भारतीय रेल के लाइफ लाइन वजूद पर सवालिया निशान
पलाश विश्वास
रेल बजट का अवसान नवउदारवादी अर्थशास्त्री विवेक देवराय की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति की सिफारिश के मुताबिक हुआ है।देवराय नीति आयोग के सदस्य हैं।वे सिंगुर नंदीग्राम प्रकरण में वाम सरकार के खास सलाहकार थे,जिन्होंने डा.अशोक मित्र के सामाजिक अर्थशास्त्र से वामदलों के संबंध तड़ने में बड़ी भूमिका निभाई और बाकी इतिहास सबको मालूम है।हालांकि मीडिया के मुताबिक यह अर्थ व्यवस्था में सुधार की दिशा में बहुत बड़ी छलांग है।
होगाो,इसमें दो राय नहीं।ब्रिटिश हुकूमत के बाद आजाद भारत में भी भारतीय रेल की देश की अर्थव्यवस्था में भारी योगदान रहा है और अर्थव्वस्था का समारा ढांचा ही भारतीय रेल से नत्थी रहा है।उसे तोड़कर कार्पोरेट अर्थव्यवस्था किसी राकेट की तरह हो सकता है कि हमें मंगल या शनिग्रह में बसा दें। लेकिन इसका कुल मतलब यह हुआ कि रेल अब सार्वजनिक परिवहन या देश की लाइफ लाइन या अर्थ व्यवस्था का बुनियादी ढांचा जैसा कोई वजूद भारतीय रेल का बिल्कुल नहीं रहने वाला है।
शिक्षा, चिकित्सा, ऊर्जा, बैंकिंग, बीमा,भोजन,पेयजल,आपूर्ति,सार्वजनिक निर्माण के निजीकरण के बाद भारतीय रेलवे के निजीकरण की दिशा में यह बहुत बड़ी छलांग है।
गौरतलब है कि 1923 में ब्रिटिश हुकूमत के अंतर्गत रेल बोर्ड के नये सिरे से गठन के साथ अलग रेल बजट की सिफारिश विलियम मिशेल ऐकओवार्थ कमिटी ने की थी। जिसके तहत 1924 से बजट के अलावा अलग रेल बजट का सिलसिला शुरु हुआ जो बहुत अरसे से मूल बजट से कहीं बड़ा हुआ करता था।
आजाद भारत में बजट भारी बना शुरु हुआ और बेतहाशा बढ़ते रक्षा खर्च,सड़क परिवहन, ईंधन व्यय और संरचना व्यय के मुकाबले भारतीय रेल के लिए अब बजट का कुल चार प्रतिशत ही खर्च हो पाता है।जबकि शुरुआत में भारतीय अर्थव्यवस्था भारतयी रेल को केंद्रित रही है और लंबे अरसे तक बजट का 75 से 80 फीसद भारतीय रेलवे पर खर्च होता रहा है,जो अब चार फीसद तक सिमट गया है।
अब भारतीय अर्थव्यवस्था कमसकम रेलवे पर निर्भर नहीं है।कच्चे माल की ढुलाई और सार्वजनिक परिवहने के सड़क परिवहन के विकल्प का हाईवे संस्कृति में बहुत विकास होता रहा है तो आम जनता की आवाजाही की,उनके रोजमर्रे की जिंदगी और आजीविका के सिलसिले में रेलवे की भूमिका 1991 से लगातार खत्म होती जा रही है और सार्वजनिक उपक्रम की बजाय रेलवे अब किसी कारपोरेट कंपनी की तरह मुनाफा वसूली का उपक्रम बनता रहा है। जिसका लोक कल्याण या देश की लाइफ लाइन के कोई नाता नहीं रह गया है।उसके नाभि नाल का संबंध भारतीय जनगण से नहीं, बल्कि शेचर बाजार में दांव पर रखे कारिपोरेट हितों के साथ है।
वैसे भी भारतीय संसद की नीति निर्माण में कोई निर्णायक भूमिका रह नहीं गयी है और नवउदारवाद की वातानुकूलित संतानें कारपोरेट हितों के मुताबिक विशेषज्ञ कमिटियों के मार्फत नीतियां तय कर देती हैं और भारत सरकार सीधे उसे लागू कर देती है,जिसमें संसद की कोई भूमिका होती नहीं है।
रेल बजट के खात्मे के साथ सुधार का संबंध यही है कि रेलवे को सीधे बाजार के कारपोरेट हितों से जोड़ दिया जाये और मनाफावसूली भी किसी कारपोरेट कंपनी की तरह हो।रेलवे पर जनता के सारे हक हकूक एक झटके से खत्म कर दिये जायें।
रेल सेवाओं के लगातार हो रहे अप्रत्यक्ष निजीकरण की वजह से इस मुनाफ वसूली में कारपोरेट हिस्सेदारी बहुत बड़ी है।रेलवे के उस मुनाफे से देश की आम जनता को कोई लेना देना उसी तरह नहीं होने वाला है,जैसे मौजूदा भारतीय रेल का आम जनता के हितों से उतना ही लेना देना है,जितना किसी नागरिक की क्रय क्षमता से है।आम जनता की आवाजाही या देश जोड़ने के लिए नहीं,जो जितना खर्च कर सके,भारतीय रेल की सेवा आम जनता के लिए उतनी तक सीमित होती जा रही है।
जाहिर है कि भारतीय रेल में गरीबों के लिए अब कोई जगह उसी तरह नहीं बची है जैसे आम जनता के लिए चमकदार वातानुकूलित तेज गति की ट्रेनों में उनके लिए जनरल डब्बे भी नहीं होते।कुल मिलाकर,गरीबों के लिए रेलवे हवाी यात्रा की जैसी मुश्किल और खर्चीली होती जा रही है।अब संसद से भी रेल का नाता टूट गया है।
इस देश की गरीब आम जनता की लाइफ लाइन बतौर जिसतरह भारतीय रेल का इतिहास रहा है,वह सारा किस्सा खत्म है।अब भारतीय रेल स्मार्ट, बुलेट, राजधानी, दुरंतो, शताब्दी या पैलेस आन व्हील जैसा कुछ है,जो लोहारदगा रेलगाड़ी,कोंकन रेलवे जैसी मीठी यादों कोसिरे से दफन करने लगी है।
कारपोरेट बंदोबस्त करते हुए रेलवे के अभूतपूर्व व्तार और विकास के मुकाबले रेल कर्मचारियों की संख्या सत्रह लाख से घटते घटते बहुत तेजी से दस लाख तक सिमट जाने वाली है और इसे अंततः चार लाख तक कर देने की योजना है।रेलबजट के बहाने भारतीय संसद में जो भारतीय रेल की दशा दिशा पर बहसें होती रही हैं और कुछ हद तक जनसुनवाई जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के जरिये कमोबेश होती रही है,वह सिलसिला जाहिर है कि अब बंद है।
भारतीय रेल पर रेल बजट के अवसान के बाद संसद में या सड़क पर किसी सार्वजनिक बहस की फिर कोई गुंजाइश रही नहीं है।
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