ,गौतम बुद्ध के धम्म,महावीर के जैन संदेश ,दयानंद सरस्वती का आर्य समाज,ब्रह्म समाज का नवजागरण, गुरु नानक और गुरु गोविंद सिंह का सिख धर्म,संतों फकीरों,बाउलों ,पीरों की समूची विरासत ,सिॆंधु घाटी की सभ्यता ,द्रविड़ आत्म सम्मान से हम अबभी बेदखल हैं।
जेएनयू जीतकर हमने कोई समामाजिक क्रांति नहीं की है क्योंकि हमने अभी जेएनयू से बाहर रोज रोज देश के कोने कोने में नरसंहार और बलात्कार के महोत्सव के खिलाफ देश भर में आम जनता को गोलबंद करने के लिए कोई पहल नहीं की है और नागपुर से संचालित संस्थागत फासिज्म का वाइरल बहुत तेज सक्रिय है।हम जश्न क्या मनाने लगे हैं,क्यों?

हमारे मित्र मशहूर पत्रकार उर्मिलेश से हम सहमत हैं।उर्मिलेश नेलिखा हैः
बधाई और खुशी के बाद JNUSU-2016 चुनाव के नतीजों पर अब कुछ विवेचनात्मक बातें।
1-चुनाव के नतीजे सांप्रदायिक-निरंकुशता की अवाम-विरोधी राजनीति और सोच को सिरे से खारिज करते हैं।
2- BAPSA का शानदार उभार वामपंथियों के लिये एक बार फिर चेतावनी है कि अतीत की जिद्द और अपना पारंपरिक कठमुल्लापन नहीं छोड़ा तो वामपंथ का JNU और उससे प्रभावित अन्य परिसरों में भी वही हश्र होगा, जो यूपी-बिहार और हाल के दिनों में बंगाल में होता हमने देखा है।
3. इसलिये भारतीय वामपंथ को अगर राष्ट्रीय स्तर पर फिर से शक्तिसंपन्न और प्रासंगिक बनना है तो उसे वास्तविक अर्थ में समावेशी(Inclusive) बनना होगा। सिर्फ Tokenism से काम नहीं चलेगा।
इससे कड़े शब्द में यादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र छंदाक चटर्जी ने लिखा है,ब्राह्मणों के गठबंधन के खिलाफ ब्राह्मणों के ही गठबंधन की जीत से जो बदलाव की चर्चा है,वह बेबुनियाद है।
छंदाक ने मरीचझांपी में दलित शरणार्थियों के नरसंहार से लेकर मुसलमानों को वोट बैंक बना देने की छद्म धर्मनिरपेक्षता,नेतृत्व में तमाम गैरब्राह्मण तबकों के साथ महिलाओं की अनदेखी से लेकर वामपक्ष की सत्ता में भागेदारी की सौदेबाज,मौकापरस्ती की निर्मम आलोचना की है।
आलेख के अंत में बांग्ला में वह पोस्ट इस देश में वामपक्ष के ब्राह्मणधर्म का कच्चा चिट्ठा है तो हमें बापसा के उत्थान से क्यों सरदर्द होने लगा है,इसकी आत्मालोचना करनी होगी।
जेएनयू में खास बात यह है कि बाकी विश्वविद्यालयों की तुलना में वहां छात्राओं का प्रतिशत सबसे ज्यादा है और जेएनयू की जनपक्षधर भूमिका में इन छात्राओं की निर्णायक भूमिका है।इस बार भी महासचिव चुनी गयी शतरुपा शेहला रशीद की निरंतरता है।
गौरतलब है कि असम के करीम गंज से हैं शतरुपा और वही असम अब गुजरात कीनरसंहारी प्रयोग शाला में तब्दील है,जहां विश्वविद्यालयों के केसरियाकरणके लिए नया फतवा जारी किया है संस्थागत ब्रह्मणधर्म और अल्फा की सरकार ने।
शतरुपा असम के इस बदलाव के खिलाफ मणिपुर की इरोम शर्मिला की तरह लौहमानवी बन सकती है या नहीं,दारोमदार इसी पर है तो यकीनन कहना होगा कि बाप्सा के अंतर्गत राहुल और दूसरे बहुजन छात्रों की अगुवाई में बाकी देश की बहुसंख्य जनता की बहुजन अस्मिताओं से जुड़े छात्रों और छात्राओं के संगठन से जेएनयू में संस्थागत फासिज्म को यह कड़ी शिकस्त मिली है।

गौरतलब है कि रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद हैदराबाद,नई दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, गलूर से लेकर खड़गपुर,वर्धा और विश्वभारती तक मनुस्मृति दहन के आदार पर ब्राह्मण धर्म के पुनरूत्थान के खिलाफ देश भर में मनुस्मृति राज के खिलाफ जेएनयू की यह जीत है और इस जीत में मरे हुए रोहित वेमुला का चेहरा अभी जिंदा है और उसी चेहरे की कोख से निकला है बास्पा।

बास्पा का विरोध वाम पक्ष की सामाजिक क्रांति के लक्ष्य को अंजाम देने के छात्र आंदोलन के खिलाफ आत्मदाह है आरक्षणविरोधी आंदोलन की तर्ज पर और यह ब्राह्मण धर्म की सहज सरल सनातन वैदिकी रघुकुल रीति है,जिससे भारतीय वामपक्ष का नाभिनाल का जनमजात संबंध है और इसलिए जब वे बाबा साहेब,फूले,हरिचांद गुरुचांद ठाकुर बशेश्वर और सिख गुरुओं,तथागत गौतम बुद्ध और महावीर को अपना नहीं सके तो रोहित वेमुला की तस्वीर लेकर चलना उनका दलित आंदोलन हरगिज हो ही नहीं सकता और ने वे बहुजनों का भला चाहते हैं।मनुस्मृति दहन भी सत्ता में भागेदारी के लिए वैदिकी रस्म अदायगी है।

इसी सिलसिले में वे अपने डीएनए के हिसाब से बास्पा का विरोध कर रहे हैं,बहुजनों का फासिज्म के किलाफ लामबंद वर्गीयध्रूवीकरण को नजरअंदाज कर रहे है तो नेतृत्व में एकाधिकार को भी वे तोड़ने के मूड में अब भी नहीं है।स्त्री भी अभी उनके लिए वही शूद्र और दासी है और वे माता सावित्रीबाई फूले या रानी रासमणि का नाम भी नहीं लेते और न रानी दुर्गावती को याद करते हैं।वृंदा कारत और सुभाषिणी उनके लिए चेहरे हैं जैसे सेहला और शतरुपा ,जिन्हें नेतृत्व सौंपने में पोलित ब्यूरो को पेट में दर्द हो जाता है तो बहिजनों को वे कैसे सहन कर सकते हैं और बाप्सा का यह विरोध इसी सिलसिले में है।

वामपक्ष के मुकबले में बाप्सा के मंच पर संस्थागत फासिज्म के ब्राह्मण धर्म के खिलाफ ध्रूवीकरण ने जेएनयू में विद्यार्थी परिषद का वजूद मिटा दिया है क्यों जेएनयू के छात्र छात्राओं ने वोट डाले हैं या तो वामपक्ष को या फिर बाप्सा को।पहले इस हकीकत को मंजू र कीजिये और फिर सामाजिक क्रांति का नाम लीजिये।पहले ब्राह्मण धर्म के बजाय तथागत गौतम बुद्ध और शहीदे आजम भगत सिंह की तरह आस्था का यह तिलिस्म तोड़िये और सतह से उठकर खड़ी होती इंसानियत को नीला सलाम कहिये तभी जबाव में लाल सलाम सुनने को मिलेगा।

गौरतलब है कि देश के केसरियाकरण के खिलाफ बहुजन समाज का उत्थान उसी तरह खतरे की घंटी है जैसे ढाई हजार साल पहले सत्ता वर्ग के खिलाफ तथागत गौतम बुद्ध गैर ब्राह्मणों के खिलाफ वर्गीय ध्रूवीकरण करके सामाजिक क्रांति कर दी थी।लाल नील एकाकार करने की किसी पहल के बिना यह सकारात्मक बदलाव का मोका फिर हम खोने लगे हैं और अस्मिता राजनीति की निंदा करते हुए हम फिर अपनी अपनी अस्मिता में कैद भगवान श्रीकृष्ण के धनुर्धर बनने का मंसूबा बना रहे हैं।

वामपक्ष का लक्ष्य अगर राजनीतिक सत्ता नहीं है और सामाजिक क्रांति सिर्फ नारा नहीं है तो बाप्सा के उत्थान पर बहुजन छात्रों को कोसने के बजाय उन्हें साथ लेकर चलने की तैयारी करनी चाहिए वामपक्ष को क्योंकि बाकी देश हैदराबाद या यादवपुर विश्वविद्यालय तक भी सीमाबद्ध नहीं है और अस्मिताओं में बंटी बहुसंख्य आम जनता इस नरसंहार संस्कृति के संस्थागत की फासिज्म की वानर सेना है।

बाप्सा अगरसंस्थागत ब्राह्णधर्म का केसरियाकरण अश्वमेध रोककर ब्राह्मणी सत्ता वर्ग के खिलाफ वर्गीय ध्रूवीकरण में कामयाब होता है,मसलन बंगाल के बहुजन अगर एकताबद्ध होकर दक्षिण पंथ के खिलाफ लामबंद होते हैं तो भारतीय राजनीति में हाशिये पर खड़े वामपक्ष की फिर वापसी की उम्मीद है।

गौरतलब है कि रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के खिलाफ बंगाल में भी बहुजन आंदोलन तेज है और शरदिंदु उद्दीपन ने कल कोलकाता में हुए दलित सालिडेरिटी नेटवर्क की सिलसिलेवार रपट भेजी है,जिसे हम अलग से जारी कर रहे हैं।

जेएनयू के दायरे में या केरल और त्रिपुरा की डगमगाती सता में सीमाबद्ध निराधार हुए वामपक्ष को अब बहुजनों के साथ खड़े होने पर,उनके वर्गीय ध्रूवीकरण से ही दक्षिणपंथी मुक्तबाजारी नरसंहारी संस्थागत फासिज्म के मुकाबले लड़ाई की जमीन वापस मिल सकती है,हमारे जनपक्षधर मित्र इन रपटों को गौर से देखें और बाकी देश और दुनिया में कयामती फिजां,कश्मीर में लापता ईद के सिलसिले में जेएनयू की जीत को निर्णायक समझनेकी गलती कतई न करें तो बहुत बेहतर।

इसलिए सामाजिक क्रांति को नारे की शक्ल देकर सत्ता हासिल करने की विचारधारा में तब्दील करने के बजाये संस्थागत फासिज्म के खिलाफ बहुजनो के वर्गीयध्रूवीकरण के बदलते हुए यथार्थ को समझने की कोशिश जरुर करें।इसी सिलसिले में बाप्सा का उत्थान को अपने पक्ष में बदलती हवा माने लें तो लड़ाई अभी बाकी है।


Chhandak Chatterjee
আজ তো JNU নিয়ে লাল সেলামের বন্যা বইবে, তবু এই ছবিটিই ভবিষ্যৎ এনাদের...
আমাদের দেশের বহুদলীয় ব্যবস্থায় ‘প্রধান শত্রু’ বিষয়টা একটু গোলমেলে । প্রধান শত্রুকে রুখতে জোট । যেমন ধরে নেওয়া যাক পাঞ্জাবে আকালি দল, বিজেপি,কংগ্রেস, ‘বাম’রা আছেন । প্রধান শত্রু আকালি কে রুখতে বিজেপি, কংগ্রেসের হাত ধরা হবে বা মহারাষ্ট্রে যদি পরিস্থিতি এমন জায়গায় যায় শিবসেনা কে রুখতে... তেমনই তো দেখলাম কেরলে । সেখানে সিপিএম কংগ্রেস মুখোমুখি আবার বাংলায় গলায় গলায় বন্ধু ।
AISA নিয়ে প্রচুর সমালোচনা থাকলেও তাদের SFI’র সাথে গুলিয়ে ফেলিনা । তারাও জোট করলেন একজন ব্রাহ্মন কে রুখতে ‘লালবামুন’দের সাথে । সিপিএম একটি বুর্জোয়া দল । জোতদার জমিদার পুঁজির স্বার্থবাহী ব্রাম্ভন্যবাদি পুরুষতান্ত্রিক দল ।
*রোহিতের যে ঘটনা নিয়ে অনেকেই সোচ্চার, অনেক আগেই পশ্চিমবঙ্গে চুনি কোটালের ঘটনা ঘটেছে । মুখ্যমন্ত্রী বলেছেন পশ্চিমবঙ্গে জাত সংক্রান্ত কোন সমস্যাই নেই ।
*প্রগতিশীল পার্টি ৩৪বছর ধরে ক্ষমতায় থেকেও বুঝতে পারেনি, ২৭% মুসলমান পিছিয়ে থাকা, বেশীরভাগ দারিদ্রসীমার নীচে, সাচার কমিটি গঠন না হলে তারা হয়তো বরাবর অস্বীকার করে যেতেন ।
*নমশূদ্রদের একটা ব্যাপক অংশ কে ভিটের স্বপ্ন দেখিয়ে বছরের পর বছর ভোট নিয়েছেন, তাদের দণ্ডকারণ্য থেকে ডেকে নিয়ে এসে ঝুপড়ি বানাতে বলেছেন মরিচঝাপিতে, তারপর সেখানে আগুন লাগিয়ে মানুষ গুলো কে পুড়িয়ে মেরেছেন, যারা সেদিন রাতে ছোট নৌকা করে পালাতে চেষ্টা করেছেন, তাদের ট্রলারের তলায় ডুবিয়ে দেওয়া হয়েছে, যারা আগুনে বেঁচে গেছেন তাদের দেওয়া হয়েছে ব্যাঘ্র প্রকল্পে বাঘের মুখে ।
*৯০ বছর পেরিয়ে আসা বাম দল গুলো একজন শ্রমিক নেতাও সামনে তুলে আনেনি, যদিও কমিউনিস্ট পার্টি নাকি মূলত শ্রমিক শ্রেণীর পার্টি ।
*পলিটব্যুরো তে মহিলা সদস্যের অনুপাত কি ? দেখে তো মনে হয় বৃন্দা কারাত প্রকাশ কারাতের বৌ এবং ইয়েচুরির বৌঠান কোটায় চান্স পেয়েছেন, নাহলে একজনই মাত্র সর্বভারতীয় পার্টির মহিলা মুখ?
*নকশাল বাড়ির মতো সম্ভাবনাময় কৃষক বিক্ষোভকে প্রথমে গুলি করে, তারপর প্রথম সারির নেতাদের জেল বন্দী করে, চারু মজুমদারকে মেরে ফেলে কারা হাত রক্তে রাঙা করেছে ?
দিনেরপর দিন ছাত্রদের উপর গুলি চালিয়ে আন্দোলন দমন করা, অনিতা দেওয়ানের যোনীতে টর্চ ঢুকিয়ে দেওয়া সব ভুলে যাবো প্রধান শত্রুর দোহাইয়ে । ভুলে যাবো সিঙ্গুর, নন্দিগ্রাম লালগড়ের চটি পুলিশ, ভুলে যাবো ভরত মণ্ডলের পেট থেকে বের হয়ে আসা নাড়িভুঁড়ি, ভুলে যাবো রাজকুমার ভুলকে একতলা ছাদে ফেলে লাঠি পেটা করতে করতে মেরে ফেলেছিলেন । ভুলে যাবো কুৎসিত সিনেমা মানসী মালিক ।
ভুলে যাবো Subhoshree দি যখন স্কটিশ চার্চ কলেজে ক্যাম্পেনে গেছিল সেদিন পেটে লাঠি মেরে বমি করিয়ে ছিলেন, ভুলে যাবো Soumo তখন ঝুঁটি বাঁধত, কতকতদিন মেডিক্যাল কলেজে ছুটে যেতে হয়েছে রক্তাক্ত অবস্থায়, ভুলে যাবো দেবজ্যোতি দার চোখ ফাটিয়ে দিয়েছিলেন, Madhurima Ghosh 'র বুকে লাথি মেরেছিলেন, দেবর্ষি'র মুখ ফাটিয়ে দিয়েছিল, Joy কে মাটিতে ফেলে পিটিয়েছিল । Agniswar দা কে মাথায় মেরে অজ্ঞান করে দিয়েছিল । প্রবীর দা কে ৭০ দিন হসপিটালে পাঠিয়েছিলেন । কত বলবো ? এর বিরুদ্ধে এসেফাই কতকগুলো নাম ভাসাবে, দেখাযাবে তারা মারা গেছেন কংগ্রেস’র হাতে । দুঃখ সেখানেই নিচু তলার সিপিএম কর্মীদের জন্য । কাদের সাথে গেলেন ? আজ তৃনমূল নিয়ে এতো কপচানি, আমিও বাঁচবো, একদিন প্রধান শত্রুর লজিকে এদের সাথেও জুটবে সিপিএম । যেভাবে বিহারে লালু নীতিস জুটে যায় ।
বামুনের বিরুদ্ধে বামুনের সাথে জোট নিয়ে যারা মাথা ঘামাচ্ছে ঘামাক, যদিও রেজাল্ট দেখে মনে হচ্ছে বড় বামুন প্রায় আড়াই ভাগ ভোট কম পেয়েছে, যদি একাও লড়তেন তাহলেও জিততেন, সেই জিত অনেক খুশীর হতো ।
খুশী হলাম রাহুল কে দেখে । দ্বিতীয় পজিশনে আছে । একজন রিক্সাচালকের ছেলে এবার প্রার্থী হয়েছিলেন । আমার বাড়ি এসেছেন, রাতে গল্প হয়েছে । সেমিনারে বক্তব্য রেখেছেন, ওর সাথে বহু প্রশ্নে পার্থক্য থাকলেও লড়েছে একজন দলিত সন্তান । বুকে উঠে নেচে দিয়েছে বর্ণবাদীদের ।
ব্রাম্ভন্যবাদ কা শিনে পর
পেরিয়ার ফুলে আম্বেদকর

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