Tuesday, April 26, 2016

TaraChandra Tripathi गांधीवादी, मार्क्सवादी, माओवादी जैसे शब्दों में यह जो ’वादी’ शब्द है, यह एक बीमारी का परिचायक है. इस बीमारी के कारण मूल विचारक का विचार या दर्शन प्रदूषित हो कर किसी व्यक्ति या संस्था के स्वार्थ का पोषक बन जाता है. हर मूल विचारक अपने युग और परिस्थितियों क्री विसंगति पर गहन चिन्तन कर एक विचार को जन्म देता है. उसके लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करता है. जनता उसे अपना उद्धारक मानने लगती है, पर उसके जाते ही इस विचार को स्वार्थसिद्धि की छूत लग जाती है. मूल विचारक निष्प्राण मूर्ति बन कर रह जाता है. क्योंकि वह अब अपने विचारों की मनमानी व्याख्या का विरोध नहीं कर सकता. उसके विचारों को निर्जीव बना कर उसका महिमा मंडन किया जाता है. उसकी मूर्ति को फूल मालाओं से लाद दिया जाता है. उसकी जयन्ती मनायी जाती है ताकि लोग उससे आगे सोचने से विरत हो जायें. इस प्रकार वह धूर्तों द्वारा जनमत को प्रदूषित करने हथियार बन कर रह जाता है. और वह वाद बन कर निहितस्वार्थी रोगाणुओं का पोषक बन जाता है. लोगों में अग्रेतर विचारों के संचार को बाधित करने लगता है.


गांधीवादी, मार्क्सवादी, माओवादी जैसे शब्दों में यह जो ’वादी’ शब्द है, यह एक बीमारी का परिचायक है. इस बीमारी के कारण मूल विचारक का विचार या दर्शन प्रदूषित हो कर किसी व्यक्ति या संस्था के स्वार्थ का पोषक बन जाता है. हर मूल विचारक अपने युग और परिस्थितियों क्री विसंगति पर गहन चिन्तन कर एक विचार को जन्म देता है. उसके लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करता है. जनता उसे अपना उद्धारक मानने लगती है, पर उसके जाते ही इस विचार को स्वार्थसिद्धि की छूत लग जाती है. मूल विचारक निष्प्राण मूर्ति बन कर रह जाता है. क्योंकि वह अब अपने विचारों की मनमानी व्याख्या का विरोध नहीं कर सकता. उसके विचारों को निर्जीव बना कर उसका महिमा मंडन किया जाता है. उसकी मूर्ति को फूल मालाओं से लाद दिया जाता है. उसकी जयन्ती मनायी जाती है ताकि लोग उससे आगे सोचने से विरत हो जायें. इस प्रकार वह धूर्तों द्वारा जनमत को प्रदूषित करने हथियार बन कर रह जाता है. और वह वाद बन कर निहितस्वार्थी रोगाणुओं का पोषक बन जाता है. लोगों में अग्रेतर विचारों के संचार को बाधित करने लगता है.

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