जोश से भरे सी के बोस |
ईशिता आयान दत्त / 04 07, 2016 |
बिजनेस स्टैंडर्ड |
अपनी दमदार पारिवारिक पृष्ठभूमि के बावजूद चंद्र कुमार बोस के लिए आगे की सियासी लड़ाई बेहद कड़ी है लेकिन अपने पहले सियासी रण में ही वह राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को मात देने के लिए उनके चुनावी क्षेत्र में तगड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं
दक्षिण कोलकाता की एक सामान्य बस्ती अलीपुर में किनारे की इमारत में नीले-हरे रंग की दीवार पर हमीदी होटल का नाम चस्पां है। यहां पर साइनबोर्ड लगा है-नो बीफ यानी यहां गोमांस नहीं मिलता। यहां से चंद कदमों ही दूरी पर ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कार्यकर्ता अपने सितारे प्रत्याशी चंद्र कुमार बोस के चुनाव अभियान को परवान चढ़ाने के लिए जमा हुए हैं। उनमें से तमाम ऐसी तख्तियों के साथ आए थे, जिन पर सुभाष चंद्र बोस के श्वेत-श्याम छायाचित्र लगे हैं।संदेश साफ और स्पष्ट है कि उम्मीदवार ऐसी विरासत का हिस्सा है, जिसे नजरअंदाज करना नामुमकिन है। बोस बंगाल की धरती के सबसे बड़े सपूत माने जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुभाष चंद्र बोस के पौत्र हैं। उनके दादा शरत चंद्र बोस नेताजी के बड़े भाई थे। हालांकि उन्होंने जिस जगह से अपने दिन के अभियान की शुरुआत की है, उसकी अनदेखी करना मुश्किल है। छात्र नेता कन्हैया कुमार के खिलाफ देशद्रोह के आरोप से पहले गोमांस राजनीतिक विमर्श में छाया हुआ था, जहां दक्षिणपंथी कार्यकर्ता गाय के व्यापार या बूचडख़ाने को लेकर शिकायत पर तुरंत हरकत में आ रहे थे। हमीदी होटल में टंगा साइनबोर्ड ऐसी ही किसी आशंकित मुठभेड़ से बचने के लिए ऐहतियाती तौर पर लगाया गया है। मगर भाजपा में नए नवेले आए बोस ऐसी विचारधारा से इत्तफाक नहीं रखते। वह कहते हैं, 'धर्म नितांत निजी मामला है और इसे राजनीति के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए। किसी नेता या पार्टी को यह हिदायत नहीं देनी चाहिए कि हम अपने घरों में क्या खाएं।'
बोस को जरा भी राजनीतिक अनुभव नहीं है, यहां तक कि प्रदेश में बेहद सक्रिय छात्र राजनीति का भी उन्हें कोई तजुर्बा नहीं, लिहाजा उनके लिए आगे की चुनौती बेहद कड़ी साबित होने जा रही है। 55 वर्ष की उम्र में न केवल वह भाजपा प्रत्याशी के तौर पर राजनीति में अपना आगाज करने जा रहे हैं बल्कि भवानीपुर विधानसभा सीट पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी के अलावा वरिष्ठï कांग्रेसी नेता दीपा दासमुंशी से भी उन्हें मुकाबला करना है। मगर भाजपा को उम्मीद है कि उनके परिवार का नाम और अपने किंवदंती दादा से मिलता जुलता डील डौल उनकी नैया पार लगाएगा।
तकरीबन 50 से 60 लोगों की उनकी चुनाव मंडली जब अलीपुर से गुजरती है तो भ्रष्टाचार के खिलाफ नारेबाजी शुरू होती है और पूरा जोर नारद स्टिंग को भुनाने पर होता है, जिसमें पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के नेता कथित रूप से रिश्वत लेते हुए दिखाए गए हैं। इसी दौरान लोगों से मेल-मुलाकात का सिलसिला भी चलता है। वहीं उनके करीब अटकलबाजियों के अड्डोंपर इस बात की चर्चा जोर पकड़ती है कि राज्य में एक मजबूत विपक्ष की दरकार है, जिसकी कमी पिछले पांच वर्षों में देखने को मिली है।
हालांकि उन्हें लेकर काफी दिलचस्पी बढ़ रही है और कुछ लोगों को लगता है कि आगामी चुनाव में बोस के सितारे बुलंद हो सकते हैं। पिछले तीन दशकों से गोपालनगर में चाय की मशहूर दुकान चलाने वाले बबलू बताते हैं, 'यह कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहा है। अब यहां तृणमूल कांग्रेस का दबदबा है। मगर इस दफा तीनों दमदार प्रत्याशी हैं लेकिन वह आश्वस्त नहीं हैं कि किसका पलड़ा सबसे भारी है।' इस पर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के मोहम्मद सलीम कहते हैं, 'असल लड़ाई बनर्जी और दासमुंशी के बीच रहेगी। बोस के पास कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है। केवल नेताजी के साथ रिश्ता चुनाव में जीत नहीं दिला सकता।' वह कहते हैं कि दासमुंशी को वामपंथी दलों का समर्थन भी हासिल है क्योंकि कांग्रेस और वाम दल यह चुनाव मिलकर लड़ रहे हैं।
बोस पिछले 16 वर्षों से राज्य में मानव संसाधन और कौशल विकास सलाहकार फर्म बोस इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी संचालित कर रहे हैं। बोस लंदन के हेन्डॉन कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने के बाद जमशेदपुर में टाटा मैनेजमेंट ट्रेनिंग सेंटर (टाटा प्रबंधन प्रशिक्षण केंद्र) से जुड़ गए। फिर टाटा स्टील में बिक्री प्रबंधक के तौर पर उनकी कोलकाता वापसी हुई और अपनी कंपनी शुरू करने से पहले तक उन्होंने 18 साल तक वही भूमिका निभाई। वह कहते हैं कि उनके राजनीति में व्यस्त होने के बाद उनकी पत्नी कंपनी चलाएंगी।
हालांकि राजनीति में वह नए नवेले हैं लेकिन उनका कहना है कि यह हमेशा उनके दिमाग में रही है। वह कहते हैं, 'मैं अपनी खुद की आजाद हिंद पार्टी बनाना चाहता था लेकिन यह आसान नहीं है। पहले से ही 1,600 पार्टियां हैं, मेरी पार्टी बनने के बाद यह आंकड़ा 1,601 हो जाता।' इसके अलावा वह यह पहलू भी जोड़ते हैं, 'जब कोई राजनीतिक दल शुरू होता है तो सबसे पहले लंपट लोग उसमें शामिल होते हैं। मैं कैसे उनकी छंटनी करता? मैं कारोबारी नियुक्तियां करता हूं, राजनीतिक नहीं।'
मगर भाजपा ही क्यों? वह इसकी वजह बताते हैं, 'चूंकि नेताजी राष्ट्रीय नायक हैं, लिहाजा राष्ट्रीय दल से ही जुडऩा बेहतर होता। कांग्रेस ने उन्हें बाहर निकाल दिया था, लिहाजा वहां जाना नहीं था। हालांकि फॉरवर्ड ब्लॉक उनकी पार्टी थी लेकिन वह नेताजी के विचारों से अलग हो गई है।' इससे पहले वह सुभाष चंद्र बोस से संबंधित फाइलों को सार्वजनिक करने के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ दिख चुके हैं तो क्या वह पहले से ही भाजपा में शामिल होने की कोशिश में जुटे थे। इस पर वह कहते हैं, 'इसमें कुछ समय लगा। कुछ हिचक थीं। मोदी बहुत बड़े नेता हैं, जिनका रवैया बहुत समावेशी है।' अपने दादा और मोदी के बीच समानता दर्शाते हुए वह कहते हैं, 'तमाम लोग कहते हैं कि नेताजी फासीवादी थे लेकिन वह यथार्थवादी थे। मोदी 21वीं सदी के यथार्थवादी हैं। मैं सोचता हूं कि विकास के लिए वह अपनी राजनीतिक विचारधारा को भी तिलांजलि दे देंगे।' बोस ने अपने लिए भूमिका भी सोच ली है। वह कहते हैं, 'यह मेरा काम है कि भाजपा एक विशुद्घ धर्मनिरपेक्ष पार्टी के तौर पर स्थापित हो। हमें निश्चित रूप से धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए। कुछ मतलबपरस्त नेताओं ने धर्म और राजनीति का घालमेल कर दिया है।'
वह मानते हैं कि भाजपा की सांप्रदायिक छवि विपक्ष के प्रचार का नतीजा है। उनका कहना है कि कांग्रेस ने ही धर्म और राजनीति का घालमेल किया है। इसके लिए वह बनर्जी को भी कसूरवार मानते हैं। वह कहते हैं, 'अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों वर्गों का तुष्टीकरण सांप्रदायिक कवायद है।' बंगाल में 27 फीसदी मुस्लिम आबादी है और बनर्जी मानती हैं कि यह इतना बड़ा वर्ग है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पिछले पांच वर्षों के दौरान अल्पसंख्यकों के लिए आवंटन में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। हालांकि राज्य में बनर्जी की दुर्जेय छवि बन गई है। इसके बावजूद क्या बोस को लगता है कि वह उन्हें हरा सकते है? वह कहते हैं, 'जी हां, मैं जीत सकता हूं।' उनका तर्क है कि बनर्जी का काम वामपंथी सरकार को सत्ता से बेदखल करने के साथ ही खत्म हो गया है और अब उनके पास देने के लिए कुछ खास नहीं बचा।
वह कहते हैं, 'चुनाव जीतने के बाद सरकार की जिम्मेदारी शासन चलाने की होती है। यहां 34 वर्षों तक वाम मोर्चे की सरकार रही। मगर क्या वह शासन के मोर्चे पर बेहतर थी? बिलकुल नहीं, लोगों ने इसका यही जवाब दिया और वह चुनाव जीत गईं। बनर्जी भी चुनाव जीतने की कला में सिद्घहस्त हो गई हैं लेकिन उनका योगदान चुनाव जीतने के साथ ही खत्म हो जाता है। शहर को नीले और सफेद रंग में रंगवाने और उसे रोजाना जगमगाने के अलावा उन्होंने किया ही क्या है?'
बोस पिछले साल हुए कोलकाता नगर निगम के चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन से कुछ राहत की सांस ले सकते हैं, जहां वॉर्ड नंबर 70 में पार्टी प्रत्याशी ने तृणमूल के तत्कालीन सभासद को हराने में कामयाबी हासिल की थी। यह वॉर्ड भवानीपुर विधानसभा का ही भाग है। बोस भले ही जो दावा करें लेकिन चुनावी पंडित बनर्जी के पक्ष में भविष्यवाणी कर चुके हैं।
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