धर्म के बारे में मजदूरों की पार्टी का रुख
व्ला.इ. लेनिन
…“मार्क्सवाद भौतिकवाद है। इस कारण यह धर्म का उतना ही निर्मम शत्रु है जितना कि अठारहवीं सदी के विश्वकोषवादी पण्डितों का भौतिकवाद या फ़ायरबाख का भौतिकवाद था, इसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं है। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विश्व कोषवादियों और फ़ायरबाख से आगे निकल जाता है, क्योंकि यह भौतिकवादी दर्शन को इतिहास के क्षेत्र में, सामाजिक विज्ञानों के भी क्षेत्र में, लागू करता है। हमें धर्म के विरुद्ध लड़ाई लड़नी चाहिए-यह समस्त भौतिकवाद का क ख ग है, और फ़लस्वरूप मार्क्सवाद का भी। लेकिन मार्क्सवाद ऐसा भौतिकवाद नहीं है, जो क ख ग पर ही रुक गया। वह आगे जाता है। वह कहता हैः हमें यह भी जानना चाहिये कि धर्म के विरुद्ध कैसे लड़ाई लड़ी जाये, और यह करने के लिये जनता के बीच हमें ईश्वर और धर्म के मूल की व्याख्या भी भौतिकवादी पद्धति से करनी होगी। धर्म पर प्रहार अमूर्त सैद्धान्तिक शिक्षाओं तक ही सीमित नहीं कर देना चाहिए। उसे वर्ग आन्दोलन के ठोस व्यवहार के साथ जोड़ना चाहिए जिसका उद्देश्य धर्म के सामाजिक मूल का उन्मूलन करना है। शहरी सर्वहारा के पिछडे़ हिस्सों, अर्धसर्वहारा के व्यापक हिस्सों और किसान अवाम पर धर्म का प्रभाव क्यों बना रहता है बुर्जुआ प्रगतिशील, उग्रवादी या बुर्जुआ भौतिकवादी का एक ही उत्तर होता है कि इसका कारण जनता का अज्ञान है। और इसलिए “धर्म मुर्दाबाद और नास्तिकवाद ज़िन्दाबाद, नास्तिकता के विचारों का प्रचार हमारा मुख्य कर्तव्य हो जाता है।” मार्क्सवाद कहता है कि यह सही नहीं है, यह एक कृत्रिम दृष्टिकोण है, संकीर्ण बुर्जुआ सुधारकों का दृष्टिकोण। यह धर्म के मूल की पर्याप्त व्याख्या नहीं करता, यह उसकी भौतिकवादी नहीं, बल्कि आदर्शवादी व्याख्या करता है।
आधुनिक पूँजीवादी देशों में धर्म की ये जड़ें मूलतः सामाजिक हैं। आज धर्म की सबसे गहरी जड़ मेहनतकश अवाम की सामाजिक रूप से पददलित स्थिति और पूँजीवाद की अन्धी शक्तियों के समक्ष उसकी प्रकटतः पूर्ण असहाय स्थिति है, जो हर रोज और हर घण्टे सामान्य मेहनतकश जनता को सर्वाधिक भयंकर कष्टों और सर्वाधिक असभ्य अत्याचारों से संत्रस्त करती है, और ये कष्ट और अत्याचार असामान्य घटनाओं-जैसे युद्धों, भूचालों, आदि-से उत्पन्न कष्टों से हजारों गुना अधिक कठोर हैं। “भय ने देवताओं को जन्म दिया।” पूँजी की अन्धी शक्तियों का भय-अन्धी इसलिये कि उन्हें सर्वसाधारण अवाम सामान्यतः देख नहीं पाता-एक ऐसी शक्ति है जो सर्वहारा वर्ग और छोटे मालिकों की जिन्दगी में हर कदम पर “अचानक,” अप्रत्याशित, आकस्मिक, तबाही-बरबादी, गरीबी, वेश्यावृत्ति, भूख से मृत्यु का खतरा ही नहीं उत्पन्न करती, बल्कि इनसे अभिशप्त भी करती है। ऐसा है आधुनिक धर्म का मूल, जिसे प्रत्येक भौतिकवादी को सबसे पहले ध्यान में रखना चाहिए, यदि वह बच्चों के स्कूल का भौतिकवादी नहीं बना रहना चाहता। जनता के दिमाग से, जो कठोर पूँजीवादी श्रमत द्वारा दबी-पिसी रहती है और जो पूंजीवाद की अन्धी विनाशकारी शक्तियों की दया पर आश्रित रहती है, शिक्षा देने वाली कोई भी किताब धर्म का प्रभाव तब तक नहीं मिटा सकती, जब तक कि जनता धर्म के इस मूल से, स्वयं संघर्ष करना, पूँजी के शासन के सभी रूपों के खिलाफ़ ऐक्यबद्ध, संगठित, सुनियोजित और सचेत ढंग से संघर्ष करना नहीं सीख लेती है।
तो क्या इसका यह अर्थ है कि धर्म के विरुद्ध शिक्षा देने वाली किताबें हानिकारक या अनावश्यक हैं? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। इसका अर्थ यह है कि सोशल डेमाक्रेसी (कम्युनिज्म) का नास्तिकवादी प्रचार उसके बुनियादी कर्तव्य के अधीन होना चाहिए। यह बुनियादी कर्तव्य है, शोषकों के विरुद्ध शोषित जनता के वर्ग संघर्ष का विकास।“
(इसी नाम के लेख का एक अंश)
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